बिहारी-रत्नाकर
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सुकवि-माधुरी-माला—प्रथम पुष्प
बिहारी-रत्नाकर
संपादक
श्रीदुलारेलाल भार्गव
(माधुरी-संपादक)
श्रीमहाराज जयसिंह (मिर्जा राजा जयशाह), आमेर SK. Press, Lucknow
अर्थात्
बिहारी-सतसई पर रत्नाकरी टीका
प्रणेता
श्रीजगन्नाथदास “रत्नाकर' बी० ए०
सतसैया के दोहरे ज्यौ नावक के तीर ;
प्रकाशक
गंगा-पुस्तकमाला-कार्यालय
२९-३०, अमीनाबाद-पार्क।
लखनऊ
प्रथम संस्करण
श्रावण, संवत् १९८३
मूल्य ५)
प्रकाशक
श्री छोटेलाल भार्गव बी० एस्-सी०, एल-एल० बी
गंगा-पुस्तकमाला-कार्यालय
लखनऊ
मुद्रक
श्रीकेशरीसदास सेठ
नवलकिशोर-प्रेस
लखनऊ
संपादकीय निवेदन
प्रचलित भारतीय भाषाओं में हमारी मातृभाषा हिंदी का प्राचीन कविता-भांडार जितना भरापुरा है, उतना कदाचित् ही और किसी का हो। हिंदी-माता का यही साहित्य-भांडार अन्यान्य बहनों के सामने उसका मस्तक ऊँचा किए हुए है। किंतु अथाह रत्नाकर के समान हमारे इस सुविस्तृत साहित्य के भी अधिकांश रमणीय रत्नों का परमोज्ज्वल प्रकाश काव्यरत्न-प्रेमियों का नेत्ररंजन और मनोरंजन नहीं कर रहा है। समुद्र की अँधेरी, अज्ञात और अगम्य गुफाओं में जैसे असंख्य, मंजुल, मनोमोहक और मूल्यवान् मणियाँ भरी पड़ी हैं, वैसे ही हमारे भी बहुतेरे उत्कृष्ट, उज्ज्वल और उपयोगी ग्रंथ, हस्तलिखित रूप में, प्राचीन प्रकार के बस्तों में बँधे, बक्सों में बंद पड़े सड़ रहे हैं; मानो साहित्य-संसार से उनका कोई संबंध ही नहीं। इसमें संदेह नहीं कि कुछ साहित्यिक ग़ोताख़ोरों ने बस्तों की कंदराओं से निकालकर अनेक ग्रंथ-रत्नों का मुद्रण-उद्धार अवश्य किया है। परंतु वे भी प्रकाशन के उस प्राचीन परिच्छद में प्रकट हुए हैं, जो इस समय बिलकुल प्रचलित नहीं। इसके अतिरिक्त ये ग्रंथ-रत्न जिस रूप में प्राप्त हुए हैं, उसी में प्रायः प्रकाशित भी कर दिए गए हैं। उनका समुचित संशोधन और संस्करण करके—भूमिका, टिप्पणी आदि की ओप तथा डाँक देकर, सुंदर, सुसज्जित स्वरूप में, साहित्य-संसार को समर्पित करने का पर्याप्त प्रयत्न प्रायः किया ही नहीं गया है। इसलिये इन दोनों ही स्थितियों—बस्तों में बँधने की हस्तलिखित स्थिति और प्राचीन प्रकार से छपने की मुद्रित स्थिति—का परिणाम प्रायः एक ही हो रहा है। इन दोनों ही ढंगों के ग्रंथों से वर्तमान हिंदी-कविता-प्रेमी यथेष्ट लाभ नहीं उठा रहे हैं—या यों कहिए कि उठा ही नहीं सकते। क्या यह शोक की बात नहीं कि सूर, बिहारी, देव, मतिराम, कबीर, सेनापति, पद्माकर, हरिश्चंद्र आदि बड़े-बड़े कवियों तक की कमनीय कृतियाँ, जिनका जगत् की किसी भी भाषा को गर्व हो सकता था, सर्वांग-सुंदर संस्करणों में सुलभ नहीं! मातृभाषा का यह भारी अभाव हमारे हृदय में, सुदीर्घ काल से, काँटे की तरह खटक रहा था।
हर्ष की बात है, इधर जब से कुछ समालोचक-जौहरियों ने प्राचीन काव्य-रत्नों को परिश्रम-पूर्वक परखकर साहित्य-संसार को उनके वास्तविक सुंदर, स्निग्ध और शीतल प्रकाश का परिचय कराना और संपादक-रूपी गुण-ग्राहकों ने अपने पत्र-भांडारों में इन प्राचीन या प्राचीन ढंग की कविता-मणियों को सादर और सस्नेह स्थान देना शुरू कर दिया है, तब से इन पुराने जवाहरातों के दिव्य दर्शनों के लिये प्रेमियों की प्यास बढ़ती ही जा रही है—उनका यह अनुराग धीरे-धीरे प्रगाढ़ और व्यापक होता जा रहा है। परंतु परिताप का विषय है कि प्रेमी पाठकों की इस परम पुनीत लालसा की पूर्ति के लिये कोई पूरा प्रयत्न नहीं हो रहा है। आशा थी, सभी साहित्यिक संस्थाओं की मुकुटमणि काशी-नागरीप्रचारिणी सभा इस कार्य को तीव्र गति से करेगी। इस उद्देश्य को दृष्टि में रखकर अब तक उसी ने सबसे अधिक सराहनीय सेवा की भी है; किंतु अपने अन्यान्य अनेक उद्देश्यों की पूर्ति में लगे रहने के कारण इस ओर उसकी चाल इतनी मंद है, और कार्य का परिमाण इतना स्वल्प कि उसके द्वारा प्राचीन कविता-मणियों के पूर्ण प्रकाश का कठिन कार्य शीघ्र संपन्न होते नहीं दिखलाई पड़ता। प्रयाग के हिंदी-साहित्य-सम्मेलन से भी इस संबंध में समुचित सेवा संभाव्य थी। किंतु जिस उदासीन भाव से वह इस मार्ग में बढ़ रहा है, उससे भी प्राचीन कविता-प्रेमियों को पर्याप्त प्रोत्साहन नहीं प्राप्त हो रहा है। अतएव ऐसी परिस्थिति पर पूर्णतः विचार करके—प्राचीन हिंदी-कविता के ग्रंथों के समुचित प्रकाशन का अत्यंत शिथिल प्रयत्न देखकर—यदि हमारे हृदय में भय का उदय हो, तो उचित ही है। कारण, समुद्र की तरंग-मालाएँ किसी अवसर-विशेष पर ही तट की ओर उमड़ चलती हैं। हिंदी-संसार में इस समय प्राचीन हिंदी-कविता के प्रति जो प्रेम प्रस्फुटित हुआ है, उसे देखते हुए हमें उस साहित्य के उद्धार का यही उपयुक्त समय प्रतीत होता है। अवसर बार-बार नहीं आता। अनेक बहुमूल्य ग्रंथ-रत्न बस्तों में बँधे नष्ट हो गए, अनेक नष्टप्राय हैं; पर कुछ प्रेमियों की सतर्कता से अब भी सुरक्षित हैं। जिन सज्जनों ने साहित्य-रक्षा के सुकार्य में इस प्रकार सहायता पहुँचाई है, उनकी सत्कीर्ति साहित्य के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगी। किंतु अब उनसे इस रखवाली का काम लेते रहना ठीक नहीं। अब तो इन ग्रंथ-रत्नों को बाहर लाना ही पड़ेगा—उनके सर्वागसुन्दर प्रकाशन का प्रबंध करना ही पड़ेगा, जिसमें उनकी जगमग ज्योति से काव्य-जगत् जगमगा उठे।
जिन प्रेसों तथा प्रकाशकों ने प्रतिकूल काल में भी अनेक पुस्तकों का प्रकाशन करके उन्हें नष्ट नहीं होने दिया, उनमें कदाचित् लखनउ के नवलकिशेर-प्रेस का नाम ही अग्रगण्य है। सैकड़ों सुंदर काव्यों का उद्धार करके उन्हें साहित्य-रसिकों को समर्पित करने का श्रेय उसे है। उसके अनंतर काशी-नागरीप्रचारिणी सभा के अतिरिक्त (जिसका हम ऊपर उल्लेख कर आए हैं) काशी के भारत-जीवन और लाइट-प्रेस, बंबई के वेंकटेश्वर-प्रेस, बाँकीपुर के खङ्गविलास-प्रेस आदि का नंबर आता है। इन सभी संस्थाओं के उपकार का भार हिंदी-भाषा-भाषी-मात्र के सिर पर है। परंतु उपकार-मात्र मान लेने ही से इनके प्रति हमारी कृतज्ञता का पर्याप्त प्रदर्शन न हो सकेगा। यह तो प्रकट ही है कि जिस उच्च उद्देश्य से उत्साहित होकर उनके संचालकों ने इन ग्रंथों को छपवाया था, उसकी सिद्धि अब उन ग्रंथों से, उनके प्राचीन परिच्छद में होने के कारण, नहीं हो रही है। अतएव हमें चाहिए कि उनके उस उच्च उद्देश्य की पूर्ति करके ही उन्हें अपनी हार्दिक कृतज्ञता की भेंट अर्पित करें; अर्थात् उनके प्रकाशित किए हुए ग्रंथ-रत्नों के, वर्तमान रुचि और साधनों के अनुकूल, सुलभ, सरल और सर्वाग-सुंदर संस्करण निकालें। यह काम कम कठिन नहीं। विद्या, बुद्धि, समय, परिश्रम और लक्ष्मी, सभी के सहयोग बिना इसमें सफलता की कुछ भी आशा नहीं। किंतु प्राचीन काव्यों के उद्धार का कार्य अनिश्चित समय के लिये स्थगित भी नहीं किया जा सकता। अतएव इन सब पहलुओं पर विचार करके अब हम ही प्राचीन हिंदी-काव्य के प्रकाशन का भार, अपने अनेक मित्रों और कृपालुओं की सहायता के बल पर, अपने दुर्बल कंधों पर लेने को तैयार हो गए हैं, और तत्संबंधी विशाल आयोजन बड़े उत्साह और आनंद के साथ प्रेमी पाठकों के निकट प्रकट करते हैं।
