भाव-विलास
देव, संपादक लक्ष्मीनिधि चतुर्वेदी

वाराणसी: तरुण भारत ग्रंथावली कार्यालय, पृष्ठ ८ से – १३ तक

 

 

२—विभाव
दोहा

जे विशेष करि रसनि को, उपजावत हैं भाव।
भरतादिक सतकवि सबै, तिनको कहत बिभाव॥
ते विभाव द्वै भांति के, कोविद कहत बखानि।
आलम्बन कहि देव अरु, उद्दीपन उर आनि॥

शब्दार्थ—रसनिको—रसों का। उपजावत—उत्पन्न करते हैं।

भावार्थ—जो भाव रसों को उत्पन्न करते हैं उन्हें भरतादिक आचार्य विभाव कहते हैं। विभावों को कवियों ने दो तरह का कहा है। एक आलम्बन और दूसरा उद्दीपन

(क) आलम्बन
दोहा

रस उपजै आलम्बि जिहिं, सो आलम्बन होइ।
रसहि जगावै दीप ज्यों, उद्दीपन कहि सोइ॥

शब्दार्थ—उपजै—उत्पन्न हो। आलम्बि—आश्रय पाकर।

भावार्थ—जिनका आश्रय पाकर रसों की उत्पत्ति होती है, उसे आलम्बन और जो रसों को उद्दीप्त करते हैं वे उद्दीपन कहलाते हैं।  

उदाहरण
सवैया

चितदै चितऊं जित ओर सखी, तित नन्दकिशोर की ओर ठई।
दसहू दिस दूसरौ देखति ना, छबि मोहन की छिति माह छई॥
कवि कहा लों कछू कहिये, प्रतिमूरति हौं उनही की भई।
बृजबासिन कौ बृज जानि परै, न भयो बृजरी बृजराज मई॥

शब्दार्थ—चितदै—मन लगाकर। चितऊं—देखती हूँ। जित ओर—जिस तरफ़। तित—उधर। दसहू दिस—दसों दिशाओं में। छिति—पृथ्वी। प्रतिमूरति—प्रतिमूर्त्ति, छाया।

(ख) उद्दीपन
दोहा

गीत नृत्य उपवन गवन, आभूषन वन केलि।
उद्दीपन शृङ्गार के, बिधु, बसन्त, बन बेलि॥

शब्दार्थ—नृत्य—नाच। उपवन गवन—बगीचों का जाना। बनकेलि—बनक्रीड़ा। विधु—चन्द्रमा।

भावार्थ—गाना, नाचना, बगीचों में जाना, गहने पहनना, बनक्रीड़ा करना, चन्द्रमा, और बसन्त ये शृङ्गार के उद्दीपन हैं।

उदाहरण पहला—(गीत)
सवैया

आली अलापि बसन्त मनोरम मूरतिवन्त मनोज दिखावनि।
पंचमनाद निखादहि में सुर, मूरछना गन ग्राम सुभावनि॥

 

देव कहै मधुरी धुनि सौं, परवीन ललै कर बीन बजावनि।
बावरी सी हौं भई सुनि आजु, गई गड़ि जी मैं गुपाल की गावनि॥

शब्दार्थ—आली—सखि। अलापि—गाकर। मूरतिवन्त—प्रत्यक्ष। मनोज—कामदेव। पंचम नाद, निखाद (निपाद)—स्वरों के भेद। सुर—स्वर। मूरछना—मूर्छना—जो दो स्वरों के बीच में बोली जाय। ग्राम—स्वरों का एक भेद। मधुरी—सुन्दर, मीठी। धुनि—ध्वनि, आवाज़। बावरी सी—पागल सी, उन्मत्त सी। बीन—वाद्य विशेष। गई गडि—चुभ गयी। जी मैं—मन में, दिल में। गावनि—गीत, गाना।

उदाहरण दूसरा—(नृत्य)
सवैया

पीरी पिछौरी के छोर छुटे, छहरै छबि मोर पखान की जामैं।
गोधन की गति बैनु बजैं, कविदेव सबै सुनि के धुनि आमै॥
लाज तजी गृह काज तजे, मन मोहि रही सिगरी बृज बामै।
कालिंदी कूल कदम्ब के कुंज, करैं तम तोम तमासौ सो तामै॥

शब्दार्थ—पीरी—पीली। छहरै—शोभा देती है। जामैं—जिसमें। धुनि—ध्वनि। आमैं—आते हैं। तजी—छोड़ी। सिगरी—सब। बृजबामैं—बृज की स्त्रियाँ। कालिंदी—यमुना। कूल—किनारा। तमतोम—घना अन्धकार। तमासो—तमाशा। सो—समान। तामैं—उसमें।

उदाहरण तीसरा—(उपवन-गवन)
सवैया

बाग चली वृषभान लली सुनि, कुंजनि मैं पिकपुञ्ज पुकारनि‌‌।
तैसिय नूतन नूत लतान मैं, गुञ्जत भौंर भरे मधु भारनि॥

 

