भारतेंदु-नाटकावली/२–सत्य हरिश्चंद्र/द्वितीय अंक
द्वितीय अंक
स्थान---राजा हरिश्चंद्र का राजभवन
( रानी शैव्या * बैठी हैं और एक सहेली बगल में खड़ी है )
रानी---अरी! आज मैंने ऐसे बुरे-बुरे सपने देखे हैं कि जब से सोके उठी हूँ कलेजा कॉप रहा है। भगवान् कुशल करें।
सखी---महाराज के पुण्य-प्रताप से सब कुशल ही होगा, आप कुछ चिंता न करें। भला क्या सपना देखा है, मैं भी सुनूँ।
रानी---महाराज को तो मैंने सारे अंग में भस्म लगाए देखा है और अपने को बाल खोले, और ( आँखों में आँसू भरकर ) रोहिताश्व को देखा है कि उसे सॉप काट गया है।
सखी---राम! राम! भगवान् सब कुशल करेगा। भगवान् करे रोहिताश्व जुग-जुग जिए और जब तक गंगा-यमुना में पानी है, आपका सोहाग अचल रहे। भला आपने इसकी शांति का भी कुछ उपाय किया है?
- लहँगा, साडी, सब जनाना गहिना, बंदी, बेना इत्यादि।
साड़ी, सादा सिंगार। रानी---हॉ, गुरुजी से तो सब समाचार कहला भेजा है। देखो, वह क्या करते हैं।
सखी---हे भगवान्! हमारे महाराज, महारानी, कुँवर सब कुशल से रहें, मैं आँचल पसार के यह वरदान माँगती हूँ।
( ब्राह्मण * आता है )
ब्रा०---( आशीर्वाद देता है )
स्वस्त्यस्तु ते कुशलमस्तु चिरायुरस्तु
गोवाजिहस्तिधनधान्यसमृद्धिरस्तु।
ऐश्वर्यमस्तु कुशलोस्तु रिपुक्षयोस्तु।
संतानवृद्धिसहिता हरिभक्तिरस्तु॥
( रानी हाथ जोड़कर प्रणाम करती है )
ब्रा०---महाराज! गुरुजी ने यह अभिमंत्रित जल भेजा है। इसे महारानी पहिले तो नेत्रों से लगा ले और फिर थोड़ा सा पान भी कर ले और यह रक्षाबंधन भेजा है, इसे कुमार रोहिताश्व की दहनी भुजा पर बाँध दें, फिर इस जल से मैं मार्जन करूँगा।
रानी---( नेत्रों में जल लगाकर और कुछ मुँह फेरकर आचमन करके ) मालती! यह रक्षाबंधन तू सम्हाल के
- धोती, उपरना, सिर पर चुंदी वा सिर पर बाल, डाढ़ी, हाथों
में पवित्री, तिलक, खड़ाऊँ। अपने पास रख, जब रोहिताश्व मिले उसके दहिने हाथ पर बाँध दीजिओ।
सखी---जो आज्ञा। ( रक्षाबंधन अपने पास रखती है )
ब्रा०---तो अब आप सावधान हो जायँ, मैं मार्जन कर लूँ।
रानी---( सावधान होकर ) जो आज्ञा।
ब्रा०---( दूर्वा से मार्जन करता है )
देवास्त्वामभिषिञ्चन्तु ब्रह्मविष्णुशिवादयः।
गन्धर्वाः किन्नरा नागा रक्षां कुर्वन्तु ते सदा॥
पितरो गुह्यका यक्षा देव्यो भूताश्च मातरः।
सर्वे त्वामभिषिञ्चन्तु रक्षां कुर्वन्तु ते सदा॥
भद्रमस्तु शिवश्चास्तु महालक्ष्मीः प्रसीदतु।
पतिपुत्रयुता साध्वी जीव त्वं शरदां शतम्॥
( मार्जन का जल पृथ्वी पर फेंककर )
यत्पापं रोगमशुभं तद्दूरे प्रतिहतमस्तु।
( फिर रानी पर मार्जन करके )
यन्मङ्गलं शुभं सौभाग्यं धनधान्यमारोग्यम्बहुपुत्रत्वं तत्सर्वमीशप्रसादात् ब्राह्मणवचनात् त्वय्यस्तु॥
( मार्जन करके फूल-अक्षत रानी के हाथ में देता है )
रानी---( हाथ जोड़कर ब्राह्मण को दक्षिणा देती है ) महाराज, गुरुजी से मेरी ओर से विनती करके दंडवत् कह दीजिएगा।
ब्रा०---जो आज्ञा।
[ आशीर्वाद देकर जाता है
रानी---आज महाराज अब तक सभा में नहीं आए?
