[ ३८ ]

अथ श्री कृष्णाष्टक

कवित्त

नील मसी जिनके बदन पर जेवदारी। सरुसा तमाम कद आलम पसंद है।
एक दरत्त बीच छड़ी गुलोको गमकदार। बंसरी हुदरत्तगोया जिगरौं का फंद है।
ग्वाल कवि यारों को खिलाता आपखेलता है। जरे मिली जुल्फगोया मार मुनि का बंद है।
चार सर वाले से कारिदें है जिसी के वही। वंदें पें मेहरबान नजर बुलंद है॥१॥

कवित्त

जरै की जलूसन में लोटता हमेंसा रहै। सीमजर गौहर का आप षक संद है।
जिसके ख्याल में खलफ गिर्फतार हुआ। गितार वही माके दस्तफंद है।
ग्वाल कवि जिसने चलाया आफताब तिसें। गोपियां सिखाती रफतार हरचंद है।
चार सरवाले से कारिंदे है जिसीके वही। वंदे पे मेहरबान नजर बुलंद है॥२॥

कवित्त

सुरखी निहायत कदम जिसके को देख। कीजियें निसार इस्क पेंचन का फंद है।
गोल महताब से नाखून जिसके है दस। वक्त हर तौर का अजाइब पसंद है।
ग्वाल कवि जो कि नहिं आता है तसौअर में अरमें वहीज सुधा की दुआ गोद में सवंद है
चार सरवाले से कारिदें है जिसीके वही। बंदे पे मेहरवान नजर-बुलंद है॥३॥

कवित्त

यार जो सफेद है हजार सरवाला आला। जिसको पलंग करि सोता सोख बंद है।
जिस्फे तेई खोफ क्याथा काली नाथ ने पैमारो। वह तो खिलौना सा बिलाया जी पसंद है।
ग्वाल कवि जिसे पूतनाका दूध पीना क्या था। जहरी कमाल सो कि जिस्का हुक्म बंद है।
चार सरवाले से कारिदे है जिसीके वही। वंदे में मेहरबान नजर बुलंद है॥४॥

कवित्त

सर मुकुट मोर पर का कपाल खुला। कानों में जमुरंद बडाव जेव बंद है।
गजरें गुलों के गले गौहर अमेज तेज। रंगा मेज तन पर झलकति चंद है।
ग्वाल कवि जिसके जिगर पर दौलत का। और भ्रम कदमौका वक्त नूरबंद है।
चार सरवाले से कारिंदे है जिसीके कही। वंदे में मेहरबान नजर बुलंद है॥५॥

[ ३९ ]

कवित्त


चाहे तो पलक में खतम कर देवे जहाँ। चाहे तो बनावे लाख करे कौन बंद है।
जिसका मानिंद और दूसरा न कोई कही। तिसकी मिसाल तिसें देवे जो पसंद है।
ग्वाल कवि जिस्से दुष्मनाई क्या करेगा कंस। अज्ल जिसके हाजिर हमेसा हुक्म बंद है।
चार सरवाले से कारिंदे है जिसी के वही। बंदे में मेहरबान नजर बुलंद है॥६॥

कवित्त


लाखो मन सीरनी करी थी ब्रजवासियों ने। कोह पे न छोड़ा कुछ अजब खुरंद है।
दुपत के दुस्तर की शरम हर सूरत सें। राखी आमखास में खयाल खुसवंद है।
ग्वाल कवि चावल सुदामा के नकल कर। महल बनाये सीप जड़ाऊसंद है।
चार सरवाले से कारिंदे है जिसीके वही। वंदे पें मेहरबान नजर बुलंद है॥७॥

कवित्त


दुस्मनों को मारता मुरीदों को संभारता है। खल्क से निकारे ऐसी नेकी पसंद है।
साफ दिल होके इनसाफ करता जो याद। उसे भिस्त देवे ओ कसूर बकसंद है।
ग्वाल कवि जिसके बयान करने के तई। के सर हजार मार तो भी फड़ा फंद है।
चार सरवाले से कारिदे है जिसीके वही। वंदे पे मेहरबान नजर बुलंद है॥८॥

