भारतेंदु-नाटकावली/५–मुद्राराक्षस/प्रथम अंक

भारतेंदु-नाटकावली
भारतेन्दु हरिश्चंद्र, संपादक ब्रजरत्नदास

इलाहाबाद: रामनारायणलाल पब्लिशर एंड बुकसेलर, पृष्ठ ४०२ से – ४२४ तक

 

प्रथम अंक

स्थान---चाणक्य का घर

( अपनी खुली शिखा को हाथ से फटकारता हुआ चाणक्य आता है )

चाणक्य---बता! कौन है जो मेरे जीते चंद्रगुप्त को बल से ग्रसना चाहता है?

सदा दंति के कुंभ को जो बिदारै।
ललाई नए चंद सी जौन धारै॥
अँभाई समै काल सो जौन बाढे।
भलो सिंह को दाँत सो कौन काढै?

और भी

कालसर्पिणी नंद-कुल, क्रोध धूम सी जौन।
अबहूँ बाँधन देत नहि, अहो शिखा मम कौन?
दहन नंदकुल-बन सहज, अति प्रज्वलित प्रताप।
को मम क्रोधानल-पतँग, भयो चहत अब पाप॥

शारंगरव! शारंगरव!!

( शिष्य आता है )

शिष्य---गुरुजी! क्या आज्ञा है?

चाणक्य---बेटा! मैं बैठना चाहता हूँ। शिष्य---महाराज! इस दालान में बेंत की चटाई पहिले ही से बिछी है, आप बिराजिए।

चाणक्य---बेटा! केवल कार्य में तत्परता मुझे व्याकुल करती है, न कि और उपाध्यायों के तुल्य शिष्यजन से दुःशीलता*। ( बैठकर आप ही आप ) क्या सब लोग यह बात जान गए कि मेरे नंदवंश के नाश से क्रुद्ध होकर राक्षस, पितावध से दुखी मलयकेतु से मिलकर यवनराज की सहायता लेकर चंद्रगुप्त पर चढ़ाई किया चाहता है। ( कुछ सोचकर ) क्या हुआ, जब मैं नंदवंश-वध की बड़ी प्रतिज्ञारूपी नदी से पार उतर चुका, तब यह बात प्रकाश होने ही से क्या मैं इसको न पूरा कर सकूँगा? क्योंकि---

दिसि सरिस रिपु-रमनी बदन-शशि शोक कारिख लाय कै।
लै नीति-पवनहि सचिव-बिटपन छार डारि जराय कै॥
बिनु पुर निवासी पच्छिगन नृप बंसमूल नसाय कै।
भो शांत मम क्रोधाग्नि यह कछु दहन हित नहिं पाय कै॥

और भी

जिन जनन ने अति सोच सों नृप-भय प्रगट धिक नहिं कह्यो।


  • अर्थात् कुछ तुम लोगों पर दुष्टता से नहीं, अपने काम की,

घबराहट से बिछी हुई चटाई नहीं देखी।

नंदवंश अर्थात् नव नंद---एक नंद और उसके आठ पुत्र।

पर्वतेश्वर राना का पुत्र।

अग्नि बिना आधार नहीं जलती।

पै मम अनादर को अतिहि यह सोच जिय जिनके रह्यो*॥
ते लखहि ,आसन सों गिरायो नंद सहित समाज कों।
जिमि शिखर तें बनराज क्रोध गिरावई गजराज को॥

सो यद्यपि मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर चुका हूँ, तो भी चन्द्रगुप्त के हेतु शस्त्र अब भी धारण करता हूँ। देखो मैने---

नव नंदन कौं मूल सहित खोद्यो छन भर में।
चन्द्रगुप्त मैं श्री राखी नलिनी जिमि सर में॥
क्रोध प्रीति सों एक नासि कै एक बसायो।
शत्रु मित्र को प्रकट सबन फल लै दिखलायो॥

अथवा जब तक राक्षस नहीं पकड़ा जाता तब तक नंदों के मारने ही से क्या और चन्द्रगुप्त को राज्य मिलने से ही क्या? ( कुछ सोचकर ) अहा! राक्षस की नंदवंश में कैसी दृढ़ भक्ति है! जब तक नंदवंश का कोई भी जीता रहेगा तब तक वह कभी शूद्र का मंत्री बनना स्वीकार न करेगा, इससे उसके पकड़ने में हम लोगों को निरुधम रहना अच्छा नहीं। यही समझकर तो नंदवंश का सर्वार्थसिद्धि बिचारा तपोवन में चला गया तो भी हमने मार डाला। देखो, राक्षस मलयकेतु को मिलाकर हमारे बिगाड़ने में यत्न करता ही जाता है। ( आकाश में देख---


