बिहारी-रत्नाकर
बिहारी, संपादक जगन्नाथ दास रत्नाकर 'बी.ए.'

अमीनाबाद पार्क लखनऊ: गंगा-पुस्तकमाला कार्यालय, पृष्ठ २४८ से – २८९ तक

 

डिगत पानि डिगुलात गिरि लाग्छ सय ब्रज बेहाल । कंपि किसोरी दस कै', खरै लजाने लाल ।। ६०१ ॥ (

अवतरण)-- जिस समय इंद्र के कोप से त्रजवासियों की रक्षा करने के निमित्त श्रीकृष्ण चंद्रजी ने हाथ पर गोवर्द्धन धारण कर रखा था, उस समय श्रीराधिकाजी उनको दिखाई दी। उनके दर्शन से, कंप साविक के कारण, श्रब्ण चंद्र का हाथ, जिस पर वह गोवर्द्धन धारण किए हुए थे, कुछ डिग गया, जिससे वह पहाड़ डगमगाने जगा । इस डगमगाहट से त्रवासियों को घबराया हुआ देख कर श्रीकृ.एणचंद्र को बड़ी वजा हुई । लज्जा के दो कारण थे--प्रथम तो यह विचार कि इस कंप से हम गि का गूद प्रेम लक्षित हो जायगा, और दूसरे यह भावना कि हमारे भाँ को ऐसा भय उपस्थित हुआ । ऐसे गूद प्रेमी तथा भवत्सल भगवान् का ध्यान कवि इस दोहे से करता है। ( अर्थ )-हाथ के 'डिगत' ( डिगते हुए, डिगने के समय, डिगने के कारण ) [ गोवर्द्धन ] गिरि के ‘डिगुलात' (डगमगाते ही ) सब व्रज ( व्रजवासियों ) को बेहाल ( विल, व्याकुल ) देख कर, किशोरी ( श्रीराधिकाजी ) को देख कर कंपित हो जाने से, लाल (श्रीकृष्णचंद्र ) स्वरे ( बहुत ) 'खजाने' ( सजित हुए } ॥

और सबै हरषी हँसतिं, गावतं भरी उछाह ।। तुहीं, बहू, बिलखी फिरै क्यौं देवर के व्याह ॥ ६०२ ।।

१• गुखात ( ३ ), कर लेत गहि (४) । २. कैंपति ( ४ ) । ३. परसि ( २ ) । ४. के ( २, ३ ), को (४), के (५)। ५. लजाएँ ( ३, ५)। ६. तू दुलहिन ( २ )। ________________

बिहारी-रत्नाकर २४ ( अबतरण )-नायिका अपने देवर से अनुरक़ है। अतः उसको उसके विवाह-उत्सव के अवसर पर दुःख होता है, जिससे सखा उसकी प्रीति लक्षित कर के कहती है ( अर्थ )-और ( घर तथा पड़ोस की ) सभी [ स्त्रियाँ तो ] हर्षित हुई हँसती हैं, [ और ] उछाह से भरी हुई [ ब्याहुले गीत ] गाती हैं। [ पर ] है बहू, देवर के ब्याह में [ एक ] तु ही क्यों विलखी ( उत्साह-रहित सी, दुखी सी ) फिरती है ॥ थोड़े दिनों की ब्याही हुई दुलहिन को सखियाँ भी प्रायः ‘बहू' कह कर संबोधित करती हैं। बाल छबीली तियनु मैं बैठी आपु छिपाइ । अरगट हाँ' पानूस सी परगट होति लखाइ ॥ ६०३ ।। | पु= अपनापा, निज स्वरूप ॥ अरगट = अलगंट, पृथक् ॥ पानूस ( फ़ा० फानूस ) = वह काच * घरा, जिसमें मोमबती इत्यादि जलाई जाती है। हिंदी में इसका नाम कमल अथवा कँवल है। फ़ानूस शब्द का अर्थ, यहाँ, लक्षण लक्षणा से, फानूस में स्थित दीपक होता है; जैसे पंजाब बड़ा बहादुर है' कहने से पंजाब निवासी पुरुष समझे जाते हैं । | ( अवतरण )-नायिका की सखो अथवा दृती नायक से उसके अनुपम रूप का वर्णन करती है कि उसकी छवि ऐसी निराला है कि वह बड़ी बड़ी सुंदर स्त्रियों के बीच मैं भी फ्रान्स से विर हुए दीपक की भाँति सबसे अलग ही दिखाई देता है ( अर्थ )-[ अनेकानेक बड़ी बड़ी ] छबीली ( सुंदर, चमक दमक वाली ) स्त्रियों के बीच में [ भी ] 'अषु' (निज रूप को ) छिपा कर बैठी हुई [ वह ] बाला फ़ानूस [ के दीपक ] सी [ अपने चारों ओर के आवरण से ]'अरगट' (अलग ) ही 'परगट' (प्रकट, स्पष्ट ) 'लखाइ' ( लक्षित ) होती है ।। इस दोहे में सखी के कहने का वही भाव है, जिस भाव से ऐसे वाक्य कहे जाते हैं कि 'अजी, वह लाख मैं अलग दिखाई देते हैं। एरी, यह तेरी, दई, क्याँ हैं प्रकृति न जाइ । नेह-भरें हिय राखियै, तउ रूखियै लखाइ ।। ६०४ ॥ हिय ( हृद)- यह शब्द यहाँ श्लिष्ट है । इसका एक अर्थ चित्त और दूसरा नीचा स्थान, अर्थात् दृढा, है। इन्हीं दोनों अथो के बल से इसमें श्लिष्टपद-रूपक किया गया है, अर्थान् ‘हिय' का अर्थ हृदय-रूपी गड्ढा माना गया है ।। ( अवतरण )-मानिनी नायिका से सखी का वचन ( अर्थ )-अरी [ सखी ], हे दैव ( बड़े आश्चर्य की बात है ) ! तेरी यह [ विखक्षण ] प्रकृति ( बान ) किसी प्रकार नहीं जाती ( छूटती )। [ तुझक नायक के द्वारा ] नेह (१. प्रीति । २. तेल, घृत इत्यादि ) से भरे हुए इसव-इपी पात्र में रखा जाता १. हैं ( ३,५)। २. होर ( २ )। २५० बिहारी-रत्नाकर है, तथापि [१] रूखी ( १. प्रीति के लोच से रहित । २. चिकनाई से रहित ) ही दिखाई देती है । | चिकनाई-भरे पात्र में रखने पर भी स्त्री ही रहना, यही विलक्षणता इस दोहे मैं कहीं इहिँ कॉ मो पाइ गड़ि लीनी मरेति जिवाइ । प्रीति जनावत भीति स मीत जु काढय आइ ॥ ६०५ ॥ ( अवतरण )-नायिका किसी नायक पर अनुरक़ है, और जी ही जी मैं दुखित है; क्योंकि उसको यह ज्ञात नहीं है कि वह नायक भी उसे चाहता है अथवा नहीं । एक दिन नायिका के पाँव में *टा गढ़ गया, जिसको उस नायक ने निकाला । निकालते समय नायक की चेष्टा से यह भय प्रकट हुआ कि कहीं नायिका को काँटा निकालने में कष्ट न हो । इस भाव से नायिका ने नायक की प्रीति लक्षित कर ली, अतः उसका वह संशय-दुःख छूट गया, और मिलने की आशा हो गई । यही वृत्तांत वह अपनी किसी अंतरंगिनी सखी से कहती है--- ( अर्थं )-[ मुझे कष्ट होने की ] भीति ( डर ) से [ सशंकित भावयुत होने के कारण अपनी ] प्रति जनाते हुए 'मीत' ( मित्र ) ने जो [ उसको ] आ कर काढ़ा ( निकाला ), [ से ] इस कॉट ने मेरे पैर में गड़ कर [ मुझे इस संशय-दुःख से कि नायक मुझसे प्रीति करता है वा नहीं ] मरते मरते जिला लिया ॥ नाँक चढ़ सीबी करै जितै छबीली छैल । फिरि फिरि भूलि यहै गहै प्यौं कैंकरीली गैल ॥ ६०६ ।। ( अवतरण )-नायक नायिका, दोन कहीं जा रहे हैं। मार्ग का एक भाग तो लोग के चलते चलते चिकना हो गया है, और दूसरा भाग *काला है । नायक, प्रेम के मारे, सुकुमारी नायिका को तो अरी दुरहुरी पर खिवाए जाता है, और स्वयं उसके साथ साथ चलने के कारण कैकड़ीखे भाग पर वाजता है, जिससे उसके पाँव में कंकड़ियाँ चुभती है। उसकी चेष्टा से यह बात ज्ञात कर के नायिका, प्रेमाधिक्य के कारण उसकी पीड़ा से पीड़ित हो कर, सीबी करती और नायक को उस मार्ग से चखने से बरजती है । नायक, उसका कहना मान कर, कुछ दूर तो इस प्रकार सिमट कर चलता है कि उसको कंकरियाँ न गईं, पर नायिका का वह नाक चढ़ा कर सीबी करना उसे ऐसा भा गया है कि वह फिर जान बूझ कर उसी कैंकले मार्ग पर इस प्रकार चलने लगता है, मानो वह भूल कर ऐसा करता है, जिसमें कि नायिका को यह समझने का अवसर न प्राप्त हो कि वह जान बुझ कर उसके चिढ़ाने तथा उसकी वह मोहिनी चेष्टा देखने के निमित्त ऐसा करता है, और वह फिर उसी प्रकार नाक चढ़ा कर सीबी करे । यही वृत्तांत कोई सखी किसी अन्य सखो से कहती है ( अर्थ )-[ वह ] छैल छबीली ( सजी धजी सुंदर ) [ नायिका प्रियतम के ] जितै’ १. लगि ( २ ) । २. मरत ( ३, ५ ) । ३. जनाउन ( ३, ५ )। ४. छबीले (५) । ५. त्यै त्यौं ( २ )। ६. पिय ( ३, ५ ) । ________________

बिहारी-राफर ( जिस ओर से ) [ चलने के कारण ] नाँक चढ़ा कर सीबी ( तुःख-सूचक सीत्कार ) करती है, प्रियतम फिर फिर ( वारंवार ) भूल कर (भूला हुआ सा हो कर ) वही कॅकड़ीली गैल (दुरहुरी ) गहता है॥ नेटि न, सीस साबित भई लुटी सुखनु की मोट । चुप केरि ए चारी कति सारी-पैरी सलोट ॥ ६०७॥ ( अवतरण )-अन्यसंभोग-दुःखिता नायिका दूती की साड़ी मैं सिलवटें पड़ी हुई देख कर कहती है ( अर्थ )-[वस, अब तू ] नट नहीं” ( मुकर मत ), [ तेरे ] सिर [ मेरे ] सुखों की लुटी हुई ‘मोट' (मोटरी, गठरी) साबित ( प्रमाणित ) हो गई (अर्थात् मेरे सुख की गठरी जो लुट गई है, वह तृने ही लूटी है, यह बात प्रमाणित हो गई )। ये ( तेरी ] साड़ी में पड़ी हुई सिलवटें 'चुप करि' ( चुपके चुपके, विना बोले ही ) चारी ( चुगली ) करती हैं [अतः अव तेरे मुकरने से कोई लाभ नहीं हो सकता ] ॥ । ‘चुप करि' का अर्थं तु चुप रह भी हो सकता है । जिहिँ भामिनि भूषनु रच्यो चरन-महावर भाल । उहीं मनी अँखियाँ रँग ओठनु नैं रंग, लाल ।। ६०८ ॥ | ( अवतरण १ )-नायक प्रातःकाल सापराध अाया है । नायिका ने जब उससे कहा कि आज आप रात भर किसके साथ जागे हैं, जो आँखें लाल हो रही हैं, तो नायक ने उत्तर दिया कि नहीं, हम जागे तो नहीं हैं। उस पर नायिका, उसके भाल पर के महावर पर उसका ध्यान दिलाती हुई, व्यंग्य से कहती है कि यदि आपकी आँखें जागने से लाल नहीं हुई हैं, तो यह अनुमान होता है कि जिस भामिनी ने अपने चरण के महावर से तुम्हारे भाल को साख कर दिया है, उसी ने अपने ओठ के रंग से तुम्हारी आँखें रँग दी हैं ( अर्थ १ )-जिस भामिनी ( क्रोधवती स्त्री ) ने [ अपने ]चरण के महावर से 1 तुम्हारे ] भाल पर भूषण रचा है ( बनाया है ), हे लाल, मानो उसी ने [अपने] ओठों के रंग से [ तुम्हारी] आँखें रँग दी हैं [यदि तुम्हारी आँखें जागने के कारण लाल नहीं हैं, जैसा कि तुम कहते हो ] ॥ इस दोहे का अर्थं प्रायः टीकाकारों ने ऊपर खिले हुए अर्थ से मिलता जुलता हुआ। सा किया है । पर इस अर्थ में उत्प्रेक्षा केवल इतनी ही बात पर होती है कि यदि आँखें जागने से बाज नहीं हैं तो मानो ओठ के रंग से रंगी गई हैं। यह उस्प्रेक्षा कुछ विशेष चमत्कृत नहीं ज्ञात होती, और दोहे के अवतरण में जो बातें माननी पड़ती हैं, वे भी कुछ विशेष चुभती हुई सी नहीं हैं, अतः अगी हुई खाली पर पान की पीक की साली की उपेक्षा करना खंभिसा के वाक्य में कुछ १. नट न ( ३, ५ ) । २. रहि ( ३, ५) । ३. करत ( ३, ५ ) । ४. पेरें ( ३, ४ ) । ५. तिहीं ( ३, ५ ) । ________________

२५२ विहारी-रत्नाकर विशेष चमत्कारजनक नहीं है। इसलिए इस दोहे का अर्थ नीचे लिखे हुए प्रकार से यदि किया जा तो अच्छा है ॥ ( अवतरण २ )-नायक प्रातःकाल नायिका के यहाँ अाया है। उसके भाल पर महावर ल. हुआ है, जिससे प्रतीत होता है कि उसने नायिका की सोत को, अथवा अन्य किसी स्त्री को पत्र पड़ कर मनाया था। उसकी अखाँ मैं भी पाक की लाली लगी है। अतः नायिका कहती है कि जिस भामिनी के चरण मैं तुमने अपने भात्न से महावर लगाया, अर्थात् भाज से महावर नहीं लगाया जाता पर तुमने उस का इतना सन्मान किया कि हाथ के बदले उसके पाँव मैं सिर से महावर लगाया, उसी भामिनी ने उस सन्मान के बदले में तुम्हारी आँखों को हाथ से अंजित न कर के ओडौँ से लाल रंग दिया। भात मैं पाँव पड़ने से लगे हुए महावर को नायिका व्यंग्य से पाँव में महावर जगाने के कारण लगा हुआ कहती है, और सिर के द्वारा महावर लगाया जाना कह कर व्यंग्य से महावर का सिर के द्वारा फैलाया जाना विदित करती है। ‘भामिनि' शब्द से वह व्यंजित करती है कि वह सहन करने वाली नहीं है । अतः उसने अपने पाँव के महावर के फैजा देने का यथोचित बदला तुम्हारी शाँख मैं भद्दी पीक-बीक जगा कर तुमको दे दिया ( अर्थ २ ) हे लाल, [ तुम्हारे नेत्रों में पान की पीक बड़े भई रूप से लगी है ] माने जिस भामिनी ( १. सुंदर स्त्री । २. लड़ाका स्त्री ) के निमित्त [ अपने अपने ] भाल से पैर को महावर भूपण रचा ( १. भूपित किया । २. भद्दा कर दिया, फैला दिया), उसी ने [ उसके बदले में तुम्हारी ] आँखें [ अपने ] श्रेठों के रंग से रंग दी ( १. रँग कर सुंदर कर दीं। २. रंग से लीप पोत दी ) ॥ तू मोहन-मन गड़ि रही गाढ़ी गड़नि, गुवालि । | उठे सदा नटसाल ज्यौं सौतिनु वें उर सालि ॥ ६०६ ।। ( अवतरण )--दूती नायिका से नायक के प्रेम की प्रशंसा कर के उसके हृदय में प्रति बढ़ाया चाहती है ( अर्थ )-हे ग्वालिनी, तु गड़ [ तो ] गाढ़ी गड़न से ( गहरे धसाव से ) मोहन के मन में रही है, [ पर ] सदा नटसाल ( नष्ट शल्य ) सी साल ( पीड़ा दे ) उठती है [ अपनी ] सौतों के हृदय में । इस दोहे मैं विलक्षणता यह है कि गाने की क्रिया तो नायक के मन में होती है, और खटकने की सौत के उर मैं ॥ लाज-लगाम न मानहाँ, नैना मो बस नाहिँ । ए मुंहजोर तुरंग ज्य, ऍचत हैं चलि जाहिँ । ६१० ॥ ( अवतरख)–सली नायिका को समझाती है कि नायक की ओर ऐसी विवशता से देखने १. मैं ( ५ ) । २. ल. ( २ ), सी ( ४ ) । ३. सौतिनि ( २ ), सौतिन ( ३, ५)। ४. ( २, ४ ) । ५. ही ( ३, ५)। ________________

विहारीजाकर खगना उचित नहीं है, तुझे अपने को हैंखिए दिए रहना चाहिए । नायिका उसको उत्तर देती है ( अर्थ )-[ मैं क्या करूँ,] नयन मैरे वश में नहीं हैं । ये मुंहजोर ( लगाम को खाँचने पर भी न रुकने वाले ) तुरंग ( घेई) की भाँति लज्जा-रूपी लगाम को नहीं मानते, [ और ] खाँचते हुए ( खाँचते खींचते, लज़ा के कारण रोकते रोकते ) भी [नायक की ओर ] चले [ही ] जाते हैं । कर-मुंदरी की आरसी प्रतिबिंबित प्यो पाई। पीठि दियँ निधरक लखै इकटक डीठि लगाइ ।। ३११ ॥ ( अवतरण )-मध्या नायिका की बेखटक नायक का स्वरूप देखने की चातुरी का वर्णन कोई सखी किसी अन्य सखी से करती है | ( अर्थ )-हाथ की मुंदरी ( मुद्रिका, अंगूठी ) की आरसी ( दर्पण ) में प्रियतम के प्रतिबिंबित ( छाया डाले हुए ) पा कर ( अर्थात् प्रियतम की छाया अरसी में पड़ी हुई देख कर) [ देख, यह ] पीठ दिए ( उनकी ओर पीठ किए ) एकटक दृष्टि लगा कर ( बड़े ध्यान से ) निधडक (बेखटक अर्थात् इस बात की शंका से रहित हो कर कि यदि कोई मुझे प्रियतम को एकटक देखते देख लेगा, तो मुझे संकुचित होना पड़ेगा ) देख रही है ॥ इती भीर हैं भेदि कै, कि हूँ है, इत छ । फिरै डीठि जुरि डीठि स सबकी डीठि बचाइ ॥ ६१२॥ ( अवतरण )-नायक किसी मेले इत्यादि के अवसर पर भीड़ में खड़ा है, और नाविका भी वहीं कुछ दूर पर है। नायिका की दृष्टि सारी भीड़ में से होती हुई धूम फिर कर नायक की ओर जाती है, और सबकी आँखें बचा कर उसकी दृष्टि से मिख कर लौटती है । नायिका के इसी प्रेमाधिक्य तथा अवलोकन-चातुरी का वर्णन नायक अपने किसी अंतरंग मित्र से करता है ( अर्थ )-इतनी भीड़ को भी भेद ( बेध, फाड़) कर, किसी न किसी ओर से हो कर (घूम फिर कर ), इधर (मेरी ओर ) आ कर [उसकी] दृष्टि, [ और] सबकी दृष्टि बचा कर, [ कैसे स्नेह तथा चातुरी से मेरी ] दृष्टि से मिल कर लौट जाती हैं ॥ लाई, लाल, विलोकियै, जियें की जीवन-मूलि । रही भौन के कोनँ मैं सोनजुही सी फूलि ।। ६१३ ॥ ( अवतरण )-नायक नायिका की प्रतीक्षा करता हु कुंजभवन में बैठा कुछ अचेत सा हो १• प्रतिबिंब्यो ( २, ४ ) । २• आई ( २ ), जाइ ( ४ ) । ३. कितऊ (३) । ४• जी ( २ ) । ५. जीवनि ( २, ४ ) । ६. कॉन ( २ )। ________________

