भारतेंदु-नाटकावली/९–सतीप्रताप (सातवाँ दृश्य)
सातवाँ दृश्य
( स्थान-घोर अरण्य। एक बड़े वृक्ष के नीचे सत्यवान मूर्छित सा पड़ा है और सावित्री उसका सिर अपने गोद में रक्खे अत्यंत व्याकुल बैठी है )
सावित्री---प्राणनाथ, जीवनधन, यह तुम्हे क्या हुआ? अरे अभी तो अच्छे विच्छे हम से बिदा होकर आये थे, अभी यह क्या दशा हो गई? हाय! यह गुलाब की पत्ती सा कोमल सुंदर मुख इतनी ही देर में ऐसा श्याम क्यो हो गया? अरे कोई दौड़ो रे--किसी वैद्य गुणी को बुलायो--( कुछ ठहर कर ) हाय! यहाँ कौन बैठा है जो मेरी इस विपत्ति में सहायता करेगा। हे दीनानाथ, अशरण-शरण! मुझे सिवाय तेरे और कोई अवलंब इस समय नहीं है। देखो तुम्हारे रहते मैं अबला इस घोर बन में अनाथों की तरह लूटी जाती हूँ। मुझे बचाओ।
सत्यवान---( कुछ सचेत होकर सावित्री की ओर देख कर ) प्रिये! तुम यहाँ कहाँ? मैं तो चला, मेरे कारण तुम्हें बड़े बड़े कष्ट उठाने पड़े, मुझे क्षमा करना और कभी कभी इस अभागे का भी स्मरण करना। ( कुछ रुक कर ) पिता से मेरी बहुत तरह से प्रणाम कहना और कहना कि मुझे इस बात का बड़ा खेद है कि मैं आपकी सेवा बहुत कम करने पाया, मेरे अपराधों को आप क्षमा करें। मातृ-चरण में भी मेरा प्रणाम पहुँचाना। मुझे बड़ा ही दुःख है कि मैं अंत समय उनके दर्शन न कर सका। तुम अपने सास ससुर की सेवा बड़ी सावधानता से करना, भगवान के चरणों में सदा स्नेह रखना ( घबड़ाहट नाट्य कर के ) उह! अब चले, कंठ सूखा जाता है। बड़ी प्यास लगी है पानी---पानी---
सावित्री---( घबड़ाकर ) हाय! यहाँ पात्र भी नहीं कि पानी लाऊँ। ( दौड़ कर अंचल में भिंगा कर पास के तालाब से पानी लाकर सत्यवान के मुँह में निचोड़ती है )
सत्यवान---( कुछ स्थिर हो जाता है) धन्य देवी, धन्य। इस समय तुम ने मानों अमृत के बूंद चुभा दिये।
सावित्री---इन सब बातों को रहने दीजिये, यह बतलाइए अभी तो आप अच्छे चंगे थे अभी यहाँ क्या हो गया?
सत्यवान---( मुमुर्षु अवस्था में ) मैं---तुम---से---विदा होकर लकड़ी चुनने आया। इस झाड़ी में घुस कर उस सूखे वृक्ष की लकड़ी ज्यो ही काटी मुझे जान पड़ा मानों मेरा सिर एक दम उड़ा जाता है। ऐसी भारी वेदना मेरे सिर में अकस्मात उठी कि मैं किसी तरह सम्हल न सका, किसी किसी तरह झाड़ी से निकला, यहाँ तक आते आते तो असुध हो कर गिरही पड़ा। फिर मुझे कुछ ज्ञान नहीं, जब ज्ञान हुआ तो तुम्हें बैठे पाया---उह! बड़ी ज्वाला है, शरीर झुका जाता है---अब चला---( मूर्छित हो जाता है )
( नेपथ्य में गान)
यमदूत हैं हम भूत हैं मजबूत हैं रन में।
सोने के घर को ख़ाक हमीं करते हैं छन में॥
सावित्री---हाय! क्या यमदूत आ गये? क्या अब मुझ से प्राणनाथ का वियोग हो हीगा? कभी नहीं--कभी नहीं--यदि हमारा सतीत्व सत्य है तो देखते हैं यमदूतों की क्या सामर्थ्य है जो प्राणनाथ के अंग को छु भी सकें।
( अधकार हो जाता है और यमदूत आते हैं )
यमदूतगण---( गाते हैं और नाचते हैं )
यमदूत हैं हम भूत हैं मज़बूत हैं रन में।
सेाने के घर को ख़ाक हमीं करते हैं छन में॥
हो बादशाह या कि भिखारी हो कोई हो।
ज्ञानी हो या कि पापी हो जो चाहे जोई हो।।
इक दिन सभी हमारे ही चंगुल में फँसैंगे।
उस दिन किसी फरेब से हमसे न बचैंगे।।
हम मुश्क बाँध बाँध के सबको ले जायँगे।
हम कूद कूद खूब ही डंडे लगायँगे।।
{{block centerहम जिसको लेंगे उससे ज़रा भी न डरैगे।
जो कुछ कि जी में आवैगा हम वोही करेंगे।।}}
यमदूत हैं हम भूत हैं-
एक दूत---अरे तुम सब नीचा हो जाया करोगे या कुछ काम भी करोगे?