  • नंद ने कुरूप होने के कारण चाणक्य को अपने श्राद्ध से निकाल दिया था। कर ) वाह राक्षस मंत्री वाह! क्यों न हो! वाह मंत्रियों में वृहस्पति के समान वाह! तू धन्य है, क्योंकि---

जब लौं रहै सुख राज को तब लौं सबै सेवा करै।
पुनिराज बिगड़े कौन स्वामी? तनिक नहिं चित में धरै॥
जे बिपतिहू में पालि पूरब प्रीति काज सँवारहीं।
ते धन्य नर तुम सारिखे दुरलभ अहैं संसय नहीं॥

इसी से तो हम लोग इतना यत्न करके तुम्हें मिलाया चाहते हैं कि तुम अनुग्रह करके चंद्रगुप्त के मंत्री बनो, क्योंकि---

मूरख कातर स्वामिभक्त कछु काम न आवै।
पंडित हू बिन भक्ति काज कछु नाहिं बनावै॥
निज स्वारथ की प्रीति करैं ते सब जिमि नारी।
बुद्धि भक्ति दोउ होय तबै सेवक सुखकारी॥

सो मै भी इस विषय में कुछ सोता नहीं हूँ, यथाशक्ति उसी के मिलाने का यत्न करता रहता हूँ। देखो, पर्वतक को चाणक्य ने मारा यह अपवाद न होगा, क्योंकि सब जानते हैं कि चंद्रगुप्त और पर्वतक मेरे मित्र हैं तो मैं पर्वतक को मारकर चंद्रगुप्त का पक्ष निर्बल कर दूँगा ऐसा शंका कोई न करेगा, सब यही कहेंगे कि राक्षस ने विषकन्या-प्रयोग करके चाणक्य के मित्र पर्वतक को मार डाला। पर एकांत में राक्षस ने मलयकेतु के जी में यह सब काम सिद्ध करेगा, इससे मेरा सब काम बन गया है परंतु चंद्रगुप्त सब राज्य का भार मेरे ही ऊपर रखकर सुख करता है। सच है, जो अपने बल बिना और अनेक दुःखों के भोगे बिना राज्य मिलता है वही सुख देता है।

क्योंकि---

अपने बल सों लावहीं जद्यपि मारि सिकार।
तदपि सुखी नहिं होत हैं, राजा-सिह-कुमार॥

( *यम का चिन्न हाथ में लिए योगी का वेष धारण किए दूत आता है )

दूत---

अरे, और देव को काम नहि, जम को करो प्रनाम।
जो दूजन के भक्त को, प्रान हरत परिनाम॥

और

उलटे ते हू बनत है, काज किए अति हेत।
जो जम जी सबको हरत, सोई जीविका देत।

तो इस घर में चलकर जमपट दिखाकर गावें। ( घूमता है )

शिष्य---रावलजी! ड्योढ़ी के भीतर न जाना।

दूत---अरे ब्राह्मण! यह किसका घर है?

शिष्य---हम लोगों के परम प्रसिद्ध गुरु चाणक्यजी का।

दूत---( हँसकर ) अरे ब्राह्मण, तब तो यह मेरे गुरुभाई ही का घर हैं; मुझे भीतर जाने दे, मैं उसको धर्मोपदेश करूँगा।


  • उस काल में एक चाल के फकीर जम का चित्र दिखलाकर

संसार की अनित्यता के गीत गाकर भीख माँगते थे। शिष्य---( क्रोध से ) छिः मूर्ख! क्या तू गुरुजी से भी धर्म विशेष जानता है?

दूत---अरे ब्राह्मण! क्रोध मत कर, सभी सब कुछ नहीं जानते, कुछ तेरा गुरु जानता है, कुछ मेरे से लोग जानते हैं।

शिष्य---( क्रोध से ) मूर्ख! क्या तेरे कहने से गुरुजी की सर्वज्ञता उड़ जायगी?

दूत---भला ब्राह्मण! जो तेरा गुरु सब जानता है तो बतलावे कि चंद्र किसको नहीं अच्छा लगता?