बिहारी-रक्षाकर गया है। इतने ही मैं सूती नामिका को ले कर आई है, अर नायक के सावधान कर ( अर्थ )-हे लाल ! [नैक सावधान हो कर और ऑस्खे खोल कर ] देखिए, [ में आपके ] जीव की संजीवनी जड़ी ( आपके प्राणों की परमप्रिय नायिका ) ले आई हैं। [देखिए, वह इस ] भवन के कोने में सेनजुही [ की लता ] की भाँति फूल रही है । ओठ उँचै, हाँसी-भरी दृग भौंहनु की चाल । मो मनु कहाभ पी लियौ, पियत तमाकू, लाल ।। ६१४ ।। | ( अवतरण )-नायिका ने नायक को धमाकू पीते देखा है, और उसकी उस समय की बेष्टा पर मोदित हो गई है। अतः वह अपनी अंतरंगिनी सखी से कहती है ( अर्थ )-लाल ने तमा पीते समय अठ के ऊँचा कर के, हँसी भरी हुई दृगों [ तथा ] भौहों का [ महिनी ] चाल से, क्या मेरा मन [ भी तमाकू के साथ ] नहीं पी लिया ( अवश्य ही पी लिया ) ॥ जे तय होत दिखादिखी भई अमी इक आँक । दरौं तिरीछी डीठि अब है बीछी कौ डाँक ॥ ६१५ ।। ( 'अबतरण )-नायक नायिका से कह घाटबाट मैं मैंट हुई थी, और दोनों ने दोनों को श्रर तिरछी आँख से कटाक्ष किए थे। उस समय तो दोन को एक दूसरे की वे तिरछी दृष्टियाँ बड़ी अच्छी लगी थी, क्योंकि उनसे एक के दूसरे का प्रेम लक्षित हुअा था । पर अब विरह में वे तिरछी चितवनैं दोनों को विकल कर रही हैं। यही वृत्तांत सखियाँ आपस में कहती हैं ( अर्थ )-जो [दोनों की तिरछी दृष्टियाँ] तब [ अर्थात् ] ‘दिखादिखी' ( देखा देख) होते समय ‘इक ऑक' (एकदम, सर्वथा ) [ दोनों को ] ‘अर्थ’ ( अमृत ) हुई थी ( अमृत सी नीठी लगी थीं ), [ सो ] अब [ विरह में वे ही ] तिरछी चितवनै विच्छू का डंक हा कर [ दोनों का ] दगती ( दागती, जलाती, पीड़ा देती, अर्थात् अपने स्मरण से उत्तप्त करती ) हैं ॥ | इस दोहे मैं ज' शब्द बहुवचन है । अतः ‘ढाटि' शब्द भी बहुवचन हुआ । इसलिए ‘बाछी को ।' एकवचन पद के स्थान पर ‘बीछी के डॉक' बहुवचन पद, अथवा 'जे' के स्थान पर जा', होता, तो बहुत अच्छा होता । इसी विचार से कई एक टीकाकारों ने 'जे' के स्थान पर 'ज', और कई एक ने 'छी के डाँका' के स्थान पर 'बीछा के साँझ' पाठ रक्खा है । पर हमारी चार प्राचीन पुस्तक मैं 'ज' तथा 'बछ। कौ डॉक', ये ही पाठ हैं, अतः इस संस्करण मैं ये ही रखे गए हैं। नैंकौ उहिँ न जुदी करी, हरषि जु दी तुम मेल । उर हैं बासु छुट्यौ नहीं वास छुटै हूँ, लाल ॥ ६१६ ।। १. वहि ( २ ), ऊ ( ३, ५ ) । २. लाल ( ३,५ ) । ३. माल ( ३, ५)। ________________

विरारी-राकर | ( अबतरण )-नायक ने नायिका को कोई सुगंधित माता दी है। वह माला, नायक की दी हुई होने के कारण, नायिका को ऐसी प्रिय है कि उसकी सुगंधि के जाते रहने पर भी यह उसको अपनी छाती से अलग नहीं करती। यह वृत्तांत कोई सखो, उसका प्रेमाधिक्य व्यंजन करती हु, नायक से कहती है | ( अर्थ ) हे लाल ! जो माला तुमने [ उसको ] हर्ष-पूर्वक दी है, वह [ उसने अभी तक ] नैक भी (क्षण मात्र के लिए भी ) जुदी (अपने तन से अलग ) नहीं की। [उसकी] बास (सुगंधि ) के छूटने पर भी ( जाते रहने पर भी ) [ उसका ] ‘बास' ( निवास ) [ उसके] उर से नहीं छूटा ॥ बिहँसि बुलाइ, बिलोकि उत प्रौढ़ तिया रस घूमि ।। पुलकि पसीजति, पूत कौ पिय-चुम्यौ मैं चूमि ।। ६१७॥ ( अवतरण )-नायक नायिका, दोन गुरुजन में हैं। नायक ने स्नेह से अपने पुत्र का मुख चूमा । यह देख कर नायिका ने उस पुत्र को अपने पास बुला कर और यह समझ कर कि इसके मुख मैं प्रियतम का अधरामृत लगा है उसका मुख चमा, और उस अधरामृत का सुख अनुभव कर के हर्षित हुई । गुरुजन मैं होने के कारण उस समय न तो नायक ही उसका मुख चूम सका और न वही नायक का, अतः नायके के मुख चूमने के अभाव में उसने नायक का जुठारा हुआ पुत्र ही का मुख चूम कर अनंद पाया, जैसे कि कोई गुरुभक्त गुरु के जूठन को खा कर आनंदित होता है। यह वृत्तांत कोई सखी देख कर और नायिका का भाव बक्षित कर के किसी अन्य सखी से कहती है ( अर्थ )-"बिहँसि' ( मुसकिरा कर ) [ अपने पुत्र के पास ] बुला [ और ] ‘उत' ( नायक की ओर ) देख [ वह ] प्रौढ़। स्त्री रस ( आनंद ) से घूम कर ( मतवाली हो कर ) [ उस ] पुत्र को 'पिय-चुम्यौ' ( प्रियतम से चूमा गया हुआ) मुह चूम [ सात्विक से ] पुलक कर ( रोमांचित हो कर ) पसीजती ( पसीने से तर होती ) है ॥ देख्यौ अनदेख्यौ कियँ, अँगु अँगु सबै दिखाई। पैठति सी तन मैं संकुचि बैठी चितै लजाइ ॥ ६१८॥ ( अवतरण )-नायक ने नायिका के जो हाव भाव देख हैं, उनका वर्णन नायिका की किसी अंतरंगिनी सखी अथवा अपने किसी अंतरंग मित्र से करता है | ( अर्थ )-[ वह ] 'देख्यौ अनदेख्यौ कियें' ( अपने द्वारा मेरे देखे जाने को अनदेखा किए हुए, अर्थात् मुझे देख कर भी ऐसी चेष्टा बनाए हुए कि मानो उसने मुझे देखा ही नहीं है), [ अपने ] सब अंग अंग [ पट का इधर उधर बिचला कर एवं अँगड़ाई इत्यादि ले कर मुझे ] दिखला कर, [ और फिर मेरी ओर ] 'चितै' ( देख कर )[ मानो उसने अभी १. कियौ ( २ )।

२६ हिरीरलाकर मुझको देखा है, अपने ] तन में पैठती हुई सी (ऐसी संकुचित हो कर सिमिटती हुई कि मानो वह अपने ही शरीर में स्वयं पैठ रही है) लजा कर बैठ गई ॥ पटु पाँखै, भखु काँकरै, सपर परेई संग । सुन्वी, परेवा, पुंडमि मैं एकै तुहीं, विहंग ।। ६१९ ॥ परेवा=पागवत. कबूतर ॥ ( अवतरण )--कोई भोजन-वस्त्र-उपार्जन के निमित्त परदेश में पड़ा हुआ मनुष्य, कबूतर को कबूतरी के साथ सुख से कंकादियाँ चुगते देख कर, कहता है ( अर्थ )-ॐ परेवा विहंग ( पक्षी ), ‘पुहुमि' [पृथ्वी ] में एक तू ही सुखी है, क्योंकि तेरा ] पट ( वस्त्र )[ तो तेरा] पंख ही है [ जो कि तेरे पास ही उपस्थित है, तेरा] ‘भखु ( भक्ष्य, मेजन का पदार्थ ) कंकड़ ही है [ जो कि सब ठौर प्राप्य है, और तेरी ] सपर ( पक्षयुत, सब स्थानों में तेरे साथ जाने की योग्यता रखने वाली ) परेई (कबूतरी ) [ तेरे ] संग में है ॥ अरे, परेखौ को करै, जॅहीं विलोकि विचारि ।। किहिँ नर, किहिँ सर राखियै स्वरें बर्दै परिपरि ॥ ६२० ॥ परेखौ-यह शब्द संस्कृत शब्द 'प्रेक्ष' से बना है । 'प्रेक्ष' का अर्थ देखना है, पर यह शब्द किसी व्यतीत दशा पर दृष्टि डालने के अर्थ में प्रयुक्त होता है । भाषा में “परेखा' शब्द किसी व्यतीत बात, अथवा किसी व्यक्ति के किए हुए बर्ताव, को सोच कर दुखी होने के अर्थ में प्रयुक्त होता है । परिपारि-यह संस्कृत शब्द ‘पालि' से 'पर' उपसर्ग लगा कर एवं ‘ल' के स्थान पर 'र' आदेश कर के बनाया गया है । ‘पालि का अर्थ किनारा, घेरा, मर्यादा इत्यादि है ॥ ( अवतरण )-संसार के बहुत बड़े मनुरुप के मइ-इन व्यवहार पर कवि की प्रास्ताविक रवि मन से अथवा किसी मित्र से| ( अर्थ )-अरे [ मन अथवा मित्र, बड़े मनुष्यों के मर्यादा-हीन बर्ताव का ] परेखा कोन करने बैठे, तू ही [ संसार के व्यवहार को ] विधार देख ; किस नर [ तथा ] किसः सर ( ताल ) से 'ख' ( बहुत ) बढ़ने पर ‘परिपारि' ( मर्यादा ) रक्खी जाती है ( अर्थात् बहुत बढ़ जाने पर सभी मनुष्य तथा ताल मर्यादा भंग कर डालते हैं ) ॥ . तौ, बलियै, भलियै बनी, नागर नंदकिसोर। जो तुम नीकै कै लख्यौ मो करनी की ओर ।। ६२१ ॥ ( अवतरण )-भक का वचन श्रीकृष्ण चंद्र से( अर्थ )-हे नागर नंदकिशोर, यदि [ कहाँ ] तुमने मेरी करनी की ओर ‘नकै कै २. सुपरि ( २ ) । २. भूमि (४) । ३. पर (२) । ४. परे ( ३, ५), बडे ( ४ )। ५. वारि ( २, ४ ) । ________________

बिहारी-राकर ( भली भाँति, अर्थात् उसके भली बुरी होने की परीक्षा करने की यथार्थ दृष्टि से ) देखा, तो [ मैं तुम्हारी ] बलिहारी ही [ गया ], [ मेरी गति ] भली ही बनी ( सर्वथा बिगड़ी) [ अर्थात् तुम मेरी भली बुरी करनी पर ध्यान न दो, मैं जैसा हूँ, वैसे ही की अपनी कृपा मात्र से तार दो ] ॥ । चाह भरी, अति रस भरीं, बिरह भरीं सब यात ।। कोरि सँदेसे दुहुनु के चले, पौरि लौं जात ।। ६२२ । । ( अवतरण -नायक विदेश जाने के निमित्त नाविका से बिदा हो कर अभी पौरी तक भी नहीं पहुँचने पाया है कि दोन को ऐसा विरह व्याप्त हो गया कि उनकी सब क्रियाएँ, चेष्टाएँ इत्यादि चाह, रस तथा दुःख से भर गईं, और नायक के पौत तक पहुँचते ही पहुँचते दोनों ओर से करोड़ संदेश आने जाने लगे। सखी-वचन सखी से ( अर्थ )-[ नायक के परदेश जाने के निमित्त नायिका से विदा हो कर ] परी तक जाते जाते (पहुँचते पहुँचते ) [ही दोनों की ] सब बातें ( क्रियाएँ, चेष्टाएँ इत्यादि ) चाह ( मिलने की अभिलाषा ), अत्यंत रस (स्नेह )[तथा] विरह (विरह-दुःख) से भर गई, [ और इतने ही समय के बिछोह में ] दोनों के केटि (अनगिनती ) संदेश चले ( आने जाने लगे )॥ सुनि पग-धुनि थिई इतै न्हाति दियँ हीं पीठि।। चकी, झुकी, सकुची, डरी, हँसी खजी सी डीठि॥ ६२३ ॥ झुकी = निहुर गई । ( अवतरण )-नायिका किस नदी अथवा सरोवर में स्नान कर रही थी । इतने ही मैं नायक भी वहाँ आ गया । नायिका की पीठ नायक की ओर थी । उसने, पैर की अहः पा कर पीट दिए ही हुए किंचिन्मोत्र श्रीवा फेर कर नायक को देखा और चकी, झुकी इत्यादि । उसकी इन्ही चेष्टा का वर्णन नायक उसकी सखी अथवा किसी दूती से करता है | ( अर्थ )[ उस ] स्नान करती हुई [ नायिका ]ने [ मेरे ] पाँव की आहट सुन कर पठ दिए ही हुए ‘इतै' ( इस ओर अर्थात् मेरी ओर ) देखा, [ और ] चकित हुई [ कि मैं वहाँ कहाँ से पहुँच गया ], झुकी (निहुर गई ) [ जिसमें उसके उरोज न दिखाई दें ] सकुची (सिमिट गई ), हरी [ कि अन्य कोई तो नहीं देखता है, और ] लजाई हई सी दृघ्रि से हँसी ।। कर लै, सँघि, सेराहि हैं रहे सबै गहि मौनु । गंधी अंध, गुलाब कौ गवई गाहकु कौनु ॥ २४ ॥ १. चितयो ( ५ ) । २. ही ( ३ ), ई ( ४, ५ ) । ३. झखी ( २ ) । ४. लजौहीं” ( २ ) । ५. सराहि के ( २ ) । बिहारी-रत्नाकर ( अवतरण )-किसी गुणी की अबूझ खोग में अपना गुणमाइक पाने की चेष्टा पर अन्योति | ( अर्थ )-अरे अंधे ( निर्बुद्धि ) गंधी ! इस ‘गव' ( ग्रामीण मंडली ) में [तरे ] गुलाब ( गुलाब-जल ) का कौन ग्राहक [ बैठा ] है । [ तू अपना समय यहाँ वृथा नष्ट करता हैं, देख वो सही कि तेरे गुलाब-जल को ] हाथ में से, सँध [ अर ] सराह ( प्रशंसा कर ) कर भी [ ये ] सबके सब चुरी लग गए हैं [ किसी ने गाँठ से पैसा खोल कर फुटे मुंह से भी यह न कहा कि मुझे इसमें से इतना दे दो, और दाम ले लो ] ॥ मिलि चलि, चलि मिलि, मिलि चलतऑर्गन अथयौ भानु । भयो मुहरत भोर को पौरिहिँ” प्रथम मिलानु ॥३२॥ मुहुरत ( मुट्टन ) = दो घड़ी का काल । भाषा में इसका अर्थ प्रायः किसी कार्य के निमित्त ज्योतिषद्वारा स्थिर किया हुया शुभ समय होता है ।। ( अवतरण )-नायक के विदेश जाने का मुहूर्त प्रातःकाल में है। वह उस समय नायिका से बिदा हो कर । पर दोन के प्रेमाधिक्य के कारण मिल्ल मिल कर चलने तथा दो एक पग चन कर फिर मिलने में इतना विलंब जग गया कि आँगन ही मैं संध्या हो गई, जिससे नायक को अपने उस प्रातःकाल के प्रस्थान-मुहूर्त का पहिला पड़ाव पर ही मैं करना पड़ा । इसी प्रेमाधिक्य का वर्णन कोई सल्ली किसी अन्य सखी से करती है-- | ( अर्थ )- नायक के नायिका से ] भेट कर [ एक दो पग ] चल, [ और इस ] चलने के पश्चात् [ फिर ] भेट-[ इस प्रकार ] मिल कर ( विदा हो कर )चलते हुए [ इतना विलंब लगा कि सारा दिन बीत गया, और ] अाँगन [ ही ] में सूर्य अस्त हो गया । [ अतः उसके ] प्रातःकाल के मुहूर्त ( प्रस्थान-मुहूर्त ) का पहिला 'मिलानु' ( डेरा, पड़ाव ) पोरी ( ड्योढ़ी ) ही में हुआ ॥ पचरंग-रंग-बॅदी खेरी उँटै अगि मुख-जोति। पहिरै चीर चिर्नाटयाचटक चौगुनी होति ॥ ६२६ ॥ ऊगि - किसी वस्तु के धृमिल से प्रकाशित हो जाने को उगना कहते हैं । चीर चिनौटिया = चुनरी । चिनवट गर्थत् नुट दे कर देंगे जाने के कारण एक विशेष प्रकार की राँगावट के चीर का चूनरी । कहते हैं । इन्हीं को चिनोटिया ग्रथवा चुनौटिया चीर भी कहते हैं । ( अबतरण ) -सखी अथवा दूती, मायिका की शरीर-गुति की इस ब्याज से प्रशंसा कर के कि उसकी झलक वीर पर पड़ने से चीर का रंग चटकीला हो जाता है, नायक के हृदय में रुचि उपजाती है| ( अर्थ )-[ उसके शरीर पर ] धारण करने से चिनौटिया चीर ( चूनरी ) पर १. मिलि मिलि चलि चलि (४) । २. अँगना (२) । ३. ॐ (३) । ४. पोरी (४) । ५. दिने ( ४ ) । ६• उठी ( २ )। ________________