हमारा विचार है, सुकवि-माधुरी-माला के नाम से एक पुस्तकमाला के प्रकाशन का प्रारंभ किया जाय। उसमें हिंदी के सभी मुख्य कवियों के काव्य छपें। सबका संपादन सुचारु रूप से सर्वांग-सुंदर हो। सभी मुद्रित और अमुद्रित प्राप्य प्रतियों से मिलाकर पुस्तकों में पाठ-शुद्ध तो की ही जाय, साथ ही आलोचनात्मक तथा तुलनात्मक भूमिका, आवश्यक टीका-टिप्पणी, अवतरण, शब्दार्थ, पाठांतर आदि का भी उनमें समावेश रहे। जो काव्य-मर्मज्ञ विद्वान् जिन कवियों की कविता के मर्मज्ञ हों, उनसे उन्हीं के काव्य का संपादन कराया जाय। संपादन-कार्य के लिये एक संपादक-समिति निर्मित की जाय। दो-तीन संपादक विशेष रूप से इसी कार्य के लिये नियुक्त किए जायँ। हम लोग यह कार्य आर्थिक लाभ की दृष्टि से नहीं करना चाहते—प्राचीन काव्य-सुमनों की सुगंध से साहित्य-संसार को सुवासित कर देना ही हमारा इष्ट है। अतएव हम चाहते हैं कि धनी-मानी सजन इस माला को अपनाकर, विद्वान् काव्य-मर्मज्ञ इसके संपादन में सहायता पहुँचाकर, जिन महानुभावों के पास हस्त-लिखित पुस्तकें हों, वे उन्हें देकर, तथा सर्वसाधारण इस माला के ग्राहक बनकर हमारे इस कार्य में समुचित सहायता पहुँचावें। पुस्तकों की छपाई आदि बाहरी वेष-भूषा के संबंध में हमें कुछ नहीं करना। कारण, हमारी गंगा-पुस्तकमाला, महिला-माला और बाल-विनोद-वाटिका हिंदी-संसार में इस संबंध में पर्याप्त प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी हैं। और, यह तो कहना ही व्यर्थ है कि इस माला की पुस्तकें भी वेष-भूषा में उसी प्रकार की होंगी। हाँ, यह सूचित कर देना ज़रूरी है कि इस माला की पुस्तकें भी आवश्यकतानुसार चार चित्रों से सुसज्जित की जायँगी।
संपादन तथा प्रकाशन-क्रम में सबसे ज़्यादा ख़याल काव्योत्कर्ष का रक्खा जायगा, अर्थात् उच्च कोटि के कवियों के ग्रंथ पहले और उनसे नीची श्रेणी के कवियों के ग्रंथ बाद को छापे जायँगे। साथ ही इस बात का भी ध्यान रहेगा कि सबसे पहले उन ग्रंथों में हाथ लगाया जाय, जो अभी तक कहीं भी नहीं छपे; उसके बाद उन ग्रंथों में, जिन्हें मुद्रण-सौभाग्य तो प्राप्त हुआ है, किंतु जिनका संपादन बिलकुल ही नहीं अथवा सम्यक् प्रकार से नहीं हुआ। स्थूल रूप से यही हमारा क्रम रहेगा; किंतु विशेष कारणों से इस क्रम में परिवर्तन भी हो सकेगा। इस माला में जिन प्रधान कवियों के ग्रंथ निकालने का निश्चय किया गया है, उनके नाम नीचे दिए जाते हैं—
(१) चंद
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(२१) रसखान
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(४१) लाल
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(७०) भूपति
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(९९) बेनीप्रबीन
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(१०८) द्विजदेव
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संपादन-कार्य में हमें जिन विद्वान् सज्जनों से सहायता मिलने की आशा है, उनमें से कुछ लोगों के नाम ये हैं—
(१) पं॰ महावीरप्रसाद द्विवेदी
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(१४) पं॰ कृष्णविहारी मिश्र
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माला को सफल बनाने में हम अपनी ओर से कोई कोर-कसर न रक्खेंगे; परंतु प्रेमी पाठकों से भी प्रार्थना है कि यदि वे मातृभाषा-मंदिर के दिव्य दीपकों की उज्ज्वल आभा से अपनी आँखों की परितृप्ति चाहते हैं, तो अविलंब हमारा करावलंब करें, जिसमें हम शीघ्र ही भगवती भारती को सुकवि-माधुरी-माला पहनाने में कृतकार्य हों।
इस माला के लिये कई कृतविय अवियों की कृतियों को सुचारु रूप से संपादन हो चुका बिहारी-रत्नाकर
अनियारे दीरघ दृगनि किती न तरुनि समान;
वह चितवनि औरै कछू, जिहि बस होत सुजान।
सतसई के सुविस्तृत सम्मान के प्रमाण में इतना कह देना ही पर्याप्त होगा कि इस पर पचासों टीकाएँ बन जाने पर भी यह क्रम अभी तक जारी है। 'बिहारी-रत्नाकर' अंतिम और, हमारी राय में, सर्वोत्कृष्ट टीका है।
शृंगारी कवियों में बिहारी का स्थान बहुत ऊँचा है। नीति, भक्ति, वैराग्य आदि के दोहे भी उन्होंने अवश्य लिखे हैं; किंतु सतसई में प्रधानता श्रृंगार-रस ही की है। प्रत्येक पक्ष उनकी प्रशस्त प्रतिभा का परिचायक है। उच्च कोटि की काव्य-कला, व्याकरण-विशुद्ध, परम परिमार्जित भाषा और वाक्य-लाघव (Brevity) में बिहारी अपना जोड़ नहीं रखते। ऐसे श्रेष्ठ कवि की कविता का समुचित रूप से संशोधन करके उसके गूढ़ तथा सूक्ष्म भाव समझना और स्पष्ट रूप से प्रकाशित कर देना कुछ हँसी-खेल नहीं। इस कठिन कार्य के लिये विशेष विद्या-बुद्धि, काव्य-मर्मज्ञता, सुचिंतन और परिश्रम अपेक्षित हैं। ये सब गुण 'बिहारी-रत्नाकर' टीका के कर्ता में पूर्ण रूप से विद्यमान हैं। तुलसी, सूर, बिहारी, मतिराम, चंद, घनानंद, पद्माकर आदि कवियों का जितना अध्ययन इन्होंने किया है, उतना हिंदी-साहित्य के शायद ही अन्य किसी विद्वान् ने किया हो। बिहारी-सतसई पर तो आपने विशेष रूप से परिश्रम किया है। अतएव उस पर टीका लिखने के आप सर्वथा अधिकारी हैं। आप और कोई नहीं, हिंदी-साहित्य- मंदिर के सुदृढ़ स्तंभ बाबू जगन्नाथदास "रत्नाकर" बी॰ ए॰ हैं।
रत्नाकरजी का जन्म संवत् १९२३ में, ऋषि-पंचमी के दिन, काशी में, हुआ था। आपके पिता का नाम बाबू पुरुषोत्तमदास था। वह दिल्लीवाल अग्रवाल वैश्य थे। इनके पूर्वजों का आदि निवास-स्थान सफ्रोदों (सर्पदमन), जिला पानीपत में था। पानीपत की दूसरी लड़ाई के अनंतर वे अकबर के दरबार में आए, और मुगल-साम्राज्य में ऊँचे-ऊँचे पद सुशोभित करते रहे। फिर मुगल-राज्य के नष्टप्राय हो जाने पर जहाँदारशाह के साथ काशी चले आए, और वहीं बस गए।
