भक्तभावन
ग्वाल, संपादक प्रेमलता बाफना

वाराणसी: विश्वविद्यालय प्रकाशन, पृष्ठ — से – २० तक

 
 

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श्री गणेशाय नमः

अथ श्री भक्तभावन ग्रंथ प्रारंभ

मंगलाचरण-दोहा


वेद पुरानजु शास्त्र सब सो जाही के रूप।
हंस वाहिनी बनि घर श्री सरस्वती अनूप।

ग्रंथ प्रस्तावना


तिनके चरनांबुजन कों। करि साष्टांग प्रनाम।
ग्रंथ फुटकरन को करत। एक ग्रंथ अभिराम।

कवि विषे


बंदी विप्रसु ग्वाल कवि। श्री मथुरा सुख धाम।
भक्तभावन जु ग्रंथ को। धर्यो बुद्धिबल नाम।

ग्रंथ संवत


संवत निधि शशि निधि शशी। मास अषाढ़ बखान।
सित पख-द्वितिया-रवि-विषे। प्रगट्यो ग्रंथ सुजान।

अथ श्री यमुना लहरी ग्रंप प्रारंभ


मंगलाचरण–दोहा


श्री वृषभान कुमारिका। त्रिभुवन तारन नाम।
शीश नवावत ग्वाल कवि सिद्धि कीजिये काम॥१॥

कवि विषे


वासी[] वृंदा विपिन के। श्री मथुरा सुखवास।
श्री जगदंबा दई हमें। कविता विमल विकास॥२॥
विदित[] विप्र वंदी विशद। बरने व्यास पुरान।
ताकुल सेवाराम को। सुत कवि ग्वाल सुजान॥३॥

यमुना स्तुति


कवित्त


शोभा के सदम लखि होत है अदमसम। पदम पदम पर परम लता के इद।
देखें नख दामिनी घने दुरी अकामिनी है। जामिनी जुन्हया की जरै जलसता के मद।
ग्वालकवि ललित छलानतें कलित कल। वलित सुगंधन ते वेस मुदता के नद।
वंदन अखंड भुज दंड जुग जोरै करौं। बरद उमंड मारतंड तनया के वद।।१॥

कवित्त


जित जित जाती जमुना को जोर धारें जुरि। तित तित ही में स्यामता की बहु कुंज होत।
जित जित प्रबल प्रवाहन के शोर सुने। पाप तिन तिनके पटासे खाइ लुंज होत।
ग्वाल-कवि तेरे तोय ऊपर विमान आय। जाय इन्दरासन अनन्दन की गुंज होत।
तेरी येक बिंदु के किनूका सो हजार चारु। ताकी कोर कोर कन्हैया के पुंज होत।२।

कवित्त


जोगी। एक जमना तिहारो जित नाम लेत। तितमें लसीलें जस देशन में चिरजात।
आय आय विबुध विमानन में बैठे वेश। धन्य धन्य भाखे दिव वीथिन में घिर जात।
ग्वाल कवि रवि औ रथीश शशि नामें लखें। होत न अथैयन अथैयन के गिर जात।
कहर कलेश को कटासे करि जात ढेर। पापन के पुंज में पय से फेर फिरिजात।३।

कवित्त


कँधों दुति द्रोपती को दमकत दीपन में। कैधों नीलगिरि जन पांति परमा की है।
कैंधों तमोगुन की जुरी है जोर शशि। किधों फूलें नील कंजन की अवली रमा की है।
ग्लाल कवि कालिका कृपालिका की लेहन के। कैंधों घटा घोर भूमि उतरी सुधा की है।
केंधों शेश स्याम की करी है घनस्याम सेज। केंधों तेज तरल तरंग जमुना की है।४।

कवित्त


कैंधौं लाजवर्तकी शिला है सुमिला है भली। कैंधौं स्याम पाट की बिछात छबि जाकी है।
कैंधों भ्रमरावली भ्रमत भूरि भायन सों। केंधों राहु किरन अछेह फबि जाकी है।
ग्वाल कवि कैधौ केश काली के विराट रूप। कैंधों रोमराजी वरनत कवि जाकी है।
कैंधों नंदनंदन अनंत वपुधारे तन्त। केंधों तेज तरल तरंग रवि जाकी है।५।

कवित्त


तरल तिहारी रवि तनया तरंगैं तेज। शोर घन घोरन घटासें करिबों करें।
अविधि सुरापी दोह पापिन के तुंग तारि। अखिल विमानन वटा से करिबो करें।
ग्वालकवि कौन कहनावत कहौं में अब। देवन के पुंज पलटा से करिबो करें।
शहर जमेंश के पटा से दे कटासी करि। कहर कले से चोपटा से करिबो करें।६।

कवित्त


कीनी सत संगतन पंगत जिवाई कभू। रंगत अदेह की भुलायो देह साजतें।
एक दिन तरुनी पराई मिलिबे के हेत! भाख्यो रविजात मिलौं रजनी समाज तें।
ग्वालकवि त्यों ही भुज चार को प्रचार होय। आये घिरि देवता विमानन विराजतें।
चित्र लै विचित्र चित्रगुप्त कहे हाय हाय। बाज हम आये ऐसें लिखिबे के काज तें।७।

कवित्त


दानीन में दानी दीह करन महीप भयो। ध्यानीन में ध्यानी महादेव पन पाको है।
जैसें सत्यवादिन में राजा हरिचंद चंद। तैसे उपकार में दधीच तेज ताको है।
ग्वालकवि जैसे धर्म धारिन में धर्मयश। ज्ञानिन में ज्ञानी सुखदेवसिद्धि साको है।
बोरन में वीर बजरंग की प्रशंसा होत। नीरन में नीर वरभानु तनया को है॥८॥

कवित्त


मूल करनी को धरनी पें नर देह लैबो। देहन को मूल फेर पालन सुनी को है।
देह पालिबें कों मूल भोजन सु पूरन है। भोजन को मूल होनो बरसा धनी को है।
ग्वाल कवि मूल बरसा को है जजन जय। जजनसु मूल वेद भेद बहुनी को है।
वेदन को मूल ज्ञान ज्ञानमूल तरिबो त्यों। तरिबै को मूल नाम भानु नंदनी की है॥९॥

कवित्त


भरिबो चहेतो शील नैनन भराइ लेरे। ढरिबो चहेतो लोभ ढारि वाको ढपि।
हरिबो चहे तो चित्त हरि ले सुजानन के। धरिबो चहे तो ध्यान धरि फिरि जाको छपि।
ग्वालकवि टरिबो चहे तो टरि कूरनते। डरिबो चहे तो परधन ताको थपि।
लरिबो चहे तो तू लरे न क्यों कुढंगनतें। तरिबो चहे तो तू दिनेश तनया को जपि॥१०॥

कवित्त


जाने जमुना के तमना के हूँ न रहे ताके। साके होत प्रबल प्रभा के पुंज आन में।
चूर होत परि और अधीर फिर घूर होत। पूर होत धीर वीर होत हर सान में।
ग्वाल कवि भान के समान तेज भान होत। कीरति सुभान होत अरिहू[] समान में।
गान होत लोकन बखान होत जानन में। मान होत जग में प्रमान देवतान में॥११॥