विहारी-रत्नाकर [ उसकी शोभा की झलक पड़ने के कारण ] चौगुनी चटक हो जाती है ( आ जाता है ), [ क्योंकि उस चुनरी की ] पंचरंगे रंग की बेंदी ( पाँचो रंग में से प्रत्येक रंग की वैवकी) [ उसके ] मुख की ज्योति से अत्यंत ‘ऊगि उठती है ( पूर्ण रूप से प्रकाशित हो जाती है, अधिक चटकीली हो जाती है ) ॥ हँसि ओठनु-बच, करु उचै, किर्यै निचॉहैं नैन । खरै अर्दै प्रिय हैं प्रिया लँगी थिरी मुख दैन ।। ६२७ ।। ( अवतरण )-विश्रब्धनवोढ़ा नायिका को नायक का अब इतना विश्वास हो गया है कि वह उसके विशेष हठ करने पर अपने हाथ से उसे पान खिलाने लगी है। इसी विश्वास तथा पान खिलाते समय की चेष्टा का वर्णन सखी सखी से करती है | ( अर्थ )-[ अब वह नवोढ़ा इतना विश्वास करने लगी है कि ] प्रियतम के बहुत अड़ने ( हठ करने ) पर, [ अपने ] अठों [ ही ] में हँस कर ( मुसकिरा कर ), कर ( हाथ ) ऊँचा कर के [और ] नेत्र निचाहें ( नीचे की ओर ) किए हुए, [ उसके ] मुख में [ पान की ! वीड़ी देने लगी है ॥ वा, बलि, तो दृगनु पर अलि, खंजन, मृग, मीन । धडीठि-चितौनि जिहिँ किए लाल अधीन ॥ ६२८॥ ( "प्रबलर ए )--दूती नायिका के नेत्र की प्रशंसा करती हुई नायक के उस पर अनुरक्त होने का वृत्तांत उसको मुनाती है | ( अर्थ )-[ हे लाड़ली, म तुझ पर ] बलि [ जाऊँ ], [ मैं ] तेरे इगों पर अलि, खंजन, मृग [ तथा ] मीन चार हूँ, जिन[ नेत्र ]से अधिी दृष्टि की चितवन के द्वारा { तूने ] लाल [ अपने ] अधीन कर लिए ॥ जात सयान अयान है, वे ठग काहि ठगै न । को ललचाइ न लाल के लखि ललचाँहैं नैन ॥ ६२९ ॥ ( अवतरण )-शिक्षा देती हुई सखी से नायिका कहती है कि कुछ मैं ही नायक के नेत्रों पर खजचा कर मुग्ध नहीं हो गई हैं, बड़ी बड़ी सयानियाँ भी उनके ललचा कर देखने पर उग जाती हैं, और सन पर मोहित हो जाती हैं ( अर्थ )-लाल के ललचाँहैं ( अपनी ओर लालच से देखते हुए ) नयन देख कर कौन ललचाता नहीं ( मोदित न होता ) । वे ठग किसको नहीं ठग लेते, [ इनके आगे बड़े बड़े ] सयाने ( सशान ) अयने (अशान ) हो जाते हैं । ५. बिरी ( २ ) । २. लगे ( २ ) । ३. दीठि ( ५ ) । ४. त्या ( २ )

२६० विहारी-राकर लखि लखि आँखियेनुअधखुलिनु, आँगुमोरि, अँगिरौद । आधिकै उठि, लेटति लदकि, आलस-भरी जम्हाई ॥ ६३०॥ ( अवतरण )-रसि-श्रमित नायिका के प्रातःकाल जागने के समय की शोभा का वर्णन सखी सखी मे करती है ( अर्थ )-[ हे सखी ! देख, यह हमारी प्यारी सखी रात के रति-श्रम से ] आलस्यभरी हुई जंभा कर [ कैसी शोभा से ] अधखुली आँखों से [ इधर उधर ] देख देख कर [ कि कहीं नायक तो यहाँ उपस्थित नहीं हैं ], शरीर को मोड़ ( उमेठ) कर [ और ] अँगड़ा कर, [शय्या पर ] 'अधिक' ( कुछ ) उठ कर [ और फिर ] लटक ( भुक) कर लेट जाती है ॥ प्रेमु अडोलु डुले नहीं मुँह बोले अनखाइ । चित उनकी मूरति बसी, चितवन माँहि लम्वाइ ।। ६३१ ।। ( अवतरण –अक्षिता नायिका का अनुराग बक्षित कर के सखी ने कुछ छेड़ छाड़ की, जिस पर अनुराग छिपाने के निमित्त नायिका कुछ खिझला उठी । सब सखी कहती है | ( अर्थ )-[ नेरा] अडोल ( अटल, दृढ़ ) प्रेम [ तेरे ] मुख से अनखा कर बोलने [ मात्र] से इस ( टल ) नहीं सकता। [ तेरे ]चित्त में उनकी मूर्ति बस गई है, [ यह बात नेरी ] चितवन में ( से ) लक्षित होती है क्योंकि तेरी दृष्टि उस ओर जाते ही कुछ और ही सी हो जाती है ] ॥ नाक मोरि, नाहीं के नारि निहोरें लेइ ।। कुवत ओठ बिय अगुरिनु बिरी बदन प्यौ देइ ॥ ६३२ ॥ ( अवतरण )-नायक नायिका को अपने हाथ से पान खिलाता है । उस समय के नायिका के कुटुमित राव नथा नाय की छेड़ छाड़ का वर्णन सखी सखी से करती है ( अर्थ )-नाक मोड़ कर ( मड़ोर कर ) [ तथा ] नहीं नहीं कर के नारी (नायिका) ‘निहो' ( उपकार करने की प्रार्थना से )[ प्रियतम के द्वारा दी जाती हुई बीड़ी अपने मुख में ] लेती हैं, [ और ] प्रियतम [ उसके ] दोनों ओठों को उँगलियों से छूता हुआ [उसके मुंह में [ पान की ] बीड़ी देता है ।


-- गिरै' कंपि कछु, कछ रहै कर पसीज लपटाइ ।

लेय मुंठी गुलाल भरि छुटत झूठी है जाइ ।। ६३३ ॥ १. अंखिया ( ३, ४, ५ ) । २. अधखुली ( २ ) । ३. ऍड्राइ ( २ ), अँगुराइ ( ३, ५ ) । ४. श्राधिक सी उठ उठ लटति ( ३, ५ ) । ५• ग्रारस ( ३ ) । ६. करै ( २ ) । ७. गयो कंप ( ४ ) । ८. लॅया ( ३ ), लीने ( ४ ) । ६. भूठि ( ३, ५) । १०. की ( २ )। ________________

विहारी-रत्नाकर २६१ ( अवतरण )–नायक नायिका होली के खेल में परस्पर गुबान की मू भर भर कर चलाते हैं। पर कुछ गुलाब तो कंप सात्विक से गिर जाता है, और कुछ स्वेद से हाथ में लिपट रहता है। अतः दोन की मूठें छूटने पर रीती सी प्रतीत होती हैं। यह वृत्तांत देख कर दोनों के प्रेम की प्रशंसा करती हुई सखियाँ अापस मैं कहती हैं (अर्थ)-[ फाग के खेल में ] गुलाल से भर कर (भली भाँति पूर्ण कर के) ली हुई मूठ भी छूटने पर झूठी हो जाती है ( ऐसा प्रतीत होता है मानो उसमें गुलाल लिया ही नहीं गया था ) । [क्योंकि पारस्परिकदर्शन-जनित सात्विक से ] कुछ [ गुलाल ते] कंप के कारण गिर जाता है, [ और] कुछ [स्वेदः से ] पसीज कर हाथ में लिपट कर रह जाता है [ अतः सूठ खुलने पर एक का गुलाल दूसरे पर नहीं पड़ता ] ॥ देवत कछु कतिगु इतै देखी नैंकं निहारि । कब की इकटके डटि रही टटिया अँगुरिनु फारि ॥ ३३४ ॥ ( अबतरण )--परकीया नायिका अपने द्वार अथवा खिड़की की टट्टी की स्थौरन को अँगुलियाँ से सरका कर बाहर खड़े हुए नायक को देख रही है । पर नायक का ध्यान किसी अन्य कौतुक में लगा हुआ है । नायिका की कोई अंतरंगिनी सखो उसका ध्यान उस ओर आकर्षित करती हुई कहती है| ( अर्थ )-[ तुम ] कुछ कौतुक इस ओर [ भी ] देखते ही [अथवा उसी ओर ध्यान दिए हुए हो ], किंचित् निहार कर ( दृष्टि दे कर ) [ इधर तो ] देखो। [ वह बेचारी तुम्हें देखने के लिए ] कब की ( कब से ) टट्टी को अंगुलियों से फाड़ कर एकटक (निरंतर, विना पलक गिराए देखती हुई ) डटी हुई है ( एक ही स्थान पर स्थित हैं ) ॥ कर लै, चूमि, चढ़ाई सिर, उर लगाइ भुज भेटि । लहि पाती पिय की लखति, बाँचति, धरति समेटि ।। ३३५ ॥ ( अवतरण )-प्रोषितपतिका नायिका को नायक की पत्रिका मिलने से जो अकथनीय हर्ष हुआ है, उसका वर्णन कोई सखी किसी अन्य सखी से, नायिका की चेष्टा का कथन करती हुई, करती है । | ( अर्थ )-[ देख, इस नायिका का कैसा विलक्षण प्रेम है कि वह ] प्रियतम की पत्रिका पा कर [ मारे प्रेम के विह्वल हो उसको ] हाथ में ले कर, चुम, [ आदर से ] सिर पर चढ़ा, छाती से लगा [ और ] भुजाओं से भेट कर [ बड़े चाव से ] देखती, [ बड़े उत्साह से ] बाँचती [एवं फिर बहुत सँभाल कर ] समेट कर ( तहिया कर, मोड़ कर) रख लेती है । २) । २. टग ( ३, ५ ) । ३. खिसी (५)। २६२ बिहारी-रत्नाकर चकी जकी सी है रही, बुझैं बोलत नीठि। कहूँ डीठि लागी, लगी कै काहू की डीठि ।। ६३६ ॥ ( अवतरण )-पूर्वानुरागिनी नायिका की जड़ता दशा का वर्णन सखियाँ आपस मैं करती हैं| ( अ )-[ देखो, हमारी यह लाड़ली सखी कैसी ] 'चकी' (चकराई हुई ) [ तथा } ‘जकी' (जकड़ी हुई, स्तंभित ) सी हो रही है, [ और स्वयं पहिले का सा हँसना वोलना । तो दूर रहा, हम लोगों के ] बुझने (पूछने, छेड़ छाड़ करने ) पर [ भो ] नीठि ( बड़ी कठिनता से ) बोलती है । ( जान पड़ता है कि इसकी ] दृष्टि कहाँ लग गई है ( यह किसी पर अनुरक्र हो गई है ), अथवा किसी की दृष्टि [ इसको ] लग गई है ॥ भावरि-अनभावरि-भरे करौ कोरि बकवादु । अपनी अपनी भॉति कौ छुटै न सहज सवा ।। ६३७ ।। ( अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्ति है कि चाहे किसी को अच्छा लगे अथवा बुरा, पर अपना अपना प्राकृतिक स्वभाव छूटता नहीं ( अर्थ )--[ किसी के स्वभाव के विषय में ] 'भावरि-अनभावरि' ( पसः अथवा नापसंद होने के भाव ) से भरे हुए [ लोग चाहे ] करोड़ बकवाद ( वृथा की कहा सुनी ) किया करो, [ पर ] अपनी अपनी भाँति ( रीति, प्रकार ) का सहज ( प्रकृति-सिद्ध ) सवाद ( स्वाद, रुचि ) नहीं छूटता ॥ बकवाद शब्द का प्रयोग यहाँ बिहारी ने पुलिंगवत् किया है। यह शब्द वाक्य-वाद' से बना है, और इसका अर्थ ऐसा वादविवाद है, जिसमें वृथा वाक्य है। पर झगड़ा किया जाय । संस्कृत में यह शब्द पुलिंग ही होता है, पर भाप में यह स्त्रीलिंग माना जाता है । दूखौ खरे समीप के लेत मानि मन मोदु ।। होत दुहुनु के दृगनु हाँ बतरसु, हँसी-बिनोदु ।। ६३८ ॥ ( अवतरण )-नायक नायिका दूर दूर खड़े हैं, पर आँखों की सैन से बातचीत एवं सी-विनोद कर के ऐसे आनंद में मग्न हैं, मानो दोन, समीप ही हैं। कोई सखी उनके ग्रानंद को स्वक्षित कर के किसी अन्य सखी से कहती है | ( अर्थ )-दोनों के दृगों ही में ( इगों की सैनों ही से ) बतरस ( वात का अानंद ) एवं हँसी का विनोद ( हास परिहास की क्रीड़ा ) हो रहा है। [ अतः दोन ] दूर खड़े हुए भी समीप [ होने ] का मोद ( आनंद ) मन में मान लेते हैं । १. कोटि ( २ ) । २. दूरि हु ( २ ), दुरो ( ३, ५ ) । ________________

विहारी-रत्नाकर मुख उघारि पिउ लखि रहत रह्यौ न गौ मिस-सैन । फरके ओठ, उठे पुखक, गए उघरि जुरि नैन ।। ६३९ ॥ ( अवतरण )-नायिका विमोदाथै सोने का बहाना कर के, मुँह पर कपड़ा डाल कर और आँखें बंद कर के लेट रही थी । नायक ने यह सोच कर कि देखें तो सही कि यह वास्तव में सो गई है। अथवा मुझे छकाने के लिए बहाना किए हुए है उसका मुंह खोल कर देखा । नायक के ऐसा करने पर नायिका से बहाने की निद्रा में रहा ने गया। इसी विनोद का वर्णन सखी सखी से करती है | ( अर्थ )-[ उसका ] मुख खोल कर प्रियतम के देख रहने पर [ उससे ] 'भिस-सैन' ( बहाने की नींद ) मैं रहा नहीं गया । [उसके ] ओठ फड़क उठे, पुलक ( रोमांच ) उठ आए, [ एवं ] नयन खुल कर [ प्रियतम के नयनों से जुड़ ( मिल ) गए । --- - --- पिय-मन रुचि-लैबौ कठिनु, तन-रुचि होहुँ सिँगार । लाख करो, आँखि न बढ़ें, बढ़े बढ़ाएँ बार ।। ६४० ।। ( अवतरण )-किसी नासमझ राजा अथवा धनी के विषय में कोई गुणी, किसी अनभिज्ञ अथवा नपुंसक पर अन्योक्कि कर के, कहता है ( अर्थ )-प्रिय (प्रियतम) के मन में रुचि (चाह) का होना कठिन है (अर्थात् हमारे प्रभुजी के मन में हमारा अदर होना दुस्तर है ), तन की शोभा श्रृंगार-द्वारा [चाहे कितनी ही ] बढ़ जाय ( अर्थात् हम गुणों से भूषित हो कर चाहे कितने ही श्रेष्ठ हो जायँ), [क्योंकि कोई ] लाख ( यत्न ] करो, [ पर ] आँखें नहीं बढ़त ( अर्थात् प्रभुजी की आँखों में गुण-ग्राहकता तथा उदारता नहीं बढ़ सकती ) बाल बढ़ाने से [ भले ही ] वर्दै ( अर्थात् हमारे श्रम करने से हमारे गुण माहे कितने ही ब ) ॥ यह अन्योक़ि वैसी ही है, जैसा यह कि-"का पर करौं सिँगार, पिया मोर धर” ॥ मनमोहन स मौहु करि, हूँ घनस्यामु निहारि । कुंजबिहारी मैं बिहरि, गिरधारी उर धारि ।। ६४१ ।। ( अवतरण )-कोई भक्त महात्मा अपने मन से कहता है कि रे मन, जो कुछ तुझे करना है, वह सब श्रीवृंदावनविहारी ही के संबंध में कर, विना उनके संबंध के को ई क्रिया न कर- . | ( अर्थ )-[रे मन, यदि तुझको किसी पर मोह करना है, तो तु] श्रीमनमोहन से मोह कर [ क्योंकि और जिनने मोहोत्पादक पदार्थ हैं, वे सब अंत को फीके जंचते हैं, पर मनमोहन का मोह सदा चटकीला होता जाता है ], [ यदि तेरी इच्छा शोभा देखने की है, तो ] तु श्रीघनश्याम को देख [ क्योंकि वह शोभा की अवधि हैं, और उनकी शोभा से मन कभी नहीं भरता ], [यदि तेरी लालसा विहार करने की है, तो तु] कुंजविहारी से १. लखि पिय ( ३ ) । २. होउ ( ४ ) । २६४ बिहारी-रत्नाकर विहार कर [ क्योंकि श्रीर विहारों से चित्त को अंत में उपराम हो जाता है, पर उनके नित्य नए विहार चित्त को सदैव उत्साहमय तथा आनंदित बनाए रखते हैं ], [ और यदि तेरी अभिलाषा किसी को हृदय में धारण करने की है, तो तू ] गिरधारी को उर में धर, [ क्योंकि वह परम भक्तवत्सल एवं शरणागत का पालन करने वाले हैं। उन्होंने गोवर्द्धन धारण कर के इंद्र के कोप से व्रजवासियों की रक्षा की है ] ॥ मैं मिसहा सयौ समुझि, मुँहु चुम्यौ ढिग जाइ । हँस्यौ, ग्विसानी, गल गर्छ, रही गैरें लपटाइ ॥ ६४२ ।। ( अवतरण )-नायिका ने कुछ प्रणय-मान किया था। उसके न मानने पर नायक सोने का बहाना कर के लेट रहा । नायिका ने, उसका सोया समझ कर और यह सोच कर कि मैं मान भी न छ।हैं और मुख-चुंबन का सुख भी प्राप्त कर लँ, पास जा कर, उसका मुँह चूमा । नायक बहाने से तो सोया ही था, बस फिर उसके मुंह चूमन पर, यह सोच कर कि कहाँ तो यह बुलाए नहीं बोलती थी और कहाँ मुंह चूम रही है, हँस पड़ा, जिससे नायिका खिसिया गई । तब नायक ने उसके गले में गन्नवहीं डाल दी, और नायिका भी उससे लिपट गई । यही वृत्तांत नायिका अपनी किसी अंतरंगिनी सखी से कहती है-- | ( अ )-[ हे सखी ! कल रात के वड़ विलक्षण क्रीड़ा हुई ] मैंने , [ उस ] ‘मिसहा' ( बहाना करने वाले, छली ) के साया हुआ समझ, पास जा कर [उसका ] मुंह चूमा । [ मेरे मुंह चूमते ही वह ] हंस पड़ा,[जससे म] खिसिया गई ( लजित हो गई ),[ क्योंकि कहाँ तो मैं उसके मनाने से नहीं मानी थी, और कहाँ मैने स्वयं उसके पास जा कर उसका मुंह चूमर । मेरे खिसियाने पर उसने मेरा ] गला पकड़ लिया ( मुझे आश्वासन देने के निमित्त गलवाई डाल दी ), [ तव में, अपना खिसियानपन मिटाने के निमित्त, उसके ] गले से लिपट रही ।। नीठि नीठि उठि बैठ हूँ प्यौ प्यारी परभात । दोऊ नद भरें खरें, गर्दै लागि, गिरि जात ॥ ६४३ ॥ ( अवतरण )-राप्ति की रति-क्रीड़ा से भ्रमित दंपति के प्रातःकाल जागने के दृश्य का वर्णन सखी सखी से करती है | ( अर्थ )-[ आलस्य के कारण ] प्रातःकाल नीठि नीठि ( किसी न किसी प्रकार) उठ बैठ कर भी प्रियतम [ तथा ] प्रियतमा, दोनों भली भाँति नींद से भरे हुए होने के कारण [ परस्पर ] गले लग कर [ फिर शय्या पर ] गिर जाते हैं (दुखक पड़ते हैं ) ॥ १. समभि ( ३, ५ ) । २. ३ ( २ )। ३. गले ( ५ ) । ________________