शिष्य---मूर्ख! इसको जानने से गुरु को क्या काम?

दूत---यही तो कहता हूँ कि यह तेरा गुरु ही समझेगा कि इसके जानने से क्या होता है? तू तो सूधा मनुष्य है, तू केवल इतना ही जानता है कि कमल को चंद्र प्यारा नहीं है। देख---

जदपि होत सुंदर कमल, उलटो तदपि सुभाव।
जो नित पूरन चंद सों, करत बिरोध बनाव॥

चाणक्य---( सुनकर आप ही आप ) अहा! "मैं चंद्रगुप्त के बैरियों को जानता हूँ" यह कोई गूढ वचन से कहता है।

शिष्य---चल मूर्ख! क्या बेठिकाने की बकवाद कर रहा है।

दूत---अरे ब्राह्मण! यह सब ठिकाने की बातें होंगी।

शिष्य---कैसे होंगी?

दूत---जो कोई सुननेवाला और समझनेवाला होय। चाणक्य---रावलजी! बेखटके चले आइए, यहाँ आपको सुनने और समझने वाले मिलेंगे।

दूत---आया। ( आगे बढ़कर ) जय हो महाराज की।

चाणक्य---( देखकर आप ही आप ) कामों की भीड़ से यह नहीं निश्चय होता कि निपुणक को किस बात के जानने के लिये भेजा था। अरे जाना, इसे लोगों के जी का भेद लेने को भेजा था। ( प्रकाश ) आओ, आओ कहो, अच्छे हो? बैठो।

दूत---जो आज्ञा। ( भूमि में बैठता है )

चाणक्य---कहो, जिस काम को गए थे उसका क्या किया? चंद्रगुप्त को लोग चाहते हैं कि नहीं?

दूत---महाराज! आपने पहिले ही से ऐसा प्रबंध किया है कि कोई चंद्रगुप्त से बिराग न करे; इस हेतु सारी प्रजा महाराज चंद्रगुप्त में अनुरक्त है, पर राक्षस मंत्री के दृढ़ मित्र तीन ऐसे हैं जो चंद्रगुप्त की वृद्धि नहीं सह सकते।

चाणक्य---( क्रोध से ) अरे! कह, कौन अपना जीवन नहीं सह सकते, उनके नाम तू जानता है?

दूत---जो नाम न जानतातो आपके सामने क्योंकर निवेदन करता?

चाणक्य---मैं सुना चाहता हूँ कि उनके क्या नाम हैं?

दूत---महाराज सुनिए। पहिले तो शत्रु का पक्षपात करनेवाला क्षपणक है। चाणक्य---( हर्ष से आप ही आप ) हमारे शत्रुओं का पक्षपाती क्षपणक है? ( प्रकाश ) उसका नाम क्या है?

दूत---जीवसिद्धि नाम है।

चाणक्य---तूने कैसे जाना कि क्षपणक मेरे शत्रुओं का पक्षपाती है?

दूत---क्योंकि उसने राक्षस मंत्री के कहने से देव पर्वतेश्वर पर विषकन्या का प्रयोग किया।

चाणक्य---( आप ही आप ) जीवसिद्धि तो हमारा गुप्त दूत है। ( प्रकाश ) हाँ, और कौन है?

दूत---महाराज! दूसरा राक्षस मंत्री का प्यारा सखा शकटदास कायथ है।

चाणक्य---( हँसकर आप ही आप ) कायथ कोई बड़ी बात नहीं है तो भी क्षुद्र शत्रु की भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, इसी हेतु तो मैंने सिद्धार्थक को उसका मित्र बनाकर उसके पास रखा है। ( प्रकाश ) हॉ, तीसरा कौन है?

दूत---( हँसकर ) तीसरा तो राक्षस मंत्री का मानो हृदय ही पुष्पपुरवासी चंदनदास नामक वह बड़ा जौहरी है जिसके घर में मंत्री राक्षस अपना कुटुंब छोड़ गया है।

चाणक्य---( आप ही आप ) अरे। यह उसका बड़ा अंतरंग मित्र होगा; क्योंकि पूरे विश्वास बिना राक्षस अपना कुटुंब यो न छोड़ जाता। ( प्रकाश ) भला, तूने यह कैसे जाना कि राक्षस मंत्री वहाँ अपना कुटुंब छोड़ गया है?