सखी---अब आते होगे, पूजा में कुछ देर लगी होगी।
( नेपथ्य में बैतालिक गाते हैं )
[ राग भैरव ]
प्रगटहु रवि-कुल-रवि निसि बीती प्रजा-कमल-गन फूले।
मंद परे रिपुगन तारा सम जन-भय-तम उनमूले॥
नसे चोर लंपट खल लखि जग तुव प्रताप प्रगटायो।
मागध-बंदी-सूत-चिरैयन मिलि कल रोर मचायो॥
तुव जस-सीतल-पौन परसि चटकी गुलाब की कलियाँ।
अति सुख पाइ असीस देत सोइ करि अँगुरिन चट अलियाँ॥
भए धरम मैं थित सब द्विजजन प्रजा काज निज लागे।
रिपु-जुवती-मुख-कुमुद मंद, जन-चक्रवाक अनुरागे॥
अरघ सरिस उपहार लिए नृप ठाढे तिन कहें तोखौ।
न्याय कृपा सों ऊँच नीच सम समुझि परसि कर पोखौ॥
( नेपथ्य में से बाजे की धुनि सुन पड़ती है )
रानी---महाराज ठाकुरजी के मंदिर से चले, देखो बाजों का शब्द सुनाई देता है और बंदी लोग भी गाते आते हैं। सखी---आप कहती हैं चले? वह देखिए आ पहुँचे, कि चले?
( रानी घबड़ाकर आदर के हेतु उठती है )
( *परिकर-सहित महाराज हरिश्चन्द्र आते हैं। रानी प्रणाम करती है और सब लोग यथास्थान बैठते हैं )
हरि०---( रानी मे प्रीतिपूर्वक ) प्रिये! आज तुम्हारा मुखचंद्र मलिन क्यों हो रहा है?
रानी---पिछली रात मैंने कुछ दुःस्वप्न ऐसे देखे हैं जिनसे चित्त व्याकुल हो रहा है।
हरि०---प्रिये! यद्यपि स्त्रियो का स्वभाव सहज ही भीरु होता है, पर तुम तो धीर-कन्या, वीर-पत्नी और वीर माता हो, तुम्हारा स्वभाव ऐसा क्यो?
रानी---नाथ! मोह से धीरज जाता रहता है।
हरि०---तो गुरुजी से कुछ शांति करने को नहीं कहलाया!
रानी---महाराज! शांति तो गुरुजी ने कर दी है।
- राजा के परिकर में प्रथम मत्री नीमा, पैजामा, कमरबंद, दुशाला, पगडी, सिरपेच सजे। दो मुसाहिब साधारण सभ्यों के वेष में। एक निशानवाला सेवक के भेष में। निशान पर सूर्य के नीचे "सत्ये नास्ति भयं क्वचित्" लिखा हुआ। चार शस्त्रधारी अंगरक्षक, दो सेवक।
सफेद वा केसरी जामा, पैजामा, कमरबंद, मर्दाना सब गहना, सिर पर किरीट वा पगड़ी, सिरपंच, तुर्रा, हाथ मे तलवार, दुशाला या कोई चमकता रूमाल ओढ़े। हरि०---तब क्या चिंता है? शास्त्र और ईश्वर पर विश्वास रखो, सब कल्याण होगा। सदा सर्वदा सहज मंगल-साधन करते भी जो आपत्ति आ पड़े तो उसे निरी ईश्वर की इच्छा ही समझ के संतोष करना चाहिए।
रानी---महाराज! स्वप्न के शुभाशुभ का विचार कुछ महाराज ने ग्रंथो में देखा है?
हरि०---( रानी की बात अनसुनी करके ) स्वप्न तो कुछ हमने भी देखा है। ( चिंतापूर्वक स्मरण करके ) हॉ, यह देखा है कि एक क्रोधी ब्राह्मण विद्यासाधन करने को सब दिव्य महाविद्याओ को खींचता है और जब मैं स्त्री जानकर उनको बचाने गया हूँ तो वह मुझी से रुष्ट हो गया है और फिर जब बड़े विनय से मैंने उसे मनाया है तो उसने मुझसे मेरा सारा राज्य माँगा है, मैंने उसे प्रसन्न करने को अपना सब राज्य दे दिया।
( इतना कहकर अत्यत व्याकुलता नाट्य करता है )
रानी---नाथ! आप एक साथ ऐसे व्याकुल क्यो हो गए?