बिहारी-रत्नाकर २६५ तनक झूठ ने सवादिली कौने बात परि जाइ । तिय-मुख रति-आरंभ की नहिँ झुठियै मिठाइ ॥ ३४४ ॥ सवादिली= स्वादुता, मिठास ॥ ( अवतरण )–नायक अपने अंतरंग सखा अथवा मन से कहता है कि संसार मैं झूठ से बात का स्वाद जाता रहता है, पर रत्यारंभ में स्त्री के मुख की झूठा ही नहीं नह' मीठी लगती है ( अर्थ )-कौन बात (किस बात ) में किंचिन्मत्र [ भी ] झूठ पड़ जाने से ( मिल जाने से ) [ उसकी ] 'सवादिल' नहीं जाती रहती ( नष्ट हो जाती ), [ अर्थात् सभी बातें किंचिन्मात्र भी झूठ के मेल से फीकी पड़ जाती हैं, पर ] स्त्री के मुख से रत्यारंभ की झूठी ही नहीं नहीं मिठाती है ( स्वादु लगती है ) ॥ । नहिं अन्हाइ नहिं जाइ घर, चितु चिढुव्यौ तकि तीर । परसि, फुरहरी लै फिरति बिहँसति, पॅसति न नीर ॥६४५॥ कुरहरी=शीत, भय, आनंद इत्यादि के कारण जो कुछ कंप तथा पुलक सा शरीर में हो जाता है । ( अवतरण )-नायिका जहाँ स्नान कर रही है, वहाँ नायक भी आ गया है। अतः नायिका, उसे देखने के लालच से शीत का साज कर के, नहाने मैं विलंब करती है, और फुरहरी ले ले कर ट पड़ती है, जिसमें उसका मुँह तीर की अोर है, और वह नायक को देख सके । सखी-वचन सखी से ( अर्थ )-न [ ते यह ] नहाती है, [ और ] न घर की जाती है। [ इसका ] चित्त [ नायक से विभूषित ] तीर में [ उसको ] ताक कर 'विहुँयौ' (चिपका, लगा ) है।[ देख, यह शीत के व्याज से जल को ] स्पर्श कर, फुरहरी (कंप तथा पुलक) ले कर ( जान बुझ कर अपने शरीर में उत्पन्न कर के ) हँसती हुई लौट आती है, और ] जल में नहीं धंसता (पैठती ) ॥ सटपटाति मैं ससम्मुखी मुख धूघट-पटु ढाँकि। पावक-झर सी झमकि कै गई झरोख झाँकि ।। ६४६ ॥ मैं—यह शब्द 'सी ही' अथवा 'से ही' का लघु रूप बन गया है । ‘सी ही' अथवा 'से ही' से 'सीयै' अथवा 'सेयै', और 'सीये' अथवा 'सेचै' से 'स्ये' बना है । स्थै' के यकार के लोप तथा अर्द्धचंद्र के आगम से उसी का मैं ' रूप हो गया है। काव्य-भाषा में वठुधा निरनुनासिक शब्द का उच्चारण सानुनासिक किया जाता है । ( अवतरण )-नायक को खिड़की में से देख कर जिउ मनोनहिनी चेष्टा से नायिका हट गई है, उसका वर्णन नायक उस की सनी से अथा स्वगत करता है १. निसवादिली ( २, ४ ), न सवादली ( ३ ), निसवादली ( ५ ) । २. क्यों न ( ३, ५ )। ३. लौं ( ३, ५ )। ४. सी ( ४ ) । ५. कईं ( ३ ) । ६. श्रीझाँ ( ३ ), ओझा ( ५ ) ।

(अर्थ)—[वह] शशिमुखी सटपटाती हुई सी ही (भय, अभिलाषा तथा संकोच से यह संशय करती हुई सी ही कि झाँकूँ या न झाँकूँ, अर्थात् यद्यपि उसके हृदय में झाँकने के विषय में हिचक थी, तथापि) [अपने] मुख पर घूँघट का पट ढाँप कर, [और] पावक की झर (लपट) सी झमक कर (शीघ्रता पूर्वक लपलपा कर) झरोखे मेँ से झाँक गई॥

'सटपटात सैँ' पद को सप्तम्यंत 'मुख' शब्द का विशेषण मान कर भी इस दोहे का अर्थ लग सकता है। उस दशा मैँ दोहे के पूर्वार्द्ध का अर्थ यह होगा—वह राशिमुखी सटपटाते से मुख पर घूँघट-पट ढाँप कर॥

इस दोहे का उत्तरार्द्ध ज्योँ का त्योँ ५७०-संख्यक दोहे का भी उत्तरार्द्ध है॥

ज्यौँ कर, त्यौँ चिकुटी[] चलति; ज्यौँ चिकुटी,[] त्यौँ नारि।
छबि सौँ गति सी लै चलति चातुर कातन-हारि॥६४७॥

गति—इस शब्द का अर्थ २९१-संख्यक दोहे की टीका मेँ किया गया है। गति लेना वाक्य-व्यवहार मेंँ गति नाचने को कहते हैं॥

(अवतरण)—नायक नायिका को चरखा कातते देख कर उसकी मोहिनी चेष्टा का वर्णन स्वगत करता है—

(अर्थ)—[अहा!] जिस प्रकार (जिस लय से, जिस मंदता अथवा शीघ्रता से) [इसका दाहिना] हाथ [चरखे के घुमाने मेँ चलता है], उसी प्रकार [इसके बाँए हाथ की] चुटकी [रुई की पिउनी को सरकाती] चलती है, [और] जिस ढंग से चुटकी [चलती है], उसी प्रकार [उसकी] नारि (ग्रीवा) [भी चलती अर्थात् हिलती है]। [यह] चतुर कातने वाली [चरखा क्या कातती है, अपनी इस] छवि (सुंदर चेष्टा) से [नाचने की] गति सी ले चलती है॥

बुधि अनुमान[], प्रमान श्रुति किएँ[] नीठि ठहराइ।
सूछम[] कटि[] पर ब्रह्म की अलख, लखी नहिँ जाइ॥६४८॥

अनुमान =तर्क कर के किसी वस्तु का निर्द्धाण करना॥ प्रमान (प्रमाण) वेद, शास्त्र इत्यादि अथवा किसी मनुष्य के वचन को किसी विषय मेँ मान लेना॥ श्रुति इस शब्द मेँ श्लेष है; ब्रह्म-पक्ष के इसका अर्थ वेद है, और कटि-पक्ष मेँ कान अथवा सुनना॥ पर—इस शब्द को अन्य टीकाकारोँ ने ब्रह्म के साथ मिला कर 'परब्रह्म' पाठ माना है, इसी से उनके अर्थों में गड़बड़ पड़ती है। वस्तुतः यह शब्द स्वतंत्र है। इसका अर्थ यहाँ जोड़, प्रतिद्वंद्वी अथवा पर्याय है। 'सूछम कटि पर ब्रह्म की' का अर्थ ब्रह्म की प्रतिद्वंद्विनी, अर्थात् ब्रह्म के समान, सूक्ष्म कटि होता है॥

(अवतरण)—नायक अथवा सखी नायिका से, उसकी प्रसन्नता के लिए, उसकी कटि की सूक्ष्मता की प्रशंसा करती है:—

(अर्थ)—[तेरी] सूक्ष्म कटि ब्रह्म की पर (प्रतिद्वंद्विनी) अलक्ष है, [वह चर्म-दृष्टि से] देखी नहीँ जाती। [जिस प्रकार बुद्धि के द्वारा यह तर्क करने पर कि यदि ब्रह्म है नहीँ, तो यह संसार कैसे ठहरा हुआ है, और श्रुति मेँ जो ब्रह्म का अस्तित्व बतलाया गया है, उसको प्रमाण मानने से ब्रह्म की सत्ता स्थापित होती है, उसी प्रकार] बुद्धि के द्वारा [यह] अनुमान [करने से कि यदि कटि है नहीँ, तो ऊपर तथा नीचे के धड़ के भाग जुड़े कैसे हैँ, तथा] कान का [अर्थात् जो लोगोँ को कहते सुना है कि तेरे भी कटि है, उसका] प्रमाण करने से (मानने से) किसी प्रकार [तेरी कटि] ठहरती है (तेरी कटि की सत्ता सिद्ध होती है)॥

खिचैँ मान अपराध हूँ चलि गै बढ़ैँ अचैन।
जुरत[] डीठि, तजि रिस खिसी, हँसे दुहुनु के नैन॥६४९॥

(अवतरण)—सखी सखी से नायक नायिका के प्रेमाधिक्य का वर्णन करती है—

(अर्थ)—[नायिका के नेत्र] मान से [तथा नायक के नेत्र] अपराध से खिँचे (परस्पर देखने से रोके जाते) हुए होने पर भी, [परस्पर न देखने के] अचैन (बेचैनी) के बढ़ने से, [एक के नयन दूसरे की ओर] चले गए, [और] दृष्टि के मिलते [ही] दोनों के नयन, 'रिस' (रोष) [तथा] 'खिसी' (लज्जा) [अर्थात् नायिका के नेत्र रोष एवं नायक के नेत्र लज्जा] छोड़ कर, हँस पड़े॥

रूप-सुधा-आसव छक्यौ, आसव[] पियत बनै न।
प्यालेँ[] ओठ, प्रिया-बदन रह्यौ लगाऐँ नैन॥६५०॥

आसव=टपकाई हुई मदिरा॥

(अवतरण)—नायिका का रूप देख कर नायक ऐसा मोहित हो गया है कि उससे मद्य-पान करते नहीँ बनता। सखी वचन सखी से—

(अर्थ)—[नायक] सौंदर्य-रूपी सुधा के आसव से [ऐसा] छक गया (आतृप्त पी कर मस्त हो गया) है [कि उससे] आसव (सामान्य मद्य) पीते नहीँ बनता। [वह] प्याले पर ओंठ [एवं] प्रिया के बदन पर नयन लगाए हुए रह गया है (स्थगित हो गया है)॥

यौँ दलमलियतु, निरदई[], दई, कुसुम सौ गातु।
करु घरि देखौ, घरधरा उरें[१०] कौ अजौँ न जातु॥६५१॥

धरधरा = धड़कन॥ (अवतरण)—सखी नायिका की सुकुमारता तथा नायक की प्रबलता का वर्णन कर के नायक के हृदय मेँ उत्साह बढ़ाती है, और "करु धरि देखौ इत्यादि" वाक्य से उसको फिर नायिका के पास चलने पर उद्यत किया चाहती है—

(अर्थ)—हे निर्दयी, [तुमसे] दैव [बचावे], [भला कहीँ] कुसुम सा [कोमल] गात इस प्रकार (इस निर्दयता से) दला मला जाता है [कि जैसे तुमने उसके सुकुमार शरीर को दलमल डाला है]। [नेँक उसकी छाती पर] हाथ रख कर देखो [तो सही कि उसके] उर का धरधरा अभी तक नहीँ जाता (मिटता) है॥



किती न गोकुल कुलबधू, किहिँ[११] न काहि[१२] सिख दीन।
कौनैँ तजी न कुल-गली ह्वै मुरली-सुर-लीन॥६५२॥

(अवतरण)—सखी नायिका को शिक्षा देती है कि तू उत्तम कुल की वधू है, तुझे वंशीध्वनि सुन कर इस प्रकार विकल हो दौड़ पड़ना उचित नहीँ है। नायिका उसको उत्तर देती है कि गोकुल मेँ कुछ एक मैँ ही कुलवधू नहीँ हूँ, प्रत्युत अनेकानेक कुलवधुएँ हैँ, और तेरी भाँति सबने सबको शिक्षा भी दी है। पर तू यह तो बतला कि उन शिक्षा देने वालियोँ तथा पाने वालियोँ मेँ से कौन ऐसी है, जिसने मुरली के स्वर मेँ लीन हो कर कुल की मर्यादा का उल्लंघन नहीँ किया है। इस वाक्य से नायिका सखी पर कटाक्ष भी करती है कि तू भी तो अन्य शिक्षा देने वालियोँ की भाँति कुल-मर्यादा का उल्लंघन कर चुकी है। अतः तुझ पर यह कहावत—"पर उपदेस-कुसल बहुतेरे। जे आचरहिँ, ति नर न घनेरे"—चरितार्थ होती है—

(अर्थ)—गोकुल मेँ कितनी कुलवधूएँ नहींँ हैँ (अर्थात् सब कुलवधू ही तो हैँ, और तू भी उन्हीँ मेँ है), [और] किसने किसको शिक्षा नहीँ दी (अर्थात् सबने तेरे समेत सबको अपने अपने अवसर पर शिक्षा भी दी) [पर तू यह तो बतला कि] मुरली के स्वर मेँ लीन (आसक्त) हो कर किसने (तेरे सहित किस शिक्षा देने अथवा पाने वाली ने) कुल-गली (कुल की रीति) नहीँ छोड़ी॥



खलित बचन, अधखुलित दृग, ललित स्वेद-कन-जोति।
अरुन बदन छबि मदन[१३] की खरी छबीली होति॥६५३॥

खलित (स्खलित)=रीते, अर्थशून्य॥ ललित=काँपती हुई अथवा सुंदर॥

(अवतरण)—अन्यसंभोग-दुःखिता नायिका की उक्ति दूती से—

(अर्थ)—अर्थशून्य वचन, अधखुले (रतिश्रम से अलसाए हुए) दृग, पसीने के कण (बूँद) की ललित (काँपती हुई अथवा सुंदर) चमक [एवं] अरुण वदन से [तुझ पर] मदन की छवि (काम-कीड़ा से उपजी हुई शोभा) बड़ी छबीली (सुंदर) हो रही है॥

यह दोहा खंडिता नायिका का वचन नायक-प्रति अथवा सखी-वचन लक्षिता-प्रति भी हो सकता है।

बहकिन[१४] इहिँ बहिनापुली, जब तब, वीर, बिनासु।
बचै न बड़ी सबील हूँ चील-घोँसुवा माँसु॥६५४॥

सबील—यह शब्द अरबी भाषा का है। इसका अर्थ रीति, पंथ इत्यादि है। यहाँ इसका अर्थ उपाय समझना चाहिए॥

(अवतरण)—नायिका की चतुर पड़ोसिन ने उससे बहनापा जोड़ लिया है, और इस नाते से नायक को अपने घर बुलाती है। नायिका की चतुर सखी उसको सचेत करने के निमित्त कहती है—

(अर्थ)—[तू] इस बहनापे से बहक मत, हे बीर! [इसमें] जब तब (कभी न कभी) विनाश (तेरे हित का नाश) [धरा] है, [क्योंकि] बड़ी सबील (उपाय) से भी चील के घोंसले मेँ मांस नहीँ बचता॥



लहि रति-सुखु लगियै हियैँ लखी लजौँहीँ नीठि।
खुलति न, मो मन बँधि रही वहै अधखुली डीठि॥६५५॥

(अवतरण)—नायिका की रत्यंत समय की मोहिनी चेष्टा का स्मरण कर के नायक उसकी सखी से कहता हुआ फिर मिलने की अभिलाषा व्यंजित करता है—

(अर्थ)—[उसने] रति-सुख ले कर [मेरे] हृदय मेँ लगी ही हुई [जो मुझे] लजौँहीं [रीति से] नीठि (किसी न किसी प्रकार, अर्थात् यद्यपि लजा से उसकी आँखेँ सामने नहीँ होती थीँ, तथापि उनको बरबस कुछ सामने कर के) देखा, [सो उसकी] वही अधखुली दृष्टि मेरे मन मेँ [ऐसी] बँध रही है (मन को ऐसा जकड़े हुए है) [कि] खुलती नहीँ (मन को अवकाश नहीँ मिलने देती)॥



कियौ सयानी सखिनु सौँ, नहिँ[१५] सयानु यह, भूल।
दुरै दुराई फूल लौँ क्यौँ पिय-आगम-फूल॥६५६॥

(अवतरण)—परकीया आगतपतिका नायिका ने अपने मित्र का आगमन सखियोँ से छिपा रक्खा है। पर उसकी प्रफुल्लता से लक्षित कर के कोई सखी कहती है—

(अर्थ)—[तूने] सयानी (चतुर) सखियोँ से [जो सयान अर्थात् मित्र का आगमन छिपाने का चातुर्य] किया, यह सयान नहीँ, भूल है। [भला] प्रीतम के आगमन की प्रफुल्लता [सुगंधित] फूल की भाँति छिपाई (छिपाने से) कैसे छिप सकती है॥



आयौ मीतु[१६] बिदेस तैँ काहू कह्या[१७] पुकारि।
सुनि हुलसीँ, बिहँसीँ[१८], हँसीँ दोऊ दुहुनु निहारि॥६५७॥

बिहँसीँ = विशेष रूप से हँसीँ, अर्थात् इस रीति से हँसीँ कि जैसे कोई कुछ छिपी हुई बात को समझ कर हँसता है॥ हँसीँ = प्रसन्नता-पूर्वक हँसीँ॥

(अवतरण)—दो परकीया नायिकाएँ एक ही नायक से अनुरक्त हैँ, और दोनोँ मेँ मैत्री भी है। पर दोनोँ को एक दूसरे के अनुराग का वृत्तांत निश्चित रूप से ज्ञात नहीँ है। नायक विदेश गया हुआ था, जिससे दोनोँ दुःखी रहती थीं, अतः दोनोँ को एक दूसरे पर उसी के बिरह मेँ दुःखित होने का संदेह था। एक दिन दोनोँ साथ ही बैठी हुई थीँ कि इतने मेँ किसी ने उनके मित्र का नाम के कर किसी से पुकार कर कहा कि अमुक व्यक्ति आ गए। यह सुन कर दोनों हुलस उठीँ, जिससे वे, एक दूसरे का प्रेम लक्षित कर के, अपना लक्षित कर लेना व्यंजित करती हुई, मुसकिराईँ, और फिर आपस मेँ समझ बूझ कर प्रसन्नता से हँसीँ। यही वृत्तांत कोई सखी किसी अन्य सखी से कहती है—