दूत---महाराज! इस 'मोहर' की अँगूठी से आपको विश्वास होगा। ( अँगूठी देता है )।

चाणक्य---( अँगूठी लेकर और उसमें राक्षस का नाम बाँचकर प्रसन्न होकर आप ही आप ) अहा! मैं समझता हूँ कि राक्षस ही मेरे हाथ लगा। ( प्रकाश ) भला, तुमने यह अँगूठी कैसे पाई? मुझसे सब वृत्तांत तो कहो।

दूत---सुनिए, जब मुझे आपने नगर के लोगो का भेद लेने भेजा तब मैंने यह सोचा कि बिना भेस बदले मैं दूसरे के घर में न घुसने पाऊँगा, इससे मैं जोगी का भेस करके जमराज का चित्र हाथ में लिए फिरता-फिरता चंदनदास जौहरी के घर में चला गया और वहाँ चित्र फैलाकर गीत गाने लगा।

चाणक्य---हॉ, तब?

दूत---तब महाराज! कौतुक देखने को एक पॉच बरस का बड़ा सुंदर बालक एक परदे के आड़ से बाहर निकला। उस समय परदे के भीतर स्त्रियों में बड़ा कलकल हुआ कि "लड़का कहाँ गया।" इतने में एक स्त्री ने द्वार के बाहर मुख निकालकर देखा और लड़के को झट पकड़ ले गई, पर पुरुष की उँगली से स्त्री की उँगली पतली होती है, इससे द्वार ही पर यह अँगूठी गिर पड़ी, और मैं उस पर राक्षस मंत्री का नाम देखकर आपके पास उठा लाया।

चाणक्य---वाह-वाह! क्यों न हो। अच्छा जाओ, मैंने सब सुन लिया! तुम्हें इसका फल शीघ्र ही मिलेगा।

दूत---जो आज्ञा।

[ जाता है

चाणक्य---शारंगरव! शारंगरव!!

शिष्य---( आकर ) आज्ञा, गुरुजी।

चाणक्य---बेटा! कलम, दावात, कागज तो लाओ।

शिष्य---जो आज्ञा। ( बाहर जाकर ले आता है ) गुरुजी! ले आया।

चाणक्य---( लेकर आप ही आप ) क्या लिखूँ? इसी पत्र से राक्षस को जीतना है।

( प्रतिहारी आता है )

प्रतिहारी---जय हो, महाराज की जय हो!

चाणक्य---( हर्ष से आप ही आप ) वाह-वाह! कैसा सगुन हुआ कि कार्यारंभ ही में जय शब्द सुनाई पड़ा। ( प्रकाश ) कहो, शोणोत्तरा, क्यों आई हो?

प्रति०---महाराज! राजा चंद्रगुप्त ने प्रणाम कहा है और पूछा है कि मैं पर्वतेश्वर की क्रिया किया चाहता हूँ इससे आपकी आज्ञा हो तो उनके पहिरे आभरणों को पंडित ब्राह्मणों को दूँ।

चाणक्य---( हर्ष से आप ही आप ) वाह चंद्रगुप्त वाह, क्यों न हो; मेरे जी की बात सोचकर संदेशा कहला भेजा है। ( प्रकाश ) शोणोत्तरा! चंद्रगुप्त से कहो कि "वाह! बेटा वाह! क्यों न हो, बहुत अच्छा विचार किया! तुम व्यवहार में बड़े ही चतुर हो, इससे जो सोचा है सो करो, पर पर्वतेश्वर के पहिरे हुए आभरण गुणवान ब्राह्मणों को देने चाहिएँ, इससे ब्राह्मण मैं चुन के भेजूँगा।"

प्रति०---जो आज्ञा महाराज!

[ जाती है

चाणक्य---शारंगरव! विश्वावसु आदि तीनों भाइयों से कहो कि जाकर चंद्रगुप्त से श्राभरण लेकर मुझसे मिलें।

शिष्य---जो आज्ञा।

[ जाता है

चाणक्य---( आप ही आप ) पीछे तो यह लिखें पर पहिले क्या लिखें। ( सोचकर ) अहा! दूतो के मुख से ज्ञात हुआ है कि उस म्लेच्छराज-सेना में से प्रधान पाँच राजा परम भक्ति से राक्षस की सेवा करते हैं।

प्रथम चित्रवर्मा कुलूत को राजा भारी।
मलयदेशपति सिंहनाद दूजो बलधारी॥

तीजो पुसकरनयन अहै कश्मीर देश को।
सिंधुसेन पुनि सिंधु-नृपति अति उग्र भेष को॥

मेघाक्ष पाँचवो प्रबल अति, बहु हय-जुत पारस-नृपति।
अब चित्रगुप्त इन नाम कों मेटहिं हम जब लिखहिं हति*॥

( कुछ सोचकर ) अथवा न लिखूँ, अभी सब बात योंही रहे। ( प्रकाश ) शारंगरव! शारंगरव!!

