भारतेंदु-नाटकावली/५–मुद्राराक्षस/सप्तम अंक

भारतेंदु-नाटकावली
भारतेन्दु हरिश्चंद्र, संपादक ब्रजरत्नदास

इलाहाबाद: रामनारायणलाल पब्लिशर एंड बुकसेलर, पृष्ठ ५२४ से – ५३६ तक

 

सप्तम अंक

स्थान---सूली देने का मसान

( पहिला चांडाल आता है )

चांडाल---हटो लोगो हटो, दूर हो भाइयो, दूर हो। जो अपना प्राण, धन और कुल बचाना हो तो दूर हो। राजा का विरोध यत्नपूर्वक छोड़ा।

करि कै पथ्य-विरोध इक रोगी त्यागत प्रान।
पै बिरोध नृप सो किए नसत सकुल नर जान।।

जो न मानो तो इस राजा के विरोधी को देखो जो स्त्री-पुत्र समेत यहाँ सूली देने को लाया जाता है। ( ऊपर देखकर ) क्या कहा कि 'इस चंदनदास के छूटने का कुछ उपाय भी है?' भला इस बिचारे के छूटने का कौन उपाय है। पर हॉ, जो यह मंत्री राक्षस का कुटुंब दे दे तो छूट जाय। ( फिर ऊपर देखकर ) क्या कहा कि यह 'शरणागतवत्सल प्राण देगा पर यह बुरा कर्म न करेगा।' तो फिर इसकी बुरी गति होगी क्योंकि बचने का तो वही एक उपाय है।

( कंधे पर सूली रखे मृत्यु का कपड़ा पहिने चंदनदास, उसकी स्त्री और पुत्र दूसरा चांडाल आते हैं ) स्त्री-हाय हाय! जो हम लोग नित्य अपनी बात बिगड़ने के डर से फूँ-फूँककर पैर रखते थे उन्हीं हम लोगों की चारों को भॉति मृत्यु होती है। काल देवता को नमस्कार है, जिसको मित्र उदासीन सभी एक से हैं, क्योंकि---

छोड़ि मांस-भख मरन-भय जियहिं खाइ तृन घास।
तिन गरीब मृग को करहिं निरदय ब्याधा नास॥

( चारों ओर देखकर )

अरे भाई जिणुदास! मेरी बात का उत्तर क्यो नहीं देते? हाय! ऐसे समय में कौन ठहर सकता है।

चंदन०---( ऑसू भरकर ) हाय! यह मेरे सब मित्र विचारे कुछ नहीं कर सकते, केवल रोते हैं और अपने को अकर्मण्य समझ शोक से सूखा-सूखा मुँह किए ऑसू-भरी आँखों से एकटक मेरी ही ओर देखते चले आते हैं।

दोनों चांडाल---अजी चंदनदास! अब तुम फॉसी के स्थान पर आ चुके इससे कुटुंब को बिदा करो।

चंदन०---( स्त्री से ) अब तुम पुत्र को लेकर जाओ, क्योंकि आगे तुम्हारे जाने की भूमि नहीं है।

स्त्री---ऐसे समय में तो हम लोगों को बिदा करना उचित ही है, क्योंकि आप परलोक जाते हैं, कुछ परदेश नहीं जाते।

(रोती है) चंदन०---सुनो, मैं कुछ अपने दोष से नहीं मारा जाता, एक मित्र के हेतु मेरे प्राण जाते हैं, तो इस हर्ष के स्थान पर क्यों रोती है?

स्त्री----नाथ! जो यह बात है तो कुटुंब को क्यों बिदा करते हो?

चंदन०---तो फिर तुम क्या कहती हो?

स्त्री---( आँसू भरकर ) नाथ! कृपा करके मुझे भी साथ ले चलो।

चंदन०---हा! यह तुम कैसी बात कहती हो? अरे! तुम इस बालक का मुँह देखो और इसकी रक्षा करो, क्योंकि यह बिचारा कुछ भी लोकव्यवहार नहीं जानता। यह किसका मुँह देख के जीएगा?