सब---( घबड़ा कर ) हाँ हाँ, चलो भाई सत्यवान के प्राण को अभी प्रभु के पास ले चलना है। ( सब आगे बढ़ते हैं )
एक दूत---( डर कर ) हैं यहाँ तो आग सी जल रही है, किसकी सामर्थ है जो इस में कूदैगा। ( सब आश्चर्य और भय से उसी ओर देखते हैं )
दूसरा---सच तो, हमने भी असंख्य जीवों के प्राण लिए, यही करते जन्म बीता, पर ऐसा चमत्कार कभी नहीं देखा था। अब महाराज से चल कर क्या कहैंगे?
तीसरा---छि---तुम सब निरे डरपोक हो, हम लोग रात दिन के नरकाग्नि में रहनेवाले लोग हमारा इस आग से क्या होना है देखो हम अभी लाते हैं। ( सत्यवान के पास तक जाता है और बड़े ज़ोर से चिल्ला कर "अरे बाप रे मरे रे" कह कर अचेत हो गिरता है )
सब---( मारे डर के कॉपते हुए ) भाइयो जान बचाना हो तो जल्दी यहाँ से भागो। जो दशा देखते हैं वही वहाँ निवेदन कर देंगे। एक दूत--ज़रा ठहरो एक बेर इनसे यह तो कहना चाहिये कि ये हट जायँ देखै क्या कहती हैं तब वैसा चल कर कहैंगे।
दूसरा---तुम्हें अपनी जान भारी पड़ी हो तो कहो, हम तो न कहेंगे।
पहिला---( साहसपूर्वक दूर से हाथ जोड़कर ) देबी! तुम ज़रा सा हट जाओ तो हमारे प्रभु की जो आज्ञा है वह करके हम लोग शीघ्र ही प्रभु के पास जायँ। अब व्यर्थ दुःख करने का क्या फल।
सावित्री---( तीक्ष्ण दृष्टि से देख कर ) ख़बरदार, एक पैर भी आगे मत रखना। जा कर अपने प्रभु से कह दो कि प्राण रहते हुए इस शरीर को न छूने दूँगी।
सब---( घबड़ा कर ) अरे बाप रे जले रे ( सब भागते हैं )
( नेपथ्य में गान )
( राग पीलू या जंगला )
"जग में पतिब्रत सम नहिं आन।
नारि-हेतु कोउ धर्म न दूजो जग में यासु समान॥
अनुसूया सीता सावित्री इनके चरित प्रमान।
पतिदेवता तीय जग धन धन गावत वेद पुरान॥
धन्य देस कुल जहँ निवसत हैं नारी सती सुजान।
धन्य समय जब जन्म लेत ये धन्य ब्याह असथान।।
पूरे हुए हैं; अच्छा हमें अब बहुत देर होती है।
सावित्री--हाय! आपको मुझ अबला पर तनिक भी दया नहीं आती!