[ ४० ]

अथ रामाष्टक

कवित्त

साधन की संगत न पंगत में बैठे कभू। रंगत तियान की विलोको सवरद की।
किये कबहून छाप जाय आप जोग तप। ताप में तपत पाप पूरन फरद को।
ग्वाल कवि कारन रिझैबे के नरको किये। कौन की सियारस सुनावते दरद को।
जैसो भलो तसो पैन मिलतो तुम्हें जो राम। सो मिटि जाती साख रावरे विरद की॥१॥

कवित्त

कोऊ कछू मांगे अनुरागे जिय लागे जहाँ। रूप रंग रागे दिनरैन रस पोजे जी।
चंचला सी बाला धन जोबन दुशाला आला। चारु चित्र शाला आयु बाढ़े बहु जीजेजी।
ग्वाल कवि अरजी हमारी है विरंचि यह। मरजी विचार कहूँ दूसरी न रोजें जी।
राम अवधेश के गुलाम को तिलाम कोऊ। ताहू के गुलाम को तिलाम कर दीजें जी॥२॥

कवित्त

पूरन पियूख की प्याला भर पोजियें जो। पाने या मजाने वह अमर करेईगी।
देवोदान मान सों अजानन कों जाननकों। कीरति विचित्र देश देशन हरेईगी।
ग्वाल कवि पातें वात विविध विचारो वीन। ना ते पछताइ तेर सुमति लरेईगी।
राम रूप साचें रचि कांचे वाचेगो न यार। या मरे मुकति परेईगी॥३॥

कवित्त

कीजो कछु एते में विरंचि वर वानिक सों। सुमन करे तो रामबाग सुख कंद को।
कोमनद चँहिं करि सरजू नदी के तीर। कोक करियो चाहे करि सरजू सु छंद को।
ग्वाल कवि आशक करे तो रामरूप ही को। भूषन करे तो राम अंगन अमंद को।
बंदर करे तो भले अवधिपुरी को करि। घाम अवधेश को गुलाम रामचंद को॥४॥

कवित्त

गनिका अधम पाय गनिकान जाकी मिले। ताहि पल एक में मुकति दीजियत है।
बालमीक नामे विपरीत के कलामे रट्यो। ताहि निज धामें अपनाइ लीजियत है।
ग्वाल कवि कोतुक विचित्र गति होत जब। पाहन शिला पें पद नेक छोजियत है।
वाते सुनि लाखें मन माते भयो भातेंभांत। यातें राम रावरोई पाछो कीजियत है॥५॥

[ ४१ ]

कवित्त


गीधे गीध तारिके सुतारिकै उतारिक जू। धारिकैं हिये में निज बात जटि जायगी।
तारिकें अवधि करी अवधि सुतारिबे को। विपति विदारिबे की फांस कटि जायगी।
ग्वाल कवि सहज न तारिबो मारौ, गिनौ। कठिन परेंगी पाप पांति पढ़ि जायगी।
यातें जो न तारिहों तिहारी सोह रघुनाथ। अधम उधारिवे कों साख घटि जायगी॥६॥

कवित्त


जोइ जोइ जायन को भायन भयेई रहें। लोयन लगालग में क्युष बिसारेंई।
लागे जोग जप में न तप अनुरागे कभू। लागे रूप अप में सु पेरन आ परेंई।
ग्वाल कवि यातें तुम संकित न हूँणे नाथ। नाम राखिवे है तो परेगी पेज पारेंईं।
टारे ना बनेगी अब अरेना बनेगी बात। धारेई बनेगी जी बनेमी बाज तारेई॥७॥

कवित्त


वीरता लावेंगे रघुवीर जू तिहारी अब। कैसे कृपाकारी औ कटैया भवफंद हो।
तोरि डारि मैंने तो मरजादा वादा बिन। तुम तो मरजादा पुरुषोत्तम सु छेद हो।
ग्वाल कवि परम पतित प्रन पार यो में तो। पावन पतित तुव नाम सुखकंद हो।
मैं तो दीनराज तुम दीनानाथ रघुनाथ। मैं तो दुतिमंद तुम रामचंद चंद हो॥८॥

