बेकन-विचाररत्नावली
महावीरप्रसाद द्विवेदी

पृष्ठ ५७ से – ६३ तक

 

द्रव्य २१.

अनुभवत[] ददत वित्तं मान्यान्मानयत सज्जनान्भजत।
अतिपरुषपवनविलुलितदीपशिखा चश्चला लक्ष्मीः॥

सुभाषितरत्नाकर।

दाना, चारा, छोलदारी इत्यादि कमसरियटके झगड़े जैसे सैन्य की गतिके प्रतिबन्धक होते हैं वैसेही सम्पत्ति भी सद्गुणवृद्धिकी अवरोधक होती है। खाने पीनेके सामानके बिना सैन्यका काम नहीं चल सकता; वह अवश्य साथमें होना ही चाहिए; इसलिए उसे छोड नहीं सकते। अतएव इस उठाने और लेचलनेके झगड़ेके कारण सेनाके प्रस्थान करनेमें विलम्ब होता है और कभी कभी ऐसे सामानकी रक्षा करनेके यत्नमें रहनेसे विजयसे भी हाथ धोना पडता है!

चाहै जितनी सम्पत्ति हो, सत्य तो यह है कि, उसमेंसे जितनी का सद्व्यय होताहै उतनीही सार्थक है। शेष जितनी है वह नाम मात्रकी सम्पत्ति है; उसका सुख केवल कल्पित है। सालोमनने कहा है कि, "जहां बहुत धन है वहां उसके भोग करनेवाले भी बहुत हैं, परन्तु धनीको उससे क्या लाभ? नेत्रोंसे वह भलेही उसे देखता रहै"।

बहुत अधिक सम्पत्ति होनेसे उस सबका उपभोग सम्पत्तिमान् मनुष्य स्वयं नहीं कर सकता। आवश्यकताकी अपेक्षा विशेष द्रव्य होनेसे मनुष्य उसको सुरक्षित रक्खेगा; दूसरोंको देनेके उपयोगमें लावेगा; तथा श्रीमान् होनेकी कीर्ति सम्पादन करेगाबस इतनाहीं; इससे अधिक, कहिए, उसको और क्या लाभ होसकता है? क्या तुम नहीं देखते हो कि, छोटे छोटे पत्थरों तथा अनोखी वस्तुओंका कितना मनमाना मूल्य कल्पना किया जाता है और उस विषय में कितने आडम्बरके काम आरम्भ किए जाते हैं? जानते हो यह सब किस लिए किया जाता है? केवल इस लिए जिसमें लोग यह समझैं कि, हां, अधिक सम्पत्तिका भी कुछ उपयोग होता है। स्यात् तुम कहोगे कि, मनुष्योंको संकटसे मुक्त करनेके लिए, द्रव्य काममें आता है, क्योंकि, सालोमनने भी ऐसाही कहा है। उसका कहना यह है कि, "धनवान् मनुष्य अपने मनमें यह समझता है कि, मेरा धन मेरी रक्षाके लिए एक प्रकारका कवच है"। इस वाक्यमें "मनमें" यह शब्द ध्यानमें रखना चाहिये। यह उक्ति बहुत ठीक है; परन्तु उसका अर्थ जैसा है वैसा लोग नहीं समझते। आरिष्टसे बचनेके लिए द्रव्यको मनही मन कवच भलेही माने रहो; परन्तु यथार्थमें वह कवचका काम नहीं देसकता। सत्य तो यह है कि, द्रव्यके कारण जितने मनुष्योंका नाश हुवा है उनकी अपेक्षा रक्षा बहुत कम कीहुई है।