शिष्य---( आकर ) आज्ञा गुरुजी!

चाणक्य---बेटा! वैदिक लोग कितना भी अच्छा लिखें तो भी उनके अक्षर अच्छे नहीं होते; इससे सिद्धार्थक से कहो ( कान में कहकर ) कि वह शकटदास के पास जाकर यह सब बात यो लिखवा कर और "किसी का लिखा कुछ कोई आप ही बाँचे" यह सरनामे पर नाम बिना लिखवाकर हमारे पास आवे और शकटदास से यह न कहे कि चाणक्य ने लिखवाया है।

शिष्य---जो आज्ञा।

[ जाता है

चाणक्य---( आप ही आप ) अहा! मलयकेतु को तो जीत लिया।


  • अर्थात् अब जब हम इनका नाम लिखते हैं तो निश्चय ये सब

मरेंगे। इससे अब चित्रगुप्त अपने खाते से इनका नाम काट दें, न ये जीते रहेंगे व चित्रगुप्त को लेखा रखना पड़ेगा।

भा० ना०---२०

( चिट्ठी लेकर सिद्धार्थक आता है )

सिद्धा०---जय हो महाराज की, जय हो, महाराज! यह शकट- दास के हाथ का लेख है।

चाणक्य---( लेकर देखता है ) वाह कैसे सुंदर अक्षर है! ( पढ़कर ) बेटा, इस पर यह मोहर कर दो।

सिद्धा०---जो आज्ञा। ( मोहर करके ) महाराज, इस पर मोहर हो गई, अब और कहिए क्या आज्ञा है।

चाणक्य---बेटा! हम तुम्हें एक अपने निज के काम में भेजा चाहते हैं।

सिद्धा०---( हर्ष से ) महाराज, यह तो आपकी कृपा है। कहिए, यह दास आपके कौन काम आ सकता है?

चाणक्य---सुनो, पहिले जहाँ सूली दी जाती है वहाँ जाकर फाँसी देनेवालों को दाहिनी ऑख दबाकर समझा देना* और जब वे तेरी बात समझकर डर से इधर-उधर भाग जायँ तब तुम शकटदास को लेकर राक्षस मंत्री के पास चले जाना। वह अपने मित्र के प्राण बचाने से तुम पर बड़ा प्रसन्न होगा और तुम्हे पारितोषक देगा, तुम उसको लेकर कुछ दिनों तक राक्षस ही के पास रहना और


  • चांडालों को पहले से समझा दिया था कि जो आदमी दाहिनी

आँख दबावे उसको हमारा मनुष्य समझकर तुम लोग झटपट हट जाना। जब और भी लोग पहुँच जायँ तब यह काम करना।

( कान में समाचार कहता है। )

सिद्धा०---जो आज्ञा महाराज।

चाणक्य---शारंगरव! शारंगरव!!

शिष्य---( आकर ) आज्ञा गुरुजी!

चाणक्य---कालपाशिक और दंडपाशिक से यह कह दो कि चंद्रगुप्त आज्ञा करता है कि जीवसिद्धि क्षपणक ने राक्षस के कहने से विषकन्या का प्रयोग करके पर्वतेश्वर को मार डाला, यही दोष प्रसिद्ध करके अपमानपूर्वक उसको नगर से निकाल दें।

शिष्य---जो आज्ञा। ( घूमता है )

चाणक्य---बेटा! ठहर-सुन, और वह जो शकटदास कायस्थ है वह राक्षस के कहने से नित्य हम लोगों की बुराई करता है। यही दोष प्रगट करके उसको सूली दे दें और उसके कुटुंब को कारागार में भेज दें।

शिष्य---जो आज्ञा महाराज।

[ जाता है

चाणक्य---( चिंता करके आप ही आप ) हा! क्या किसी भॉति यह दुरात्मा राक्षस पकड़ा जायगा?