[ ४२ ]

अथ गंगा स्तुति

कवित्त

करन दया की इंदिरा की है भरन वारी। पूर फल करन गया को दुख हर है।
वारन करत संभु शैलजा करत नीके। सहा सुझावे रमापति को शहर है।
ग्वाल कवि कहे जम जाल को निहाल करें। अमित विशाल गुन गुन को गहर है।
टारन कलेश को सुढारन सुजस पुत्र। कारन लहर सुरसरि की लहर है॥१॥

कवित्त

विग्रह अनुग्रह दुहन के करन वे तो। आप बिन विग्रह अनुग्रह ही भरि सकै।
पाप अनगन जन मन के हरत आप। वे तो जन मन हू कैं पापको न हरि सकै।
ग्वाल कवि तेरे नाम लिये वामदेव होत। उन्हें जपि हारै तऊ ध्यान में न अरि सकै।
आपको सहज सुरसरि पर तेरी। सुरसरि ह्वै कियो पे न करि सके ॥२॥

कवित्त

जाकी तमा सबकों अनूपमा रमा है वही। शमाले गुलाब के झमावे पे लगत है।
काली विषझाली के फनालीने परस करि। भये अभयाली अरु अबलों सजत है।
ग्वाल कवि कहै प्रहलाद नारदादि सब। धरि धरि ध्यान सरवोपरि रजत है।
मेरे जान गंगे! तुम प्रगटी तहाँ ते तातें। मुख्य करि माधव के पद ही पुजत है॥३॥

कवित्त

देवधुनि भैया के रिझैया को चरित्र यहै। यामें जै अन्हैया खेया भंगभोग है रे।
अंबर छिनैया है दिगंबर करैया और। छया है वघंवर की भस्म सैया दैहै रे।
ग्वाल कवि थैया थैया भूतन चैया होत। वाह वाह बुलेया भूतनाथ मुख ऐहै रे।
बैल पें धरैया करे शैल पें चढ़ेया फेर फेल को बकैया भैया हम तोन ह्वैहै रे॥४॥

कवित्त

शीतल सुधासी है सुधारी त्यों सनित सुचि। सुंदर सुहावनी सुखेनी है महेश को।
काटत कलुष दुःख सनमुख आवत हो। वयुष बढ़ावे तेज रुख के प्रवेश को।
ग्वाल कवि गालिब गजब जमदूतन पें। अजब दिवाने भये तारे देख देश को।
लहर तिहारी हरिन हर निहारी गंग। कहर कलेश की है जहर जमेश को॥५॥

[ ४३ ]

कवित्त

देवधुनि धारा में सनान करिबो हैं तुम्हें। तोपें द्रढ़ न कीजे मत आपकी सुमति को।
आय है न कोऊ फेर रच्छक तिहारो तहाँ। तक्षक प्रतक्ष पूरि जैहै अंग असि को।
ग्वाल कवि गिरिजा विराजि है सु आधे अंग। भंग भोग पेहै और चढ़ेहै बेल जति को।
पहिले मिलत मृगखाल को खिलत फेर। बकसे सिताबही किताब भूतपति को॥६॥

कवित्त

नग करि आप ही सु आये संग होत शीश। ईश पद देके भंग भोग शुभ साज सों।
लिपटे भुजंग रंग सितके भले ई भाव। लोचन सुरंग रंगे असम समाज सौं।
ग्वाल कवि गिरजा अधंग रहे मोह भंग। शृंगपे जु शैल के करावे शैल राजसों।
देवि के तरंग रंग रंग की उमंग गंग अंग करे उज्जल सुजंग जमराज सों॥७॥