बाबू पुरुषोत्तमदासजी फ़ारसी के पूरे पंडित थे। हिंदी-कविता के प्रति भी उन्हें प्रगाढ़ प्रेम था। अनेक अच्छे-अच्छे कवि उनके मकान पर आया करते थे। जो बाहर से आते, वे उन्हीं के पास ठहरते। भारतेंदु बाबु हरिश्चंद्र उनके मित्र और संबंधी थे। अतः वह भी उनके पास प्रायः आते थे। बालक रत्नाकरजी इस गोष्ठी में अक्सर बैठते थे, और कभी-कभी कुछ बोल भी उठते थे। एक दिन इसी प्रकार आपके कुछ कहने पर भारतेंदुजी ने कहा—"यह लड़का कभी अच्छा कवि हागा।" भारतेंदुजी की यह भविष्यद्वाणी सोलहो आने ठीक उतरी। रत्नाकरजी पर इस सत्संगति का इतना प्रभाव पड़ा कि वह भी उर्दू और फिर हिंदी में कविता करने लगे।
जगन्नाथदासजी की सारी शिक्षा काशी में ही हुई। कॉलेज में आपकी द्वितीय भाषा फ़ारसी थी। फ़ारसी लेकर ही उन्होंने सन् १८९१ में बी॰ ए॰ पास किया, और एम॰ ए॰ में भी फ़ारसी पढ़ी। किंतु किसी कारण परीक्षा न दे सके। सन् १९०० के लगभग आवागढ़-राज्य में आप प्रधान कर्मचारी नियुक्त हुए, और वहाँ दो वर्ष तक योग्यता के साथ काम किया। किंतु वहाँ की आब-हवा अनुकूल नहीं हुई—आप अस्वस्थ रहने लगे। इसालये उक्त पद का त्याग करके काशी लौट आए। फिर वहाँ से अपने समय के अनन्य हिंदी-प्रेमी रईस, अयोध्या-नरेश स्वर्गीय महामहोपाध्याय महाराजा सर प्रतापनारायणसिंह बहादुर के॰ सी॰ आई॰ ई॰ ने आपको, सन् १९०२ में, बुलाकर अपना प्राइवेट सेक्रेटरी बना लिया, और आपकी योग्यता और कार्यदक्षता से प्रसन्न होकर थोड़े ही दिन बाद आपको चीफ़ सेक्रेटरी के उच्च पद पर आसीन किया। सन् १९०६ के अंत में, महाराज के अकाल में काल-कवालित हो जाने पर, श्रीमती महारानी अवधेश्वरी ने आपको अपना निज मंत्री (प्राइवेट सेक्रेटरी) नियत कर लिया। तब से आप इसी पद पर रहकर रियासत का काम कुशलता के साथ कर रहे हैं। काठन अभियागा आदि में राज्य को इन्होंने बड़ी मदद पहुँचाई है। राजकाज के झंझटों में पड़े रहने के कारण इन्हें एक सुदीर्घ समय तक साहित्य-सेवा से वंचित रहना पड़ा। हर्ष की बात है, इधर ३-४ वर्षो से मित्रों के साग्रह अनुरोध से आप साहित्य-मंदिर में आकर सरस्वतीदेवी की आराधना करने लगे हैं।
ग्रेजुएट होने पर भी रत्नाकरजी सनातनधर्म के पक्के अनुयायी हैं, और हिंदू-सभ्यता के पूरे समर्थक। आपको प्रसिद्धि की परवा नहीं है। यही कारण है कि आपकी वास्तविक योग्यता से, थोड़े दिन पहले, बहुत कम लोग परिचित थे। आप बड़े हँसमुख और जिंदादिल आदमी हैं। आपकी मंडली में बैठकर न हँसना कठिन काम है। आपकी बातचीत में बड़ा मजा आता है। स्वभाव आपका बहुत ही मृदुल है। स्मरण शक्ति बहुत तीव्र है। बचपन ही से आप व्यायाम-प्रिय है, और अपना जीवन बड़े संयम के साथ व्यतीत करते हैं। इसीलिये आप इस समय, ६० वर्ष की अवस्था में भी, ४५ वर्ष से अधिक के नहीं जँचते। वैद्यक का आपको बहुत शौक़ है।
रत्नाकरजी इस समय व्रज-भाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि और ज्ञाता समझे जाते हैं। आपकी कविताएँ बड़ी सरल और सुंदर होती हैं। आपके कवित्त देव, पद्माकर आदि के कवित्तों का ध्यान दिला देते हैं। हमारी राय में आपकी जैसी सरस, मधुर, विशुद्ध और परिमार्जित भाषा लिखने में व्रजभाषा के बहुत कम कवि समर्थ हुए हैं। प्राकृत का भी आपको अच्छा अभ्यास है। शिलालेख यदि पढ़ने और प्राचीन शोध के कार्य में आपको विशेष रुचि है। कानपुर के प्रथम अखिल भारतीय हिंदी-कत्रि-सम्मेलन का सभापति-पद आप विभूषित कर चुके हैं। हिंडोला, हरिश्चंद्र, समालोचनादर्श, घनाक्षरी-नियम-रत्नाकर आदि कई काव्य-पुस्तकें व्यापने लिखी है, जो प्रकाशित भी हो चुकी हैं। अन्यान्य गुणों के साथ आपमें एक अवगुण भी है। यह यह कि आप बड़े आलसी हैं। आपसे कुछ लिखवा लेना आसान नहीं। सख़्त तक़ाजे कीजिए, तब आकर कहीं कुछ लिखेंगे। गंगावतरण, कलकाशी, अष्टक-रत्नाकर और ऊधव-शतक, ये चार काव्य-ग्रंथ इधर आपने और लिखे हैं, जो शीघ्र ही प्रकाशित होंगे। आशा है, रत्नाकरजी भविष्य में भी भाषा-भांडार को अनेक भव्य और नव्यरत्नों से भरते रहेंगे।
अस्तु, 'बिहारी-रत्नाकर' प्रेमी पाठकों के कर-कमलों में इस आशा के साथ सहर्ष अर्पित किया जाता है कि वे इसका उचित आदर करके इसे स्थायी साहित्य में चिरस्थायी स्थान प्रदान करेंगे।
लखनऊ १।८।२६ |
दुलारेलाल भार्गव। |
प्रायः ३२-३३ वर्ष हुए हमने महाकवि श्री बिहारीदास जी की सतसई का विधिवत् अध्ययन किया था। उस समय हमारे पास उक्त ग्रंथ की ५ टीकाएँ थीँ—(१) नवलकिशोरप्रेस की छपी हुई कृष्ण कवि की कबित्तों वाली टीका, (२) भारतजीवल प्रेस की छपी हुई हरि-प्रकाश टीका, (३) लल्लूलालजी-कृत तथा उन्हीँ की छपवाई हुई लालचंद्रिका टीका, (४) विद्योदय-प्रेस की छपी हुई पं॰ परमानंदजी-कृत श्रृंगार-सप्तशती नाम की संस्कृत टीका तथा (५) सरदार कवि की टीका (हस्त-लिखित)।
इन पुस्तकों में किए गए अर्थोँ का मिलान करने पर कितने ही दोहों के अर्थोँ में मत-भेद पाया गया, और अनेक दोहोँ के विषय में यह भी भावना हुई कि उनके यथार्थ अर्थोँ का बोध उनमें से किसी टीका से भी नहीँ हो सकता। उक्त पुस्तकोँ में दोहोँ के पूर्वापर क्रम, संख्या तथा कहीँ कहीँ पाठों में भी भेद मिला, और शब्दोँ के रूपों तथा लेखन-प्रणाली मेँ तो बहुत बड़ा अंतर पाया गया। एक ही पुस्तक मेँ कोई शब्द अथवा कारक एक दोहे मेँ एक प्रकार से और दूसरे मेँ दूसरे प्रकार से लिखा दिखाई दिया॥
इन्हीँ बातोँ के कारण एवं बिहारी की कोमल-कांत पदावली और प्रशस्त प्रतिभा से प्रभावित होकर हमारा विचार हुआ कि सतसई का एक ऐसा संस्करण प्रकाशित किया जाय, जिसमेँ यथासंभव दोहोँ का पाठ शुद्ध हो, और उस पर एक ऐसी टीका भी लिखी जाय, जिससे दोहोँ के यथार्थ भावार्थ पाठकों की समझ में सहज ही आ सकेँ। सन् १८९६ ईसवी में लालचंद्रिका का जो संस्करण सर जॉर्ज ग्रियर्सन साहब ने प्रकाशित किया, उसमेँ कई स्थानों पर अपना नाम देख कर हमारा उत्साह और भी बढ़ा, और सन् १८९७ ई० में हमने उक्त विचार से सतसई के दोहोँ के भावार्थोँ की सामान्य टिप्पणियाँ भी, छपी हुई हरिप्रकाश टीका की एक प्रति के पाश्र्व भाग मेँ, लिख डालीँ। इस टीका का नाम 'बिहारी-रत्नाकर' रखने का विचार था। उसे देखकर हमारे मित्र स्वर्गीय साहित्याचार्य श्रीयुत पं॰ अंबिकादत्त व्यास जी ने, अपने 'बिहारी-बिहार' नामक ग्रंथ की भूमिका के ३८वें पृष्ठ पर, यह लिखा था। "बिहारी-रत्नाकर-यह टीका थोड़े ही दिन हुए कि बन के प्रस्तुत हुई है, और शीघ्र ही छपने वाली है। टीका बहुत ही छोटी है परंतु लगभग पचीस दोहोँ के अर्थ बहुत ही अपूर्व हैँ, और दोहोँ के पाठ जहाँ तक हो सका बहुत ही शुद्ध किए गए हैँ। इसके ग्रंथकार इस समय के काशी के प्रसिद्ध मधुर कवि हैं। इनका वास्तविक नाम बाबू जगन्नाथदास है। ये इस समय लगभग पचीस वर्ष के होँगे। अंग्रेज़ी में इनने बी॰ ए॰ पास किया है और उर्दू, फ़ारसी में बहुत अच्छा अभ्यास है। सन् १८९३ में साहित्य-सुधानिधि नामक मासिक पत्र निकाला था। उसे ये और बाबू देवकीनंदन (उपन्यास-लहरी के वर्तमान संपादक) खत्री मिल के संपादित करते थे। इनका कविता का नाम रत्नाकर है॥