कवित्त


करो तुम जमुना अन्हैयन के राके रूप। केते रूप रावरे भये जलूस[] जाल है।
केती बर बाँसुरी कियो है आय बांसुरी सु। ऐसे तो अवांसुरी लख्यो न कोळ काल है।
ग्वाल कवि वसन तनो में पीत वसन जु। केतो मन्द ईसन लसन पन पाल है।
केती वनमाल केती कौस्तुभ की माल शुभ्र। कुंडल विशाल बने केते नंदलाल है॥१२॥

कवित्त


भानु तनया के तीर तीरतें हजार कोस। कीनी जिमिदारन सुखेती लँदि रेलारेल।
धान बढ़ि आये कढ़ि आये बाल भेस भले। मढ़ि आये अन्न एक एक तेंसु मेलामेल।
ग्वालकवि परसि पुनीति पानी तेरो पौन। लागी जाय जिनमें झकोरै झार झेलाझेल।
चारभुज चंद्रिका चमके हार हारमाँहि। वारिन में विबुध[] विमानन की ठेलाठेल॥१३॥

कवित्त


भानु नंदनी के तट नीके रज राशिन में। दासिन के तरवा तरे में परो झौर झौर।
कूर अकुलीनन के भीलन के पाछैं, पाछैं। आछैं जे कुसीलन के पंगु गहाँ दौर दौर।
ग्वालकवि ये तो फरि देख्यो पै न देख्यो कछु। लेख्यो होनहार जो लिख्यो हैं विधि और और।
मुकति विचारी में जुवारी क्यों न भारी भाय। मारी सील तारी फिरो रब्बारी भई ठोर ठौर॥१४॥

कवित्त


स्याम रंग रंगत तें स्यामे रंग होत सुने। जमुना जरूर ही जुरी है जोर जंगी तू।
देत है कन्हैयन उठाय पीत अंबरन। लकुट विशाल देत सुन्दर सुरंगी तू।
ग्वाल कवि गोरी गिरि जासी पटरानो देत। देत मोर चन्द्रिका चमकित कलंगी तू,
संगी करे ग्वालन उमंगी मति चंगी करे। करि बहुरंगी फेर करत त्रिभंगी तू॥१५॥

कवित्त


रावरी तरंगन को जमुना प्रसंग पायो। अंग-अंग धोये तऊ करै अलसाइबो।
पापिन के कुल में प्रतापी महापापी भयो। तापी तीन ताप को न जाने हुलसाइबो।
ग्वालकवि ताही को तिहारे पितु आये लेन। फेर पति आये मति मोद सरसाइबो।
भान चाहे भान लोक भीतर बसाइबे को। कान्ह चाहे कान्ह लोक भीतर बसाइबो॥१६॥

कवित्त


माली एक बाग में खुसाली जुत सोवे तहाँ। फूलन वहाली मूल नीरन छका छकी।
आई अंध धुंधही अंध्यारी करि आँधी तहाँ। एक तरु दोष गिरते व्है धकाधकी।
ग्वालकवि त्यों ही वह आगिकें बुलाये पार। जमुना सकेगो इमि कहिकें तकातकी!
माथे भई चन्द्रिका लकुट निज हाथे भई। साथे भई गोपिका[] दिखैयन चकाचकी॥१७॥

कवित्त


जात चतुरानन सुजान आन मेरी यह। करियो[] इते में तू करैया है उमंग को।
रेतन की राशि जो करे तो करि नीकी भाँति। जमुना के जल को थल के प्रसंग को!
ग्वाल कवि सुमन लता जो करे तोहू तहां। मीनग्रह जो करे सुवाही जलसंग को।
मनुज करे तो है सलाह यह तोकों वीर। करियो मलाह ताकी तरल तरंग को॥१८॥

कवित


गेह में लगे है तिय नेह में पगे है पूर। लोभ में जगे है ओ अदेह तेह समुना।
कुटिल कुढंगन में कूरन के संगन में। छके रति रंगन में नंगन ते कमुना।
ग्वाल कवि भनत गरूर भरे अति पूर। जानियें जरूर जिन्हें काहु कोजु ममुना।
लहर करै तें हरि लोक में सहर करै। लहर तिहारी के लरवैया मात जमुना॥१९॥

कवित्त


मारतंड तनया तिहारे सुने कौतुक मैं। सौतुक गुविन्द करै केतन को मैया तूं।
तेज करे आनन सुजानन में आन करे। मान करे जग में प्रमान पसरैया तूं।
ग्वाल कवि आनन्द की छनि छकैया फेर। कठिन कलेशन के भशन हरैया तूं।
शहर जमेश को जरैया जमदूतन को। कहर कुढंगन को कतल करैया तूं॥२०॥

कवित्त


जीत होत रन में सुनीत जुत मेधा होत। प्रीत होत मीन में अनीतभीत गमुना।
भाल होत उदित विशाल होत तेज ताको। साल होत शत्रुन दुशालन
ते कमुना
ग्वाल कवि कीरति प्रचार होत एकतार। पारावार पार होत बेसुमार समुना
दान होत दीरघ दिमाक होत जग बीच। ज्ञान होत हियरा में ध्यान होत जमुना।

कवित्त


कैधों अंधकारन के अखिल अगार चारु! कैधौं रसराज की मयूखे मंजुता को है।
कैधों स्याम विरह वियोगिन के नैन ऐन। कज्जल कलित जल धारै धार ताकी है।
ग्वाल कवि कैधों चतुरानन के लेखिबे को। फूट्यो मसि भाजन अनूप छवि वाकी है।
कैधों जल स्वच्छ में प्रतच्छ नभ झाई किधौं। तरल तरंग मारतंड तनया की है॥२२॥

कवित्त


गोरिन में गनिका जरूरदार गनिका की। गौए गएँ गजरा गुलाबी हित में छई।
ताको एक तनया कृसित तन ताको रहे। ताको रहे वहम बिलन्द चितता ढई।
ग्वाल कवि भाखै[] रवि तनया को नीकी राखें। कहत इते के चकाचौंधी चित में भई।
ह्वै गई गोविंद मोर चन्द्रिका विराजी शीश। भाजी फिरे छोहरी अमाजी कित में गई॥२३॥

कवित्त


कठिन कलेशन के भेसन खकोरिबे कों। फोरिखें कों पापके पहार अति भाराये।
दीह दीह दारिद के दलन बिथोरि। कों। जोरि३ को आनन में तेज के अंगारा ये।
ग्वाल कवि आनन्द विसालन में बोरिबे कों। शूमि झमक झोरिबे को अधर कपारा ये।
भर्म जमराज के जरूर तोरिबे कों जगी। धर्म धारिबे को जमुना को जोर धाराये॥२४॥

कवित


काहू शाहुकार को चुरायो धन चोर एक। शोर भयो शहर गयो दई किते किते।
बहुत दिना में गयो बाँधि[] नृपति आगे। पूछों ते लयो है कह्यो इमुनाहि ते हिते।
ग्वाल कवि भाख्यो रवि जाने जो लयो में माल। हास भयो ओरे इमि कहत तिते-तिते।
स्याम रंग ह्वे के भुज चार भई आयुध से। चौंक्यों अमरवास रह्यो हाकिम चितं चिते॥२५॥

कवित्त


देव मारतंड की तनूजा तीर तेरे एक। कौतुक लख्यो मैं असि अद्भत कहौं कैसे।
बढ़ई विचारो छील छील के बनावे वेश। चित्रकारी चित भाव निजगोकेसें।
ग्वाल कवि तेरे तोय ऊपर तरावे ताहि। धावे लेन देवता विमानन तें लोकँसे।
नाव होत गोविन्द लकुट पतवार होत। भुजाचार चंपू होत चित्रकार चौंके से॥२६॥

