बेकन-विचाररत्नावली/२२ स्वभाव
या[१] यस्य प्रकृतिः स्वभावजनिता केनापि न त्यज्यते।
शार्ङ्गधर।
स्वभाव गुप्त रहता है; कभी कभी वह मनुष्यके वशमें भी आजाता है; परन्तु निर्मूल बहुत कम होता है। स्वभावको बलपूर्वक वशमें लानेका मयन करनेसे वह और भी अधिक आवेशके साथ अपनी सत्ता जमाता है। उपदेश और शिक्षासे स्वभाव कुछ नम्र होजाता है परन्तु उसको पूर्णतया बदलने अथवा जीतनेके लिए केवल अभ्यासही समर्थ है। जिसकी यह इच्छा है कि वह स्वभावको अपने वशमें करले उसको उचित है कि वह न तो बहुत बड़े बड़े काम करनेको उद्यत हो और न बहुत छोटेही छोटे करनेको उद्यत हो। कारण यह है कि, बहुत बड़े बड़े कामोंमें अनेक विघ्न होनेसे उत्साह जाता रहता है; और छोटे छोटे कामोंमें यद्यपि प्रायः सिद्धि होती है तथापि बढकर हाथ मारनेको नहीं मिलता।
तैरना सीखनेवाले जैसे पहिले तुम्बे अथवा घड़े इत्यादिकी सहायतासे तैरना आरम्भ करते हैं वैसे ही मनुष्यको किसी बातका अभ्यास करना हो तो दूसरेकी सहायतासे करना उचित है। परन्तु कालान्तरमें प्रतिकूल वस्तुओंके साहाय्यसे अभ्यासक्रम बढाना चाहिये। इसका यह कारण है कि सामान्य रीतिसे जो काम किया जाता है तदपेक्षा यदि कुछ कठिनतासे उस के करनेका अभ्यास होजाता है तो मनुष्यमें प्रवीणता अधिक आती है।
स्वभाव अति उद्दाम होनेसे उसको वशीभूत करनेमें बड़ी कठिनता पड़ती है; अतएव ऐसे स्वभावको क्रमक्रमसे अपने वशमें लाना चाहिए। क्रोध आनेपर मनुष्यको जैसे २४ तक गिनती गिनकर तब कोई काम करना चाहिए, उसीप्रकार स्वभावको रोंककर कुछ देर ठहर जाना चाहिए। यह पहला क्रम है। बहुत मद्य पीनेवालोंको जैसे पीना कम करते२ भोजनके समय केवल एक आध प्याला तक पहुँचकर अन्तमें उसे बन्द करदेना चाहिए उसीप्रकार स्वभावको धीरे धीरे छोड़ना चाहिए। यह दूसारा क्रम है। यदि किसीमें इतना दृढ़ निश्चय और धैर्य हो कि वह अपने दुःस्वभावको तत्कालही छोड़सकै तो और भी अच्छा है। जैसे छड़ी एक ओरसे यदि टेढ़ी हुई तो दूसरी ओर भी टेढ़ी करके उसे सीधी करते हैं वैसेही विरुद्ध आचरणद्वारा स्वभाव को ठिकाने लाना चाहिए। यह प्राचीन लोगोंका नियम है। यह भी बुरा नहीं; परन्तु स्मरण रहै कि विरुद्धाचरण अनीतियुक्त न होना चाहिए। किसी कामको बराबर करते रहना अच्छा नहीं। निरन्तर ऐसा करनेसे स्वभाव बिगड़ जाता है। बीच बीचमें अवकाशपूर्वक काम करना चाहिए। इसके दो कारण हैं। विश्राम लेनेसे एक तो फिर काम करनेकेलिए उत्साह बढ़ता है और दूसरा यह कि, यदि मनुष्य कार्यपटु नहीं है तो संतत काममें लगे रहनेसे उसके स्वाभाविक दोष भी गुणोंके साथ मिलजाते हैं और ऐसा होनेसे दोनोंके करनेका उसे स्वभाव पड़जाता है। गुणदोषोंके मेल को बचानेके लिए यही एक उपाय है कि निरन्तर किसी बातका अभ्यास न करके उसे सावकाश करना। स्वभावको हमने अपने वशमेंकर लिया है ऐसा कदापि न समझना चाहिए। बहुत काल पर्यन्त दबा रहनेपर भी सन्धि मिलतेही स्वभाव फिर जागृत हो उठता है। ईसापने एक कहानी लिक्खी है। वह यह है:-एक बिल्ली थी। दैवयोगसे वह स्त्री होगई। उसके सब व्यवहार भी मनुष्य हीकेसे होगए। एक बार उसने एक चूहेको अपने सामनेसे जाते देखा। बस फिर क्या था; तत्काल ही छलांग भर उसपर कूद पड़ी और पकड़ कर उसे उदरस्थ करलिया। अतएव यातो स्वभावको चंचल करनेवाले जितने मोहक प्रसंग हैं उनसे मनुष्यको अलग रहना चाहिए या उनका वारंवार सामना करना चाहिए। इस प्रकारका आचरण रखनेसे अपाय नहीं होता।
एकान्त स्थलमें मनुष्यके स्वभावका यथार्थ परिचय मिलता है, क्योंकि उस समय बनावटी व्यवहार करने की आवश्यकता नहीं रहती। क्रोधमें भी स्वभावका स्वरूप ठीक ठीक दिखाई देता है; उस समय भी विधि, विधान और लोकाचारका ज्ञान जाता रहता है। कोई नया प्रसंग आने अथवा नया अनुभव होने में भी यही होता है; कारण यह है कि, ऐसे अवसरपर रूढ़िका ज्ञान काम नहीं करता।
जो विषय अपनेको अच्छे नहीं लगते और उन्हें सीखना है, उन के लिए समय नियत करदेना चाहिए। परन्तु जो विषय अपनेको प्रिय हैं, उनके लिए नियामित समय न होनेसे भी हानि नहीं; क्योंकि, काम काज और पठन पाठनसे अवकाश मिलनेपर मन उन विषयोंकी ओर आपही आप चला जाता है। मनुष्यका स्वभाव ऐसा है कि वह भले बुरे दोनों विषयोंकी ओर झुकता है। इस लिए जो कुछ बुरा है उसको छोड़ना चाहिए और जो कुछ भला है उसे ग्रहण करना चाहिए।
- ↑ जो जिसका स्वभाव है वह बहुधा नहीं छूटता।