स्त्री---इसकी रक्षा कुलदेवी करेंगी। बेटा! अब पिता फिर न मिलेंगे इससे मिलकर प्रणाम कर ले।

बालक---( पैरो पर गिरके ) पिता! मैं आपके बिना क्या करूँगा?

चंदन०---बेटा, जहाँ चाणक्य न हो वहाँ बसना।

दोनों चांडाल---( सूली खड़ी करके ) अजो चंदनदास! देखो, सूली खड़ी हुई, अब सावधान हो जाओ।

स्त्री---( रोकर ) लोगो, बचाओ! अरे ! कोई बचाओ!

चंदन०---भाइयो, तनिक ठहरो। ( स्त्री से ) अरे! अब तुम रो-रोकर क्या नंदों को स्वर्ग से बुला लोगी? अब वे लोग यहाँ नहीं हैं जो स्त्रियों पर सर्वदा दया रखते थे। १ चांडाल---अरे वेणुवेत्रक! पकड़ इस चंदनदास को, घरवाले आप ही रो-पीटकर चले जायँगे।

२ चांडाल---अच्छा वज्रलोमक, मैं पकड़ता हूँ।

चंदन०---भाइयो! तनिक ठहरो, मैं अपने लड़के से तो मिल लूँ। ( लड़के को गले लगाकर और माथा सूँघकर ) बेटा! मरना तो था ही पर एक मित्र के हेतु मरते हैं इससे सोच मत कर।

पुत्र--पिता, क्या हमारे कुल के लोग ऐसा ही करते आए हैं? (पैर पर गिर पड़ता है)।

२ चांडाल---पकड़ रे वज्रलोमक! ( दोनों चंदनदास को पक- ड़ते हैं )

स्त्री---लोगो! बचाओ रे, बचाओ!

( वेग से राक्षस आता है )

राक्षस---डरो मत, डरो मत। सुनो सुनो, घातको! चंदनदास को मत मारना, क्योंकि----

नसत स्वामिकुल जिन लख्यौ निज चख शत्रु-समान।
मित्रदुःख हू मैं धरयौ निलज होइ जिन प्रान॥
तुम सों हारि बिगारि सब कढ़ी न जाकी सांस।
ता राक्षस के कंठ मैं डारहु यह जमफाँस॥

चंदन०---( देखकर और आँखों में आँसू भरकर ) अमात्य, यह क्या करते हो? राक्षस---मित्र, तुम्हारे सञ्चरित्र का एक छोटा सा अनुकरण।

चंदन०---अमात्य, मेरा किया तो सब निष्फल हो गया, पर आपने ऐसे समय यह साहस अनुचित किया।

राक्षस---मित्र चंदनदास! उलाहना मत दो, सभी स्वार्थी हैं। ( चांडाल से ) अजी! तुम उस दुष्ट चाणक्य से कहो।

दोनों चांडाल---क्या कहें?

राक्षस----

जिन कलि मैं हू मित्र-हित तृन-सम छोड़े प्रान।
जाके जस-रबि सामुहे सिवि-जस दीप समान॥
जाको अति निर्मल चरित, दया आदि नित जानि।
बौद्धहु सब लजित भए, परम शुद्ध जेहि मानि॥
ता पूजा के पात्र को मारत तू धरि पाप।
जाके हित सो शत्रु तुव आयो इत मैं आप॥

१ चांडाल----अरे वेणुवेत्रक! तू चंदनदास को पकड़कर इस मसान के पेड़ की छाया में बैठ, तब से मंत्री चाणक्य को मैं समाचार दूँ कि अमात्य राक्षस पकड़ा गया।

२ चांडाल---अच्छा रे वज्रलोमक! ( चंदनदास, स्त्री, बालक और सूली को लेकर जाता है )

१ चांडाल---( राक्षस को लेकर घूमकर ) अरे! यहाँ पर कौन है? नंदकुल-सेनासंचय के चूर्ण करनेवाले वज्र से, वैसे ही मौर्यकुल में लक्ष्मी और धर्म स्थापना करनेवाले, आर्य चाणक्य से कहो---

राक्षस---( आप ही आप) हाय! यह भी राक्षस को सुनना लिखा था!