कवित्त


गोरी गरबोली जाको गवन गयंद को सो। गरै मुकुताहल को गजरा निराला वह।
कज्जल कलित द्रम ललित लुनाई भरे। वलित उरोजनतें मृगमद आला वह।
ग्वाल कवि रविजा तिहारे तोर न्हाई आई। धाइ लेन देवन की अवली विशाला वह।
शीश[१०] दीप मृग ये पहुँचि पहिलेई गये| पा, स्याम रूप हे सिधारी नव बाला वह॥२७॥

कवित्त


आयो तटनी के रवि तनया तिहारे वह। वापस पियासो पय पियत अकूत है।
त्यौंही भुज चार है विमान चढ़ि धार चल्यो। अध मग पातकी परममहा धूत है।
ग्वाल कवि तापें आय छाया परी ताकी जोर। बनिके बिहारी की करत करतूत है।
एक कहे भूत है, अभूत कहे कोऊ एक। सूत कहे सो विसै सिधार्यो नन्दपूत है॥२८॥

कवित्त


जमुना के वास में लखै तरङ्ग ता समेजु। महत पवास में करै गोविन्दा जा समें।
सौरभित वास में भुलावे रंग रास में तु। ओ गुलाबपासमें धरे गुलाब पास।
ग्वाल कवि छकित गिलास में सुधा समेसों। हाँस में विकास में रहे न हो सुवास में।
वदन प्रकास में सुरीन के हुलास में ज्यों। राखत विलास में सुरों के आम खास॥२९॥

कवित्त


बैठ्यो तटनी के यह भाखत तिलकिया जो। येरे राहगीर पास आय जल छू जाते।
आचवन किये महा महिमा मही में होत। जोना फल होत और देवन की पूजा तें।
ग्वालकवि कोतुक विशाल देखि हालाहाल। रसिक बिहारी भयो जात अब दूजातें।
कीरति अखंड होत तुजक प्रचंड होत। होत है अदंड मारतंड की तनूजा ते॥३०॥

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कवित्त


कोतुक विशाल एक आयो देखि दूर ही तें। लाग्यो बात कहन विवेकता छुटी भई।
टहले हो बाग में बहारन बिलोकिबें को। आइ पौन जमुना को औरतें जुटी भ।
ग्वालकवि दवरि दरीन में दुर्यो में जाय। छाई रेनु अखिलन ठौर ही छुटी भई।
भाली भयो मोहन लता जे पटरानी भई। भोर भये मुकुट लंका लकुटी भई॥३१॥

कवित्त


रेवतीरवन कीने वसन विचित्र वेश। राधिकारवन कीन्हें वपुष विशाल ह्वै।
चंद में प्रतिबिंब रूप रावारो दिखाई देत। लीनें चंद्रधर हू तमोगुन खुसाल ह्वै।
ग्वाल कवि कमला किये हैं कर कंज नील। नीलमनि भूषन बनाये जग जाल ह्वै।
मारतंड तनया तिहारो शुभ स्याम रंग। हो पद लोकन को मंडन विशाल ह्वै॥३२॥

कवित्त


धारे अंग अखिल कलापी महाकाली आप। कोनो काय वैसो फनधारी ने खुसाल ह्वै।
ताल में सिवाल भयो तरु में तमाल भयो। तीरन में भाल भयो सत्रुता में साल ह्वै।
ग्वाल कवि गोरिन ने अंजन अंजाये नैन। कीनी मसि लिखिबे कों वेदविधि हाल ह्वै।
मारतंड तनया तिहारो शुभ स्याम रंग। होय रह्यो लोकन को मंडन विशाल ह्वै॥३३॥

कवित्त


साल में सलाबे शत्रु पुंजन को सोर सुने। मित्र न मिलावे मति मंजुल खुसाल में
हाल में न आवे तन ताको किये त्रासन तें। करन कुटुम्बन को अधिक निहाल में।
लाल में लसावे बहु भूषन शरीर ताके। भाखैं कवि ग्वाल मन करै प्रन पाल में।
भाल में बिराजे मोर चंद्रिका विशाल वेश। न्हान करे जमुना जे तेरे जल जाल में॥३४॥

कवित्त


रविजा कहेते रनजीते जोम जोरि जोरि। जमुना कहै तें जमुना के होत हेर बिन।
भान होत कीरति प्रभान के परम पुंज। भानु तनया के कहते ही फेर फेर बिन।
ग्वाल कवि मंजु मारतंड नंदनी के कहे। महिमा मही में होत दानन के ढेर बिन।
दरिजात दारिद दिनेश तनुजा के कहे। कहत कालिंदी के कन्हैया होत देर बिन॥३५॥

कवित्त


आदि में रमा के रसरूप देनहारी तू ही। मध्य कुबिजा के करे कीरति प्रचारी तू।
अंत विधिजा के जग जाहिर करैया तू ही। जहर जमेश की जलूसन को भारी तू।
ग्वाल कवि बरन बरन किये बरनन। बरनन तेरे में लग्यो है चितधारी तू।
महिमा तिहारी महा महिमा निहारी मात। रविजा कहे तै करे रसिक विहारी तू॥३६॥

कवित्त


सुस्ती बेसुमार एक कुस्ती गीर ताको भई। बोल्यो जमदूतन[११] लयो मैं थेर ओक में।
पारसद आये ले विमानन के पुंज तहाँ। बोले चढि लीजिये चढे जो चित्त कोक में।
ग्वाल कवि वह तो सवार ह्वै चल्योई फेर। भाखे मगमाहि जो करो मुकाम थोक में।
जो लों कहे नाल भूलि बायो मैं अखारे बीच। तौलो जाय पहुँच्यो तुरंत हरिलोक में॥३७॥

कवित्त


जुद्ध करि मोसों अति क्रुद्ध करि कायर तू। है बडो अशुद्ध तो विरुद्ध बुद्ध टारोगों।
जो लो मैंन बोलत हों डोलत हो सो ही आय। बोलत हों गरलसु में कैसो विसारौंगो।
ग्वालकवि भाखै[१२] भागि जायगो कहाँ तू नीच। भीच खपची में कमची ले तोहिं तारोंगों।
एरे पाप पापी सब देखन को सापी तोहि। जमुना के जल में अकाल मारि डारोंगों॥३८॥

कवित्त


पातिक हरैया सुनी तरनि तनैया तोहि। गैया कामना की सी मनोरथ भरैया तूं।
देवन बसैया करै शेषनाग सैया करे। नैया करे धर्म की अधर्म से धरैया तूं।
ग्वाल कवि कहे जग मैया तू लसैया बेस। मोहन बनै या छबि छोरन छवैया तूं।
भैया जमराज को जलूसन जरैया जोर। जीवन जिवैया जोति जबर जगैया तूं॥३९॥

कवित्त


कामना की गैयासी मनोरथ भरेया भलैं। अखिल अंगारन में संपति डरैया तूं।
दुरित दरैया विदरैया बदराहन की। जुलुम जरैया टेक जमकी टरेया तूं।
ग्वाल कवि भाखे छबि छोरन छवैया वेश। सुख में समैया दुख हिय के हरैया तूं।
शैया करे शेष की सु जोतिन जगैया जोर। कान्ह की करैया मैया तरनि तनैया तूं॥४०॥