हरि०---मैं यह सोचता हूँ कि अब मैं उस ब्राह्मण को कहाँ पाऊँगा और बिना उसकी थाती उसे सौंपे भोजन कैसे करूँगा?
रानी---नाथ! क्या स्वप्न के व्यवहार को भी आप सत्य मानिएगा? हरि०---प्रिये! हरिश्चंद्र की अर्द्धांगिनी गिनी होकर तुम्हे ऐसा कहना उचित नहीं है। हा! भला तुम ऐसी बात मुँह से निकालती हो! स्वप्न किसने देखा है? मैंने न। फिर क्या? स्वप्नसंसार अपने काल में असत्य है, इसका कौन प्रमाण है? और जो अब असत्य कहो, तो मरने के पीछे तो यह संसार भी असत्य है, फिर उसमें परलोक के हेतु लोग धर्माचरण क्यो करते हैं? दिया सो दिया, क्या स्वप्न में, क्या प्रत्यक्ष?
रानी---( हाथ जोड़कर ) नाथ! क्षमा कीजिए, स्त्री की बुद्धि ही कितनी!
हरि---( चिंता करके ) पर मैं अब करूँ क्या! अच्छा! प्रधान! नगर में डौंड़ी पिटवा दो कि राज्य को सब लोग आज से अज्ञातनाम-गोत्र ब्राह्मण का समझे, उसके अभाव में हरिश्चंद्र उसके सेवक की भॉति उसकी थाती समझके राजकार्य करेगा और दो मुहर राजकाज के हेतु बनवा लो, एक पर "अज्ञातनाम-गोत्र ब्राह्मण महाराज का सेवक हरिश्चंद्र" और दूसरे पर "राजाधिराज अज्ञात-नाम-गोत्र ब्राह्मण महाराज" खुदा रहे और आज से राज-काज के सब पत्रों पर भी यही नाम रहे। देश के राजाओ और बड़े-बड़े कार्याधीशों को भी आज्ञापत्र भेज दो कि महाराज हरिश्चंद्र ने स्वप्न में अज्ञातनाम-गोत्र ब्राह्मण को पृथ्वी दी है, इससे आज से उसका राज्य हरिश्चंद्र मंत्री की भॉति सँभालेगा।
( द्वारपाल आता है )
द्वार०---महाराजाधिराज! एक बड़ा क्रोधी ब्राह्मण दरवाजे पर खड़ा है और व्यर्थ हम लोगों को गाली देता है।
हरि०---( घबड़ाकर ) अभी आदरपूर्वक ले आओ।
द्वार०---जो आज्ञा।
[ जाता है
हरि०---यदि ईश्वरेच्छा से यह वही ब्राह्मण हो तो बड़ी बात है।
( द्वारपाल के साथ विश्वामित्र * आते हैं )
हरि०---( आदरपूर्वक आगे से लेकर और प्रणाम करके ) महाराज! पधारिए, यह आसन है।
विश्वा०---बैठे, बैठे, बैठ चुके, बोल, अभी तैने मुझे पहिचाना कि नहीं?
हरि०---( घबड़ाकर ) महाराज! पूर्वपरिचित तो आप ज्ञात होते हैं।
विश्वा०---( क्रोध से ) सच है रे क्षत्रियाधम! तू काहे को पहि- चानेगा। सच है रे सूर्यकुलकलंक! तू क्यो पहिचानेगा, धिक्कार है तेरे मिथ्या-धर्माभिमान को, ऐसे ही लोग
- जटा और डाढ़ी बढ़ाए, खडाऊँ पहने, गले में मृगछाला बाँधे,
धोती पर बाध की मोटी करधनी, एक हाथ में कुश और कमंडल। पृथ्वी को अपने बोझ से दबाते हैं। अरे दुष्ट! तै भूल गया; कल पृथ्वी किसको दान दी थी? जानता नहीं कि मैं कौन हूँ?
"जातिस्वयंग्रहणदुर्ललितैकविप्रं
दूप्यद्वशिष्ठसुतकाननधूमकेतुम्।
सर्गान्तराहरणभीतजगत्कृतान्त
चाण्डालयाजिनमवैषि न कौशिकं माम्॥"
हरि०---( पैरों पर गिरके बड़े विनय से ) महाराज! भला आपको त्रैलोक्य में ऐसा कौन है जो न जानेगा?
