भक्तभावन  (1981) 
ग्वाल, संपादक प्रेमलता बाफना

वाराणसी: विश्वविद्यालय प्रकाशन, पृष्ठ आवरण पृष्ठ से – — तक

 

ग्वाल कवि कृत

भक्तभावन





डॉ॰ प्रेमलता बाफना




विश्वविद्यालय प्रकाशन,वाराणसी

१/११

Hindi Gral |

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ग्वाल कवि कृत

भक्तभावन




संपादिका

डॉ॰ प्रेमलता बाफना

रीडर, हिन्दी विभाग

महाराज सयाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ौदा



विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी

BHAKTBHAWAN

by

Gwal Kavi

ISBN–81–7124–092–5

प्रथम संस्करण : १९९१ ई॰







प्रकाशक :

विश्वविद्यालय प्रकाशन

चौक, वाराणसी–२२१००१


मुद्रक :

शीला प्रिण्टसं

लहरतारा, वाराणसी









पूज्य पिताजी

की

पावन स्मृति में

आभार

महाकवि ग्वाल 'भक्तभावन' को पाण्डुलिपि महाराज सयाजीराव विश्वविद्यालय, पड़ौदा के प्राध्य विद्यामंदिर (ओरिएण्टल इंस्टीट्यूट) के हस्तलिखित विभाग में सुरक्षित है। इस पाण्डुलिपि को पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित करने की अनुमति प्रदान करने के लिए में प्राच्य विद्यामंदिर के पदाधिकारियों की आभारी हूँ। विशेष रूप से मैं तत्कालीन डायरेक्टर महोदय प्रो॰ एस॰ जी॰ काँटावाला के प्रति अपना आभार व्यक्त करती हूँ। इस पुस्तक को प्रस्तावना स्वरूप यो शब्द लिखने के लिए भूतपूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो॰ एम॰ जी॰ गुप्त के प्रति भी में अपनी हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ

––प्रेमलता बाफन



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रीति-परम्परा के कवि और आचार्य ग्वाल व्यापक काव्य-चेतना से सम्पन्न काव्यकार हैं। जिन्हें भारतीय इतिहास का ज्ञान है वे इस तथ्य से सहमत होंगे कि उनके अन्तिम दिनों में भी आधुनिक नव-जागरण अथवा दूसरे शब्दों में सांस्कृतिक पुनरुत्थान का आरम्भ नहीं हुआ था। उनके मृत्युकाल (सं॰ १९२४ या सन् १८६७ ई॰) में भारतेन्दु जी ने अपनी कलम संभालो ही थी और आरम्भ काल के लगभग चौदह वर्षों तक उनके नाटक और कविताएँ मध्यकालीन चेतना के ही परिचायक थे। तदनन्तर 'भारत दुर्दशा' नाटक और मुकरियाँ निश्चय ही आधुनिकता की धरती पर प्रतिष्ठित कही जा सकती हैं। जहाँ तक हिन्दी कविता की प्रधान धारा का विषय है वह द्विवेदी युग के आरम्भ तक रीतिकालीन चेतना से

मुख्यतः जुड़ी रही है। अन्तर इतना ही है कि सन्दर्भ की दृष्टि से भारतेन्दु युग में दरबारी काव्य के स्थान पर गोष्ठी काव्य की रचना आरम्भ हो गयी, किन्तु प्रवृत्ति में कोई विशेष अन्तर नहीं परिलक्षित होता। हिन्दी क्षेत्र में जब देशी राज्य और उनके दरबार ही न रहे हों, तो यह स्वाभाविक ही था। जहाँ तक कविता में मिलनेवाली घनाक्षरी-कवित्त-सवैया की शैली, शब्द-चयन, अलंकार-योजना, वाग्विदग्धता आदि विशेषताओं का ही विषय है द्विवेदी युग के आरम्भ तक की हिन्दी कविता प्रधानतया मध्यकालीन काव्य-चेतना से ही परिलक्षित है।