"इतने और भी कई ग्रंथ रचे हैं। उनमें समालोचनादर्श, हिँडोला, घनाक्षरी-नियम रत्नाकर आदि कई एक छप चुके हैं। ये अग्रवाले बनिए हैँ और काशी मेँ शिवाले घाट पर रहते हैं॥"
उस समय, यथेष्ट प्राचीन प्रतियों की अप्राप्ति के कारण, पाठ-शुद्धि का कार्य, सम्यक् रूप से, न हो सका। फिर हम कुछ सांसारिक झँझटोँ मेँ ऐसे फँसे कि साहित्यिक संसार से बहिर्गत ही हो गए, और उक्त कार्य के संपादन का ध्यान भी जाता रहा। सन् १९१७ के जाड़ों में संयोग-वश, महीने डेढ़ महीने, हमेँ लखनऊ रहना पड़ा। हमारे प्रिय मित्र बाबू श्यामसुंदरदास जी बी॰ ए॰, उस समय, वहाँ के कालीचरण-हाई-स्कूल में हेड मास्टर थे। अतः उनसे मिलने का प्रायः संयोग होता था। उन्हें सतसई के विषय में हमारे संकल्प तथा टिप्पणियों का वृत्तांत विदित था, अतएव उन्होंने हमसे उक्त टीका के समान करने का इतने प्रेम-पूरित हठ के साथ अनुरोध किया कि अंत को हमें इस कार्य के संपादन में तत्पर होना ही पड़ा॥
लखनऊ से लौट कर हमने जो अपने सतसई-संबंधी ग्रंथों तथा लेखों को एकत्र किया, तो विदित हुआ कि उक्त पाँच टीकाओं में से सरदार कविकृत टीका तो कीड़ों ने सर्वथा नष्ट ही कर दी है, और भावार्थ टिप्पणियों बाली पुस्तक का भी पता नहीं है। इसलिए पुनः भावार्थ सोचने तथा लिखने की आवश्यकता पड़ी, और यह धारणा हुई कि पहले यथासंभव पाठ-शुद्धि कर ली जाय, तब भावार्थ लिखने में हाथ लगाया जाय क्योंकि भावार्थ शुद्धि का पाठ-शुद्धि से आंतरिक संबंध है। बस, इसी विचार की पूर्ति के लिए हमने सतसई की प्राचीन प्रतियों तथा अन्य टीकाओं का संग्रह करना आरंभ कर दिया, और ईश्वरानुग्रह से शनैः शनैः कृतकार्य भी होने लगे। इस अनुसंधान में अनेक हस्तलिखित मूल तथा सटीक प्रतियाँ प्राप्त हुईं, जिनमें कई बड़े महत्त्व की हैं। उनका यथास्थान विवरण दिया जायगा॥
उक्त प्रतियों में हमें एक प्रति पूज्य स्वर्गीय पं॰ लक्ष्मीनारायण जी (उपनाम कमलापति कवि) से मिली। यह प्रति संवत् १७९६ की लिखी हुई है। यह अचलगढ़ (अलवर) मैं किसी वख़्तकुँवर जी की पुत्री रत्नकुँवरि जी के पढ़ने के निमित्त, लक्ष्मीरत्न नामक किसी लेखक के द्वारा, लिखी गई थी। इस पुस्तक में कहाँ कहाँ दोहों के भावों के चित्र भी दिए हुए हैं, और इसके लिखने की परिपाटी मारवाड़ी लेखकों की सी है। इसमें दोहों का क्रम किसी साहित्यिक परिपाटी अथवा विषय के अनुसार नहीं है, अर्थात् इसमें दोहे किसी क्रम विशेष से नहीं रक्खे गए हैं, प्रत्युत यह बिहारी के दोहों का एक सामान्य संग्रह मात्र है। इसे देखने से एकाएक यह भावना उत्पन्न हुई कि कदाचित् इसमें दोहों का पूर्वापर क्रम वही हो, जिससे बिहारी ने उनकी रचना की थी॥
उसके पश्चात् एक उससे भी सात वर्ष पूर्व की लिखी हुई प्रति हमें अपने पूज्य मित्र स्वर्गीय पं॰ गोविंदनारायण जी मिश्र से मिली। यह प्रति सं॰ १७८९ में, किसी गुलालकीर्ति जी के शिष्य पं॰ शंभूनाथ के द्वारा, लखनऊ में, किसी केसरीसिंह जी के पुत्र गिरधरलाल जी के पढ़ने के निमित्त, लिखी गई थी। इस प्रति के अक्षर भी मारवाड़ियोंँ के से हैं, और ५-७ दोहोँ को छोड़ कर शेष दोहोँ का क्रम इसमें भी वही है, जो पं॰ लक्ष्मीनारायण जी वाली प्रति में। इन दोनोँ पुस्तकों का क्रम एक ही होने से हमारी यह धारणा और भी पुष्ट हो गई कि यही क्रम दोहोँ की रचना का है। ज्ञात होता है, उस समय बिहारी के स्फुट दोहे देश-देशांतरोँ में फैल गए थे, और काव्य-प्रेमियोँ द्वारा सादर पढ़े-सुने जाते थे; पर सतसई की पूरी पुस्तक दुष्प्राप्य थी। अतएव जयपुर और अलवर के कवियोँ को उसके द्वारा द्रव्योपार्जन करने का अच्छा अवसर मिलता था। जयपुर अथवा अलवर का कोई कवि अथवा सामान्य पढ़ा-लिखा मनुष्य, सतसई की कोई प्रति प्राप्त कर के, देशाटन को निकल पढ़ता था, और किसी नगर में पहुँच कर वहाँ के धनाढ्य कविता-प्रेमियोँ को बिहारी के दोहे तथा उनके अर्थ सुनाता और रिझाता था। इसी व्याज से वह यहाँ कुछ दिनोँ टिकता और सम्मानित होता था, और चलते समय यदि किसी गुणग्राहक की अभिलाषा होती थी, तो सतसई की प्रतिलिपि लिख, उन्हेँ भेँट कर और गहरी दक्षिणा ले आगे बढ़ता था। यह पुस्तक भी इसी प्रकार लिखी हुई प्रतीत होती है॥
ऊपर लिखी हुई दोनोँ पुस्तकोँ से जब यह धारणा पुष्ट हुई कि उनके क्रम का दोहोँ की रचना का क्रम होना संभावित है, तो उसी के साथ यह बात भी चित्त में उठी कि जयपुर के राज-पुस्तकालय में संभवतः बिहारी की स्वहस्त लिखित सतसई विद्यमान होगी। अतः उक्त पुस्तकालय में सतसई की जो प्राचीन प्रतियाँ उपस्थित हैं, उनकी प्रतिलिपि प्राप्त करने का उद्योग आरँभ किया गया। पर पता लगाने पर ज्ञात हुआ कि यह कार्य बढ़ा दुः साध्य है। उक्त राज्य में दो पुस्तकालय हैँ—एक सार्वजनिक और दूसरा निजी। सार्वजनिक पुस्तकालय से तो सर्वसाधारण लाभ उठा सकते हैँ, पर निजी पुस्तकालय में बिना महाराज की विशेष आशा के कोई प्रवेश नहीँ कर पाता, और प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथ विशेषतः निज ही के पुस्तकालय मेँ, बड़े यत्न तथा चौकसी से, संरक्षित हैँ। यह जान कर पहले तो जी कुछ कचिया सा गया पर फिर हम, यह सोचकर कि उद्योग से कदाचित् कुछ सफलता हो जाय, उक्त कार्य मेँ लगे रहेँ॥
जब और कोई उद्योग सफल होता न दिखाई दिया, तो हमने श्रीमती महारानी अवधेश्वरी से एक पत्र श्रीमान् महाराजाधिराज दर्भंगा-नरेश को लिखवाया कि यह श्रीमान् जयपुराधीश से पत्र-व्यवहार कर के उनके निजी पुस्तकालय में उपस्थित सतसई की प्रतियाँ हमें देखने देने का उपाय कर दें। यही प्रार्थना हमने अपने मित्र श्रीमान् कर्नल विध्येश्वरी प्रसादसिंह जी से भी की। ये दोनों उद्योग ईश्वर की कृपा से फलीभूत हुए, और दोनों स्थानों से सूचना मिली कि श्रीमान् महाराजा साहब बहादुर जयपुराधीश ने आशा दे दी है कि यदि कोई व्यक्ति यहाँ से भेजा जाय, तो सतसई की प्राचीन प्रतियों को देख सकता है॥