यम---सावित्री! हम क्या करै, हमारी क्षमता के बाहर जो बात है वह हम कैसे कर सकते हैं? सत्यवान के सिवाय तुम और जो कुछ चाहो हम देने को प्रस्तुत हैं।
सावित्री---महाराज! मेरे बूढ़े सास ससुर की आँखें जाती रही हैं सो आप कृपा करके दे।
यम---एवमस्तु। अच्छा ले अब हट जाओ। ( सावित्री हट जाती है और यमराज सत्यवान के प्राणवायु को लेकर जाते हैं और पीछे पीछे सावित्री भी जाती है )
( नेपथ्य में गान )
"तुझ पर काल अचानक टूटेगा।
गाफिल मत हो लवा बाज ज्यों हँसी खेल में लूटैगा॥
कब आवैगा, कौन राह से प्रान कौन बिधि छूटैगा।
यह नहिं जानि परैगी बीचहि यह तन दरपन फूटेगा।।
तब न बचावैगा कोई जब काल दंड सिर कूटेगा।
'हरीचंद' एक वही बचेगा जो हरिपद रस घूटैगा॥"
( वह पर्दा हट जाता है, दूसरा दृश्य घोर अरण्य अंधकार मय दिखाई पड़ता है। आगे आगे यमराज पीछे पीछे रोती हुई सावित्री का प्रवेश ) यम---( फिर कर सावित्री को देखकर ) देवि! तुम क्यों हमारे साथ आती हो? जानो अपने घर। होना था सो तो हो चुका।
सावित्री--सूने घर में जाकर क्या करै? जहाँ सत्यवान वहीं सावित्री।
यम---तुम्हारे सतीत्व से हम अत्यंत संतुष्ट हुए। सत्यवान के प्राण व्यतीत और जो इच्छा हो सो मॉगो।
सावित्री--महाराज! जो आप प्रसन्न हैं तो हमारे ससुर का राज्य जो शत्रुओ ने छीन लिया है सो फेर मिलै।
यम---तथास्तु। अच्छा अब तुम फिर जायो।
( यमराज आगे बढ़ते हैं, सावित्री पीछे पीछे चलती है। वह पर्दा उठ जाता है दूसरा दृश्य भयानक वन महा अंधकार )
यम---( पीछे देख कर ) ऐं! तुम अभी भी नहीं गईं! क्यों व्यर्थ का प्रयास करती हौ---जाओ---अब सत्यवान का मिलना असम्भव ही समझो।
सावित्री---धर्मराज! एक बात और भी प्रार्थनीय है।
यम---सत्यवान के सिवाय और जो कुछ चाहो मिल सकता है।
सावित्री---महाराज! मेरे श्वसुर कुल में वंश चलानेवाला कोई नहीं है इससे मुझे यह घर दीजिये कि सत्यवान से मुझे एक सौ लड़के हों।
पर्दा उठ जाता है। दूसरा दृश्य स्वर्ग का द्वार महाउज्वल तीन अप्सरा हाथ में माला लिये खडी हैं )
अप्सरागण---आओ सावित्री के जीवन।
बहुत दिनन की आसा पूजी अधर-सुधा रस पीवन॥
तुव हित प्रेम-मालिका गूथो पहिरावै निज हाथ।
निर्भय है नंदन बन बिहरै पलहूँ तजै न साथ॥१॥
यम--( पीछे सावित्री को देखकर ) क्या तुम अभी तक हमारे साथ ही हो?
सावित्री---महाराज! क्या अपने दिये हुए वर को अभी भूल गये? सत्यवान का प्राण-वायु मुझे दीजिये।
यम---धन्य देवो धन्य! मैं तुमसे हारा। यद्यपि विधाता के नियम के विरुद्ध है तथापि मैं तुम्हें सत्यवान का जीवदान करता हूँ। ( सत्यवान का प्राणदान ) अाज से मैंने जाना संती नारी को सब कुछ करने की सामर्थ्य है; संसार में सती का अकर्तव्य कोई काम नहीं है। सावित्री! तुम्हारी यह विमल यशध्वजा अनंत काल तक संसार में उड़ती रहैगी, तुम्हारा पवित्र गुण-गान संसार को पावन करता रहैगा और तुम्हारा पूजनीय नाम पतिव्रता स्त्रियों का सर्वस्व होगा। अहा! इस अलौकिक सतीत्व के आगे मुझे भी पराजित होना पड़ा। सतीत्व की जय---सावित्री की जय। ( यही शब्द चारों ओर से प्रतिध्वनित होता है और अाकाश से पुष्प-वृष्टि होती है। तीनों अप्सरा सावित्री को बीच में कर के नाचती और गाती हैं।