१ चांडाल---कि आप की नीति ने जिसकी बुद्धि को घेर लिया है, वह अमात्य राक्षस पकड़ा गया।

( परदे में सब शरीर छिपाए केवल मुँह खोले चाणक्य आता है )

चाणक्य---अरे कहो, कहो।

किन जिन बसननि मैं धरी कठिन अगिनि की ज्वाल?
रोकी किन गति वायु की डोरिन ही के जाल?
किन गजपति-मईन प्रबल सिंह पींजरा दीन?
किन केवल निज बाहु-बल पार समुद्रहि कीन?

१ चांडाल---परमनीतिनिपुण आप ही ने तो।

चाणक्य---अजी! ऐसा मत कहो, वरन् "नंदकुलद्वेषी देने" यह कहो।

राक्षस---( देखकर आप ही आप ) अरे! क्या यही दुरात्मा पा महात्मा कौटिल्य है?

<poem>

सागर जिमि बड्ड रत्नमय तिमि सब गुन की खानि। तोष होत नहिं देखि गुन बैरी हू निज जानि॥

चाणक्य---( देखकर ) अरे! यही अमात्य राक्षस हैं?

जिस महात्मा ने---

दुख सों सोचत सदा जागत रैन बिहाय।
मेरी मति अरु चंद्र की सैनहि दई थकाय॥

( परदे से बाहर निकलकर ) अजी अजी अमात्य राक्षस! मैं विष्णुगुप्त आपको दंडवत् करता हूँ। ( पैर छूता है )

राक्षस---( आप ही आप ) अब मुझे अमात्य कहना तो केवल मुँह चिढाना है। ( प्रगट ) अजी विष्णुगुप्त! मैं चांडालों से छू गया हूँ इससे मुझे मत छूओ।

चाणक्य---अमात्य राक्षस! वह श्वपाक नहीं है, वह आपका जाना-सुना सिद्धार्थक नामा राजपुरुष है और दूसरा भी समिद्धार्थक नामा राजपुरुष हो है; और इन्हीं दोनों द्वारा विश्वास उत्पन्न करके उस दिन शकटदास को धोखा देकर मैंने वह पत्र लिखवाया था।

राक्षस---( आप ही आप ) अहा! बहुत अच्छा हुआ कि मेरा शकटदास पर से संदेह दूर हो गया।

चाणक्य---बहुत कहाँ तक कहूँ--

वे सब भद्रटादि, यह सिद्धार्थक, वह लेख।
यह भदंत, वह भूषनहु, वह नट भारत भेख॥
वह दुख चन्दनदास को, जो कछु दियो दिखाय।
से सब मम ( लज्जा से कुछ सकुचकर )
सो सब राजा चंद्र को तुम सो मिलन उपाय॥
देखिए, यह राजा भी आपसे मिलने आप ही आते हैं।

राक्षस---( आप ही आप ) अब क्या करें? ( प्रगट ) हाँ! मैं

देख रहा हूँ।

( सेवकों के संग राजा आता है )

राजा---( आप ही आप ) गुरुजी ने बिना युद्ध ही दुर्जय शत्रु का कुल जीत लिया इसमें कोई संदेह नहीं। मैं तो बड़ा लज्जित हो रहा हूँ, क्योंकि----

है बिनु काम लजाय करि नीचो मुख भरि सोक।
सोवत सदा निषंग में मम बानन के थोक॥
सोवहिं धनुष उतारि हम जदपि सकहिं जग जीति।
जा गुरु के जागत सदा नीति-निपुण गत-भीति॥