कवित्त


तरनि तनूजा तेज तज्जुब तिहारो तक्यो। तुले ना तुलान पें अतुलता धनेरी है।
सांपिन सी सरस सतावे जमदूतन कों। पापिन[१३] को तापिन कों चिंतामनि हेरी है।
ग्वाल कवि करम कुरेखन मों टारे फारे। अघन विदारे प्रन पारिबे की ढेरी है।
छबिन छटा को उछटा की करे लोकन में। करन कटान को ये पटाकी धार तेरी है॥४१॥

कवित्त


तर न तनैया तनु तोय में तिहारे आय। तापी तीन ताप को तनक तन धोय जात।
तेज होत वपुष सुमुख सुखमातें सने। दुख दहलाते होत सुखन सलोप जात।
ग्वाल कवि संपति समोय जात सदमन। पदमन मीन सो तु जकजग जोय जात।
हालाहाल हाजिर हजूर में सुरेश होत। बेश होत बानी बनवारी भेश होय जात॥४२॥

कवित्त


दमुना मिलत जमदूतन के देहबिवे। दौरि देहरी में आय होत बे अकामे है।
जमुना सु चित्रगुप्त हू की ना चलाँको चले। चित्र भयो लखिकें वित्रित बसुधा में है।
तमुना रहत जाके सदन सु और पास। अमित प्रकाश भने ग्वाल कवि तामे है
कमुना गोविन्द तेज समुना त्रिलोक जाको। न्हात जमुना में तेन लेत जमुना में है॥४३॥

कवित्त


कैधों नीलकंठ के कंठ की प्रभा है चारु। फेली बेसुमार खंड-खंडन खजी है ये।
कैधों कालिका के करवाल की कठिन धारै। चमक पसारे चहूँ और में पगी है ये।
ग्वाल कवि कैधों दर्श जल सर्पमाहि। आइके बसी है तासु शोभ उमगी है ये।
जोर जग जाहिर जलूस की जमातें जुरि। कैधों जमुना को बेरा लहर जगी है ये॥४४॥

कवित्त


कैधों वीर अर्जुन घरे है बहु भेस वेश। तारी छवि छाया की मयूष मंजु लोखी है।
कैधों खंजनन की खुली है पाति पूरन ये। तेई भांति भाँति भले भायन सों दीखी है।
ग्वाल कवि केधों रवि चंद लरि= को भयें। तातें राहु अति विमतार ताई सीखी है।
बेसुमार पारावार पारन लों जाइवेकों। कैधों रविजाकी ये तरंगें तेह तीखी है॥४५॥

कवित्त


कैधों जल अमल लबालब भरे में भल। उझल परी है नभ नवल अपारे ये।
कैधों स्याम तरु की मही पे पूर पातें गई। ताकि भांत भांत मूर परमा पसारे ये।
ग्वाल कवि कैधों लंक असुर संघारिने को। धारे बहुभेस राम ताकी दुति ढारे ये।
अतुल तिखाईतें जताई तरलाई भरि। कैधों मारतंड तनया की चारु धारै ये॥४६॥

कवित्त


कैधों सनि सहस सरूप सुठि धारे शोधि। तारी सरसाई बेश शोभा ये डहडहात।
कैधों धनी धोर धोर धुमिरसु घोषनतें। घिरत धनावली घमंड ये गहगहात।
ग्वाल कवि कैधों द्रुपता की चारुताई चारु। ताकी चढो चख चमके ये चहचहात।
कैधों जमुना की जमि जबर जलूसें जगि। जुरिके जमातें जोर धारे ये लहलहात॥४७॥

कवित


कैंघों बेश बानिक बन्यो है बन वृन्दन को। बरन बहारें बल वातन के गहरे।
कैंधों मतवारे मदवारे मोदवारे मूरि। मंजुल मतंगन के झुंडशूमि शहरे।
ग्वाल कवि केधों शुभ्र सिंधु सरसाये तासु। सरसी सुधारै बेसुमारे हल हहरे।
कैधों रविजा की लोल लहर लुनाई लसो। छविकी छटासों छिति छोरन सों छहरै॥४८॥

कवित्त


आइहों कहाँ तें धरनी में धार तेरी[१४] मात। धक धक होत है जमेश होय कमुना।
धरम धुजा की खड़ी करन तुही है एक। धन्य धन्य जगमांहि तेरी और समुना।
ग्वाल कवि परम प्रकोप करि पेठे पेलि। पावन के पुंजन में राखे नेको दमुना।
कठिन करारन की कोरन कलित केलि। कतल करैया तूं कलेसन की जमुना॥४९॥

कवित्त


कीरति इनामें होत धवलसु धामे होत। द्वारन दमा होत देह मंजुता में लहि।
चाह घरचा में होत सुरबनिता में ताकी। सुमति सभा में होत तेज पुंजता में गहि।
ग्वाल कवि कामे परिपूरन सदा में होत। कुमति तमामें होत धीर पुंजता में रहि।
बंधु बतरामें होत जग में प्रनामे होत। क्लेश कतलामें होत जमुना कला में कहि॥५०॥

कवित्त


लखि के चरित्र जमुना के भयो नाके अति। कहे चित्रगुप्त जमबात सुनि भीजकी।
अविधि सराजी पापो घोर तापी तिन्हे भेजे। पुरमापो यौं दिखावे बाजी जीत की।
ग्वाल कवि यातें हौंस उड़िगे मुसदद्दीन के। कहत सरोष भई समें बिपरीत[१५] की।
रही भे दफ्तर जु बद्दी भाल बद्दी भई। गद्दी भई अफ्ततिहारी राजनीत की॥५१॥

कवित्त


भाखै चित्रगुप्त सुनि लीजै अर्ज जमराज। कीजिये[१६] हुकुम अब मूंदे नर्क द्वारे कों।
अधम अभागे ओ कृतघ्नी कूर कलहीन। करत कन्हैया कर्नकुंडल संभारे कों।
ग्वाल कवि अधिक अनीते विपरीत भई। दीजिये तुड़ाय वेगि कुलुक किबारे को।
हमुना लिखेगें बही जमनाजु खैहैं हम। जमुना बिगारे देत कागद हमारे को॥५२॥

कवित्त


रविजा तिहारे तीर पापी घोर तापी ताकी। मुकति विचित्र देखी जाहिर जहूर सों।
चार मुख वारो मुख चारके चढाय हंस। करिकें चलो को चल्यो चौंकि चित चूर सों।
ग्वाल कवि अचको उतारि धरि वृषभा पर। ले चलें त्रिलोचन के संभु सुख मूर सों।
चार भुजवारों भुज चार के सुचारन में। गरुड चढ़ायगयो गजब गरूर सों॥५३॥

कवित्त


एरो मात जमुना न दोष है तिहारो कछु। लिख्यो सो भयोई भाल विधिना उमंग में।
तेरे तीर आयो स्याम कामाधिक रेख है। तेतों करिदीनी स्यामताई सब अंग में।
ग्वाल कवि कहै भुज द्वे को भार मानत हो। तेने भुजचार करि दीन्हेई उचंग में।
मैं तो चह्यो संग एक रानी को तज न जौलौं। तौलौं करि आठ पटरानी मेरे संग में॥५४॥