श्रीमान् महाराजाधिराज दर्भंगा-नरेश के पास ओ उत्तर स्वर्गवासी श्रीमान् जयपुराधीश सवाई श्री महाराजा माधवसिंह जी का आया था, उसकी प्रतिलिपि यह है— Jaipur Palace, Rajputaria.
2nd December, 1918.
I regret very much that yours of the 2nd. October last, enclosing one from the Maharani of Ajodhya, regarding Bihari Lal's Satsai, remains unacknowledged. The delay was due on account of the difficulty the Librarian had in searching the original manuscript. Copies have been found, but the Librarian cannot say definitely if any one of the inanuscripts is in the author's own hand writing. Though Bihari Lal was a famous poet of the time, yet there were several other contemporary poets who had also won renown. It appears from an inspection of the manuscripts that in some of the copies they had inserted some of their own Dohas. The manuscripts in question can be shown to a Pandit deputed for the purpose. The duty of the landit will be to compare the texts and find out which of the manuscripts is original.
With kindest regards and all good wishes,
I remain,
Yours sincerely,
(Sd.) S. MADHO SINGH.
The Honorable Maharaja Sir Rameshwar Singh Bahadur,
G. C. I. E., K. E B. of Darbhanga
DARBHANGA.
श्रीयुत कर्नल विंध्येश्वरीप्रसादसिंह जी ने, श्रीमान् महाराज काशी-नरेश के प्राइवेट सेक्रेटरी श्री बाबू ललितमोहन जी सेन राय से, जो पत्र जयपुर की कौंसिल के मेंबर रायबहादुर श्री अविनाशचंद्र सेन को लिखवाया था, उसके उत्तर की प्रतिलिपि यह है—
Jaipur, Palace.
22nd. December, 1918.
I am duly in receipt of your kind letter of the 10th November, but as I was out of the station for a long time, I am sorry I could not reply to it earlier.
As regards the Satsaya of Behari, the Librarian reports that some manuscript copies of the book are in the Palace Library, but he cannot definitely say if any one of the manuscripts is in the author's own handwriting. Behari Lal was a famons poet of the time, and it appears from an inspection of the manuscripts that in some of the copies some contemporary poets had inserted serveral Dohas of their own. The manuscripts in question can be shown to the Pandit whom you may depute for the purpose. The duty of the Pandit will be to compare the texts and find out which of the manuscripts is the original one.
I may add in this connection that similar enquiries have been made by the Hon'ble the Maharaja of Darbhanga, and a reply to the above effect has been given to him. It would, therefore, be convenient if you enquire from the Private Secretary to the Maharaja of Darbhanga, when they are going to send their Pandit for the purpose, and you can arrange to send your Pandit with him at the same time. I may also say that at least a week's notice should be given to us, as His Highness the Maharaja is shortly going out on a long tour, and His Highness' permission will be required before the manuscripts are shown to the Pandit.
Yours sincerely,
(Sd.) ABINASH CHANDRA SEN
Rai Bahadur, Member of Council (Foreign Department)
B. LALIT MOHAN SEN RAY
Pricate Secretary to His Highness the Maharaja of Benares,
Fort Ramnagar, BENARES.
यह शुभ समाचार पा कर हमने अयोध्या के राज-पुस्तकालय के अध्यक्ष श्री विद्या भूषण पं॰ रामनाथ जी ज्योतिषी को जयपुर भेजने का प्रबंध किया, क्योंकि उस समय हमारा जाना कई कारणोँ से न हो सका। सन् १९१९ के मार्च महीने की २५ तारीख को उक्त पंडित जी ने जयपुर को प्रस्थान किया। वहाँ पहुँच कर पहले तो उन्हेँ बहुत कठिनाइयाँ उठानी पड़ीँ, जो हिंदुस्थानी दरबारोँ में प्रायः उपस्थित होती हैँ। पर उक्त पंडित जी महाशय बड़े उद्योगी, चतुर तथा कर्म-कुशल हैं। शनैः शनैः सब कठिनाइयाँ दूर करके वह प्राचीन प्रतियोँ के अवलोकन तथा उनकी प्रतिलिपि प्राप्त करने मेँ सफल हुए। राज-पुस्तकालय के अतिरिक्त और भी कई स्थानोँ से उन्हेँ सतसई की कई प्रतियाँ मिलीं। उनमें से मुख्य मुख्य का वर्णन आवश्यकतानुसार यथास्थान किया जायगा॥
योँ तो उक्त पुस्तकालय में सतसई की कई प्रतियाँ हैँ, पर बिहारी के हाथ की लिखी कोई नहीँ निकली। जो प्रति सबसे प्राचीन है, उसकी प्रतिलिपि पंडित जी को बड़ी कठिनता से उतार मिली। इस प्रति मेँ केवल ४९३ दोहे हैँ। यह मिर्जा राजा जयशाह के पुत्र कुँवर श्री रामसिंह जी के पढ़ने के निमित्त लिखी गई थी। इसकी जिल्द चमड़े की है, और इसके अंत मेँ कुछ पन्ने अलग से सिए हुए हैँ। इसमें ४९३वेँ दोहे के पश्चात् और उसी पृष्ठ पर, जिस पर ४९३वाँ दोहा है, कुछ स्थान छोड़ कर, ये तीन दोहे, कुछ कच्चे अक्षरोँ मेँ, लिखे हैँ一
श्री रानी चौहानि कौ करतय देखि रसाल।
फूलति है मन मैँ सिया, पहिरि फूल की माल॥१॥
दान ग्यान हरि-ध्यान कौँ सावधान सब ठौर।
श्री रानी चौहानि है रानिनु की सिरमौर॥२॥
नित असीस हौँ देत हौँ उर मनाइ जगदीस।
राम कुँवर जयसिंह को जीयौ कोरि बरीस॥३॥
इसके पश्चात् के पृष्ठों पर सुंदर, गोपाललाल, मुकुंद, गंग, चतुरलाल, मंडन तथा ब्रह्म इन कवियोँ की थोड़ी थोड़ी कविताएँ, ऊपर लिखे हुए दोहोँ ही के जैसे भद्दे अक्षरोँ मेँ, दी है। फिर 'अनुभव-प्रकाश' शीर्षक से ११२ दोहे लिखे हुए हैँ। इन दोहोँ के कर्ता का कोई नाम नहीँ दिया है। तदनंतर ९ दोहे फुटकर हैँ, जिनमेँ ५ तो बिहारी के हैँ, और शेष और किसी के। फिर कुछ बुझौबोलै हैं, और अंत मेँ ये दोहे—
एक वयस, एकै बिरछ, एकै भोग, बिलास।
सोन चिरैया उड़ि गई, (अब) गहौ राम-कर आस॥
चौहानी रानी लता, राम-रूप फल-फूल।
खग-मृग-मधुकर-बूंद सब, परे रहौ गहि मूल॥
सुचि सिँगार में बुड़ि कै भयौ बिहारी-दास।
जग हैं फिरत उदास अब सुकवि बिहारी-दास॥
मंडन मंडन कै जगत................."