(अर्थ)—किसी ने [किसी अन्य से] पुकार कर [इनके] मित्र को विदेश से आया हुआ कहा (इनके मित्र का नाम ले कर कहा कि अमुक व्यक्ति विदेश से आ गया)। [यह] सुन कर [दोनोँ] हुलसीँ (उल्लासित हुईँ), [जिससे दोनोँ ने एक दूसरे का अनुराग लक्षित कर लिया,] और विहँसीं (अपना लक्षित कर लेना व्यंजित करती हुई हँसीँ), [और फिर] दोनोँ दोनोँ को देख कर (दोनोँ दोनोँ की चेष्टा से आपस में समझ बूझ कर) [प्रसन्नता-पूर्वक] हँस दीँ॥

जद्यपि सुंदर, सुघर, पुनि सगुनौ दीपक-देह।
तऊ प्रकासु करै तितौ, भरियै जितैँ सनेह॥६५८॥

(अवतरण)—मानिनी नायिका को सखी समझाती है कि नायक से स्नेह करने ही मेँ तेरी शोभा है—

(अर्थ)—दीपक-रूपी देह यद्यपि सुंदर, सुघड़ (अच्छी गढ़न वाली) [और] फिर 'सगुन' (१. बत्ती-सहित। २. शुभगुण संपन्न) भी हो, तथापि [उसमेँ इन सब बातोँ से प्रकाश नहीँ हो सकता, वह] प्रकाश उतना ही करती है (१. उतना ही उजाला उसमेँ होता है। २. उतनी ही शोभा उसमें होती है), जितने स्नेह (१. तेल। २. प्रेम) से [उसको] भरा जाता है॥

पलनु प्रगटि, बरुनीनु बढ़ि, नहिँ कपोल ठहरात।
अँसुबा परि छतिया, छिनकु छनछनाइ, छिपि जात॥३५९॥

(अवतरण)—सखी अथवा दूती नायक से नायिका का विरह निवेदन करती है—

(अर्थ)—[उस नायिका के हृदय में विरह-ताप ऐसा बढ़ा हुआ है कि उसके] आँसू [उबल कर] पलकों में प्रकट हो, बरुनियों से बढ़ कर [अधिकता के कारण] कपोल पर नहीँ ठहरते, [और] छाती पर पड़ कर, क्षख मात्र छनछना कर (छन छन शब्द, अर्थात् ऐसा शब्द जैसा तप्त तबे पर पानी की बूँदोँ के पड़ने से होता है, कर के) छिप जाते हैँ (अलक्ष हो जाते हैँ)॥

इस दोहे मेँ कवि किसी पात्र मेँ उबाले जाते हुए जन की व्यवस्था दृष्टि मेँ रख कर नायिका के बहते हुए आँशुओँ का वर्णन करता है। अब जब अग्नि से तप्त हो कर दबलता है, तो वाष्प-स्वरूप हो कर पात्र के डकने मेँ जा लगता है, और फिर उसकी बारी पर से हो कर उसके पेटे पर टपकने लगता है, और यदि अधिक टपकता है, तो पेटे पर न ठहर कर चूल्हे मेँ गिर कर छनछनाता हुआ जल जाता है॥

फिरि सुधि दै, सुधि धाइ प्यौ, इहिँ निरदई निरास।
नई नई बहुरयौ, दई! दई उसासि उसास॥६६०॥

निरास—इस शब्द के यहाँ दो अर्थ लिए गए हैं (१) निराश, अर्थात् आशा-रहित। इस अर्थ में इस शब्द को स्त्रियाँ अब भी कोसने की रीति पर 'निरसिया' रूप से प्रयुक्त करती हैँ, और इसी रीति पर इसका प्रयोग इस दोहे मेँ हुआ है। (२) नीरअशन अर्थात् नीर से जीवन-निर्वाह करने वाला, अथवा नीरआश अर्थात् नीर की आशा, प्रतीक्षा, करने वाला। इन दोनोँ व्युत्पत्तियोँ से इसका अर्थ पपीहा ग्रहण किया गया है। पर इन दोनोँ व्युत्पत्तियोँ मेँ 'नी' की दीर्घ 'ई' को हस्व करना पड़ता है। इस प्रकार का स्वरोँ का हेर फेर प्राकृत तथा अपभ्रंश के लिए कोई अनुचित व्यापार नहीँ है, विशेषतः बंदरोँ मेँ। इन दोनोँ अर्थोँ मेँ से पहिला अर्थ दूसरे अर्थ, अर्थात् पपीहा, का विशेषण है। ऐसा ही प्रयोग बिहारी ने ९० अंक के दोहे मेँ भी चिहुटिनी' शब्द का किया है।

(अवतरण)—नायिका अपनी वियोग-व्यथा मैँ बेसुध पड़ी हुई थी, जिससे उसको वेदना का अनुभव नहीँ होता था, और उसकी उसासेँ मंद पड़ गई थीँ। इतने ही मेँ पपीहा पीउ पीउ बोल उठा, जिसके हौरे से बह चैतन्य हो गई, और पीउ पीउ शब्द से उसके हृदय मेँ प्रियतम की सुधि जाग उठी, जिससे विरह-व्यथा फिर व्याप्त हो गई, और उसासेँ उभर आईँ। उसकी यही दशा। कोई सखी किसी अन्य सखी से कहती है:—

(अर्थ)—[यह बेचारी वियोगिनी तो अपने दुःख से बेसुध पड़ी हुई थी, पर] इस निर्दयी 'निरास' (अभागे पपीहा) ने [पीउ पीउ बोल कर अपने हौरे से उसको] फिर से सुधि (चैतन्यता) दे कर, [और पीउ पीउ शब्द से प्रियत की सुधि (स्मृति) दिला कर, हे दैव! नई हुई (नमित, मंद पड़ी हुई) उलाल 'बहुरयौ' (फिर भी) नई (नूतन, नए सिरे से) उसास दी (उभार दी)॥

समै-पलट[१९] पलटै प्रकृति, को न तजै निज चाल।
भौ अकरुन करुनाकरौ इहिँ कपूत कलिकाल॥६६१॥

कपूत—भाषा मेँ 'कपूत' शब्द 'कुपुत्र' के अर्थ मेँ प्रयुक्त होता है। पर इस दोहे में यह शब्द 'कुपुत्र' का अपभ्रंश नहीँ प्रतीत होता, क्योँकि 'कलिकाल' के निमित कुपुत्र विशेषण कुछ विशेष चिपकता हुआ नहीँ है। अतः इसके दो अर्थ यहाँ हो सकते हैँ—एक तो वह जो लाला भगवानदीनजी ने किया है, अर्थात् 'कु-पूत' (बुरे प्रकार से पवित्र, अर्थात् अपवित्र और दूसरा दुष्प्रकृति। 'प्रकृति' शब्द का ________________

२७२ विहारी-रत्नाकर प्राकृत रूप 'पउति' होता है, जिसके अपभ्रंश 'पोत' शब्द का प्रयोग बिहारी ने ४६१-संख्यक दोहे में किया है । उसी 'पउति' का 'पूत' भी अपभ्रंश माना जा सकता है । ( अवतरण )-ईश्वर को अपने ऊपर करुणा न करने का उलाहना देते हुए कवि की प्रास्ताविक क़ि है कि समय के फेर से सबके स्वभाव बदल जाते हैं ( अर्थ )-समय की पलट ( फेर ) से [ सवकी ] प्रकृति ( स्वभाव) पलट ( बदल ) जाती है, [ और ऐसा ] कौन [ है, जो ] अपनी चाल नहीं तज देता है ! देखो, ] इस दुष्प्रकृति कलिकाल में करुणाकर (करुणा का आकर अर्थात् परम दयालु इश्वर ) भी अकण ( दयाहन ) हो गया है [ अतः हम लोगों की पुकार नहीं सुनता, जैसा कि और युग में सुना करता था ] ॥ पाखौ सोरु सुहाग को इनु विनु हाँ पिय-नेह । उनंदहीं अँखियाँ ककै, कै अलसहीं देह ॥ ६६२ ॥ ( अवतरण )-नायिका, अपनी किसी सपत्नी की आँख को उनींदी सी एवं वेह को अलसाई हुई सी देख अथवा सुन कर, इस अनुमान से दुखित हुई है कि नायक उसको अधिक प्यार करता है, और रात को उसी के यहाँ रहा है। उसे दुखित देख कर उसकी हितकारिणी सखी समझाती है कि तेरी सपत्नियाँ बड़ी धूर्त हैं, इन सबने अपनी खाँ को उनींदी सी एवं देह को ग्रालस्य-भरी सी बना बना कर अपने प्रियतम की प्यारी होने की मिथ्या धूम मचा रखी है, जिसमें तु यह सुन सुन कर कुछे, और नित्य मान-कलह करे, तो फिर प्रियतम का चित्त शनैः शनैः तुझसे फिर जाय, और उनकी बन पड़े, इत्यादि । सो त इन धूर्ताओं के धोखे में आ कर वृथा दुखित मत हो । इस दुःख मैं तेरा अनहित है। सच्ची बात और उनका गुप्त अभिप्राय भली भाँति समझ कर तू इस दुःस्व का परित्याग कर । भला तु यह तो समझ कि यदि तेरी किसी एक सौत की ऐसी चेष्टा होती, तो किसी प्रकार से अनुमान ठीक भी हो सकता था, पर जब सभी को अाँखें उन सी तथा देह अलसाई हुई सी हो रही है, तो यह कैसे संभव हो सकता है कि प्रियतम सभी के साथ रात भर रहा हो । अतः ये सबकी सब धूर्त तथा मिथ्या चेष्टा बनाए हुए प्रमाणित होती हैं ( अर्थ )-इन्होंने ( तेरी धूर्त सौतों ने ), विना प्रियतम के स्नेह ही के [ अपनी ] आँखों को उनींदी सी कर कर के ( यरवस बना बना कर ) [ एवं ] देह को आलस्य-भरी सी कर के ( बना कर ), [ अपने ] सुहाग ( सौभाग्य, अपने ऊपर प्रियतम के स्नेह होने के सौभाग्य ) का ‘सोरु' ( शोर, विख्याति, धूम ) [ गॉव भर में ] डाल रक्खा है ( मचा रक्खा है ) [ अतः तु इनकी धूर्तता से सचेत रहे, और वृथा दुखित हो कर इनको अपनी कुटिल नीति से कृतकार्य न होने दे ] ॥ इन दुखिया अँखियानु क सुख सिरज्यौई नाँहि । देखें बनै न देखतै, अनदेखें अकुलाँहि ॥ ६६३ ॥ १. सोहाग ( ३ ) । २. इनदोही (३, ५) । ३. अंखिया (२) । ४. दुखियाँनि ( २ ) । ५. देखत (२ )। ६. देखतें ( २, ३ )। ________________

बिहारी-रत्नाकर ( अनतरण )-नायिका की उक्कि अंतरंगिनी सखी से ( अर्थ )-[ हे सखी, मैं क्या करूँ, मेरी ] इन दुःखिनी आँखों के लिए सुख सिरजा ही ( बनाया ही ) नहीं गया है ; [ इन बेचारियों से ] 'देखें' ( देखने पर, अर्थात् नायक के दृष्टिगोचर होने पर ) [ लजावेश ] देखते ही नहीं बनता, [ और ] 'अनदेखें (न देखने से, अर्थात् नायक के दृष्टिगोचर न होने पर ) [ये देखने की लालसा से ] व्याकुल होती हैं ।। लगी अनलगी सी जु बिधि करी खरी कटि खीन । किए मनौ बैं' ही कसरे कुच, नितंब अति पनि ।। ६६४ ॥ ( अवतरण )-सखी नायक से नायिका की कटि की क्षीणता तथा कुच और नितंब की पीनता की प्रशंसा करती है कि जितनी उसकी कटि क्षीण है, उतने ही उसके कुच तथा नितंब पनि हैं, अर्थात् उसकी कटि की क्षीणता तथा कुच र नितंब को पीनता यथायोग्य बनाई गई हैं ( अर्थ )-[उसकी ] कटि जो विधि ( ब्रह्मा ) ने लगा अनलगी सी ( उनके शरीर में लगी हुई अर्थात् विद्यमान है अथवा नहीं लगी हुई अर्थात् अविद्यमान है, इस बात में संदेह उपजाती हुई सी ) खरी ( अति ) क्षीण ( पतली ) वनाई, [ सो ] माना उन्हीं कसरों” ( कमिया, कटि में जो सामजी केम लगी, उन्हीं बचत ) से कुत्र [ और ] नितंब अति पान ( बड़े ) किए ( बनाए ) ॥


- -- छिनकु उघारति, छिनु छुवति, राखत छिनकु छिपाइ ।

सवु दिनु पिय-वंडित अधर दरपैन देखेंत जाइ ।। ६६५ ॥ ( अवतरण )-रात्रि को चुंबन-समय नायिका के अधर पर नायक का दंतक्षत लग गया है। नायिका प्रेम तथा गर्व के कारण उस क्षत जगे हुए अधर को दर्पण देख देख कर कभी तो खा क्षती है, कभी छूती है, और कभी छिपा लेती है। देखने तथा छुने से उसके दो अभिप्राय हैं-प्रथम तो प्रियतम के चिह्न को देख तथा स्पर्श कर के मुदित होना, श्रार दूसरे माख, तथा सपत्नियाँ का ध्यान उस ओर आकर्षित करना, जिसमें कि वे जानें कि प्रितम रात को इसके साथ रहा है । छिपा लेने से वह अपनी खजा व्यंजित करती है, जिससे देखने वालियाँ को यह निश्चित हो जाय कि उसके अधर पर यह क्षत प्रियतम के दाँत ही का है, क्योंकि यदि ऐसा न होता, तो इसके इसे छिपाने की कोई आवश्यकता न थी। सखा-वचन सखी से ( अर्थ )[ हे सखी, यह तो प्रियतम के प्रेम में ऐसी मग्न और इतराई हुई है कि इसका ] सारा दिन प्रियतम-द्वारा खंडित (काटे हुए) अधर ( नीचे के आठ ) को दर्पण में देखते हुए [ बीत ] जाता है। [ यह दर्पण देख देख कर ] क्षण भर [ तो उसको ] खोलती है, क्षण भर छूती है, [ और फिर ] क्षण भर छिपा रखती है [वस, इन्हीं कामों में लगी रहती है ] ॥ १. मैं ( २ ), वें ( ३ ), वे ( ४, ५ ) । २. कसरि ( २ ) । ३. दर्पन ( २ ) । ४. देखत ( ३, ५ ) । ________________

२४ विहारी-रत्नाकर मुंह पवारि, मुड़हरु भिजे, सीस सजल कर छाइ । मौरु उचै चूंटेनु नैं नारि सरोवर न्हाइ ॥ ६३६ ॥ ( अवतरण )-नायिका के स्नान करते समय की चेष्टा नायक अपने किसी अंतरंग सखा को दिखलाता हुअा कहता है ( अर्थ )-[देखे, वह] नारी मुंह धेा कर, मुड़हर ( साड़ी अथवा ओढ़नी का वह भाग, जो सिर पर रहता है ) भिगा कर, सिर पर सजल ( जल-समेत ) हाथों को छुआ कर [ और ] 'मरु' ( मौलि, मस्तक ) ऊँचा कर के [ कैसी शोभा से ] घुटनों से ( घुटनों के वल स्थित हो कर ) सरोवर में नहाता है ।। कोरि जतन कोऊ करी, तन की तपने न जाइ । जौ ल भीजे चीर ले रहै न प्य लपटाइ ॥ ३६७ ।। ( अवतरण )-विरह से उत्तप्त प्रौढ़। नायिका का वचन सखी से ( अर्थ )-[ हे सखी, ] कई करोड़ यत्न किया करा, [ पर मेरे ] शरीर की [ कामजनित ] तपन [ तब तक ] जाने वाली नहीं, जब तक भीगे हुए वस्त्र की भाँति प्रियतम [ मुझसे ] लिपट नहीं रहता ( रहेगा ) ॥ | भीगा हुअा वस्त्र शरीर में ऐसा लिपट जाता है कि उसमें और शरीर में भेद नहीं रह जाता, और ऐसा वस्त्र शरीर में लपेट लेने से ठंदक भी पड़ती है । अतः नाविका यह उपमा दोन अभिप्राय से देती है, अर्थात् हृदय को शीतच करने वाला प्रयतम इस प्रकार न लिपट जाय, जैसे गीला कपड़ा उतक पहुँचाता हुआ शरीर में एकमएक हो कर लिपट जाता है ।


---- चटक न छाँड़तु घटत हूँ सज्जन-नेह गंभीरु ।

फीके परै न, बरु फट, रंग्य चोल-सँग चीरु ॥ ६६८।।। बोल-रंग-चाल एक प्रकार की लकड़ी होती है, जिसे ग्रेटा कर लाल रंग निकाला जाता है। इस रंग मैं कुछ लाख का रस तथा तेल इत्यादि मिला कर पका रंग बनाया जाता है, जिसको चाल का रंग कहते हैं । इसी रंग से खाया इत्यादि रंगे जाते हैं । इस रंग में तेल का भी मज़ होता है, इसी लिए कवि ने प्रेम, अनुराग इत्यादि न कह कर नहु ( १. अनुराग । ३. तल ) शब्द रक्खा है ।। ( अवतरण ) - कवि की प्रारताविक उहि है ( अर्थ )--सजन का गंभीर ( गहरा, पक्का ) स्नेह ( १. प्रेम । २. तेल ) [ स्नेह-पत्र मित्र के ] घरते हुए भी ( हीन अवस्था को प्राप्त होते हुए भी, अर्थात् निर्धन, निर्बल होते हुए भी ) [ अपनी ] चटक ( प्रेम के रंग के उत्कर्पता ) नहीं छोड़ता ( अर्थात् मित्र की होन दशा में भी सज़न का प्रेम उस पर वैसा ही चटक रंग का रहता है ), [ जेसे ] चोल १. मुंहतक ( ३, ५ ) । २. मन ( २ ) । ३. तपति ( २, ३ ) । ४. पिउ ( २ ) । ५. छोड़नु ( २, ४ ) । ________________