कवित्त


ख्याल जमुना के लखि नाके भयो चित्रगुप्त। बैन करुना के बोलि मेरी मति ख्वे गई।
कौन करे कर में कलम कोन काम करे। रोस कों दवायात सो रोसनाई है गई।
ग्वाल कवि काहे ते न कान दें जमेश सुनो। नौकरी चुकाई कहा तेरी आँख च्वे गई।
लेखे भये ड्योढ़े रोजनामा को परेखा कौन। खाता भयो खतम फरद रद्द व गई॥५५॥

कवित्त


अविधि सुरापी चोर तापी नीच पामी मुखी। गोजा तिहारी बूँद लघु अति ह्वै गई।
ताही क्रिन पल में अमल भल रूप भयो। कुटिल कुढंग ताकी रेख लेख ह्वै गई।
ग्याल कवि कीरति सु चीरति दिसान जात। दूतन की चित्र की चलाकी चित्त ह्वै गई।
चारमुख चंद्रधर चाहत चित्रित ताहि। चारन के देखते ही चारभूज हैं गई ।५६।

कवित्त


केतक जरिया रामनाम के उपासिक है। केतक कहै या कृष्ण नाम पन पाकों में।
केते मंत्र जापी ब्रह्म व्यापी जग जानत है। केते सेव शिव ही को सुमित ताकों में।
ग्वाल कवि जाने जगदंबा राधिका के पद। केतक अगाधिका सु मात साधिकाको में।
कामदा सभी है पे न चाहत इनम वय। आठों जाम करत प्रनाम जा/नाको में।५७।

कवित्त


जोधा जोर जबर कुन कोऊ आन में। जोर जोर पातिक जमानत को रम-गोई।
जाकों जुर जाहर जरायों जब भारतियों वह। जमुहाश करिहीं में जाइ इमि गाउयोई।
प्याल कवि कहे ताके पुरुष परे है नर्क। अव: सम हैं गयो विमानन सयाज्योंई।
केर वह पातकी कियो है गरुड़ासन को। देब अमरवासन सिंवासन बिरधिथोई।५८।

कवित्त


अखिल मनोरथ में अपने पुजायबे को। तेरे तीर जमुना कहायों तरसा करें।
भोर भयो चाहते ये अगोर अग मेरे किये। घेरे किये पारशद कौन चरचा करै।
ग्वाल कवि ये तो सुरराज हो न आयो हाय। सोन कियो दियो तीन लोक अरचा करै।
अच्छी (न करत प्रतको अंतरल्ली देत। कच्छप तुरी देत है न पचशेपतिका करे।५९।

कवित्त


मगि देत विदित विरंच बर बानिक सत। माँगे देत सचीपति पामें कछु भ्रमुना।
माँगे देत शेष औ गनेश त्यों दिनेश देत। तातें री नारद मुनेशहु की कमुना।
प्याल कवि अरा बजरङ्ग वीर माँगे देत। माँगे बिन देवि कों काहु कीन यमुना।
मौत्गर्वतें पूजत मनोरथ सदातें सब। मांगे दिन अधिक दिवैया त ही जमुना।६०।

  

कवित्त


मर्दन गयी है नर्मदा को सर्वदा तें मद। गोमती गरीबनी की गाथा है असारकी।
चंबल चपी है वर वरना तपी है ताकि। हाय को जपी है बिललान बेसुमार की।
ग्वाल कवि सागर समयों शोक सागर में। वह तनयातें भूमि वलय विचार की।
पावै कौन परम पुनीत भानु नन्दनी की। तारक सकति और गंभीरता धारकी।६१।

कवित्त


कुल छमता के सत्व गुन की सताके बीच। होत वपुता के गुन कलम लता के है।
पूर प्रभुता के कामधेनु की भत्ता के फेर। नाँ हि समता के तीन लोक वीरता के है।
ग्वाल कवि ताके शिरमौर-मनि ताके रूप। दिव्य वनिता के नहि होत करता के है।
पुंज देवता के सजे सुजस पताके ताके। नैक ही के तामे बाँह सूरज सुता के है॥६२॥

कवित्त


मेरु मूठ मंजुल मँजी है मजबूत फेर। मारतंड नन्दनी न मूँद तेग तारा है।
वृन्दावन सिकिल सँवारी मथुरा में सान। कांढ़ी प्राग म्यानतें प्रसिद्ध ही प्रचारा है।
ग्वाल कवि सुखदा गहें जे शरनागत को। काटे पाप दंगल उदंगल अपारा है।
केती इक धारा होत कितनी दुधारा होत। थर थर धावनी लखी अनंतधारा है॥६३॥

कवित्त


मोहन बन्दूकची सुमेरु बन्दूक बोधि। कीनी देवतान की सु गज गजरबाने में।
मारतंड नन्दनी सु गोली अनतोलो भरि। वृन्दावन विदित बरूद सरसाने में।
ग्वाल कवि मथुरा चमकदार पथरी दे। गोकुल अनूप कल तुरत दबाने में।
साज प्रागराज सो दराज ही अवाज होत। छूटत ही लागे जाय पातिक निसाने में॥६४॥

कवित्त


औरन के तेज तुल जात है तुलान बिन। तेरो तेज जमुना तुलान न तुलाइये।
औरन के गुनकी सु गनती गने तें होत। तेरे गुन गनकी न गनती गनाइयें।
ग्वाल कवि अमित प्रवाहन की थाह होत। रावरे प्रवाह को न थाह दरसाइयें।
पारावार पारहू को पाराबार पाइयत। तेरे वारपार को न पारावार पाइयें॥६५॥

कवित्त


गावे गुन नारद न पावे पार सनकादि। बन्दीजन हारे हरी मेधा मंजु शेस की।
दरस किये ते अति हरष सरस होत। परस पुनोत होत पदवी सुरेश की।
ग्वाल कवि महिमा कहि न परे काहू विधि। बैठे रहि गहिमा दसा है यों गनेश की।
तारक जमेश की विदारक कलेश की है। तारक हमेश की है तनया दिनेश की॥६६॥

कवित्त


काटि के किनारे किये कोरन करारे पुंज। कुंजन के कूल उठे लहर प्रभा की है।
चद्दर चहूँधा चारु चेटक चितौन चित्त। ्री्र्री् भोर भैल फेर पंगत पताकी है।
ग्वाल कवि मोदमत्त मच्छ कच्छ वहे। वृच्छ घूम जब होत घन धूम बरसा की है।
जोर जल जाल जोर किये जर जंगलन। जोय जोय जाहर जलूस जमुना को है॥६७॥

कवित्त


जोवे ख्याल जमुना निहारे जमराज आज। तारे तिनहूँ को महा पापन विलोवेते।
खोवे निज चित्त में तलास महापापिन को। नित चित्रगुप्त मूंड मार मार रोवेतें।
गावे पन परम प्रवीन कवि ग्वाल भने। अदया सुभायनतें छमता समोवेंतें।
घोवें निज अंगन तरंगन में तेरे आय। जाय बैकुण्ठ में पसारि पाय सोवेंतें।६८।

कवित्त


सूरज सुता के ताके परम प्रताप साके। नाके हू जमेश अंग माहि काँपे है।
हाय हाय भारवत सु चित्रगुप्त चौंके चित्त। चतुर चलाँकी दूत दूतन को चाँप है।
ग्वाल कवि विविधि विचार करि हारी मति। बैठे बेकरार जल जमुना को नापे है।
झुकि झुकि भूमि झूमि झिझकि झिझकि झेले। झहरि महरि नर्क झां‌पनतें झाँपे है।६९।