इसके पश्चात् के कुछ पन्ने नहीँ हैँ। हाँ, इसी पन्ने पर, एक स्थान पर, क, ख, ग, घ, च, छ, झ, इ, उ, ण, य, र, ल, श, ष, ह' लड़कों के से अक्षरोँ मेँ लिखा है। फिर एक पृष्ठ पर यह लिखा हैँ—
शुक्लांबरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजं।
प्रसन्नवदनं ध्ययेत्सर्वविघ्नोपशांतये॥
देवान् पितृन् द्विजान् हव्यकव्याद्यैः करुणामया।
ततः प्रभृति पूज्यैते त्रैलोक्ये सचराचरे॥
ॐ विष्णे भास्वद क्रीट।
जल मैं बसै कमोदनी, चंदा बसै अकास।
जो जाके मन मैँ बसै, सो ताही के पास॥
इस पुस्तक के आरंभ में जो एक पत्र छूटा हुआ है, उसके पृष्ठ पर लड़कोँ के से अक्षरोँ मेँ ऊपर 'रामसिंह जी' लिखा है। फिर राग केदारोँ के शीर्षक से एक गीत की दो तुके वैसे ही अक्षरोँ मेँ लिखी हैँ, जो स्पष्ट पढ़ा नहीँ जाती। पर उस गीत का आरंभ यह है—
जाके रस कुँ जी तरसत।
फिर वैसे ही अक्षरोँ मेँ एक दोहा लिखा है, जो कुछ पढ़ा जाता है—
बौरी, बहकि न बोलियै, रहियै मन की गोई।
जग सौं कछु कहिये नहीँ, जो हरि-प्यारी होई॥
तदनंतर वर्णमाला के कुछ अक्षर अंट-संट लिखे हैँ। उनके अंत मेँ 'राम' शब्द वैसे ही अक्षरोँ मेँ है। फिर वैसे ही अक्षरोँ मेँ यह लिखा है— ________________
प्राक्कथन अचल बिराजै पतसाही राव....... अस्तुति कहि न जात पेख्यौ रसना । क, ख, ग, घ ॥ यह लिखना वैसा ही है, जैसे बहुधा अाठ दस वर्ष के बालक अपनी पुस्तकों के पांडु-पत्रों पर लीपा-पोता करते हैं। इस पुस्तक के विषय में, जयपुर में, यह प्रसिद्ध है कि इसे बिहारी ने कुँवर रामसिंह जी के पढ़ने के निमित्त लिखवा दिया था, जिनको वह स्वयं पढ़ाते भी थे । इसमें ५०० दोहे तो उन्होंने आदि में अपने रखे थे, और फिर थोड़ी थोड़ी कविता अन्य कवियों की संग्रह कर दी थी । दोहे तो इस पुस्तक में अच्छे अक्षरों में और बहुत कुछ शुद्ध भी लिखे हुए हैं, किंतु अन्य कविताओं के अक्षर भद्दे तथा कचे हैं, और कई लेखकों के लिखे प्रतीत होते हैं। ज्ञात होता है, बिहारी ने अपने दोहे तो अपनी शुद्ध लिखी हुई चौपतिया में से किसी अच्छे लेखक से उतरवा दिए, और शेष कविताएँ भिन्न भिन्न चौपतियों में से कई लेखकों द्वारा लिखी गई ॥ | यह पुस्तक कुँवर रामसिंह जी के पढ़ने के निमित्त लिखी गई थी, यह बात उसमें जहाँ तहाँ की गई लीपापोती से भी पुष्ट होती है। क्योंकि बाल-बृद प्रायः इसी प्रकार अपनी पाठ-पुस्तकों पर अपना नाम लिखते और चीतचात किया करते हैं । इस चीतचात को कुँवर रामसिंह जी के हाथ की मानने में कोई असंगति भी नहीं प्रतीत होती, क्योंकि एक तो इसमें रामसिंह जी का नाम दो एक स्थान पर लिखा हुआ है, दूसरे पुस्तक की आकृति मे उसको ढाई तीन सौ वर्ष का लिखा हुआ होना भी ठीक ऊँचता है, और तीसरे बिहारी के दोहों के अतिरिक्त और जिन जिन कवियों की कविताएँ उसमें संगृहीत हैं, वे बिहारी के समकालीन अथवा कुछ पूर्व के हें ॥ | इस पुस्तक के अंतिम दोहे पर ५०० का अंक लगा हुआ है, पर गिनती में वस्तुतः इसमें केवल ४६३ ही दोहे हैं । लेखक के प्रमाद से बीच बीच के अंकों में गड़बड़ हो गई है, और उसी गड़बड़ के अनुसार जहाँ ५००वाँ अंक पूरा हुआ, वहीं उसने बिहारी के दोह का लिखना समाप्त कर दिया, क्योंकि उसे कदाचित् ५००ही दोहे लिखने की आशा मिली थी। इस संग्रह में भी जो दोहे बिहारी के हैं, उनका पूर्वापर क्रम वही है, जो रत्नकुंवरि घाली प्रति में। केवल दो चार स्थानों पर कुछ उलटपुलट है । अतः इस पुस्तक से भी यही लक्षित होता है कि यही क्रम विहारी के दोहों के निर्माण का है ॥ | इस पुस्तक की प्रतिलिपि प्राप्त करने में बड़ी कठिनाइयाँ पड़ । उनको यहाँ वर्णन करने से कुछ लाभ नहीं; केवल इतना ही कहना अलम् है कि हमारे पंडित जी महाशय को इस कार्य के निमित्त जयपुर में ३ महीने १० दिन लग गए। इस अवसर में उन्होंने जयपुर के कई प्रतिष्ठित महानुभाव से परिचय प्राप्त किया, और अन्य पुस्तकों का भी पता लगाया। इस खोज में उन्हें अनेक पुस्तकें दृष्टि-गोचर दुईं। उनमें से जो विशेष महत्वपूर्ण समझी हैं, उनकी प्रतिलिपियाँ भी वह ले अाए । जयपुर के जिन सत्रों से डित जी ने परिचय प्राप्त किया, उनमें से मुख्य मुख्य ये हैं ________________
बिहारी-रत्नाकर (१) राय बहादुर वावु अविनाशचंद्र सेन सी० आई० ई०, मॅवर कोसिल तथा प्राइवेट सेक्रेटरी महाराजा साहव बहादुर, (२) ठाकुर श्रीनंदकिशोरसिंह साहब, रईस और मैंबर कौंसिल, (३) राय वहादुर श्री पं० गोपीनाथ जी पुरोहित एम० ए०, सी० आई० ई०, (४) श्री पं० हरनारायण जी पुरोहित बी० ए०, दारोगा ड्यौदी रनिवास, (५) श्रीयुत बालदत्त जी खवास ॥ ये सब महाशय बड़े सज्जन तथा विद्याव्यसनी हैं। इन्होंने हमारे पंडित जी को अनेक सहायताएँ पहुँचाईं, जिनके लिए हम उनके हृदय से कृतज्ञ हैं ॥ इन महानुभावों के अतिरिक्त कई सहृदय कवि-कोविदों से भी हमारे पंडित जी को सहायता मिली । उनमें से मुख्य ये हैं (१) महामहोपाध्याय श्री पं० दुर्गाप्रसाद जी द्विवेदी, मुख्याध्यापक राजकीय पाठशाला, (२) श्री पं० रामनारायण जी मिश्र, अध्यापक महाराजा कॉलेज, (३) श्री पं० गौरीदत्त जी कवि, (४) श्री विनोदीलाल जी कवि, (५) श्री पं० मथुरानाथ जी कवि ॥ इन विद्वद्वरो के भी हम कृतज्ञ हैं । जो पुस्तकें हमारे पंडित जी जयपुर से लाए, उनमें बिहारी के किसी शिष्य की लिखी हुई सतसई की एक प्रतिलिपिभर है। श्री रामसिंह जी के राज्यकाल में 'सम्राट जी' नाम के एक राजगुरु थे। विहारी के किसी शिष्य ने, सं० १७३९ में, सतसई की एक प्रति लिख कर उन्हें अर्पित की थी । उसकी एक प्रतिलिपि संवत् १८०० के भाद्र-कृष्ण ३० चंद्रवार की लिखी हुई इस समय जयपुर के निजी पुस्तकालय में विद्यमान है । उसी की प्रतिलिपि हमारे पंडित जी ले आए हैं। संवत् १८०० की लिखी हुई इस सतसई के अंत में, उड़े हुए से अक्षरों में, कुछ लिखा है, जिसका अभिप्राय यह है कि यह पुस्तक व्रह्मपुरी के राजगुरु की संवत् १७३६ की प्रति से लिखी गई है, जिसे बिहारी के शिष्य ने लिख कर गुरु जी को दिया था, पर शोधने को रह गई है ॥ . इस पुस्तक के बीच बीच में किसी किसी शब्द के ऊपर अथवा पार्श्व में कुछ उर्दू अक्षरों में लिखा है, किंतु उड़ जाने के कारण स्पष्ट पढ़ा नहीं जाता। प्रतीत होता है, कहाँ कहीं शब्दार्थ लिखा गया है ॥ इस शिष्य वाली पुस्तक में भी दोहों का पूर्वापर क्रम वही है, जो रत्नकुंवरि जी वाली पुस्तक में । केवल ५-७ दोहों में स्थानांतर दिखलाई पड़ता है, और २२ दोहे, जिनमें प्रायः भगवत्-संबंधी कविता है,और जो इस क्रम की अन्य पुस्तकों में बीच बीच में आए हैं, इस पुस्तक के अंत में रक्खे हुए मिलते हैं। रत्नकुंवरि वाली पुस्तक से इसमें ये ५ दोहे न्यून हैं संपति केस, सुदेस, नर नमत दुहुँनु इक बानि । विभव सतर कुच, नीच नर, नरम थिभव की हानि ॥ १ ॥ ________________
प्राक्कथन औधाई सीसी सु लखि विरह-वरत बिललात । बीचहिँ सुखि गुलाब गौ, छटो छुई न गात ॥ २ ॥ सीस-मुकट, कटि-काछनी, कर-मुरली, उर-माल । इहिँ बानक मो मन सदा बसौ बिहारी लाल ॥ ३ ॥ एरी, यह तेरी, दई, क्यै हैं प्रकृति न जाइ । नेह-भरें हिय राखियै, तउ रूखियै लखाइ ॥ ४ ॥ हुकुमु पाइ जयसाहि कौ, हरि-राधिका-प्रसाद । करी बिहारी सतसई भरी अनेक सवाद ॥ ५ ॥ ६८९ दोहों के पश्चात् इस प्रति में ७३ दोहे ऐसे दिए हैं, जो इस क्रम की और किसी प्रति में नहीं मिलते, और बिहारी-रचित भी प्रतीत नहीं होते । वे बिहारी-रत्नाकर के द्वितीय उपस्करण में दे दिए गए हैं । इन दोनों पुस्तकों के अतिरिक्त एक पुस्तक संवत् १७७२ की लिखी हुई भी हमारे पंडित जी जयपुर से, किसी अन्य कवि से, ले आए । यह उदयपुर-प्रांत के बेलागाछीनिवासी मानसिंह कवि की टीका-समेत है। खेद की बात है, इसमें आदि के कुछ पत्रे नहीं हैं, जिस से २५० दोहों की टीका इसमें नहीं मिलती। पर जो दोहे इसमें हैं, उनका पूर्वापर क्रम ठीक वही है, जो रत्नकुंवरि जी वाली पुस्तक मैं ॥ यों ते जयपुर तथा अन्यान्य स्थानों से सतसई की कितनी ही मुल तथा सटीक प्रतियाँ प्राप्त हुईं, पर ऊपर कही हुई पाँच प्रतियों से प्राचीनतर प्रति हमारे देखने में नहीं आई। इनके अतिरिक्त सतसई की एक और सटीक प्रति भी हमें अभी थोड़े दिन हुए, विहारी-रत्नाकर का मुख्य भाग छप जाने के पश्चात् मित्रवर श्रीयुत पं० दुलारेलाल जी भार्गव के द्वारा, जयपुर-निवासी श्रीयुत पं० हनूमान् शर्मा जी से प्राप्त हुई है । हमारे अनुमान से बिहारी-सतसई पर यही सबसे पहली टीका है । इसमें भी ५-७ दोहों को छोड़ कर शेष दोहों का पूर्वापर क्रम वही है, जो रत्नकुँवर जी वाली पुस्तक में ॥ । | इन पाँच प्रतियों में दोहों का पूर्वापर क्रम प्रायः एक ही सा दृष्टिगोचर होता है। और ये हैं भी बहुत प्राचीन, अतएव यह अनुमान करना युक्तियुक्त ही है कि यही क्रम बिहारी की दोहा-रचना का है, और उन्होंने अपनी सतसई इसी क्रम में छोड़ी । यदि बिहारी ने अपनी सतसई में दोहों का कोई साहित्यिक अथवा अन्य प्रकार का क्रम बाँध दिया होता, तो फिर उन्हें इस प्रकार घालमेल करके क्रमहीन कर देने को न तो किसी को साहस ही होता, और न कोई आवश्यकता ही रहती । अस्तु । सतसई का जो क्रम पहले पहल कोविद कवि ने संवत् १७४२ मैं लगाया, उसके अंत में यह दोहा लिखा है किए सात सौ दोहरा, सुकबि बिहारीदास । बिनहिँ अनुक्रम ए भए, महि-मंडल सुप्रकास ॥ . इससे भी बिहारी का अपनी सतसई को विना किसी विशेष क्रम है। के छोड़ जाना सिद्ध होता है, और यही वात पुरुषोत्तम जी के इस दोहे से भी व्यजित होती है ________________
बिहारी-रत्नाकर जद्यपि है सोभा सहज मुकतनि, तऊ सु देखि । गुहै” ठौर की ठौर तैलर मैं” होति बिसेखि ॥ बिहारी के अपनी सतसई को इसी क्रम में बिना किसी विशेष क्रम लगाएछोड़े जाने के कारण अनेक कवियों तथा टीकाकारों ने अपने अपने मत के अनुसार उसके क्रम बाँध लिए। इनका विवरण भूमिका में यथास्थान होगा। | बिहारी-रत्नाकर में इन्हीं पाँच प्रतियों के आधार पर दोहों के पूर्वापर क्रम, पाठ तथा संख्या का निर्धारण किया गया है। इसका विशेष विवरण भी भूमिका में दिया जायगा । उल्लेख की सरलता के अभिप्राय से ये पुस्तकें १, २ इत्यादि संख्याओं के नाम से विशिष्ट कर दी गई है । रामसिंह जी वाली पुस्तक के निमित्त १, बिहारी के शिष्य वाली प्रति के निमित्त २, मानसिंह जी की टीका वाली पुस्तक के निमित्त ३, गिरधरलाल जी वाली प्रति के निमित्त ४ और रत्नकुवरि जी वाली प्रति के निमित्त ५ संख्या मानी है। बिहारी-रत्नाकर में, पाद-टिप्पणियों में, इन्हीं संख्याओं का प्राकेट में उपयोग किया गया है। बिहारी-रत्नाकर का क्रम | जैसा ऊपर कहा जा चुका है, हमारी पाँचों प्राचीन पुस्तकों में दोहों का पूर्वापर क्रम प्रायः एक ही सा है—केवल दो चार दोहों के स्थानों में कुछ भेद पाया जाता हैं। ३ तथा ५ अंकों वाली पुस्तकों के क्रम तथा संख्या सर्वथा एक ही हैं, और १ अंक की पुस्तक में जो ४९३ दोहे हैं, उनका पूर्वापर क्रभ भी उनके अनुसार ही है। अतः बिहारीरत्नाकर के दोहों की संख्या तथा क्रम के निमित्त तृतीय तथा पंचम पुस्तकें ही आधारभूत मानी गई हैं । परंतु प्राचीन प्रतियों से बिहारी का अपने क्रम में दस दस अथवा बीस बीस पर एक एक भगवत्-संबंधी अथवा नीति-विषयक दोहा रखना अभीष्ट समझ कर, जहाँ जहाँ इन स्थानों से उक्न प्रकार के दोहे कुछ विचलित मिले, वहाँ वहाँ उनके स्थान, अपनी बुद्धि के अनुसार, हमने ठीक कर दिए हैं । किंतु संभव है, जिस स्थान पर