उपर्युक्त तथ्यों के प्रकाश में हम ग्वाल कवि के कविता काल तथा निजी कृतित्व की पूर्ववर्ती तथा परवर्ती परम्परा का निदर्शन कर सकते हैं और इस निदर्शन के प्रकाश में डॉ॰ (कु॰) प्रेमलता बाफना द्वारा प्रस्तुत कवि के मूल्यांकन को यथेष्ट न्याय पावना दे सकते हैं। रीति और भक्ति काव्य ग्वाल के पश्चात् भी लिखा गया है और उसकी पुष्कल-सामग्री गुणवत्ता में ग्वाल को कविता से निर्बल भी नहीं कही जा सकती। कवि गोविन्द गिल्लाभाई, दत्त द्विजेन्द्र, रसराशि, द्विजदेव जैसे समर्थ कवियों को यहाँ स्मरण करा देना पर्याप्त होगा। अतः रीतिकाव्य की सीमा रेखा उनके कविता काल की समाप्ति से खींच देना नितान्त उपयुक्त नहीं कहा जा सकता। आचार्यत्व के भी साक्ष्य ग्वाल के बाद में प्राप्त होते हैं, फिर भी ग्वाल के विषय में डॉ॰ कु॰ बाफना की एतद्विषयक स्थापना को एक प्रकार से सटीक कहा जायेगा। उन्होंने बड़े मनोयोगपूर्वक 'भक्तभावन' संग्रह की छोटी-बड़ी कृतियों का पाठालोचन प्रस्तुत करके रीति-परम्परा की एक अल्पज्ञात और एक प्रकार से अज्ञातप्राय कड़ी को प्रकाश में लाने का प्रयास किया है। भूमिका में कवि के कृतित्व के समग्रतया मूल्यांकन का संकेतमात्र देकर उन्होंने अपने विवेचन को इन्हीं कृतियों तक सीमित रखा है। यह विवेचन विषयवस्तु का सम्यक् विश्लेषण प्रस्तुत करता है।

क्रमशः प्रकाश में आनेवाले अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अठारहवीं शताब्दी ईस्वी तक की रीतिकालीन कविता का जितना विस्तृत अध्ययन प्रकाश में आया है, परवर्ती एक शती के कवियों और उनकी कृतियों पर बहुत कम विचार हुआ है। बहुत बड़ी मात्रा में ऐसी सामग्री राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार के संग्रहों तथा नाभा पटियाला, और पंजाब की कुछ छोटी-बड़ी पुरानी रियासतों में वर्तमान है। यह सम्भव है कि उसके यथेष्ट अनुशीलन के उपरान्त हमें अपनी पूर्ववर्ती धारणाओं को बदलना पड़े। कवि ग्वाल की रचनाएं जिस कोटि की हैं, उस कोटि की तथा अनेक तो गुणवत्ता की दृष्टि से उससे कुछ ऊपर-नीचे की भूमियों की भी हैं। अतः मुझे विश्वास है कि ग्वाल के पश्चात् 'रीतिकाव्य की अटूट परम्परा का वैसा आलोक पुनः दिखाई नहीं देता'––विषयक लेखिका के निष्कर्षों में भविष्य में यत्किचित् परिवर्तन करना पड़ेगा। इस सम्भावना के लिए भी उसका द्वार खोलनेवाली डॉ. बाफना हमारे साधुवाद की अधिकारिणी ही कही जायेंगी क्योंकि उन्होंने इस अन्तिम कड़ी के एक पक्ष को पहले पहल साहित्य जगत् में प्रस्तुत किया है।

मुझे विश्वास है कि प्राचीन काव्य-सामग्री के सम्यक् अध्ययन की दिशा में लेखिका का यह प्रयास एक सुदृढ़ और सराहनीय पदन्यास सिद्ध होगा। आशा है सुधी विद्वज्जनों के बीच इस शोष-सामग्री का समुचित स्वागत होगा।

––मदन गोपाल गुप्त

२५-५-१९९१
भू॰ पू॰ प्रोफेसर एवं अध्यक्ष
 

हिन्दी विभाग

महाराज सयाजीराव वि॰ वि॰, बड़ौदा

अनुक्रम

भूमिका : जीवन-परिचय, काव्य-परिचय, समीक्षासार ९–२६
मूलपाठ :
१. यमुना लहरी
२. नखशिख २१
३. गोपी पचीसी ३१
४. राधाष्टक ३६
५. कृष्णाष्टक ३८
६. रामाष्टक ४०
७. गंगा स्तुति ४२
८. दशमहाविद्यान की स्तुति ४५
९. ज्वालाष्टक ४७
१०. पहिला गणेशाष्टक ४९
११. दूसरा गणेशाष्टक ५१
१२. शिवादि देवतान की स्तुति ५३
१३. षट्ऋतु वर्णन तथा अन्योक्ति वर्णन ५९
१४. प्रस्तावक नीति कवित्त ८१
१५. द्रगशतकम् ८८
१६. भक्ति और शांतरस के कवित्त ९५

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