कवित्त


तनया दिवाकर की राजस विलोकियत। दरस करैयनकी कीरति अटाकरी।
परस करैयन की महिमा मही में मंजु। पुंज देवतान के पे घुमडि घटाकरी।
ग्वाल कवि दरस परस कर वैभव की। दीप दीप लोकन में तेज की छटाकरी।
अधओध संगत और जन्म जोनि पंगत की। ह्वै के बेकरार इकबार ही कटाकरी।७०।

कवित्त

प्रबल प्रभाकर की तनया तरङ्गन में। तनु तनु धोये जसदीपन जुर्यो परे।
ताके तेज पुञ्जनतें दुःख के पहार भार। पाय बेसुमार बेकरार है चुर् यो परै।
ग्वाल कवि कांसो यह कहिये अकह बातें। हातें भये दूतपन परम दुर यो परे।
जाहिर ही जबर जलूसदार जुलमी पें। आज जम जिभ्या पर जहर घुर्यो परे।७१।

कवित्त


आन भरी अधिक कृसान भरी पापन को। दान भरी दीरघ प्रमानमान कमुना।
तेज भरी मंजुल मजेज भरी रीझ भरी। खीझ भरी दूतनकों दाहे दोरि समुना।
ग्वाल कवि सुखद प्रतीत भरी प्रीत भरी। रोत भरी परम पुनीत मीत गमुना।
जंगभरी जमते उमंग भरी तारिजे कों। रंग भरी तरल तरंग तेरी जमुना।७२।

कविस


एरी रविनन्दनी अनन्दन की मूल मंजु। मेरे हिये संशय अछेह अति भारी है।
कंधों तुव आगे पानि जोरे जमराज आजु। स्वासे लेत करध ये सुधि न सम्हारो है।
ग्वाल कवि कैषों चित्रगुप्त चतुर चारु। लोटे बेकरार धुने शीश मतिहारी है।
कैधों दूत दौरि दौरि दहलात दुरिबे कों। कैथों लोल लहरे ये लहरे सिहारो है।७३।

कवित्त


राजनीत रावरी न चलिहै हमारे संग। रद करि देहो पेलि पलके प्रसंगते।
दफ्तर बिहद्दी मुत्सद्दिन के रद्दी करि। नद्दी में सुरद्दी करो गद्दी बांधि संगते।
ग्वाल कवि अबलौं न जानी रे अयानी मति। मालुम भई न तेरे कुटिल कुढंगते।
जोरिके अभंग जंग अंग जमराज तेरे। भंग करि देहौं जुरि जमुना तरंग तें॥७४॥

कवित्त


भानु की तनैया तोय तेरो पियो वच्छएक। ताकी जननी कों दुह्यो भूख नसिबें कों जब।
ताही ग्वार पास आय दीन कह्यो भुखे हम। दियो पय ताही पर्म धर्म लसिबें कों जब।
ग्वाल कवि ताकी परछाई परी पातकी पें। आये पारशद.से विमान कसिबे को जब।
सुरभी समेत वच्छ ग्वारिया पिवैया जुत। पातकी पधार्यो हरिलोक बसि को जब॥७५॥

कवित्त


अवनी को मालसी सुबालसी दिनेश जानि। लालसी ह्वै कान्हकरी बालसुख थालसी।
नकन कों हालसी बिहालसी करैया भई। धर्मन को उथित सुढालसी विशालसी।
ग्वाल कवि भक्तन को सुरतरु जालसी है। सुंदर रसालसी कुकर्मन को भालसी।
दूतन कों सालसी जु चित्र कों दुसाल सी है। जमको जंजालसी
व्यालसी॥७६॥

कवित्त


पातको पुरानो घोर घातकी धने नकामें। तात की न मात को करी न सेवा साको है।
गंग में न न्हायो मैं न रंग में भुलायोतिय छायो अंग अंग मद जोबन नशा को है।
ग्वाल कवि कारन भयो न तरिबे को कछु। धारन कियो मैं इक पूरपन पाको है।
मों सों सुनि यार है न रोसो करिबे में कछु। अब तो भरोसो जियरा में जमुना को है॥७७॥

कवित्त


भानु भानु नंदनी प्रभान की परम पाति रावरो सुजस दीप दीप माँहि है रह्यो।
पुंडरीक आदि भयो फूलन में बानिक सो। विबुधन बोच बामदेव रूप ज्वै रह्यो।
ग्वाल कवि राजन के रसना गिरा द्वै रह्यो। गायन के गोरस सरस रस च्वै रह्यो।
अंबर में चंद भयो अवनि में गंग भयो। फोरि के पताल फेर फनपति है रह्यो॥७८॥

कवित्त


कान सुनि जाफत कुलंग चल्यो ताही ठोर। बीच वन पापी पर यो काय पजरे परी।
तामें तें उँचहि अस्ति टूक पर यो दूर जाय। लियो झुकि धायो जहाँ जमुना भरे परी।
ग्वाल कवि वार्ते वह टूक छुट्यो धार बीच। चढिके विमान चल्यो चौकनि खडे परी।
पापी उत स्याम भयो पच्छी इत बोले हाय। जाफत हू छूटी और आफत गरै परी॥७९॥

कवित्त


जोय जमुनाको जमु नाको मुंदवाये देत। जमना सके जो इमि बोल्ये अंधकूप वह।
करी भव फांसी भव गाँसी बिन हाँसी करै। भव की मिली है भवरासी सो अनूप वह।
ग्वाल कवि हो में हरि मद हरि हार सो है। रोज हरि पाई सित हरिपात भूप वह।
हरि सों प्रकाश मुख हरि सी मृदुलताई। लेपहरि भाल में भयोई हरिरूप वह॥८०॥

कवित्त


देखिके दिवाकर तनैया को सु पातकीने। घक्कहि दिवाकर जमे ते उछलो गयो।
मार मद सो हे मार सम मन मोहे मंजु। पीवत है मार मार पच्छ सिरलों गयो।
ग्वाल कवि कुण्डल खगाकृत खगासन ह्वै। खग के बरन खन संकट दलो गयो।
जोवे जाहि धाम जाके धामतें अनेक धाम। ह्वै के दिव्य धाम हरि धाम को चलो गयो॥८१॥

अब नवरस बर्ननं

तत्र प्रथम–शृंगार रसबर्ननं यथा

कवित्त


देव मारतंड को तनूजा को तरङ्गे ताकि। ह्वै गयो गोविन्द अरविन्द वदनीन में।
पाई प्रान प्यारी अनियारी उजियारी दुसि। प्रीति अधिकारी[१७] मिलि गावे तानबीन में।
ग्वाल कवि प्रेमी पुरहूत पानि पानदान। पीवत पियूष बड़े प्याले जे चुनीन में।
झुमि झुमि झुके झंझरीन में विझुके झंपि। झिलमिल झांई की झमक झंझरीन में॥८२॥

कवित्त


दीखत दिवाकर को अमित अछेह तेज। ताकी तनया को तेज तातें अधिकारी कों।
ताकी लखि लहर लहर करै पातकी सु। बैठ्यो सुरसंग ह्वै सरूप गिरधारी को।
ग्वाल कवि पाई पटरानी बसु आसपास। तामें सरसानी एक रूप सुखकारी को।
चूमें मुख प्यारे को रसीली प्रान प्यारी पगि। प्यारे प्रान नाथ मुख चूमें प्रान प्यारी को॥८३॥