जिसके उपार्जनसे मनुष्य मदान्ध होजाता है ऐसी सम्पत्तिसे दूर रहना चाहिए। सम्पत्ति उतनीही उपार्जन करनी चाहिये जितनी न्यायसे मिले; जिसका उपयोग गर्वरहित होकर होसकै; जिसका दान प्रसन्नतापूर्वक किया जासकै; और जिसके छोडनानेमें असन्तुष्ट न होना पड़े अर्थात् दुःख न हो। विरक्त संन्यासियोंके समान द्रव्यका तिरस्कार न करना चाहिये। परन्तु द्रव्यको सञ्चित करके औरोंके लिए छोडजानेके लिए भी उसे न इकट्ठा करना चाहिए। देखिए सिसरोंने रैबीरियस[] पास्थमसके विषयमें कैसा अच्छा कहा है। वह कहता है कि, "इस सरदारने जो इतने कष्टसे द्रव्योपार्जन किया वह लोभवश नहीं किया; किन्तु इस लिए किया कि उसके द्वारा वह परोपकार करनेमें समर्थ होवे"। एक बारही धनाढ्य होनेका प्रयत्न न करना चाहिए। सालोमनका कथन है कि, "जो शीघ्र धनी होजाता है वह पापरहित नहीं होता"। पुरातन कवियोंने कहा है कि, ज्यूपिटर (गुरु-बृहस्पति) जब प्लूटस (कुबेर) को भेजताहै तब वह लँगड़ाते हुए धीरे धीरे आता है; परन्तु जब प्लूटो (यम) उसे भेजता है तब वह दौड़ता हुवा वेगसे आता है। अर्थात् सन्मार्ग और सुपरिश्रमसे जो द्रव्य मिलता है वह धीरे धीरे एकत्र होता है; परन्तु किसी सम्बन्धीके न रहने, अथवा मृत्युपत्रादि द्वारा जो द्रव्य मिलता है वह अनायास एक बारही आजाता है। प्लूटोको पिशाच मानकर यह दृष्टान्त उसके विषयमें भी चरितार्थ किया जा सकता है, क्योंकि, पैशाचिक मार्गसे अर्थात् कपट, बलात्कार और अन्यायद्वारा जो सम्पत्ति मिलती है उसके आनेमें देरी नहीं लगती।

धन एकत्र करनेके अनेक साधन हैं; परन्तु उनमेंसे बहुतेरे अति अधम हैं। कार्पण्य सबसे अच्छा है; परन्तु उसमें भी यह दोष है कि, उसके कारण दान धर्म्म करने और उदारता दिखलानेमें मनुष्य नहीं समर्थ होता। पृथ्वीको अच्छी दशामें लाना द्रव्योपार्जन करनेका अत्यन्त स्वाभाविक मार्ग है, क्यों कि, इस द्वारा जो द्रव्य मिलता है वह अपनी माता वसुन्धराके प्रसादसे मिलता है; परन्तु, हां, मिलता देरमें है। तथापि धनी लोग जहां कृषीकी ओर झुकते हैं वहां थोडे ही कालमें द्रव्यकी अतिशय वृद्धि होती है। इंग्लैंड में हमारे परिचयका एक श्रीमान् सरदार था। उसको इतना हिसाब किताब रखना पड़ता था कि, उस समय उतना और किसीको भी न रखना पडता था। उसके यहां बहुत गाय बैल थे; बहुत भेडें थीं; लकड़ीका भी व्यापार होता था; खानका भी वह काम करता था; धान्य भी रखता था; सीसे और लोहेका भी व्यवसाय करता था। इसके अतिरिक्त और भी अनेक छोटे छोटे कृषीके काम उसके यहां होते थे। अतएव उसे सदैव इतना माल मँगाना पडताथा कि, पृथ्वी उसके लिए समुद्र होरही थी।

एक कहावत है कि, "वह बडे परिश्रम से थोडा धन संचय करसका, परन्तु बहुत धन बहुत शीघ्र इकट्ठा होगया" इसका अभिप्राय यह है कि, पहिले विशेष परिश्रम से थोडा द्रव्य मिलता है परन्तु जब थोडा मिलगया तब उसकी वृद्धि बहुत शीघ्र होती है। कारण यह है कि, जब इतना द्रव्य पास होजाता है कि, बाज़ार भाव अनुकूल होनेतक मनुष्य अपना कारबार बन्द रख सकता है, तथा जिनके करने की बहुत कम लोगोंको सामर्थ्य है, ऐसे ऐसे बड़े बड़े व्यवसायों को करने लगता है तब वह बहुत शीघ्र धनी होजाता है।