बिहारी-रत्नाकर २७५ के रंग से रंगा हुआ कपड़ा फीका नहीं पड़ता ( उसके ऊपर के स्निग्ध रंग की चटक नहीं जाता ), चाहे फट [ भले ही ] जाय ॥ दुसह बिरह दारुन दुसा, रहै न और उपाइ। जात जात ज्य राखियतु प्यौ कौ नाउँ सुनाई ।। ३६९ ॥ ( अवतरण )-नायिका की व्याधि दशा का वर्णन सखी सखी से करती है ( अर्थ )--[ अब उसके ] कठिनता से सहे जाने के योग्य विरह की [ वड़ ] दारुण ( भयानक ) अवस्था है ( हो रही है )। [ उस कः प्राण शरीर में ] और [ किसी ] उपाय से नहीं रहता [ दिखाई देता ] [ अब तो उसका ] जाता जाता जीव प्रियतम का नाम सुना कर ( प्रियतम का नाम पुकार कर, जिसमें कि वह जाने कि प्रियतम आ गए हैं ) रखा जाता है ( जाने से रोका जाता है ) ॥ फिरि फिरि दौरत देवियत, निचले नैंक रहैं न । ए कजरारे कौन पर करत कजाकी नैन ।। ६७० ।। कजरारे = काजल के रंग से रंगे हुए । यह विशेषण कवि ने यहाँ इसलिए प्रयुक्त किया है कि क्रज्ञा के वस्त्र बहुधः काले रंग के हुअा करते हैं ।। कजाक (क़ज़ाक ) -- ताक तुर्की भाषा मैं डाकू का कहते हैं । कज़ाक़ी का अर्थ कृपना, अर्थात् डाकुया का सा धावा, हुशा ॥ ( अवतरण )--परकीया नायिका अपनी अटारी अथवा खिड़की पर बैठी हुई अपने उपपति को देखने की अभिताप से चार अोर चंबज्ञ नयन चला रही है । सजी वयपि जानती है कि उसके नयन इसी कारण चंचल हैं, तथापि परिहास करती हुई उस के नयाँ को डाकू बना कर कहती है| ( अर्थ )- तेरे नयन ] पुनः पुनः दौड़ते देखे जाते हैं, [और ] तनिक भी ‘नि चले' ( निश्चल ) नहीं रहते । [ स ] ये क ज ( काजत से रंगे हुए) नयन [ अर ] किस पर कजाकी' ( डाकुओं का सा धावा ) कर रहे हैं [ उन नायक बेचारे का मन त पहिले ही लूट चुके हैं ] ॥ को छूट्यः इहिँ जाल परिः कत, कुरंग, अकुलति ।। ज्यज्य सुरझि भज्यौ चहेत, त्यौं त्यौं उरझत जातं ॥ ३७१ ।। ( अवतरण )-जो मनुश्य ऐसे फंस वड़े में पड़ा हो कि उसमें से निकजना तर असंभव हो, पर उसमें से निकलने के निमित्त वर हाथ पांव मारता और घमाता हो, उसके ढाढ़स देने के लिए कोई यह अन्योकि हरिण पर रख कर कहता है, अश्वः अपने मन को धैर्य देने के निमित्त कोई स्वगत कहता है १. राखिये ( २ ) । २. पिय ( २, ४) । ३. देखिये ( २ ) । ४. अकृ नाइ ( २, ४) । ५. चहं ( २ ) । ६. अरुझतु ( २ ) । ७. जाइ ( २, ४).।। ________________

२७६ बिहारी-रत्नाकर ( अर्थ )-इस जाल (हँसावड़े) में पड़ कर कौन झूटा है ; हे कुरंग (१. हिरण । ३. बुरे रंग वाले, बुरी च वाले ), [ तु] क्यों [ वृथा ] अकुलाता ( छटपटाता ) है । [ देख, ] ज्यों ज्यों [ तु] सुलझ कर ( हँसावड़े से निकल कर ) भागा चाहता है, क्यों त्यों [ और भी अधिक ] उलझता जाता है (फँसता जाता है ) ॥ अब तजि नाउँ उपवि कौ, अएि पार्वंस-मास । खेलु न रहिबी खेम स केम-कुसुम की बस ॥ ६७२ ।। ( अवतरण )- प्रेपितपतिका नायिका का वन सखी से-- | ( अर्थ )-[ अब तक तो तूने अनेक उपायों से मेरे प्राणों की रक्षा की । पर ] अब उपाय का नाम [ भी ] तज दे, [ क्योंकि अब ] पावस ( वर्षा ऋतु ) के महीने आ गए । [ अब ] 'केम' ( कदंव ) के फूलों की वास (सुगंधि ) से ( कदंब के फूलों की सुगंधि के मारे ) 'खेम' ( क्षेम, कुशल ) से रहना खेल नहीं है ।। | हमारी तीन प्राचीन पुस्तकों मैं ‘ग्रायौ पावस-मास' पाठ है, और २-संख्यक पुस्तक में ‘यौ सावन मास' है । पर ‘श्रया' क्रिया एकवचन है, और ‘पावस-मास' पद बहुवचन-वाच । ‘पावस' एक ऋतु का नाम है, जिसमें दो महीने, अर्थात् सावन श्रीर भााँ, होते हैं, अतः ‘पावसमास' पद को बहुवचन ही मानना समीचीन है। प्रतीत होता है कि इसी विचार से २-संख्यक पुस्तक में 'पावस' के स्थान पर 'सावन' पाठ कर लिया गया है। इसके अतिरिक्त बिहारी ने जिस परिपाटी का निर्वाह सतसेया भर में किया है, उसके अनुसार 'पावस-मास' पद याद एकवचन माना जाय, तो उसको उकारांत होना चाहिए । पर इस दोहे में ‘पावस-मास' पद उकारांत हो नहीं सकता, क्योंकि इसका तुकांत ‘बास' आया है, जो कि स्त्रीलिंगवत् प्रयुक्त हुआ है, तथा करणकारक-रूप से शाया है, अतः उकारांत नहीं है। विहारी ने प्रकारांत एकवचन शब्द के कर्ता तथा कर्मकारक के रूप के अकारांत लिखने की परिपाटी अपनी सतसैया भर में निबाही है, अतः इस एक दोहे में उसका भग होना केवल लेखक का प्रमोद मात्र मानना समुचित है । इसी विच र से इस संस्करण में आयो' के थःन पर ‘ए’ पाठ रक्खा गया है, और प्राचीन ग्रंथ के पाठ पाद-टिप्पणी के द्वारा प्रकाशित कर दिए गए हैं। -- लँसै मुसा तिय-स्रवन मैं सुकतेनु दुति पाई। मानहु परस कपोल कैं रहे स्वेद-कन छाइ ॥६७३॥ मुरासा=जड़ाऊ कर्ण- भूषण विशेष | यह शब्द किस प्रकार 'मुद्रा' शव्द से बना प्रतीत होता है । एक इस प्रकार के छोटे कर्ण-भूषण को मुरकी भी कहते हैं। हरिचरणदास ने 'मुरासा' शब्द को कदाचित् अरबी शब्द मुरसा का विकृत रूप मान कर उसका अर्थ जड़ाऊ किया है, और इस दोहे में न्यूनपद दुषण बतलाया है । पर यह उनका भ्रम मात्र हैं, क्योंकि यदि यह शब्द ‘मुररसा' शब्द का रूपांतर हो भी, तो भी उसके प्रयोग १. भान ( ३, ५ ) । २. उपाय ( ३ ), उपाइ (४, ५) । ३. यो ( २, ३, ४, ५) । ४. सावन ( २ ) | ५. कमल ( ३, ५ ) । ६. लसे ( ४, ५) । ७. मरासी ( ४ )। ८. मुकता ( २ ) । ________________

बिहारी-रत्नाकर २७) में न्यूनपद दूषण नहीं कहा जा सकता, क्यॉक लक्षणा शक्ति से यह एक जड़ाऊ कर्ण-भूषण विशेष का नाम पड़ गया है। उन्होंने यह भी लिखा है कि यह दोहा बिहारी का नहीं है, पर इस कथन का कोई प्रमाण नहीं बतलाया है । यह दोहा हमारी चार प्राचीन पुस्तक में वि यमान है, जिनमें एक सन् १७७२ की लिखी हुई है, अतः हमारी समझ में यह दोहा मिलाया हुआ नहीं प्रतीत होता । अनवरचंद्रिका में मुरासा' के स्थान पर पाठ ही पुरस्पा' पाया जाता है, और प्रभुदयालु पाँडेजी ने भी 'मुरासा' का अर्थ 'मुरम् ॥' ही माना है ।। ( अवतरण )-सखी नायक से मुरासे की शोभा का वर्णन कर के नायिका के कपोल का सौंदर्य तथा सुख-स्पर्श व्यंजित करती है| ( अर्थ )-[ उस ] स्त्री के कान में मुरासा ( जड़ाऊ कर्ण-भूषण विशेष ) मोतियाँ से शुति ( झलक, चमक) पा कर यें (इस प्रकार ) लता ( खुशभित होता ) है, मानो [ सुंदर तथा सुख-स्पर्श ] कपल के स्पर्श से [ उन पर, सात्विक होने के कारण, ] स्वेदकरा ( बिंदु ) छा रहे हैं ( आच्छादित हो रहे हैं ) ॥ मिलि परछाहीं जोन्ह स रहे दुहुनु के गात । हरि राध इक संग हीं चले गली मह जात ॥ ६७४ ॥ ( अवतरण )-गजिये मैं कहाँ परछाह होती है, और कहाँ चाँदनी । सखी सखी से श्री कृष्णचंद्र तथा श्रीराधिकरजी के शरीर की श्यामतः तथा गौरता की प्रशंसा करती हुई कहती है कि हर तथा राधा गली में एक साथ ही चले जा रहे हैं, पर किसी को यह लक्षित नहीं होता कि दोनों साथ हैं, क्याँ जहाँ परछा होती है, वहाँ श्रीकृष्ण चंद्र का शरीर उसमें मिल जाता है, अतः जो वहाँ उन को देखता है, वह केवल राधिकाजी ही को देख पता है, और जहाँ चाँदनी होती है, वहाँ श्री राधिकाजी का शरीर उसमें मिल जाता है, अतः जो उनको वहाँ देखता है, वह केवल श्रीकृणचंद्र ही को देख पाता है ( अर्थ )-[ हे सखी, यह बड़ी विलक्षण बात है कि ] हरि [ तथा] राधा एक साथ ही गली में चले जा रहे हैं, [ पर देखने वालों के एक है। एक दिखाई देते हैं, क्योंकि 1 दोनों के गोत्र ( शरीर ) परछाईं। [ श्रीर] च दन से ( में ) मिल रहे ह”( मिलते जाते हैं)॥


--- बिधि, विधि कौनै करै'; टरै नर्ह परै हूँ पार्नु ।

चितै, किते हैं लै धरय इतै इनँ तनै मानें ॥ ६७५ ।। ( अवतरण )-सखी का वचन मानिनी नायिका से - १. मैं ( २ ) । २. मैं ( २ ) । ३. कौनि ( २, ४ ) । ४. करे टरे (४, ५ ) । ५. परे ( ३, ४, ५ ) । ६. पन ( २, ३, ५) । ७ चि कि ( ३ ) , चित केले ते ( ५ )। ८. ४ ( ३ ) , इते ( ४, ५ ) । . इते (२, ४, ५)। १०. तनु ( ३, ५)। ११. मान ( २, ३, ५ ) । ________________

'२७८ बिहारी-रत्नाकर ( अर्थ )-[ तेरा मान ऐसा गुरु है कि नायक के ] पाँव पड़ने से भी नहीं टलता । हे देव ! [ अय कोई ] कौन विधि (रीति, यत्न, उपाय ) करे । [नैंक तू इधर तो ] देख, तृने इतना ( अधिक अथवी बड़ा ) मान इतने [ छोटे ] तन में कितै' ( कहाँ ) ले धरा है। ( समा लिया है ) ।। 'चित' शब्द से सखी नायिका को अपनी ओर दिखला कर हाथ से मान के प्रमाण का आधिक्य तथा उसके तन की सूक्ष्मता बताती है ॥ इस दोहे के अर्थ में प्रायः सभी टीकाकारों ने बड़ी गड़बड़ की है ॥ मोरचंद्रिका, स्याम-सिर चढ़ि कत कति गुमानु । लखवी पाइनु पर लुठति, सुनियतु राधा-मानु ।। ६७६ ॥ चंद्रिका-इस शब्द के विषय में ४१६:संख्यक दाहे की टका द्रष्टव्य हो । ( अवतरण )-सखा श्रीकृष्णचंद्र को स्वच्छं। वन-विहार में निरत देख कर मेरचंद्रिका से यह दोहा कहनी हुई श्रीराधिकाजी के मान की धमकी दे कर उनको उनके पास ले जाना चाहती है। 'सुनियतु' शब्द से व्यंजित होता है कि उसका यह धमकी देना उसकी बनावट मात्र है। उसने अपने झूठे ठहरने के बचाव के निमित्त पहले ही से कह दिया है कि २धि काजी का मान सुना जाता है, जिसमें नायक वहाँ जाने पर उनको मान मैं न देख कर उसको झूठी न ठहरा स है:| ( अर्थ )-हे मोरचंद्रिका, [ तू ] श्याम के सिर चढ़ कर ( १. सिर पर स्थापित हो कर । २. श्रीकृष्णचंद्र-द्वारा सन्मानित हो कर ) क्यों गुमानु' (अभिमान, घमंड ) करती है। [तृ शीघ्र ही ] पाँवों पर लुटकती देखी जायगी, [ क्योंकि ] राधिकाजी का मान सुना जाता है । | यह दोहा मोरचंद्रिका पर अन्योक्रि भी हो सकता है । जहाँ कोई किती राजा के सन्मान पर गर्व करे, वह इस अभिप्राय से यह कहा जा सकता है कि तु इस राजा के सन्मन पर क्या गर्व करता है, इस राज से भी बड़े बड़े राजे संसार में हैं, जिन्हें प्रसन्न करने के निमित्त यई राजा स्वयं उनके पाँव पड़ता है। चिरजीवी जोरी, जुरै क्यूँ न सनेह गैंभीर ।। की घटि; ए बृषभानुजा, वे हलधर के बीर ॥ ६७७ ॥ | ( अवतरण १ )-इधर तो श्रीराधिकाजी की मान करने की प्रकृति है, और उधर श्रीकृष्णचंद्र की अपराध करने की कुवान नहीं छूटती । एक दिन श्रीराधिकाजी के मान कर के न मानने पर श्रीकृष्णचंद्र भी माघ मान कर अलग बैठ गए, और राधिकाजी इधर अलग भई चढ़ाए बैठी रहीं। उन्हें इंसाने तथा समझाने के निमित्त कोई सखा किसी अन्य सखी से, उन दोन को सुना कर, बडी चातु से, यह वर्धात्मक रसष्ट वाक्य कहती है। उसके वाक्य का पहला अर्थ यह होता है १. चदिए ( ४) । २. धरति ( ३, ५) । ३. लखवी ( २ ) । ४. जुरे (३, ५) । ५. क्याँ घटि ( ५ )। ________________

२७६ विहारी-रत्नाकर ( अर्थ १ )-[यह ] जोड़ी चिरजीवी हो । [ वह ] गहरे स्नेह से क्यों न जुड़े, [ क्योंकि इन दोनों में से ] घट कर कौन है ( अर्थात् दोनों ही बराबर श्रेष्ठ हैं ) । यह [तो ] वृषभानुजी [ ऐसे महापुरुष]:की बेटी हैं, [ और ] वह हलधर ( वलदेवजी ) [ ऐसे प्रभावशाली पुरुष ] के भाई ॥ इस अर्थ से सखा दान की शिष्टजनोचित प्रशंसा करती हुई कहती है कि ये दोनों ही परम श्रेष्ठ हैं। अतः ये यद्यपि क्षण मात्र के निमित्त परस्पर रुष्ट हो गए हैं, तो क्या हुआ-इनमें गंभीर प्रेम शीघ्र ही जुड़ जायगा, जैसा कि उत्तम पुरुषों में होता है । इस कथन से वह दोन को बढ़ावा दे कर उनका मान तथा माप छुड़ाना चाहती है । ( अवतरण २ )-ऊपर लिखे हुए अर्थ से तो सख ने प्रशंसा की, पर सखियाँ मुलगी तथा ढीठ तो होती ही हैं, अतः वह, नीचे लिखे हुए दूसरे अर्थ से, उन दोनों को तप्त तथा उग्र-प्रकृति कह कर यह व्यंत्रित करती है कि ऐसे नित्य के मान तथा माघ से गंभीर स्नेह कः जुड़ना असंभव है, अतः एक का इतना शीघ्र श.घ्र मान करना और दूसरे का अपराध करने की कुवान न छोड़ना श्रीर उस पर भी माष मान ( अ २ )-[ इन दोनों की ] जोड़ी चिरजीवी हो । [ यह जोड़ी ] गंभीर ( चिरस्थायी ) स्नेह से क्यों न जुड़े (अर्थात् चिरस्थायी स्नेह से कैसे जुड़ सकती है ); [ क्योंकि इन दोनों में से ] घट कर कौन है ( दोनों ही तो एक से उग्र-स्वभाव तथा असहनशील हैं ), ये तो वृषभानु ( वृष के सूर्य ) की बेटी [अतः तद्गुण अर्थात् प्रचंडता तथा प्रदीप्तता से संपन्न ] हैं , [ और ] वे हलधर ( अर्थात् शेषनाग के अवतार ) के भाई [ अतः उनकी उग्रता तथा असहनशीलता से युक्त ] हैं ॥ | ( अवतरण ३)-ऊपर लिखे हुए दूसरे अर्थ से दोनों के क्रोध, कुबान तथा असहनशीलता के कारण प्रेम के टूटने की संभावना व्यंजित करती हुई सखी अब तीसरे अर्थ से परिहास कर के उन को ऐसे स्वभाव के कारण पशु कहती हुई व्यंत्रित करता है कि न तो यह समझाने से अपने रेप की प्रकृति ही छोड़ती हैं, और न यह कहने सुनने तथा डाट उपर से अपने अवगुण हो । फिर भजः इनमें सज्जन जैसी गंभीर स्नेह कैसे जुई। इनमें पशु का सा क्षणिक प्रेम भले ही हो, पर गंभीर प्रेम का जुड़ना तो असंभव ही है । इस अयं से भी सखी पारेवास-पूर्वक यह शिक्षा देती है कि दोनों को यदि प्रेम का चिरस्थायी रखना अभीष्ट है, तो अपनी अपनी दुष्प्रकृति छेड़ देनी चाहिए | ( अर्थ ३ )-[इन दोनों की जोड़ी चिरजीवी हो । [ यह जोड़ी ] गंभीर (चिरस्थायी) स्नेह से क्यों न जुड़े (अर्थात् चिरस्थायी स्नेह से कैसे जुड़ सकती है ), [ क्योंकि इन दोनों में से ] घट कर कौन है ( दोनों ही तो एक ही से पशुवृत्ति, हठी हैं, अर्थात् समझाने बुझाने से नहीं मानते )। यह तो वृषभानुजा ( वृषभ अर्थात् बैल की अनुजा अर्थात् बहिन ) हैं, [ और वह ] हलधर ( बैल ) के भाई ( अर्थात् दोनों गाय बैल हैं ) ॥ औरै गति, औरै बचन, भयौ बदन-रंगु औरु ।। योसक हैं पिय-चित चढ़ी 'कहें चहूँ हूँ त्यौरु ॥ ६७८ ॥ १. बौ है ( ३ ), चहे हैं (४) । ________________