कवित्त–हास्यरस


तात की न मात की करी न सेवा भ्रात की। ऐसो महा पातकी सु जमुना अह्नायो है।
ह्वैके भुज चार चारु कंचन विमान चढ्यो। शंख चक्र गदा पद्म सुन्दर सुहायो है।
ग्वाल कवि भाखे यो सिधार्यो हरिलोक बीच। बीच मल्यो बैरिन को जूथ मग छायो है।
एके संग सबही हसन लागे ताकों देख। कौन है कहाँ ते बायो कौन रूप पायो है॥८४॥

कवित्त–करुण रस


काहू एक देश तें पुरुष तिय बेटा युत। आयो न्हाइवें कों तहाँ जमुना नलौं गयो।
पूत पहिलेई पिल पैठिगो प्रवाह बीच। ह्वै करि गोविन्द धर्मधाम कों भलो गयो।
ग्वाल कवि नेक में न देखि परयों ताकों। तब बोल कढ़े ऐसे मन मानिक छलो गयो।
तात मात रोऊ खड़े तीर में पुकारे हाय। हायसुत मेरे आहि कित ले चलों गयो॥८५॥

कवित–रौद्र रस


घातकी कुचाली अति पातकी कलकी कूर। पाई कातिकी, जमुना में वह पैठ्यो जाय।
फेर कछु द्योसन में देह उन त्याग्यो तब। आये दौरि दूर उनसों ही जब पैठ्यो जाय।
ग्वाल कवि क्रुद्ध के विरुद्ध जुद्ध कियो जोर। मीस मोस-मारे विसमाई में अमेठ्यो जाय।
जीति दूत राजकों, चुनौती जमराज कौं दे। ऐसो वीरराज जदुराज संग बैठ्यो जाय॥८६॥

कवित्त–वीर रस


दीह दुराचारी व्यभिचारी अनाचारी एक। न्हाइ जमुना में कह्यो कैसे मैं उधरिहों।
फेर प्रान त्यागे भुज चार भई ताही ठौर। आयो जमदूत कहे तोहि में पकरिहों।
ग्वाल कवि एती सुनि भाग्यबलि भाख्यो वह। निज भुजदण्ड को घमण्ड अनुसरिहो।
तोरि जम दंड को मरोरि बाहु दंड को सु। फोरि फारिमंडल अखंड खंड करिहों॥८७॥

कवि


अधम अभंगी अघ ओपन के संगो दीइ। धोई देह दौरि जमुना में बोर ताब होत।
बीते वह बासर प्रसंस हंस दूर भयो। है गयो मुकुन्द तई काहूकी न दाव होत।
ग्वाल कवि भनत स लेन आये दूत ताहि। देखि तिन्हे सों ही जाय जुट्यो चित चाव होत।
जंग बढ़ी तिन सों उमंग चढ़ी अंगन में। रंग बड्यो हिय में सुरङ्ग मुख आव होत॥८८॥

कविरा–भयानक रस


पूरि रह्यो पातिक में कल ही कुचालो कूर। काया भई कष्टित मलीन तनु भारे कों।
देखि जम सों ही जमुना को लियो नाम उन। होत अंतकाल नंदलाल रूप धारे कों।
ग्वाल कवि त्यों ही जम भाख्यो हाय हाय करि। काउ जिन जाउ जो गये तो मारि तारे को।
दूर करि देगो दीह राखन दि करि। चूर करि देगो अंग अखिल हमारे को॥८९॥

कवित–बीभत्स रस


पापी एक आइ के नहायो जमुना में जोर। ह्वे के भुजचार त्यों विमानन की सेज होत।
आये जमदूत मिले पारशद बोचो बीच। खींचे होत जुद्ध जीतेंगे भले जे होत।
ग्वाल कवि भाखे उन इतन के फोरे शीश। श्रोन सिन्धु धारे बहि बहि के मजेजे होत!
जम को जहर मानों जैयद कहर भय। हहर हहर चित्रगुप्त के करेजे होत॥९०॥

कवित्त अद्भुत रस


व्यापी अघ ओघ को महापी मदिरा को मंजु। कीनो परदेश को पयान रोज रारा में।
भोज करिबे को लई लकरी करीलन की। सो करील रावरे किनारे हुतो क्यारी में।
ग्वाल कवि ताको उड़ि धूम गयो नर्कन में। पुर्षन समेत पापी स्याम छवि धारी में।
सुमिरन सेवा ध्यान दरस परस बिना। मुकति दिवैया मैया जमुना निहारी में॥९१॥

कवित्त–शांत रस


अपनो न कोऊ बन्धु बहिन भतीजे सुत। भानजे न भाभिमि मुहयापन को सपनो।
तपनो तपन तेज तन कों अनित्य जानि। मोज करि ज्ञान की अदेह में न चपनो।
कफ्नो कुसंग तें कुढंगन तें ग्वाल कवि। झूठो व्यवहार माया जालतें न झपनो।
थपनो न मोंकों जग जाल के जंजालन में। याते अब नाम जमुना को रोज जपनो॥९२॥

कवित्त


जो लों रहे स्वास तो लो आस रहे जीवन की। स्वास गये फेर कछु दीखत न पार है।
काम क्रोध लोभ मोह मध्य मद गामी बन्यो। पर नारि गामी को न जान्यो काहू बार है।
ग्वाल कवि आज आप आपनी परोहे सबे। देख्यो जग बीच एक मतलब हो सार है।
डारि सब भार में कियो है निरधार एक। नाम जमुना को मोहि अमृत अधार है॥९३॥

कवित्त


काम की न काहू के न निज काम आवे काया। पंचभूत व्यापनी बनाई विधि आम की।
धाम की न धनि की न धन की न तन की तपन की न पात बात कोनी सब खाम की।
साम की न दाम की न दंडभेद छाया रही। वेद विधि जानी कवि ग्वाल जे अराम की।
छान को न माया बसु याम की हमें तो अब। राम की दुहाई आसा जमुना के नाम की॥९४‍॥

कवित्त


परनो कुसंग के न अंगन में मेरे मन। मन अनंगन एक छिन जरनो।
मरनो भलोई हिय मौन में मगनि भल। उज्जल अचल फेर छलतातें डरनो।
हरनो कुटुम्बन ते मोह कवि ग्वाल भने। ज्ञान अंकुशे ले करी क्रोधादिक डरनो।
करिनो हमें हौं सो कियोहो बहु घोस, पर। अब तो जरूर जमुना को ध्यान धरनो॥९५॥

अय षटऋतु वर्णन

कवित्त-वसन्त ऋतु


भानु तनया को अति तरल तरंगे ताकि। होत तेज अतुल प्रताप पल चार में।
बैठे सुरसंग में सु अंग में वंसती बास। वैसेई बिछौना जर्द जरद बजार में।
ग्वाल कवि कोकिल कलित कल रव राजे। त्रिविध समीर सुख सरस अपार में।
किंशुक कुसुंभ मी अनार कचनार चारु। फैल फैल फूलत बसन्त की बहार में॥९६॥