( चाणक्य के पास जाकर ) आर्य! चन्द्रगुप्त प्रणाम करता है।

चाणक्य---वृषल! अब सब असीस सच्ची हुई, इससे इन पूज्य अमात्य राक्षस को नमस्कार करो, यह तुम्हारे पिता के सब मंत्रियो में मुख्य हैं।

राक्षस---( आप ही आप ) लगाया न इसने संबंध---

राजा---( राक्षस के पास जाकर ) आर्य! चंद्रगुप्त प्रणाम करता है।

राक्षस---( देखकर आप ही आप ) अहा! यही चंद्रगुप्त है!

होनहार जाको उदय बालपने ही जोइ।
राज लह्यौ जिन बाल गज जूथाधिप सम होइ॥

( प्रगट ) महाराज! जय हो।

राजा---आर्य!

तुमरे पाछत बहुरि गुरु जागत नीति-प्रवीन।
कहहु कहा या जगत में जाहि न जय हम कीन॥

राक्षस---( आप ही आप ) देखो, यह चाणक्य का सिखाया- पढ़ाया मुझसे कैसी सेवकों की सी बात करता है! नहीं-नहीं, यह आप ही विनीत है। अहा! देखो, चंद्रगुप्त पर डाह के बदले उलटा अनुराग होता है। चाणक्य सब स्थान पर यशस्वी है, क्योंकि---

पाइ स्वामि सतपात्र जो मंत्री मूरख होइ।
तौहू पावै लाभ जस, इत तौ पंडित दोइ॥
मूरख स्वामी लहि गिरै चतुर सचिव हू हारि।
नदी-तीर-तरु जिमि नसत जीरन है लहि बारि॥

चाणक्य---क्यो अमात्य राक्षस! आप क्या चंदनदास के प्राण बचाया चाहते हैं?

राक्षस---इसमें क्या संदेह है?

चाणक्य---पर अमात्य! आप शस्त्र ग्रहण नहीं करते, इससे संदेह होता है कि आपने अभी राजा पर अनुग्रह नहीं किया, इससे जा सच ही चंदनदास के प्राण बचाया चाहते हों तो यह शस्त्र लीजिए।

राक्षस---सुनो विष्णुगुप्त! ऐसा कभी नहीं हो सकता, क्योंकि हम उस योग्य नहीं; विशेष करके जब तक तुम शस्त्र ग्रहण किए हो तब तक हमारे शस्त्र ग्रहण करने का क्या काम है?

चाणक्य---भला अमात्य! आपने यह कहाँ से निकाला कि हम योग्य हैं और आप अयोग्य हैं? क्योंकि देखिए---

रहत लगामहिं कसे अश्व की पीठ न छोड़त।
खान पान असनान भोग तजि मुख नहिं मोड़त॥
छूटे सब सुख-साज नींद नहिं आवत नयनन।
निसि दिन चौंकत रहत वीर सब भय धरि निज मन॥
वह हैादन सों सब छन कस्यो नृप-गजगन अवरेखिए।
रिपुदर्प-दूर-कर अति प्रबल निज महात्मबल देखिए॥

वा इन बातो से क्या! आपके शस्त्र ग्रहण किए बिना तो चंदनदास बचता भी नहीं।

राक्षस---( आप ही आप )

नंद-नेह छूट्यौ नहीं दास भए अरि साथ।
ते तरु कैसे काटिहैं जे पाले निज हाथ॥
कैसे करिहैं मित्र पै हम निज कर सों घात।
अहो भाग्य-गति अति प्रबल मोहिकछु जानि न जात॥

( प्रकाश ) अच्छा विष्णुगुप्त! मँगायो खड्ग "नमस्सर्व- कार्यप्रतिपत्ति हेतवे सुहृत्स्नेहाय" देखो, मैं उपस्थित हूँ।