मोहि लई कविदेवन तें, अति रूप रचे बिकचे कचनारनि।
हेरत ही हरनीनयना को, हरो हियरा हरि के हिय हारनि॥

शब्दार्थ—वृषभानलली—राधिका। मैं—में। पिक-पुञ्ज—कोयलों का समूह। पुकारनि—बोल। तैसिय—वैसे ही। नूतन—नयी। नूत—अनोखा अनूठा गुञ्जत-गुंजारते हैं। भरे मधु भारनि—मधु के बोझ लदे हुए। बिकचे—खिले हुए। हेरत ही—देखते ही। हरनीनयना—हरिनी जैसे नैनों वाली। हरो—हरण किया, मोह लिया। हियरा—हृदय। हिय-हारनि—हृदय के हारों ने।

उदाहरण चौथा—(आभूषण)

खोरि मैं खेलन ल्याई सखी, सब बालको भेष बनाइ नवीनो।
आरसी में निज रूप निहारि, अनङ्ग तरङ्गनि सो मनु भीनो॥
जोति जवाहर हारन की मिलि, अञ्चल को छल क्यों पट भीनो।
हेरि इतै हरिनीनयना हरि, हैरत हेरि हरै हंसि दीनो॥

शब्दार्थ—खोरि—गली, संकुचित मार्ग। नवीनो—नय। आरसी—दर्पण। अनङ्ग—कामदेव। पट—कपड़ा। झीनो—महीन। हेरि—देखकर।

उदाहरण पाँचवां—(बन-केलि)
सवैया

सोहे सरोवर बीच बधूबर, ब्याह को वेष बन्यो बर लीक सो।
लाज गड़े गुरु लोगन की पट, गांठि दै ठाड़े करैं इक ठीक सो॥
न्हात पमारी से प्यारी के ओठ ते, झूठौ मजीठ निहारि नजीक सो
तीकी रंगी अँखियाँ अनुराग सों, पी की वहै पिकबैनी की पीक सो॥

 

शब्दार्थ—सोहे—अच्छी लगें। पमारी—मूंगा। मजीठ—लालरंग की औषधिविशेष। नजीक—निकट, पास। पी—पति। पिकबैनी—कोयल जैसी मधुर बोलनेवाली।

उदाहरण छठा—(विधु)
सवैया

दिन द्वैक तें सासुरे आई बधू, मन में मनु लाज को बीजबयो।
कविदेव सखी के सिखायें मरूकै, नह्यो हिय नाह को नेहनयो॥
चितबावत चैत की चन्द्रिका ओर, चितै पति को चित चोरिलयो।
दुलही के विलोचन वानन कौ, ससि आज को सान समानभयो॥

शब्दार्थ—मरूकैं—मुशकिल से। नह्यो—उत्पश्च हुआ। नाह—पति। नेह—स्नेह, प्रेम। चन्द्रिका—चांदनी। ससि—चन्द्रमा। सान—सिल्ली, धार रखने का पत्थर।

उदाहरण सातवां—(वसन्त)
सवैया

हेरत ही हरि लीनो हियो इन, आल रसाल सिरीष जम्हीरन।
चंपक बेली गुलाब जुही, पिचुमन्द मधूक कदम्ब कुटीरनि॥
खोलत काम कथा पिक बोलत, डोलत चंदन मन्द समीरनि।
केसर हार सिंगारन हू, करना कचनार कनैर करीरनि॥

शब्दार्थ—आल—वृक्षविशेष। रसाल—आम। सिरीष—वृक्षविशेष। जन्हीरनि—जम्बीरी नीबू, मरुआ। चंपक, गुलाब, जुही पिचुमन्द—पुष्प विशेष। पिक—पपीहा, कोयल। समीरनि—हवा। केसर, हार सिंगार, कचनार, कनैर, करीरनि—वृक्ष विशेष।  

दोहा

निज निज के संजोग तैं, रस जिय उपजतु होइ।
औरौं विविध विभाव बहु, बरनैं कवि सब कोइ॥

शब्दार्थ—निज निज—अपने अपने। जिय—हृदय में। विविध—बहुत तरह के, अनेक प्राकर के।

भावार्थ—अपने-अपने संयोगों के कारण हृदय में भिन्न भिन्न रसों की उत्पत्ति होती है अतः उनके अनुसार कवि लोगों ने विभागों के और भी बहुत से भेद बतलाये हैं।

उदाहरण
सवैया

सुनि के धुनि चातक मोरनि की, चहुँओरनि कोकिल कूकनि सों।
अनुराग भरे हरि बागन में, सखि रागतराग अचूकनि सों॥
कविदेव घटा उनई जुनई, बन भूमि भई दल टूकनि सों।
रंगराती हरी हहराती लता, झुकि जाती समीर की झूकनि सों॥

शब्दार्थ—अनुराग भरे—प्रेम में भरे हुए। अचूकनि सों—बिना चूके। घटा—बादल। उनई—उठी। हहराती—हिलती। समीर—हवा। झूकनि—झोंका।