कवित्त-ग्रीष्म ऋतु


पाई ऋतु ग्रीषम बिछायत बानाय वेष। कोमल कमल निरमलदल टकि टकि।
इंदीवर कलित ललित मकरंद रची। छूटत फुहारे नीर सौरभित सकि सकि।
ग्वाल कवि मुदित विराजत उसीर खाने। छाजत सुरा में सुधा छकि छकि।
होत छवि नीकी वृषभान नंदनी की सौंह। भानु-नंदनीकी ते तरंगन कों तकि तकि॥९७॥

कवित्त


सूरज सुता के तेज तरल तरंग ताकि। पुञ्ज देवता के घिरे नाके चहुँ कोय के।
ग्रीषम बहारे बेस छूटत फुहारैं धारें। फैलत हजारे हैं गुलाब स्वच्छ तोय के।
ग्वाल कवि चंदन कपूर चूर चुनियत। चौसर चंबेली चंदवदनी समोय के।
खास खस खाने खासे खूब खिलवत खाने। खुलिगे खजाने खाने खाने खुसबोय के॥९८॥

कवित्त-पावस ऋतु


पावस बहारन विलोके हरिलोक बीच। बेसुमार बीजुरी चमके चारु चकि चकि।
घोर घोर घुमिरि धनावली घमंडे करे। घर घर घोष पौन झर झर झकि अकि।
ग्वाल कवि माथे मोर चंद्रिका विराजे बेस। आठ पटरानी देव जोरे प्रीति थकि थकि।
होत छवि नीकी वृषभानु नंदनी को सौंह। भानु नंदनी के ते तरङ्गन को तकि तकि॥९९॥

कवित्त-शरद ऋतु


आइ रितु शरद सुहाई बैकुण्ठ बीच। ह्वै करि सुबेस तहाँराजे सुधा छकि छकि।
तारन बादलान के बिछौना सित शोभा देत। झिलमिलि झालरैं सुमोतिन की झकि झकि।
ग्वाल कवि चंद्रक कलित तन चंद्रिका में। तैसी मोर चंद्रिका चमके शीश चकि चकि।
होत छवि नीकी वृषमान नंदनी की सोंह। भानु नंदनी के ते तरङ्गन को तकि तकि॥१००॥

कवित


बेसक विहारी केसु धामन को धनी होत। बनी होत सरद जुन्हाई जहाँ जकि जकि।
चौसर चमेली के चंगेरिन में चुनियत। होरन ते कुण्डल जडाऊ करे धकि धकि।
ग्वाल कवि आसन असन बसनन बेस। सरसी सफेदशोभ चंदन ढरकि ढकि।
होत छवि नीकी वृषमान नंदनी की सौह। भानु नंदनी की ते तरंगन को तकि तकि॥१०१॥

कवित्त-हेमंत ऋतु


अति अभिमानी पाप ही में मति ठानी। निज नरक निशानी जाहि मारे दूत ठेलि ठेलि।
ताको भाग जागो जमुना को भयो दरस परस। कै के भुजचार चारु लोह्रीं है सकेल केलि।
ग्वाल कवि पीवत पियूष प्यार पूरे पगि। हाजिर हिमाम को किमाम सुख झेलि झेलि।
प्यारी रूपवंत इककंत छविवंत दोऊ। राजत हिमंत में इकंत भुज मेलि मेलि॥१०२॥

कवित्त-शिशिर ऋतु


सरसी शिशिर रितु दासीसु दीपन में। परसी गोविंद पुर भोतर अमल भल।
बीच देवतान के विराजे वर बानिक सों। मानिक के महल गलीचा जोति झल झल।
ग्वाल कवि दीट दर परदे पर है दिव्य। चन्दन पियूषचन्द बदनी अचल चल।
होत छवि नीकी वृषभानु नन्दनी को सौंह। भानु नन्दनी को ते तरंगन कों पल पल॥१०३॥

कवित्त


भानु नन्दनी की तकि तकि के तरगे तेज। सोवे सेज सौरभ मजेज को सी सी सी।
शिशिर बहार में जगी है जोति जगमग। सुद्धी भई सुमति विरुद्धमति पी सी सी।
ग्वाल कवि आगे में नकासी कल गावे गान। परदा अनूप तेज तापिनी जु दी सी सी।
संग में लसी सी तिय वदन शशी सी दुति। छाके सुधा सी सी मिटि जात मुख सी सी॥१०४॥

इति षट्ऋतु वर्णन


अध फुटकर-कवित्त


चमकी चहूँधा दीह दीपन में दिव्य दुति। जमुना जगी है जोर जुलम न भारी तें।
अधम अजापी महा पापी नीच मीच। समैं परी उड़िरेनु मीच नैन उर धारी तें।
ग्वाल कवि आये पारशद ले विमानन कों। मारि जमदूतन विदा किये अगारी तें।
जम की जमैयत जरन सागी समकीन। दम की रही न सुधि धमकी तिहारी तें॥१०५॥

कवित्त


भूलहू न जातो एको भुनगा हरी के मौन। कैसे त्रिषावन्तन की तिरषा बुझाती ये।
सागर अपार में नहीं ये बेसुमार सब। कासों मिलि मिलि के वहाँ लौं मिलि जाती ये।
ग्वाल कवि धरम धुजान फहराती बेस। कैसे हूँ न वरन विवेकता निभाती ये।
जीवती न गोपिका गोविन्द के वियोग बीच। जो न जमुना की जोर जेब दरसाती ये॥१०६॥

कवित्त


सोरके सराक दे सरक सुख जातो सब। दौरिके दरेक दुख बढ़ि जातो कल में।
उड़ि जातो तूल सो तजक तन तन तोरि। छाय जातो मेल मूल मुखन अमल में।
ग्वाल कवि जोर वैकुण्ठ जातो खाली होय। हाली जमलोक भरि जातो भूरि भल में।
होती जो न रविना तो फवि जातो पाप पूर। नवि जातो कर्म धर्म दबि जातो पल में॥१०७॥

कवित्त


छिपतो कहाँ धौं जाय कालिया कुटुम्ब जुत। कैसें धर्म सीमा कुल ही में चलि आवती।
पावते न कृष्णचन्द्र कालीनाथ[१८] पदवी को। फेर काहू रीत तैंने खेल विधि भावती।

ग्वाल कवि केसें अनन्द नन्दनन्दन को। देखतौं बरुन, जो सदा पुरान गावती।
जाते मिटिं करम मुनीसन कों वीसो वीस। जो न जमुना की या धरा पे धार आवती॥१०८॥

कवि वचन-दोहा

संवत निधि रिषि सिद्धि शशि। कातिक मास सुजान।
पुरन मासी परमप्रिय। राधा हरि को ध्यान।
भयो प्रगट ताही सुदिन। जमुना लहरी ग्रन्थ।
पढ़े सुने आनन्द मिले। जानि परे सुर पंथ।

 

इति श्री ग्वाल विरचिते यमुनालहरी ग्रंथ संपुरणम्।

  1. मूलपाठ :––. वासि
  2. वीदीत।
  3. अरिहु
  4. जलुस
  5. विबूध
  6. गोपीका
  7. करीयो।
  8. भाखे
  9. बांधीं।
  10. मूलपाठ. शिश।
  11. मूलपाठ:––जमदुतन।
  12. मूलपाठ :––भागे,
  13. पापीन।
  14. मूलपाठ:––तेरि।
  15. बिपरित
  16. किजीये।
  17. मूलपाठ : अधीकारि।
  18. मूलपाठ : कालि।