कवित्त

कौतुक तिहारे में निहारे भारे देव धुनि। धुनि धुनि शीशदोर दूत भये रोक में।
डोर चित्रगुप्त ने हिसाब के किताब गंज। हारे हम हारे यों पुकारे जमलोक में।
ग्वाल कवि लोचन दरारे के जमेश बेश। पापिन बंधाये औ डराये शोक ओक में।
बंद में उतारे लगे तोर पे सितारे जगे। तोर नाम लेत जिते तारे नभ लोक में॥८॥

कवित्त

केधों सत्वगुन की सत्ता कोई प्रचार चारु। कैधौ चारु चंद्रक के चंद्रिका चलाका है।
केधों छोर सागर को धार है विहार जुत। केवो संभु रजत पहार ही को नाका है।
ग्वाल कवि कैधों सत्य हो की सत्य सत्ता यह। कैधों श्री भगीरथ के जसको इलाका है।
कैधों धर्म कर्म के प्रताप को पताका पर। कैधों सुरसरि के प्रवाह की सलाका॥९॥

कवित्त

तौमें आइ अंगजे पखारे गंग भागीरथी। तिनके करत इक रूप मोहि दीस है।
केती गंग तो में ओ तरंग रंग की है। केती अरधंग और केते गनाधीश है।
ग्वाल कवि कहे चारु शैलन की शैल केती बेलन को फैल औ चुरेल ओ खवोश है।
केतक गिरीश ओ फनीश विश वीसौ बीस। शीश है कितेक औ कितेक रजनीश है॥१०॥

कवित्त

कूल अनु कूलन में पुत्र मंजु मूलन में। फबि रही फूलन में सूलन के झौर में।
रेत के पहारन में हारन में चारो और। खारन में जरन में अंबन के मौर में
ग्वाल कवि कहे फैन फुवन प्रचारन में। देव धुनि धारन उछारन में और में।
दासीसी मुकति भई सबके अधीन यारो। नचत प्रवीनी गनिकासी ठोर ठौर में॥११॥

[ ४४ ]

कवित्त

आई कढि गंगे तू पहारविंद मंदिर तें। याही तें गुविंद गात स्याम हर ओरे हैं।
फेर धंसी निकस परी है तू कमंडल में। याही से बिरंचि परे पोरे चहूं कोरे हैं।
ग्वाल कवि कहें तेरे विरही विरंग ऐसे। मिरही तिहारे तें बखाने रिस ओरे हैं।
स्याम रंग अंगन तौ चाहियैं तमोगुनी को। पारी सीस ईसयातें अंग अंग गोरे हैं॥१२॥

कवित्त

मुलि वरदायनी गुबिंद पद जन्य मात। धन्य वे पुरस चे दरस तेरे लये हैं।
अधिक बग्यान के अंधेरे में परेचे हुते। ते कृपा तिहारी के उजेरे माहि छये हैं।
ग्वाल कवि कहें सत्वगुन को समुंद कियो। औगुन अनेकन के गढ ढाहि दये हैं।
रावर प्रवाह पारावार में तरेचे जन। ते ते भव पारावार पार होय गये हैं॥१३॥

कवित्त

आवें जे तिहांरे तीर काहू और मात गंगे। तिनतें करत वैर कौन से सयानतें।
उनके परम मित्र मोह औ अज्ञान आदि। तिन्है मारि डारत हो निज दर्शबान तें।
ग्वाल कवि कहे खोटे कर्म ये करोसो करो। याहू ते अधिक भोर करो मन मान तें।
नहायक अपारन को भेषि देत ऐसी ठौर। जहाँ से न आवे औ जगके मजान तें॥१४॥

कवित्त

चित्रगुप्त[१] जमसों पुकारे बारबार ऐसे। केसी करें कहा जाई कौन-सी नगरि में।
जत में न व्रत में न पूजन में पाइयत। जैसो जग जगमग जोर सुरसरि में।
ग्वाल कवि जाके नहवैया बड़े बलधारी। इच्छा अनुसारी लवें काहूना नजरि में।
केते हरिलोक जाइ केते हरि पास जाइ। केते हरि रूप बने केते मिलें हरि में॥१५॥

  1. मूलपाठ––चीत्रगुप्त।