साधारण व्यापार तथा उद्योग से जो प्राप्ति होती है वह प्रामाणिक होती है और दो प्रकारसे वह बढ़ती है। एक तो चातुर्यसे और दूसरे सच्चे व्यवहार करनेकी कीर्ति सम्पादन करनेसे। परन्तु ठेकालेने अथवा बड़े बड़े सौदे करनेसे जो प्राप्ति होती है उसकी प्रामाणिकताका ठीक नहीं रहता। क्योंकि, ऐसे व्यवसायोंमें दूसरे की आवश्यकताकी ओर दृष्टि रखकर अपना काम निकालना पड़ता है; दूसरे के नौकर चाकर मनुष्योंको लोभ दिखलाकर सौदा करना पड़ता है; दूसरे यदि अधिक पैसे देकर वहीं काम करना चाहते हैं तो उन्हें हर प्रयत्नसे हटाना पडता है। इस प्रकार का व्यवहार करना निंद्य और कपटी मनुष्यका काम है। जब कोई किसी वस्तुको एकसे लेकर दूसरे को तत्काल ही बेच देता है तब वह दूनी कमाई करता है। जिससे मोल लेता है उससे भी लाभ उठाता है और जिसे देता है उससे भी-अर्थात् दोनोंसे पैसे बनाता है। साझेमें काम करनेसे भी बहुत लाभ होता है; परन्तु साक्षी विश्वासपात्र होने चाहिए।

कुशीदवृत्ति अर्थात् ब्याज बट्टेका काम करनेसे अवश्यमेव बहुत लाभ होता है; परन्तु इस धन्धेका आश्रय लेनाअति निंद्य है क्योंकि इसमें मनुष्यको दूसरे की गाढ़ी कमाईके पैसेसे अपना पेट पालना पड़ता है। इस व्यवसायमें प्राप्ति अवश्य होती है, परन्तु निर्दोष यह भी नहीं है। कभी कभी मध्यस्थ मनुष्य और दलाल; अपने लाभके लिए ऐसे ऐसे अप्रामाणिक लोगोंको रुपया दिलवा बैठते हैं, कि फिर वह रुपया उनके पाससे लौटकर घर नहीं आता।

एक आध नवीन कला अथवा नवीन कल्पना जो निकालता है उसे कभी कभी शीघ्रही अपार द्रव्य मिल जाता है। जिसने कानेरी द्वीपमें पहिले पहिल शक्कर बनाना प्रारम्भ किया वह एक बारही कुबेर होगया। अतएव, उत्कृष्ट नैय्यायिकके समान जिसमें विवेक और कल्पनाशक्ति दोनों होती हैं वह मनुष्य बहुत कुछ कर सकता है। परन्तु, हां, समय अनुकूल होना चाहिए। जिसकी प्राप्तिके मार्ग नियमित होते हैं वह क्वचित् धनाढ्य होता है। इसी प्रकार जो एकबारही किसी साहसके काममें अपना सारा धन लगा देता है वह बहुधा डूबता है और 'भिक्षां देहि' करनेतक नौबत पहुँचती है। अतएव साहसके काममें रुपया लगानेके पहिले निश्चित प्राप्तिका परिमाण देख लेना चाहिए जिसमें समयपर जो कुछ हानि हो वह उस प्राप्तिसे पूरी होसके।

ठेकेपर सारा माल अकेलेही लेकर उसे बेचनेसे भी बहुत लाभ होता है। परन्तु ऐसे स्थानमें यह काम करना चाहिए जहां बेचने में किसी प्रकारका प्रतिबन्ध न हो। किस वस्तुकी किस समयमें मांग होगी, इसका विचार करके माल भरनेसे और भी अधिक लाभ होता है।