गायो सब मिलि प्रेम बधाई।
पतिप्राना नारी के आगे काहू की न बसाई॥
पतिहि जिवायो निज सतीत्व बल कालहु दियोहराई।
इनके यश को सुभग पताका तीन लोक फहराई॥
थाप्यो थिर करि प्रेम पंथ जगनिज आदर्श दिखाई।
देव-वधूगन आनन्दित है प्रेम बधाई गाई॥१॥
( सावित्रो वहाँ से चलती है और एक एक कर के वही दृश्य दिखलाई पड़ते हैं जो सावित्री को यमराज के साथ दिखलाई पड़े थे। अंत में वन का वह दृश्य दिखलाई पडता है जिसमें सत्यवान का मृत शरीर पड़ा है। सावित्री उसमें प्राण सस्थापन करती है और सत्यवान उठता है जैसे कोई सोता हुआ जागे )
सत्यवान---( अंगड़ाई लेकर ) उफ! कैसा भयानक दुःस्वप्न मैंने देखा है। मानो कोई महा विकराल मूर्ति धारण किये महाकाल मेरे प्राण को लेकर चला है। रास्ते में कैसे कैसे घोर वन और भयानक नर्ककुंड मिले हैं, जिसके स्मरण होने ही से रोमांच हो जाता है। फिर मानो वह महाकाल स्वर्ग के द्वार पर मुझे ले गया है, वहाँ मुझे वरण करने के लिये तीन अप्सरा खड़ी हैं, इतने में मानो किसी स्वर्गीय देवी ने मेरा प्राणदान महाकाल से ले लिया है, और वह देवी मानो हूबहू तुम्हीं हो। उफ! कलेजा काँपता है, हे जगदीश रक्षा करो।
सावित्री—नाथ! डरिये मत, अब कुछ चिंता नहीं यह सब सत्य था, स्वप्न न था पर अब कुछ डर नहीं।
सत्यवान—ऐं! क्या यह सब सच था? क्या मुझे महाकाल के पास से तुम्हीं छुड़ा लाई? धन्य देवी धन्य! (घबड़ाहट का नाट्य करता है) अह! बेतरह सिर घूमता है। समझ नहीं पड़ता, जागता हूँ या सोया।
(नारद मुनि बीन बजाते गाते आते हैं)
"बोलो कृष्ण कृष्ण राम राम परम मधुर नाम
गोविंद गोविंद केशव केशव, गोपाल गोपाल॥
माधव माधव, हरि हरि हरि बंशीधर बंशीधर श्याम।
नारायण वासुदेव नंदनंदन जगबंदन वृंदावन चारु चंद्र गरेगुंजदाम॥
'हरिचंद' जनरंजन सरन सुखद मधुर मूर्ति राधापति पूर्ण करन सतत भक्त काम ॥१॥"
(सत्यवान, सावित्री प्रणाम करते हैं)
नारद—मंगलमय भगवान श्रीकृष्णचंद्र सदा तुम लोगो का मंगल करै। (सावित्री से) सावित्री! आज तूने सतीकुल का मुख उज्वल किया, आज तुमने सतीत्व की ध्वजा फहराई, जो अनंत काल तक उड्डीयमान रहेगी। तुम्हारा यश देवांगनागण गाकर अपने का धन्य मानैंगी और तुम्हारी पुण्यकथा संसार को पवित्र करैगी।
(लवंगी, मधुकरी और सुरबाला का प्रवेश)
सखीत्रय—वाह, सखी वाह! तुममें इतने गुण भरे हैं यह हम लोगों को तनिक भी विदित न था। धन्य तुम्हारा सतीत्व।
नारद—(सत्यवान से) पुत्र! तुम्हारा धन्य भाग्य है जो तुमने ऐसी सती स्त्री पाई। (सावित्री का हाथ सत्यवान के हाथ में देते हैं) लो आज फिर मैं तुम्हें इस अमूल्य रत्न को सौंपता हूँ, इसे यत्न से रखना।
(तीनों सखी और अप्सरागण सावित्री-सत्यवान को बीच में करके नाचती और गाती हैं। रंगशाला में खूब प्रकाश हो जाता है)
जय जय सावित्री महरानी।
सती-सिरोमनि रूपरासि करुनामय सब गुनखानी॥
प्रेममयी निज पति के पद में छाया सी लपटानी।
इनके जस की सुभग पताका तीन लोक फहरानी॥
अचल प्रताप सतीत्व धरम को थाप्यो जग सुखदानी।
सतीमंडली भूषण ह्वै है इनकी प्रेम कहानी ॥१॥
(आकाश से पुष्पवृष्टि होती है और जवनिका गिरती है)