भक्तभावन/कृष्ण प्रति गोपिन को पत्री
अथ श्रीकृष्ण प्रति गोपिन को पत्री
सवैया
ब्रजनाथ हुते तब साथ हुते, मथुरापति नाथ कहावति ह्वै हई।
कछु और के और भये सब तोर, रुखाई लई रसिया कै दई।
कवि ग्वाल अंचभो यही इक है भला और तो बात भई सो भई।
सुधि कैलन को भुज मेलन की, वह खेलन को कहाँ भूलि गई॥ १८॥
सवैया
रास कियो यों विलास कियो, रहे पास हुलास की राशि ले लूटी।
आदिन तैं अकरूर लिवाइगो, तादिन ते गति और ही जूटी।
त्यों कवि ग्वाल कलंकित कूबरी, कान लगे तैं सबै मति टूटी।
आहरे वाहरे गुर्विद छली, भली जोग को भेजि दई विष बूटी॥१९॥
कवित्त
माखन के चाखन को लाखन उपाय कोने, साखन तुम्हारी तक द्वार अरे रहो।
चोरि चोरि दही लियो छोरि छोरि मही पियो, कही अनक ही सब सही में खरे रहो।
ग्वाल कवि ऐसे हाल हाल ही के भूलि गये, भेज्यो जोग सूल नेक लाज तो धरे रहो।
मानो कहा रस की रसाइन गुपाल तुम, कूबरी कसाइन के पाइन परे रहो॥२०॥
कवित्त
तजि अजबालन को मथुरा गयो तो गयो, उहाँ जाय कौन सो सुजस जग छायो है।
करतो विवाह जात पात को कुमारी संग, तक हम जानती सुपंथ में सिधायो है।
ग्वाल कवि जो पर सुरति ही पें रीझ हुती, तोपें भली जातको न नारि लुभायो है।
कूबरी कलंकिन वा किन को अंक लाय, कान्ह भलो कुलको कलकत लगायो है॥२१॥
कवित्त
एरे निरदई तेरी सुधि बुषि कोने लई, गई कहाँ प्रोत रीत पाछली जु खेली है।
ओग दै पठायो ऊधौ आयो भी सुनायो हमें, सब समुझायो भलो तेरो यह मेली है।
ग्वाल कवि हम तो वियोग जोग धार चुकी, तोही को मुबारक है, ये जोग सेली है।
कूबरी के कान फाड़ि, माथो मूडि, राख लाय, चेला बनो ताके, या बनाओ ताहि चेली है॥२२॥
कवित्त
रसिक नरेश कहवाय के कन्हैया लाल, इतनो कठोर हियो काहे को सु कियो तें।
कहाँ गई तेरी वह मंद मुसिक्यान मोठी, कहाँ गयो मोह मेल जाको मजा पियो तें।
ग्वाल कवि हमको भरोसों यह होत ऐसो, जैसो छल कौतुक करोर जोर लियो तें।
जानी ही बड़े भये, बढ़े है बहु प्रीतिपुञ्ज, सो तो रति पाछली हू ख्याल खोय दी यों तें॥२३॥
अथ पुनः गोपी बचन ऊधौ प्रति
कवित्त
कहिबें कों हमतो वियोगिनी विदित नित, सरस संजोग हूते सुमति सुधारी है।
ऊधौ तोहि वहाँ इहाँ कहूँ न लखाई पर्यो, सांचे ही अलख तोहि भयो गिरधारी है।
ग्वाल कवि हयां तो वही जाम जाम घाम धाम, मूरति मनोहर न नेक होत न्यारी है।
कानन में, आनन में, प्रानन में, मौखिन में, अंगन में रोम रोम रसिक बिहारी है॥२४॥
अब ऊधौ बचन श्रीकृष्ण सो
कवित्त
रावरें कहेंते हों गयो हो ब्रजबालन पें, देखते ही मोहि कियो आदर अपारा है।
कहते तिहारी बात गात ते भभूके उठी, परत बारूद की जमात ज्यों अंगारा है।
ग्वाल कवि बहे लागी लपट दवागिन सी, दौर्यों में तहां तें तोऊ झुरसो दुबारा है।
गोपी विरहागिन में जोग उडि गयो ऐसें, जैसें उड़िजात परे पावक में पारा है॥२५॥