सिद्धा०---महाराज! लिया।

चाणक्य---( हर्ष से आप ही आप ) अहा! क्या राक्षस को ले लिया? ( प्रकाश ) कहो, क्या पाया? सिद्धा०---महाराज! आपने जो संदेशा कहा, वह मैंने भली भाँति समझ लिया, अब काम पूरा करने जाता हूँ।

चाणक्य---( मोहर और पत्र देकर ) सिद्धार्थक! जा तेरा काम सिद्ध हो।

सिद्धा०---जो आज्ञा। ( प्रणाम करके जाता है )

शिष्य---( आकर ) गुरुजी, कालपाशिक, दंडपाशिक आपसे निवेदन करते है कि महाराज चंद्रगुप्त की आज्ञा पूर्ण करने जाते हैं।

चाणक्य---अच्छा, बेटा! मैं चंदनदास जौहरी को देखा चाहता हूँ।

शिष्य---जो आज्ञा। ( बाहर जाकर चंदनदास को लेकर आता है ) इधर आइए सेठजी!

चंदन०---( आप ही आप ) यह चाणक्य ऐसा निर्दय है कि यह जो एकाएक किसी को बुलावे तो लोग बिना अपराध भी इससे डरते हैं, फिर कहाँ मैं इसका नित्य का अपराधी, इसी से मैंने धनसेनादिक तीन महाजनों से कह दिया है कि दुष्ट चाणक्य जो मेरा घर लूट ले तो आश्चर्य नहीं, इससे स्वामी राक्षस का कुटुंब और कहीं ले जाओ, मेरी जो गति होनी है वह हो।

शिष्य---इघर आइए साहजी!

चंदन---आया।( दोनों घूमते हैं ) चाणक्य---( देखकर ) अाइए साहजी! कहिए, अच्छे तो हैं? बैठिए, यह आसन है।

चंदन०---( प्रणाम करके) महाराज! आप नहीं जानते कि अनु-चित सत्कार अनादर से भी विशेष दुःख का कारण होता है, इससे मैं पृथ्वी ही पर बैठूँगा।

चाणक्य---वाह! आप ऐसा न कहिए, आपको तो हम लोगों के साथ यह व्यवहार उचित ही है; इससे आप आसन ही पर बैठिए।

चंदन०---( आप ही आप ) कोई बात तो इस दुष्ट ने जानी। ( प्रकाश ) जो आज्ञा। ( बैठता है )

चाणक्य---कहिए साहजी! चंदनदास जी! आपको व्यापार में लाभ तो होता है न?

चंदन०---महाराज, क्यों नहीं, आपकी कृपा से सब बनज- व्यापार अच्छी भॉति चलता है।

चाणक्य---कहिए साहजी! पुराने राजाओं के गुण, चंद्रगुप्त के दोषों को देखकर, कभी लोगो को स्मरण आते हैं?

चंदन०---( कान पर हाथ रखकर ) राम! राम! शरद ऋतु के पूर्ण चंद्रमा की भॉति शोभित चंद्रगुप्त को देखकर कौन नहीं प्रसन्न होता?

चाणक्य---जो प्रजा ऐसी प्रसन्न है तो राजा भी प्रजा से कुछ अपना भला चाहते हैं। चंदन---महाराज! जो आज्ञा। मुझसे कौन और कितनी वस्तु चाहते हैं?

चाणक्य---सुनिए साहजी! यद नंद का राज* नहीं है, चंद्रगुप्त का राज्य है, धन से प्रसन्न होनेवाला तो वह लालची नंद ही था, चंद्रगुप्त तो तुम्हारे ही भले से प्रसन्न होता है।

चंदन---( हर्ष से ) महाराज, यह तो आपकी कृपा है।

चाणक्य---पर यह तो मुझसे पूछिए कि वह भला किस प्रकार से होगा?

चंदन०---कृपा करके कहिए।

चाणक्य---सौ बात की एक बात यह है कि राजा के विरुद्ध कामों को छोड़ो।

चंदन०---महाराज! वह कौन अभागा है जिसे आप राज-विरोधी समझते हैं?

चाणक्य---उनमें पहिले तो तुम्हीं हो।

चंदन०---( कान पर हाथ रखकर ) राम! राम! राम! भला तिनके से और अग्नि से कैसा विरोध?