२८० बिहारी-रत्नाकर | ( अवतरण )-कुछ दिन से नायक नायिका से अधिक प्रेम करने लगा है, जिसे छिपाने के लिए नायिका श्योरी चढ़ाए रहती है । पर उसकी प्रकृति से यह बक्षित कर के सखी कहती है ( अर्थ )-[तेरी ] और ही [ प्रकार की ] गति ( चाल ढाल ), और ही [ ढंग के ] वचन [ तथा ] और [ ही ] हुअा ( बदला हुअर) वदन (मुख ) का रंग, [ये सब ] | तेरा ] तेवर चढ़ने पर भी कहते ( प्रकाशित करते ) हैं [ कि तु] दो एक दिन से प्रियतम के चित्त पर चढ़ रही है ( अर्थात् प्रियतम के जी को भा गई है ) ॥ बँदी भाल, लॅबोल मुंहे, सीस सिलसिले बार। दृग आँजे, राजै खरी ऍई सहज सिँगार ॥ ३७६ ॥ ( अववरण )-नायिका स्नान कर के सहज शृंगार से स्थित है। उस समय की उसकी शोभा सखी नायक से कह कर उसको उसके पास लाया चाहती है ( अर्थ )-भाल पर बेदी, मुख में तांबूल, सिर पर भीगे हुए बाल [ और ] [जे हुए दृग, इन्हीं सहज शृंगारों से [ वह इस समय ] खरी ( पूर्ण रूप से ) राजती ( सुशोभित ) हे ॥ अंग अंग-प्रतिबिंब परि दरर्पन मैं सब गात ।। दुहरे, तिहरे, चौहरे भूषन जाने जात ॥ ६८० ॥ ( अवतरण )-सखी नायिका के शरीर की विलक्षण अमलता की प्रशंसा कर के नायक के हृदय मैं रुचि तथा उसे देखने का कौतूहत उपजाया चाहती है ( अर्थ )-[ उसके ] दर्पण-सदृश सब शरीर में एक अंग का प्रतिबिंब दूसरे अंग में हैं और फिर उस दूसरे अंग का प्रतिबिंब उस पहिले अंग में, इस प्रकार अनंत बार बिंब प्रतिबिंब ] पड़ कर ( पड़ने से ) [ उसके ] भूषण दुहरे, तिहरे, चौहरे ( अर्थात् असंख्य ) जाने जाते हैं । एक दर्पण के सामने दूसरा दर्पण रखने से उन दोनों के मध्य की वस्तु, अपने बिंव, प्रतिबिंब तथा प्रति-प्रतिबिंब इत्यादि का संग्रह उन दर्पण मैं होने के कारण, असंख्य दिखाई देती है। यही बात उसके दर्पण से अंग के मध्यवर्ती भूषण के विषय मैं इस दोहे में कही गई है ॥ --- --- सघनकुंज-छाया सुखद सीतल सुरभि-समीर। मनु है जातु अज वहै उहि जमुन के तीर ॥ ६८१ ॥ ( अवतरण )–श्रीकृष्णचंद्र के मथुरा चले जाने पर उनके विरह में कतर कुछ गोपियाँ बैठी आपस में बातचीत करती हैं। उनमें से कोई कहती है १. तमोर ( २ ) । २. मुख ( २ ) । ३. सानैं ( २ ) । ४. दर्पन ( २ ) । ५. कालिंदी ( ३, ५ ) । ६. की ( २, ३, ५ ) ।। ________________

बिहारी-रत्नाकर २८१ ( अर्थ )-[ हे सखी !] श्रीयमुनाजी के उस तीर पर [ जहाँ श्रीकृष्णचंद्र के साथ विविध विहार किए गए थे] अब भी (उनके उपस्थित न रहने पर भी ) मन [ उनके स्मरण में निमग्न हो कर ] वही ( जैसा उनकी उपस्थिति में रहता था, वैसा ही ) हो जाता है, [ अतः ] सघन कुंज की छाया [ तथा ] सुरभि-समीर [ जो विरह में दुःखद तथा तापकर होते हैं ] सुखद [ तथा ] शीतल [ हो जाते हैं ] ॥ मोहिँ भरोसौ, रीझिहै उझकि अँाकि इक बार। रूप-रिझावनहारु वह ए नैना रिझवार ॥ ६८२ ॥ रूप-रिझवनहारु = रूप के द्वारा रिझाने वाला । इस पद में तृतीया-तत्पुरुष समास है ॥ ( अवतरण )-इती ने जब नायक के अनुराग की कहानी तथा उसके रूप की प्रशंसा पर नायिका को विशेष ध्यान देते न देखा, तो उसने सोचा कि बात से यहाँ काम 'वाना कठिन है, किसी उपाय से दोने की चार आँखें करा देना चाहिए । सौंदर्य का प्रभाव बड़ा विलक्षण होता है, और अपने आँखों देखने की कुछ बात ही और है । यह सोच कर वह नायिका से कहती है कि नायक इस समय इसी गली मैं तो खड़ा है, तू नैंक झाँक कर देख तो सही| ( अर्थ )-मुझे [ तो ] भरोसा है, [१] एक बार [ही ]उझक के झाँक कर ( झरोखे में से उसे देख कर ) रीझ जायगी । [क्योंकि ] वह [ तो ] रूप ( सौंदर्य ) के द्वारा रिझाने वाला ( लुभा लेने वाला ) है, [और ] ये [ तेरे ] नयन रिझवार ( सौंदर्य पर रीझने वाले, सौंदर्य के गुणग्राहक ) हैं ।। नायिका के नेत्र का विशेषण कवि बड़ी लोक-व्यवहार-चातुरी से रखता है। जब किसी पदार्थ को बेचने वाला किसी धनी के यहाँ जार है, तो प्रायः वह अपना पदार्थ दिखाने के समय करता है कि "देखिए तो सही, यह क्या अच्छी वस्तु है, अपि तो स्वयं इसके गुण के ज्ञाता हैं, मैं आपसे इसकी अधिक प्रशंसा क्या करूँ, आप ही ऐसे गुणज्ञ इस पर रीझते हैं।" भौंहनु त्रासति, मुँह नटति, आँखिनु स लपटाति । हुँचे छुड़ावति करु, ईंची आर्गे आवति जाति ॥ ६८३ ॥ ( अवतरण )-परकीया नायिका, प्रथम मिलाप के समय नायक के हाथ पकड़ने पर, जो चेष्टा कर रही है, उसकी प्रशंसा अंतरंगिनी सखी स्वगत करती है ( अर्थ )-[ वाह वाह ! हमारी प्रवीण सखी इस समय कैसे प्यारे भाव कर रही है।] भौंहों से [ तो वह ] डराती है ( अर्थात् भैहों को तो वह बनावटी रोष से भर कर नायक पर यह भाव प्रकट करती है कि मुझे जो तुम पकड़ते हो, वह अच्छा नहीं है ), [और ] मुँह से नटती है ( नहीं नहीं कहती है), [ पर ] आँखों से लिपटती है ( ऐसी चेष्टा करती है, जिससे प्रतीत होता है कि उसकी आँखें नायक के रूप पर लुभा कर उससे १. एक ही (४) } २. वे ( २ ) । ३. छुड़ावत ( ३, ५ ) । ________________

२८२ बिहारी-रत्नाकर लिपट रही है ), [ और ] खींच कर हाथ को [ तो ] छुड़ाती है (अर्थात् हाथ छुड़ाने के व्याज से खचातानी करती है), [ पर उस खचातानी में स्वयं ] खिंची हुई [ शनैः शनैः ] आगे आती जाती है ( नायक की ओर खिसकती आती है) ॥ । इस दोहे की नायिका की क्रियाएँ बड़ी चातुरी की है। उसका सिँच कर नायक के समीपतर होते जाना वैसा ही है, जैसा किसी बड़ी नाव मैं लंबी रस्सी से बँधी हुई किसी छोटी नाव का, उस पर के मनुष्य द्वारा रस्सी को छुड़ाने के निमित्त खींचने पर, बड़ी नाव के समीप होते जाना ॥ रुक्य सॉकरें कुंज-मैग, करतु झाझि, झकुराते । मंद मंद मारुत-तुरंग खुदंतु अवैतु जातुं ॥ ६८४ ।। म्य = अवरुद्ध हुअा, समन कुंज तथा संकीर्ण मार्ग के कारण नायिका को बचा कर निकलने का दांव न पाना हुया । यदि किसी बहु पतलं गली में केाई खड़ा हो, ग्रोर उसमें कोई विगल घोड़ा खुद करता हुआ ग्रावे (य, तो वह उसका टापा से अवश्य है। भला भति कुचल जायगा, क्योंकि स्थान की संकीर्णता के कारण न नं। 3मको है। वचने का ठेर मिल सकता है, अंर न घाई है। के उसे बना कर ग्राने जाने का मार्ग । यही वान नायिका अपने विषय में कहा है कि गाय के संकीर्ण होने के कारण इधर उधर स्थान न पाता हुआ पवन नुरग र जाता * युदं डालता है । संकरं = शंकर ।। झाझ = झांझ, झैझ, झंझट, या यापन । यदि सामान्यतः दाना हुअा घाइा कि का राता हुआ निकले जाय, तो उसके ऊपर दो ही एक टाप पन्ने का संगावना होता है । पर यदि वह घोड़ा के शोर वृंद करता हुया जाय, तो उस पर टापा का प्रहार बहुत था वा प्रया होगा | पवन रूप घाई का २६झ करते हुए आना जाना कह कर नायिका उसके द्वारा अपना भली भाति विदनित हाना यजित करती है ॥ झकातु = यह क्रिया झोर शब्द से बनी है। इसका ग्र झकेर माता, झूमता इत्यादि हैं । यहां घोड़े के पक्ष में इसका अर्थ ग्रागे के दोन पावों को उठाता और पकना समझना चाहिए ।। खुदतु = कुचलता है, दे डालता है । घोड़े के संबंध से इसका अर्थ यहाँ खुद से रौंद डालता है होगा । इस शब्द का विशेष अर्थ ५४२-संग्यक दोहे की टीका में द्रष्टव्य है । ( अवतरण )-विप्रलब्धा नायिका को, संकेत-निकुंज में नायक को न पाने स, बड़ा ताप हुआ हैं, और सघन कुंज मैं आता जाता शीतल, मंद, सुगंध समीर ऐसा दुःखद लगता है, जैसा घोड़े की टाप से कुचला जाना । अतः वह, उस छ। रूपक वृंद करते हुए घोड़े से कर के. सखी से कहती है ( अ )-[ हे सखी, इस संकेतित सघन निकुज में प्रियतम को न पा कर मुझे बड़ा ही दुःख हो रहा है। ] कुंज के संकीर्ण मार्ग में अवरुद्ध, झैझ करता हुआ नथा बलपूर्वक झोका लेता हुशा पवन रूपी तुरंग मंद मंद आता जाता [ मुझे ] बूंदे (कुचले, विदलित किए ) डालता है ॥ जदपि लैंगि ललितौ, तऊ हूँ न पहिरि इक अाँक ।। सदा साँक बढ़ियै रहै, है चढ़ी सी नाक ॥ ६८५ ॥ १. मैं ( २ ) । २. झाझि ( ४ ) । ३. झोरातु ( २ ), झुकरातु ( ४ ), झकुराति ( ५ ) । ४. श्रृंदनि ( २ ) । ५. ग्रावत ( २, ३, ५)। ६. जात ( ३ ), जाति ( ५ ) | ७. रही ( ३, ५)} ________________

विहारी-रत्नाकर २८३ ( अवतरण )—मान ठानने के समय सिर्दी गहने उतार डालती और मैले कुवैले वन्न धारण कर लेती हैं। पर नासिका को शून्य रखना सौभाग्यवती फ्यिाँ मे वर्जित है, अतः नाक के बेध मैं, मान के समय भी, वे सक अथवा तवंग-फूल इत्यादि डाल लेती हैं। इस दोहे की मानिनी नायिका ने लवंगफल डाल रक्खा है । नायक शठ है । वह मीठी बातें कर के अपना अपराध छिपाना तथा नायिका का मान छुड़ाना चाहता है। वह नायिका पर यह नहीं विदित होने देना चाहता कि मैं तेरा मान ठानना समझ गया हूँ। वह उसके जवंग धारण करने को मानो शोभार्थ समझता है, और उसकी नाक के चढ़ी हुई होने का कारण उस जवंग-फूज की पड़पड़ाहट मानता है । इस तरह जान बूझ कर अनजान बनने से उसका अभिप्राय यह है कि नायिका यह समझे कि यदि यह अपराधी होता, तो मेरे लवंग धारण करने और नाक चढ़ाने पर डर जाता, और इस प्रकार निःशंक हो कर बातें न करता, क्योंकि चोर का वित्त सदा खटकता रहता है। इन्हीं विचारों से नायक नायिका से कहता है-- ( अर्थ )-[ हे प्यारी, ] यद्यपि [ यह ] लवंग-फूल [ तेरी नासा में ] ललित ( सुंदर ) भी [ लगता ] है, तथापि तु [ इसको ] 'इक ऑक' ( निश्चय कर के ) न पहन ( मत पहना कर ), [क्योंकि इसके पहनने से इसकी कार के कारण तेरी कोमल ] नाक चढ़ी सी रहती है, [ जिससे मेरे मन में ] सदा शंका ( अर्थात् तरे मान ठाने हुए होने की भीति ) बढ़ी ही रहती है ॥ बेरजें दूनी हठ चढ़, ना सकुचै, न सकाइ । टूटते कटि दुमची-मच, लचक लचक बचि जाइ ।। ६६ ।। दूनी = गौर भी अधिक । हठ= हठ पर ॥ चढ़ चढ़ता है । हमारी चार प्राचीन पुस्तक में 'चड़े के स्थान पर ‘बढे पाठ है, और एक-संख्यक पुस्तक में यह दोहा है ही नहीं। एक बहुत प्राचीन सटीक सतसई में, जो कि हमको अब मिली है, 'च' पाठ मिलता है । इसके अतिरिक्त और सब सटीक ग्रंथों में भी चढे ही पाठ है । अर्थ के विचार से भी चढ़ पाठ अच्छा है, अतः इस संस्करण में वही पाठ रक्खा गया है । | दुमची-झूले पर खड़े हो कर कटि को लचका कर पैग बढ़ाने के निमित्त झोंका देने की क्रिया को दुमची कहते हैं । ( अवतरण )-अज्ञातयौवना नायिका, उमंग से पैग मार मार कर, झूल रही है, और हितकारिणी सखी के वारण करने पर न तो, अज्ञातयौवना होने के कारण, संकुचित होती है, और न, झने के उत्साह के कारण, डरती ही है। प्रत्युत वारस करने पर और भी उमंग से हठ-पूर्वक दुमची देती है, जैसा कि थोड़ी अवस्था वाले मनुष्य का प्रायः स्वभाव होता है कि के किसी कार्य से वर्जित किए जाने पर हठात्, और भी विशेषता से उस कार्य में प्रवृत्त होते हैं। कह सखी उस्की यह ब्यवस्था तथा उसकी कटि का सौ कुमार्य तथा वचनापन नायक से वर्णित कर के उसको उस समय की शोभा देखने के निमित्त उस्सुइ किया चाहती है ( अर्थ )-[ उसकी इस समय की बेखटक झूला झूलने की स्वाभाविक शोभा देखने ही योग्य है । वह ] न [ तो मचकी देने में अंगों के खुल जान इत्यादि से ] १. हूँ बरजें दुनी बढ़ ( ३, ५) । २. टूटति ( ३, ४ ), दुटित ( ५ ) । ३. मचिकि(३), माचिक ( ५ ) । ________________

२६४ विहारी-मार संकुचित होती है, [ और ] न [ सुकुमार कटि के पीड़ित होने अथवा झूले से गिर पड़ेन से ] डरता है । [ हितकारिणी सखियों के ] वारण करने पर दूनी ( और भी अधिक) इड पर चढ़ता है ( हठ कर के झूलती और झोंका देती है )[ उसको] कटि तुमची की मचक्र से [ परम क्षीण तथा सुकुमार होने के कारण टूट ही जाती, पर ] टूटते टूटते लचक लचक कर बच जाती है [ जैसे कोई लचकीली छड़ी इत्यादि अत्यंत झुकने, मुड़ने और झकझोरे जाने पर भी टूटने से बच जाती है ] ॥ । कर समेटि कच भुज उलटि, खएँ सीस-पटु टारि । काकी मनु बाँधे न यह जू-बाँधनहारि ॥ ६८७ ॥ ( अवतरण )-नायिका के जूड़ा बाँधते समय की मनोहारिणी चेष्टा देख कर नायक स्वगत कहता है | ( अर्थ )-भुजाओं को [ पीछे की ओर ] उलटे हाथों से बालों को समेट ( और ] खओं ( पग्वुरों, भुजमूलों ) पर सिर का वस्त्र टाल कर ( हटा कर ) यह जूड़ा बाँधने वाली किसका मन नहीं बाँधती ( अपने पर आसक्त नहीं कर लेती ) ॥ पूॐ क्यौं रूखी परति, सगियगि गई सनेह । मनमोहन-छथि पर कटी, कहै कॅव्यांनी देह ॥ ६८८ ॥ कट-कटना बोलचाल में अत्यंत शासक्त होने के अर्थ में प्रयुक्त होता है, जैसे "अमुक व्यक्ति को देख कर हम तो कट गए,' अर्थात् अत्यंत थासक्त हो गए । | ( अवतरण )–उपपति नायक को देख कर नायिका के शरीर में स्वेद तथा रोमचि सारिक हो आए हैं। पर सखियाँ के यह पूछने पर कि “तेरी यह दशा क्य हो गई है", वइ रूखा सा मुंह बना कर कुछ घंटसंट कर देती है, जिस पर के मुंवगी चतुर सखी, उसकी चेष्टा से सी बात लक्षित कर के, कहती है ( अर्थ )-[ नायक को देखते ही तो तु] स्नेह (१. प्रेम । २. तेल ) में सगबग ( लतपत ) हो गई ( अर्थात् उसके स्नेह के कारण पसीने से भीग गई ) है, [ फिर तु] पूछने पर रुखी क्यों पड़ती है। [१] मनमोहन (मन के मोहने वाले श्रीकृष्णचंद्र ) की छवि पर कट गई है ( आसक्त हो गई है), [ यह बात तेर] 'कॅव्यानी' (कंटकित, रोमांवित ) देह कहती ( प्रकट करती ) है॥ सोहत ओ पीतु पटु स्याम, सलौनें गात ।। मनौ नीलमनि सैल पर आतपु पखौ प्रभात ॥ ६८९ ॥ ३. कुच ( २, ३, ५ ) । २. जूरी ( ) । ३. परगटी ( ३, ५ ) । ४. कहानी ( ३, ५ ) ! ५. ओढपी ( ३, ५) । ________________

