भारतेंदु-नाटकावली/२–सत्य हरिश्चंद्र/तृतीय अंक में अंकावतार

भारतेंदु-नाटकावली
भारतेन्दु हरिश्चंद्र, संपादक ब्रजरत्नदास

इलाहाबाद: रामनारायणलाल पब्लिशर एंड बुकसेलर, पृष्ठ १८४ से – १८६ तक

 

तृतीय अंक में अंकावतार

स्थान---वाराणसी का बाहरी प्रांत तालाब

( पाप * आता है )

पाप---( इधर-उधर दौड़ता और हॉफता हुआ ) मरे रे मरे! जले रे जले!! कहाँ जायँ, सारी पृथ्वी तो हरिश्चंद्र के पुण्य से ऐसी पवित्र हो रही है कि कहीं हम ठहर ही नहीं सकते। सुना है कि राजा हरिश्चंद्र काशी गए हैं, क्योंकि दक्षिणा के वास्ते विश्वामित्र ने कहा कि सारी पृथ्वी तो हमको तुमने दान दे दी है, इससे पृथ्वी में जितना धन है सब हमारा हो चुका और तुम पृथ्वी में कहीं भी अपने को बेचकर हमसे उऋण नहीं हो सकते। यह बात जब हरिश्चंद्र ने सुनी तो बहुत ही घबराए और सोच-विचारकर कहा कि बहुत अच्छा महाराज, हम काशी में अपना शरीर बेचेंगे, क्योकि शास्त्रो में मिला है कि काशी पृथ्वी के बाहर शिव के त्रिशूल पर है। यह सुनकर हम भी दौड़े कि चलो हम भी काशी चलें, क्योकि जहाँ हरिश्चंद्र का राज्य न होगा वहाँ हमारे


  • काजल सा रंग, लाल नेत्र, महाकुरूप, हाथ में नंगी तलवार

लिए, नीला काछा काछे। प्राण बचेगे, सो यहाँ और भी उत्पात हो रहा है। जहाँ देखो वहाँ स्नान, पूजा, जप, पाठ, दान, धर्म होम, इत्यादि में लोग ऐसे लगे रहते हैं कि हमारी मानो जड़ ही खोद डालेंगे। रात-दिन शंख, घंटा की घनघोर ध्वनि के साथ वेद की धुनि मानो ललकार-ललकार के हमारे शत्रु धर्म की जय मनाती है और हमारे ताप से कैसा भी मनुष्य क्यों न तपा हो, भगवती भागीरथी के जलकण मिले वायु से उसका हृदय एक साथ ही शीतल हो जाता है। इसके उपरांत शिशिशि......ध्वनि अलग मारे डालती है। हाय! कहाँ जायँ क्या करे? हमारी तो संसार से मानो जड़ ही कटी जाती है, भला और जगह तो कुछ हमारी चलती भी है, पर यहाँ तो मानो हमारा राज ही नहीं, कैसा भी बड़ा पापी क्यों न हो यहाँ आया कि गति भई!

( नेपथ्य में )

सच है "येषां क्वापि गतिर्नास्ति तेषां वाराणसी गतिः"

पाप---अरे रे! यह कौन महा भयंकर भेष अंग में भभूत पोते, एड़ी तक जटा लटकाए, लाल-लाल आँख निकाले साक्षात् काल की भॉति त्रिशूल घुमाता चला आता है। प्राण! तुम्हें जो अपनी रक्षा करनी हो तो भागो पाताल में, अब इस समय भूमंडल में तुम्हारा ठिकाना लगना कठिन ही है।

( भागता हुआ जाता है )

( भैरव * आते हैं )

भैरव---सच है "येषां क्वापि गतिनास्ति तेषां वाराणसी गतिः"। देखो इतना बड़ा पुण्यशील राजा हरिश्चंद्र भी अपनी आत्मा और पुत्र बेचने को यहीं आया है! अहा! धन्य है सत्य! आज जब भगवान् भूतनाथ राजा हरिश्चंद्र का वृत्तांत भवानी से कहने लगे तो उनके तीनों नेत्र अश्रु से पूर्ण हो गए और रोमांच होने से सब शरीर के भस्मकण अलग-अलग हो गए। मुझको आज्ञा भी हुई है कि अलक्ष रूप से तुम सर्वदा राजा हरिश्चंद्र की अंगरक्षा करना, इससे चलूँ मैं भी भेस बदलकर भगवान् की आज्ञापालन में प्रवृत्त होऊँ।

( जाते हैं। जवनिका गिरती है )



  • महादेवजी का सा सिगार, तीन नेत्र, नीला रग, एक हाथ में

त्रिशूल, दूसरे में प्याला।