चाणक्य---विरोध यही है कि तुमने राजा के शत्रु राक्षस मंत्री का कुटुंब अब तक घर में रख छोड़ा है।


  • यहाँ तुच्छता प्रगट करने के लिये 'राज्य' का अपभ्रंश "राज"

लिखा गया है। चंदन०---महाराज! यह किसी दुष्ट ने आपसे झूठ कह दिया है।

चाणक्य---सेठजी! डरो मत। राजा के भय से पुराने राजा के सेवक लोग अपने मित्रों के पास बिना चाहे भी कुटुंब छोड़कर भाग जाते हैं, इससे इसके छिपाने ही में दोष होगा।

चंदन०---महाराज! ठीक है। पहिले मेरे घर पर राक्षस मंत्री का कुटुंब था।

चाणक्य---पहिले तो कहा कि किसी ने झूठ कहा है। अब कहते हो था, यह गबड़े की बात कैसी?

चंदन०---महाराज! इतना ही मुझसे बातों में फेर पड़ गया।

चाणक्य---सुनो, चंद्रगुप्त के राज्य में छल का विचार नहीं होता, इससे राक्षस का कुटुंब दो, तो तुम सच्चे हो जाओगे।

चंदन०---महाराज! मैं कहता हूँ न, पहिले राक्षस का कुटुंब था।

चाणक्य---तो अब कहाँ गया?

चंदन०---न जाने कहाँ गया।

चाणक्य---( हँसकर ) सुनो सेठजी! तुम क्या नहीं जानते कि सॉप तो सिर पर बूटी पहाड़ पर। और जैसा चाणक्य ने नंद को ( इतना कह कर लाज से चुप रह जाता है।)

चंदन---( आप ही आप )

प्रिया दूर, घन गरजहीं, अहो दुःख अति घोर।
औषधि दूर हिमाद्रि पै, सिर पै सर्प कठोर॥

चाणक्य---चंद्रगुप्त को अब राक्षस मंत्री राज पर से उठा देगा यह आशा छोड़ो, क्योंकि देखो---

नृप नंद जीवत नीतिबल सों मति रही जिनकी भली।
ते "वक्रनासादिक" सचिव नहिं थिर सके करि, नसि चली॥
सो श्री सिमिटि अब आय लिपटी चंद्रगुप्त नरेस सो।
तेहि दूर को करि सकै? चाँदनि छुटत कहुँ राकेस सों? ॥

और भी

"सदा दंति के कुंभ को" इत्यादि फिर से पढता है।

चंदन०---( आप ही आप ) अब तुमको सब कहना फबता है।

( नेपथ्य में ) हटो हटो-

चाणक्य---शारंगरव! यह क्या कोलाहल है देखो तो?

शिष्य---जो आज्ञा ( बाहर जाकर फिर आकर ) महाराज, राजा चंद्रगुप्त की आज्ञा से राजद्वेषी जीवसिद्धि क्षपणक निरादरपूर्वक नगर से निकाला जाता है।

चाणक्य---क्षपणक! हा! हा! अथवा राजविरोध का फल भोगै। सुनो चंदनदास! देखो, राजा अपने द्वषियों को कैसा कड़ा दंड देता है। मैं तुम्हारे भले की कहता हूँ, सुनो, और राक्षस का कुटुंब देकर जन्म भर राजा की कृपा से सुख भोगो।

चंदन---महाराज! मेरे घर राक्षस मंत्री का कुटुंब नहीं है।

( नेपथ्य में कलकल होता है )

चाणक्य---शारंगरव! देख तो यह क्या कलकल होता है?

शिष्य---जो आज्ञा। ( बाहर जाकर फिर आता है ) महाराज! राजा की आज्ञा से राजद्वेषी शकटदास कायस्थ को सूली देने ले जाते है।

चाणक्य---राजविरोध का फल भोगे। देखो, सेठजी! राजा अपने विरोधियों को कैसा कड़ा दंड देता है, इससे राक्षस का कुटुंब छिपाना वह कभी न सहेगा; इसी से उसका कुटुंब देकर तुमको अपना प्राण और कुटुंब बचाना हो तो बचाओ।

चंदन०---महाराज! क्या आप मुझे डर दिखाते हैं! मेरे यहाँ अमात्य राक्षस का कुटुंब हई नहीं है, पर जो होता तो भी मैं न देता।

चाणक्य---क्या चंदनदास! तुमने यही निश्चय किया है?