विहारी जाकर २८५ ( अवतरण )-सखी अथवा दूती नायक की नील छवि पर पति पद की शोभा का वर्णन कर के नायिका के वित्त मैं अनुराग उत्पन्न किया चाहती है ( अर्थ )-[ नायक के ] श्याम [ तथा ] सोने ( सुंदर, चमकीले ) गात्र पर ओढ़ने से पीत पट [ ऐसा ] शोभित होता है, मानो नीलमणि के पर्वत पर प्रातःकाल आतप ( घाम ) पड़ा हुआ है ॥ भाल लाल बँदी, ललन, अखंत रहे विराजि । इंदुकली कुंज मैं बसी मनी राहु-भय भाजि ॥ ६९० ॥ लाल बॅदी =रोली अथवा सिंदूर को गोल टिप्पी ॥ ललन हे लालन, हे ललन ।। आखत ( अक्षत )= विना टूटे चावल, जे कि पूजा इत्यादि में काम आते हैं । अतताँ की आकृति चंद्र की पतली कलायों से बहुत मिलती है। किसी शुभ अवसर पर मस्तक में तिलक लगा कर उस पर अक्षत चिपका दिए जाते हैं । कुज= भौम अर्थात् मंगल ग्रह, जिसका रंग लाल है । यह पृथ्वी से इतनी दूर है कि यदि उसके पास चंद्रमा चला जाय, तो पृथ्वी की छाया उस पर नहीं पड़ सकता, क्योंकि सूर्यबिंब पृथ्वी से बहुत बड़ा है, अतः पृथ्वी की छाया सूर्य के विरुद्ध दिशा में सूचिकाकार पड़ती है, और सूर्य तथा पृथ्वी की बड़ाई, छुटाई तथा दूरी के अनुसार एक परिमित दूरी से अधिक दूरस्थ पदाथो” पर वह छाया नहीं पड़ती । इसके अतिरिक्त मंगल क्रूर ग्रह है, अतः यह भी कहना संगत है कि राहु उसके समीप जाते डरता है । देवकीनंदन की टीका में यह लिखा भी है कि “जोतिष-मत में कह्यौ है, मंगल को राहु डरात है' ।। भाजि—इस शब्द का अर्थ अन्य टीकाकारों ने भीग कर लिखा है, पर हमारी समझ में इसका अर्थ विभक्त हो कर करना अधिक संगत है, क्योंकि राहु का भय चंद्र की कला को नहीं होता, प्रत्युत पूर्ण चंद्र को । अतः यह कहना विशेष समीचीन है कि राहु के भय से विभक्त हुई चंद्र की कलाएँ मंगल में बसी हैं। इस अर्थ में राहु से बचने के निमित चंद्रमा का दो कार्य करना सिद्ध होता है -एक तो उनका कलाशों में विभक्त हो जाना, क्योंकि उसकी कलाओं पर राहु का श्राकमण नहीं होता ; दूसरे उसका कलात्रों में विभक्त हो कर मंगल ग्रह में बसना, क्योंकि मंगल ग्रह के समीप पुथ्वी की छाया अधिक दूरी के कारण नहीं जाती ; अथवा यह कहिए कि मंगल के पास राहु भय से नहीं जाता ॥ ( अवतरण )–नायिका ऋतुस्नान कर के गौरी, गणेश इत्यादि के पूजन से निवृत्त हो, मस्तक पर जाल तिखक धार झिए, विराजमान है। उस तिजक मैं पूजन के अक्षत भी बगे हुए हैं। सही नायक के पास जा कर उसकी शोभा का वर्णन करती हुई तिलक को मंगल तथा अक्षत को चंद्र की कलाएँ ठहरा कर एक प्रह-संस्था विशेष पर ध्यान दिला संयेागोपयोगी समय सवित करती है ( अर्थ )-हे ललन, [ उसके] भाल पर साल बेंदी में अक्षत [ ऐसे] विराजमान हैं, मानो चंद्र की क जाएँ राहु के भय से विभक्त हो कर मंगल ग्रह मैं [ आ ] बसी हैं । | इस उत्प्रेक्षा से सखी नायक ॥ ध्यान मंगल ग्रह में चंद्र को अंतरदशा पर दिखाती है, जिसके केंद्रस्थ अर्थात् प्रथम, चतुर्थ, सप्तम तथा दशम स्थान पर होने से दार-पुत्रादि-सौख्य की प्राप्ति होती है। यथा-- १. श्रावत ( ३, ५)। २. कॅज ( ३, ५) | ३. दुरी ( ३, ५)। ________________

२६६ विहारी-रत्नाकर कुजस्यान्तर्गते चन्द्रे स्वोच्च स्वक्षेत्र केन्द्रगे । भाग्यवाहनकर्मेशलग्नाधिपसमन्विते ॥ ७० ॥ करोति विपुलं राज्यं गन्धमाल्याम्बरादिकम् ॥ तडागं गोपुरादीनां पुण्यधर्मादिसंग्रहम् ॥ ७१ ॥ विवाहोत्सवकमणि दारपुत्रादिसौख्यकृत् ॥ . पितृमातृसुखावाप्तिं गृहे वक्ष्मीकटाक्षकृत् ॥ ७२ ॥ । | ( बृहत्पाराशरहोरा-शा, पूर्व संड, अध्याय ३६ ) सखी मंगल के अंतरगत चंद्रमा की कला का नायिका के भाल पर ना कह कर इस ग्रह-संस्था का केंद्रस्थ होना भी लक्षित करती है, क्योंकि स्त्री का स्थान सातवाँ है, जो कि केंद्र के चार स्थान में से एक है। इसी प्रकार का कथन ७०७ दोहे में भी है ॥ अंग अंग छवि की लपट उपटत जाति अछेह ।। खरी पातरीऊ, तऊ लगै भरी सी देह ॥ ६९१ ॥ ( अवतरण )-सखी नायिका के शरीर की युति का वर्णन नायक से करती है ( अथ )-[ उसके ] अंग अंग में छवि की लपट (चमक, ओप) अछेह (निरंतर) उपटती ( उभरती ) जाती है। [ अतः यद्यपि उसकी ] देह अति दुबली भी है, तथापि भरी सी ( गदकारी सी ) लगती है ( प्रतीत होती है ) ॥ ।


- - दृग धिरकॉहैं, अधखुलें, देह-थक हैंढार । | सुरत सुखित सी देखियति,दुखित गरभ * भार ॥ ६९२।।

थिरका ( स्थिरकोन्मुख ) =स्थिर हुए से । यहाँ थिरकाह' शब्द थिरकने से बना हुआ नहीं है, प्रत्युत स्थिर शब्द में 'क' प्रत्यय हो कर बना है ॥ ( अवतरण )-कोई रसिक किसी गर्भिणी स्त्री की चेष्टा का वर्णन करता है ( अर्थ )-[ यह ] गर्भ के वेझ से दुखित, थिरकै हैं ( स्थिर हुए से ), अधखुले इगों से [ एवं ] वेह के थके हुए से ढंग से सुरत कर के सुखित [ स्त्री ] सी दिखाई देती है ॥


---- बिहँसति, सकुयति सी, दिएँ कुच-आँचर-विच बाँह । ।

भी पट तट कौं चली, न्हाइ सरोवर माँह ॥ ६९३ ॥ ( अवतरण )-स्नान कर के सरोवर में से निकलती हुई नायिका की मनोहारिणी चेष्टा पर लुब्ध हो कर नायक, उसे अपने अंतरंग सखा को दिखाता हुअा, कहता है ।। अर्थ )-[ देखो, वह कैसी शोभा के साथ] सरोवर में स्नान कर के, कुचों [ और] अंचल के बीच में बाँह दिए हुए [ जिसमें उसके कुच भीगे हुए वस्त्र में से दिखाई न दें ] १. उपट जात ( ३ ), उपटी जाति ( ५ ) । २. देखिये ( २ ), देखियत ( ५ ) । ३. हियँ ( २, ४) ________________

बिहारी-रत्नाकर विहँसती (सुसकिराती ) [ और ] सकुचाती हुई सी, भीगे हुए वस्त्र से ( भीगा हुआ वस्त्र पहने हुए) तट को ( तट की ओर ) चली ॥ बरन, बास, सुकुमारता, सब विधि रही समाइ । पैखुरी लगी गुलाब की गात न जानी जाइ ॥ ६९४ ॥ ( अबतरण )—सखी नायक से नायिका के शरीर की हलकी ललाई, सुगंधि तथा कोमलता का वर्णन करती है ( अर्थ )-[उसके] गात्र में गुलाब की पंखुरी' (पंसड़ी ) लगी हुई ( चिपकी हुई ) जानी नहीं जाती (लक्षित नहीं होती )-[ वह ] 'बरन' (वर्ण, रंग ), वास (सुगंधि ) [ तथा ] सुकुमारता ( कोमलता ), [इन सब [ ही ] विधियों” ( व्यवस्थाओं ) से [उसके गोत्र में ] समा रही है ( मिल रही है ) ॥ रंच न लखियति पहिरि यौं कंचन मैं तन, बाल । कुँभिलानै जानी परै उर चंपैक की माल ॥ ६९५ ॥ ( अवतरण )-सखी नायिका से उसके सुनहरे रंग की प्रशंसा करती है-- | ( अर्थ )हे वाल, [ तेरे ] कंचन से शरीर में चपे की माला पहनने पर [ शरीर के रंग में ऐसी मिल जाती है कि ] ‘यौं' ( इसी दशा में, जैसी है वैसी ही, अर्थात् विना कुंभलाए ) 'रंच' ( तनिक भी ) लक्षित नहीं होती, [ पर ] कुंभलाने पर हृदय पर जान पड़ती है ( दिखाई देती है ) ॥ गोधन, तँ हरड्यौ हियँ घरियक लेहि पुजाइ । समुझि परैगी सीस पर परत पसुनु के पाइ ।। ६९६ ॥ गोधन= गोवर्द्धन । कार्तिक-शुक्ल प्रतिपदा के दिन किसान लोग, अपने अपने द्वारों पर, गोबर से गोवर्द्धन की प्रतिमा बना कर, बड़े समारोह से उसकी पूजा करते और उत्सव मनाते हैं। पूजा कर चुकने के पश्चात् वे अपने गाय-बैलों को उसी प्रतिमा पर खड़ा कर के पूजते हैं, जिससे वह प्रतिमा रोदें उठती है ॥ ( अवतरण )—किसी व्यक्ति के सन्मान पा कर अभिमान करने पर कोई यह दोहा, गोवर्द्धन पर अन्योक़ि कर के, उसको सुनाता है ( अर्थ )-[ 8 ] गोवर्द्धन, तु हृदय में हर्षित हुआ ( गर्व से आनंद मनाता हुआ ) [ अपने को ] एक घड़ी भर ( थोड़ी देर )[ भले ही ] पुजवा ले ( सन्मानित करा ले )। [ पर इस पुजवाने की व्यवस्था तुझे थोड़ी ही देर में अपने ] सिर पर पशुओं ( गाय १. लखियत ( ३, ५) । २. यं ( ३, ५ ), यो ( ४ ) । ३. कुम्हलान ( २ )। ४. पति ( ३ ) । ५. चंप ( २, ४) । ६. हरषे ( २ ) । ७. निधरक ( २, ४ ), घरीक ( ३ : १८. लेहु ( ३, ५ ) । ________________

२८८ विहारी-रत्नाकर बैल) के पाँव के पड़ते ( पड़ने पर ) [ ही ] समझ पड़ेगी ( ज्ञात हो जायगी ) [ कि ऐसे सन्मान पर गर्व करने का क्या परिणाम होता है ] ॥ । मुहुँ धोवति, एड़ी घसति, हसति, अनगवति तीर । धसति न इंदीवरनयनि कालिंदी कैं नीर ॥ ६६७ ।। अनगवति= अन् + अगवति, अर्थात् अगुवाती नहीं । अगुवाना काई काम करने के निमित्त उद्यत होने, अथवा किसी काम को करने लग जाने, को कहते हैं । व्रज मैं अनगाना अभी तक जान बूझ कर विलंब लगाने के अर्थ में बोला जाता है, जैसे “अरी ! तू अनगाइ कहा रही है, या कामैं करि क्यौं नायें ले।' कई टीकाकारों ने जो 'अनगवति' का अर्थ 'अनंगवती' लिख दिया है, वह सर्वथा अग्राह्य है ॥ इंदीबरनयनि-- नायिका नायक की योर, टकटकी बॉध कर, अपने ग्रंजन-रंजित दृगों से देख रही है, इसी लिए यह विशेषण उसके निमित्त रक्खा गया है । टकटकी बाँध कर देखने से नायिका का अनुराग व्यंजित होता है । ( अवतरण )-नायिका यमुना-स्नान करने आई है। नायक भी वहाँ उपस्थित है। अतः वह मुंह धने इत्यादि के व्याज से तीर पर विलंब लगा रही है, और स्नान करने के निमित्त यमुना में नहीं बैठती, जिसमें पीठ नायक की ओर न हो, और इसी व्याज से उसे नायक को देर तक देखते रहने का अवसर प्राप्त हो । उसकी यह मानसिक व्यवस्था तथा क्रिया-विदग्धता कोई सखी सक्षित कर के किसी अन्य सखी से कहती है| ( अर्थ )-[ देख, यह नायिका कभी तो ] मुंह धोती है, [ कभी ] एड़ी घिसती है, [ और कभी ] हँसती है । [इसी प्रकार चातुरी की अनेक क्रियाएँ कर के ] तीर पर अनगा रही है ( टालमटूल कर रही है, जान बूझ कर देर लगा रही है )। [ यह ] इंदीवरनयनी ( नील कमल के समान अनिमेख नेत्रों वाली ) कालिंदी ( यमुना ) के नीर में नहीं धंसती (पैठती ) ॥ बढ़त निकसि कुष-कोर-रुचि, कढ़त गौर भुजमूल । मनु लुटि गौ लोटनु चढ़त, चटत ऊँचे फूल ॥ ६९८ ॥ कुच-कोर= कुच की नोक अर्थात् ढिपनी ।। लोटनु= उदर की बालियाँ । चटत =नोचते हुए, तोड़ते समय ॥ ( अवतरण )-नायक ने नायिका को किसी वृक्ष की ऊँची डाल में से, हाथ ऊँचा कर के तथा ग्रीवा को पीछे की ओर झुका कर, फल तोड़ते देखा । हाथ ऊँचा करने तथा ग्रीवा को पीछे की ओर झुकाने से उसके कुछ आगे को निकल अाए, एवं अंचल के सरकने से भुजमल तथा उदर कुछ उधर गए । इस अवस्था में उसकी त्रिबजी को देख कर नायक का मन हाथ से जाता रहा । यही व्यवस्था वह नायिका की सखी से कह र उससे मिलने की उत्कंठा व्यंजित करता है | ( अर्थ )-[ उसके ] ऊँचे फूलों को चौंटते समय कुचों की कोरों की शोभा के १. बदति ( ४ )। ________________

विहारी-रत्नाकर २८६

निकल कर (उभर कर ) बढ़ते हुए [ तथा] गोरे गोरे भुजमूलों के उधर जाते ( खुल जाते ) हुए [ मेरा ] मन लोट (उदर की बलियों ) पर चढ़ते हुए लुट गया ।।

अहे, दहेड़ी जिनि धरै, जिनि हूँ लेहि उतारि । नी है छींकै छैवै, ऐसें ई” रहि, नारि ।। ६६९ ॥ (

अवतरण )-छके पर वही रखते समय की नायिका की चेष्टा नायक को बड़ी प्यारी लगी है। वह चाहता है कि उसी अवस्था मैं उसे कुछ देर देखता रहे, अतः वह उससे कहता है . ( अर्थ )-अरी, तु दहेड़ी को [ छाँके पर ] मत रख, [ और ] उतार [ भी ] मत ले [क्योंकि इन दोनों ही क्रियाओं के कर लेने पर तेरी यह प्यारी चेष्टा न रहेगी ]। [१] छीके को छुए हुए ही 'नीकै’ ( अच्छे ढंग से ) है, [अतः ] है नारी, [१] 'ऐसई' (इसी मनोमोहिनी अवस्था में, इसी सुंदर चेष्टा से ) रह ( कुछ देर तक स्थित ग्ह ) ॥

न्हाइ, पहिरि पटु डटि, कियौ बँदी-मिसि परनाम् । इग थलाइ घर कौं चली बिदा किए घनस्याम् ।। ७०० ।। |

( अवतरण )-नायिका यमुना-स्नान करती थी, और श्रीकृष्णचंद्र भी वहाँ खरे उसको देखते और सुरी रहे थे । जब तक नायिका महाने-धोने में लगी रही, तर तक तो दोन पॉखों में सैभमरी कर के रीझते-रिझाते रहे, पर चलते समय नायिका ने यह विचार कि इनका यहाँ उटा जा अच्छा नई, क्योंकि यहाँ अनेक चियाँ नहाने अाती हैं-सभी इनकी मोहिनी मूर्ति पर रीझेगी, और वे भी ऐसे रिझवार है कि बहुत से लगन सगा होगे । इस विचार से उसने, पट इत्यादि पहनने के पश्चात्, घर बसते समय, बँदी सगाने के बहाने उनको प्रणाम कर के, ऑल की सैन-द्वारा वहाँ से विदा कर दिया। यह वृत्तांत त्वरित कर के कोई सखी किसी अन्य सखी से कहती है ( अर्थ )[ देख, यह कैसी चतुर है कि इसने ] स्नान कर के [ अर ] पट पहन सुसज्जित हो, बँदी [ लगाने ] के व्याज से [ हाथों के मस्तक पर ले जा कर ] प्रणाम किया, [एवं ] आँखों को चला कर (उपयुक्त सैन कर के ) घनश्याम ( श्रीकृष्णचंद्र को ) यमुना-तट से हटा कर ) घर चली ॥ | हिंदु मैं प्रणाम करने के लिए दोन हार्थों को मस्तक के समीप ले जाने की चाल है। अतः एक हाथ ॥ वैद वगाने के निमित्त और दूसरे का मुँघट हटाने अथवा अरसी देखने के निमित्त मस्तक पर ले जाना समझना चाहिए ।

  1. १.० १.१ चुटकी (२),
  2. उनमान (२, ३, ५)।
  3. कियो (२)।
  4. सूजिम (३, ५)।
  5. गति (२)।
  6. जुरति (२, ५)।
  7. सब कैँ (२), सबु जगु (४)।
  8. प्याली (२, ३, ५)।
  9. निर्दई (४)।
  10. अजौँ न उर कौ (२)।
  11. काहि (२,४)।
  12. को (२), किहिँ (४)।
  13. मद-छकी (४)।
  14. निबाहि इहि नषु अली (३), नबहि इहि नषु अली (५)।
  15. दिन (३, ५)।
  16. मित्र (२)।
  17. कहति (३), करत (५)।
  18. बिघसी (२)।
  19. पलटि (२, ३)।