चाणक्य---( राक्षस को खड्ग देकर हर्ष से ) राजन् वृषल! बधाई है, बधाई है! अब अमात्य राक्षस ने तुम पर अनुग्रह किया। अब तुम्हारी दिन-दिन बढ़ती ही है।

राजा---यह सब आपकी कृपा का फल है।

( पुरुष आता है )

पुरुष---जय हो महाराज की, जय हो! महाराज! भद्रभट- भागुरायणादिक मलयकेतु को हाथ-पैर बाँधकर लाए हैं और द्वार पर खड़े हैं। इसमें महाराज की क्या आज्ञा होती है?

चाणक्य---हॉ, सुना। अजी! अमात्य राक्षस से निवेदन करो, अब सब काम वही करेंगे।

राक्षस---( आप ही आप ) कैसे अपने वश में करके मुझी से कहलाता है। क्या करें? ( प्रकाश ) महाराज, चंद्रगुप्त! यह तो आप जानते ही हैं कि हम लोगों का मलयकेतु का कुछ दिन तक संबंध रहा है। इससे उसका प्राण तो बचाना ही चाहिए।

( राजा चाणक्य का मुँह देखता है )

चाणक्य---महाराज! अमात्य राक्षस की पहिली बात तो सर्वथा माननी ही चाहिए। ( पुरुष से ) अजी! तुम भद्रभटादिकों से कह दो कि "अमात्य राक्षस के कहने से महाराज चंद्रगुप्त मलयकेतु को उसके पिता का राज्य देते हैं" इससे तुम लोग संग जाकर उसको राज पर बिठा आओ। पुरुष---जो आज्ञा।

चाणक्य---अजी अभी ठहरो, सुनो! दुर्गपाल विजयपाल से यह कह दो कि अमात्य राक्षस के शस्त्र ग्रहण से प्रसन्न होकर महाराज चंद्रगुप्त यह आज्ञा करते हैं कि "चंदनदास को सब नगरों का जगत्सेठ कर दो।"

पुरुष---जो आज्ञा।

[जाता है

चाणक्य---चंद्रगुप्त! अब और मैं क्या तुम्हारा प्रिय करूँ?

राजा---इससे बढ़कर और क्या भला होगा?

मैत्री राक्षस सो भई, मिल्यो अकंटक राज।
नंद नसे सब अब कहा यासों बढ़ि सुख-साज॥

चाणक्य---( प्रतिहारी से) विजये! दुर्गपाल विजयपाल से कहो कि "अमात्य राक्षस के मेल से प्रसन्न होकर महाराज चंद्रगुप्त आज्ञा करते हैं कि हाथी, घोड़ों को छोड़कर और सब बँधुओ का बंधन छोड़ दो" वा जब अमात्य राक्षस मंत्री हुए तब अब हाथी-घोड़ों का क्या सोच है? इससे---

सब गज तुरग अब कछु मत राखौ बाँधि।
केवल हम बॉधत सिखा निज परतिज्ञा साधि॥

( शिखा बांधता है )

प्रतिहारी---जो आज्ञा।

[ जाती है

चाणक्य---अमात्य राक्षस! मैं इससे बढ़कर और कुछ भी आपका प्रिय कर सकता हूँ?

राक्षस---इससे बढकर और हमारा क्या प्रिय होगा? पर जो इतने पर भी संतोष न हो तो यह आशीर्वाद सत्य हो----

"वाराहीमात्मयोनेस्तनुमतनुबलामास्थितस्यानुरूपां
यस्य प्राग्दन्तकाटिम्प्रलयपरिगता शिश्रिये भूतधात्री।
म्लेच्छेरुद्वेज्यमाना भुजयुगमधुना पीवरं राजमूर्तेः
स श्रीमद्वन्धुभृत्यश्चिरमवतु महीम्पार्थिवश्चंद्रगुप्तः॥"

( सब जाते हैं )