चंदन०–--हाँ! मैंने यही दृढ़ निश्चय किया है।

चाणक्य---( आप ही आप ) वाह चंदनदास! वाह! क्यों न हो!

दूजे के हित प्रान दै, करै धर्म प्रतिपाल।
को ऐसो शिवि के बिना, दूजो है या काल॥

( प्रकाश ) क्या चंदनदास, तुमने यही निश्चय किया है?

चंदनदास०---हाँ! हाँ! मैंने यही निश्चय किया है।

चाणक्य---( क्रोध से ) दुरात्मा दुष्ट बनिया! देख राजकोप का कैसा फल पाता है।

चंदन---( बॉह फैलाकर ) मैं प्रस्तुत हूँ, आप जो चाहिए अभी दंड दीजिए।

चाणक्य---( क्रोध से ) शारंगरव! कालपाशिक, दंडपाशिक से मेरी आज्ञा कहो कि अभी इस दुष्ट बनिये को दंड दें। नहीं, ठहरो, दुर्गपाल विजयपाल से कहो कि इसके घर का सारा धन ले लें और इसको कुटुंब-समेत पकड़ कर बाँध रखें, तब तक मै चंद्रगुप्त से कहूँ, वह आप ही इसके सर्वस्व और प्राण के हरण की आज्ञा देगा।

शिष्य---जो आज्ञा महाराज। सेठजी इधर आइए।

चंदन०---लीजिए महाराज! यह मैं चला। ( उठकर चलता है, आप ही आप ) अहा! मैं धन्य हूँ कि मित्र के हेतु मेरे प्राण जाते हैं, अपने हेतु तो सभी मरते हैं।

( दोनों बाहर जाते हैं )

चाणक्य---( हर्ष से ) अब ले लिया है राक्षस को, क्योंकि

जिमि इन तृन सम प्रान तजि कियो मित्र को त्रान।
तिमि साहू निज मित्र अरु कुल रखिहै दै प्रान॥

( नेपथ्य में कलकल )

चाणक्य---शारंगरव!

शिष्य---( आकर ) आज्ञा गुरुजी!

चाणक्य---देख तो यह कैसी भीड़ है।

शिष्य---( बाहर जाकर फिर आश्चर्य से आकर ) महाराज! शकटदास को सूली पर से उतारकर सिद्धार्थक लेकर भाग गया।

चाणक्य--( आप ही आप ) वाह सिद्धार्थक। काम का आरंभ तो किया। ( प्रकाश ) हैं क्या ले गया? ( क्रोध से ) बेटा! दौड़कर भागुरायण से कहो कि उसको पकड़े।

शिष्य---( बाहर जाकर आता है, विषाद से ) गुरुजी! भागु- रायण तो पहिले ही से कहीं भाग गया है।

चाणक्य---( आप ही आप ) निज काज साधने के लिये जाय। ( क्रोध से प्रकाश ) भद्रभट, पुरुषदत्त, हिंगुराज, बलगुप्त, राजसेन, रोहिताक्ष और विजयवर्मा से कहो कि दुष्ट भागुरायण को पकड़ें।

शिष्य---जो आज्ञा। ( बाहर जाकर फिर आकर विषाद से ) महाराज! बड़े दुःख की बात है कि सब बेड़े का बेड़ा हलचल हो रहा है। भद्रभट इत्यादि तो सब पिछली ही रात भाग गए।

चाणक्य---( आप ही आप ) सब काम सिद्ध करें। ( प्रकाश ) बेटा, सोच मत करो।

जे बात कछु जिय धारि भागे, भले सुख सो भागहीं।
जे रहे तेहू जाहिं, तिनको सोच मोहि जिय कछु नहीं॥
सत सैन हू सो अधिक साधिनि काज की जेहि जग कहै।
सो नंदकुल की खननहारी बुद्धि नित मो मैं रहै॥

( उठकर और आकाश की ओर देखकर ) अभी भद्र-भटादिको को पकड़ता हूँ। ( आप ही आप ) राक्षस! अब मुझसे भाग के कहाँ जायगा, देख---

एकाकी मदगलित गज, जिमि नर लावहिं बॉधि।
चंद्रगुप्त के काज मैं तिमि तोहि धरिहौं साधि॥

( सब जाते हैं---जवनिका गिरती है )