दूसरेकी नौकरी करके जो पैसा मिलता है वह अवश्य सुमार्गका पैसा होता है और पास रहता भी है परंतु खुशामद करके तथा और ऐसेही नीच काम करके जो मिलता है वह महा निंद्य होता है। मृत्युपत्र द्वारा सम्पत्ति प्राप्त करने अथवा मृत्युपत्रके लेखानुसार कार्यवाही करनेका काम मिलनेका प्रयत्न करना और भी अधिक अधम समझना चाहिए। ऐसे कामोंमें नौकरी की भी अपेक्षा अति नीच लोगोंका आज्ञाकारी बनना पडता है।

जो लोग द्रव्यको तुच्छ समझते हैं उनका विश्वास न करना चाहिए। वे द्रव्यको तुच्छ इसलिए समझते हैं; क्यों कि उसके मिलनेकी उन्हैं आशा नहीं रहती। ऐसोंको दैवयोगसे यदि सम्पत्ति मिलगई तो फिर कुछ न पूछो; मिलनेपर, वे औरोंसे भी अधिक मदान्ध होजाते हैं।

मनुष्यको मक्खीचूस न होना चाहिए; द्रव्यके पंख होते हैं; कभी कभी वह आपही आप उडजाता है और कभी कभी अधिक द्रव्य सम्पादन करनेकी इच्छासे उसे उड़ाना पड़ता है।

मरनेके समय मनुष्य अपनी सम्पत्ति अपने सम्बन्धियोंको देजाते हैं; नहीं तो, किसी सार्वजनिक कामके लिए अर्पण कर देते हैं। परिमित द्रव्य दोनोंके लिए देना उत्तम है। किसी अल्पवयस्क और विवेकशून्यको किसीके मरनेपर अनायास बहुत धन प्राप्त होनेसे, पास पड़ोसके मनुष्यवेषधारी गृद्धोंको टूट पड़नेके लिए अच्छा आमिष मिलता है।

बड़े बड़े पुरस्कार देना और बड़ी बड़ी संस्थाओंकी स्थापना करना द्रव्यको व्यर्थ फेंक देना है, क्योंकि इस प्रकारके जितने दातृत्वके काम होते हैं वे ऊपरसे तो भव्य और आश्चर्यजनक देख पड़ते हैं परन्तु कालान्तरमें वे अवश्य जीर्ण शीर्ण होजाते हैं और उनकी वह पहिली शोभा नहीं रहती। अतएव बिना विचारे अपरिमित दान न करना चाहिए; आवश्यकतानुसार नियमित रीतिपर दान करना उचित है। दान धर्म जो कुछ करना है उसे शीघ्रही कर डालना चाहिए; अब करैंगे, तब करैंगे, इस प्रकार विलम्ब करना अनुचित है। सूक्ष्म विचार करनेसे यह स्पष्ट विदित होजायगा कि जो मनुष्य मरनेके समय दान धर्म करता है वह यथार्थमें अपने द्रव्यको देकर उदारता नहीं दिखाता; किन्तु दूसरेके द्रव्यको देकर दिखाता है। उस समय वह यह जानता ही है कि थोड़े ही समयमें, मेरे अनन्तर यह सब वैभव मेरे हाथसे निकलकर दूसरेके अधिकारमें आजावेगा।

  1. धन पाकर उसका उपभोग करो उसका दान करो; मान्यजनोंका सम्मान करो; सज्जनोंकी सेवा करो;—स्मरण रहे कि, यह लक्ष्मी बडेवेगवाले पवनसे चलायमान दीपशिखा के समान चञ्चला है।
  2. रैबीरियस पास्थमस रोमका एक सरदार था। इसने ईजिप्टके राजाको अपार धन ऋण दिया था परन्तु वह राजा ऐसा कृतघ्न निकला कि उसने ऋण तो चुकाया नहीं उलटा इसे बन्दी बनालिया। वहांसे यह किसी प्रकार बडे कष्टसे छूटकर फिर अपने देशको आनेमें समर्थ हुवा।