"अन्नक्षयादिषु तथा विहितात्मवृत्ति
राजप्रतिग्रहपराङ्मुखमानसं त्वाम्।
आडीबकप्रधनकम्पितजीवलोकं
कस्तेजसां च तपसां च निधिं न वेत्ति॥"
विश्वा०---( क्रोध से ) सच है रे पाप पाषंड, मिथ्यादानवीर! तू क्यों न मुझे "राज-प्रतिग्रह-पराङ्मुख" कहेगा; क्योंकि तैंने तो कल सारी पृथ्वी मुझे दान दी है, ठहर, ठहर देख, इस झूठ का कैसा फल भोगता है। हा! इसे देखकर क्रोध से जैसे मेरी दाहिनी भुजा शाप देने को उठती है वैसे ही जातिस्मरण संस्कार से बाईं भुजा फिर से कृपाण ग्रहण किया चाहती है। ( अत्यंत क्रोध से लंबी साँस लेकर और बॉह उठाकर ) अरे ब्रह्मा! सम्हाल अपनी सृष्टि को, नहीं तो परम तेजपुंज दीर्घ-तपोवर्द्धित मेरे आज इस असह्य क्रोध से सारा संसार नाश हो जायगा, अथवा संसार के नाश ही से क्या? ब्रह्मा का तो गर्व उसी दिन मैंने चूर्ण किया जिस दिन दूसरी सृष्टि बनाई, आज इस राजकुलांगार का अभि- मान चूर्ण करूँगा जो मिथ्या अहंकार के बल से जगत्में दानी प्रसिद्ध हो रहा है।
हरि०---( पैरों पर गिरके ) महाराज! क्षमा कीजिए, मैंने इस बुद्धि से नहीं कहा था, सारी पृथ्वी आपकी, मैं आपका, भला आप ऐसी क्षुद्र बात मुँह से निकालते हैं! ( ईषत् क्रोध से ) और आप बारंबार मुझे झूठा न कहिए। सुनिए, मेरी यह प्रतिज्ञा है---
"चंद टरै सूरज टरै, टरै जगत ब्यौहार।
मै दृढ़ श्री हरिचंद को, टरै न सत्य विचार॥"
विश्वा०---( क्रोध और अनादरपूर्वक हँसकर ) हहहह! सच है, सच है रे मूढ़। क्यों नहीं, आखिर सूर्यवंशी है। तो दे हमारी पृथ्वी।
हरि०---लीजिए, इसमें विलंब क्या है। मैंने तो आपके आगमन
के पूर्व ही से अपना अधिकार छोड़ दिया है। ( पृथ्वी की और देखकर ) जेहि पाली इक्ष्वाकु सों अबलौं रवि-कुल-राजा।
ताहि देत हरिचंद नृप विश्वामित्रहिं आज॥
वसुधे! तुम बहु सुख कियो मम पुरुषन की होय।
धरमबद्ध हरिचंद को छमहु सु परबस जोय॥
विश्वा०---( आप ही आप ) अच्छा! अभी अभिमान दिखा ले। तो मेरा नाम विश्वामित्र, जो तुझको सत्य-भ्रष्ट करके न छोड़ा और लक्ष्मी से तो हो ही चुका है। ( प्रगट ) स्वस्ति अब इस महादान की दक्षिणा कहाँ है?
हरि०---महाराज! जो आज्ञा हो वह दक्षिणा अभी आती है।
विश्वा०---भला दस सहस्र स्वर्णमुद्रा से कम इतने बड़े दान की दक्षिणा क्या होगी!
हरि०---जो अाज्ञा। ( मंत्री से ) मंत्री! दस हजार स्वर्ण मुद्रा अभी लाओ।
विश्वा---( क्रोध से ) "मंत्री! दस हजार स्वर्णमुद्रा अभी लाओ" मंत्री कहाँ से लावेगा? क्या अब खजाना तेरा है? झूठा कहीं का! देना नहीं था तो मुँह से कहा क्यो? चल, मैं नहीं लेता ऐसे मनुष्य की दक्षिणा।
हरि०---( हाथ जोड़ कर विनय से ) महाराज, ठीक है। खजाना अब सब आपका है, मैं भूला, क्षमा कीजिए। क्या हुआ खजाना नहीं है तो मेरा शरीर तो है।