हमने कहीं दूर का कोई दोहा स्थापित किया है, वहाँ के निमित्त बिहारी ने कोई अन्य दोहा सोचा हो । अतएव यह दिखलाने के nिए कि किस किस दोई में स्थान-परिवर्तन किया गया है, हमने पहले उपस्करण में एक कोष्ठ तीसरी पुस्तक ( मानसिंह जी की टीका घाली प्रति ) का भी रख दिया है ।। । यद्यपि बिहारी ने सतसई में दोहों का पूर्वापर क्रम तो वही रहने दिया, जिस क्रम से उनकी रचना हुई थी, तथापि, जैसा हम ऊपर कई आए हैं, प्राचनि पुस्तकों के देखने से भासित होता है कि उनके हृदय में इतना क्रम स्थापित करने की अभिलाषा अवश्य थी कि प्रति दस दस अथवा बीस बीस दोहों के पश्चात् एक एक भगवत्-संबंधी अथवा नीतिविषयक बोहा रहे । बनाते समय भी उन्होंने इस बात पर ध्यान रखा था, और रचना-ल में, भाचों के उद्गार के कारण, जहाँ जहाँ वे इस बात को न कर सके, वहाँ वहाँ उन्होंने उसकी पूर्ति ग्रंथ समाप्त होने पर कर दी, अर्थात् जहाँ जहाँ दस दस अथवा बीस बीस पर भगवत्-संबंधी अथवा नीति-विषयक दोहे नहीं पड़े, वहाँ वहाँ नए दोहे बना कर ________________
प्राक्कथन अथवा अन्य स्थानों से उठा कर रखने का प्रयत्न किया । इस कार्य में, जात होता है, उन्हेंने ऐसे अधिकांश दो को तो अपनी चौपतिया के पाश्र्व भाग में, जिन स्थानों पर ऐसे दोहे स्थापित होने चाहिए थे, उनके सम्मुख लिख दिया, और किसी किसी दोहे के सामने केवल वह संख्या लिख दी, जिस पर उस दोहे का रखन' अभीष्ट था । चौपतिया की प्रतिलिपि उतारने वाले ने उन दोहों को, जे पार्श्व भाग पर लिखे थे, बिहारी का अभिप्राय न समझ कर, कहाँ कहाँ उचित स्थान से दो एक संख्या आगे पीछे लिख दिया, और जिन दोहों के सामने थे अंक मात्र लिखे थे, जिन पर वे दोहे जाने चाहिए थे, उनको प्रमाद से जहाँ का तहाँ रहने दिया, अर्थात् अभीष्ट स्थान पर नहीं रक्खा । इन चुक में पहली चुक का कारण तो यह अनुमानित हो सकता है कि पार्श्व भाग में लिखे हुए दोहे एक ही दोहे के सामने नहीं समा सकते, वरन् तीन चार दोहा के सामने पड़ जाते हैं, अतः ऐसे किसी लेखक का, जिसे इस बात का भान न रहा हो कि पाश्र्व भाग पर ये दोहे किस स्थान पर रखने के अभिप्राय से लिख दिए गए हैं, उनका उचित अंकों के दो चार अंक अगे पीछे समावेश कर देना पूर्णतया संभव और स्वाभाविक ही है । ऐसी चूक के उदाहरण ११, ४१, ६१, ७१, ६१ इत्यादि अंकों के दोहों में दृष्टिगोचर होते हैं, जो ३ तथा ५-संख्यक पुस्तक में १०, ४२ ६२, ६६, ८७ इत्यादि अंक पर लिखे मिलते हैं। दूसरी चूक का कारण लेखक का पाश्र्वअंकों पर ध्यान न देना, या उनका अभिप्राय न समझना अथवा, यदि कोई दोहा पछे से अगे आया है त, उसे पीछे वाले दहे के सामने के अंक का, उचित स्थान के आसपास के दोहाँ के लिखते समय, न देखना प्रतीत होता है । ऐसे चूक के उदाहरण १२१, १३१, १८१, २६१४०१ इत्यादि अंकों के दोहाँ में दिखाई देते हैं, जे ३ तथा ५ अंकों की पुस्तकों में ५२, ११७, १६२, २१६, ३६८ इत्यादि अंकों पर हैं ॥ | बिहारी-रत्नाकर में दो की संख्या । मानसिंह वाली टीका अर्थात् हमारी तीसरी प्राचीन प्रति मैं ७१३ देहे मिलते हैं, और अंत में टीकाकार ने स्पष्ट रूप से लिख भी दिया है कि सतसई में ७१३ दोहे हैं । रत्नकुँवर वाली पुस्तक अर्थात् पाँचवाँ प्राचीन प्रति में भी ये ही ७१३ दोहे देखने में आते हैं । बिहारी के शिष्य वाली प्रति अर्थात् दूसरी प्राचीन प्रति में इन ७१३ दोहों में से ११७, ३०१, ६०४ और ७१३ अंकों के दोहे नहीं हैं ।पर इनमें से ११७तथा ३०१ अंकों के दोहे ते अन्य प्राचीन प्रतियों में विद्यमान है, और ६०४ अंक वाला देह तीसरी, चौथी तथा पाँचवी पुस्तकों में उपलब्ध है, और पहला प्रति में केवल ४६३ तक दो हैं, अतः उसमें भी इसकी उपस्थिति मान लेना असंगत नहीं है । अब रहा ७१३ अंक वाला दोहा । यह चौथे अंक की पुस्तक में भी नहीं है। पर कृष्णलाल की गद्य टका वाली प्रति में, जिसका कथन ऊपर हो चुका है, यह ७१३ ही अंक पर पाया जाता है, अतः इसकी उपस्थिति दो सटीक प्रतियों तथा एक मूल प्रति में है। इसके अतिरिक्त पहले अंक की प्रति में इसकी उपस्थिति तथा अनुपस्थिति, दोनों संदिग्ध हो । सटीक पुस्तके सामान्यतः मूल पुस्तकों से अधिक प्रामाणिक मानी जाती हैं, अतः इस ७१३ अंक वाले दोहे को बिहारी-कृत मानना समीचीन प्रतीत ________________
बिहारी-रत्नाकर होता है।२ अंक की पुस्तक में जा ७३ दोहे अधिक हैं, वे इनमें से अन्य किसी प्राचीन प्रति में नहीं मिलते, और न वे अपनी रचना प्रणाली ही से विहारीकृत प्रतीत होते हैं। चौथे अंक की प्रति में ४६४, ४६८ और ५६३ से ले कर ५६६ तक एवं ७१३ अंक के दोहे नहीं हैं। इनमें से ५६३ से लेकर ५६६ अंकों तक के दोहों के न होने के विषय में तो यह प्रतीत होता है। कि लेखक ने जिस प्रति से लिखा, उसका एक पृष्ठ का पृष्ठ भूल से छोड़ दिया; क्योकि ये दोहे अन्य सब प्राचीन प्रतियों में मिलते हैं । ४६४ तथा ४९८ अंकों के दोहे बिहारी के प्रसिद्ध दोहे हैं, और प्रायः सतसई की सभी प्रतियों में प्राप्त होते हैं । अतः इनके इस प्रति में छुट जाने का कारण लेखक का प्रमोद मात्र मानना संगत है ; और, ७१३ अंक के दोहे के विषय में ऊपर लिखा जा चुका है। इस प्रति में ये दो दोहे विहारी-रत्नाकर से अधिक हैं मान बुटैगौ मानिनी, पिय-मुख देखि उदोतु । जैसै लागै घाम के पाला पानी होतु ॥ ७ ॥ प्यौ थिचुरत तन थकि रह्यो, लागि चल्यो चितु गेल । जैसे चीर चुराइ लै, चलि नहिँ सकै चुरेल ।। ४६ ॥ पर ये दोनों दोई न तो हमारी किसी अन्य प्राचीन प्रति ही में मिलते हैं, और न बिहारी की रचना ही से टक्कर खाते हैं, अतः इनको विहारीकृत मानना समीचीन नहीं भात होता । ऊपर लिखे हुए कारणों से विहारी-रत्नाकर में वे ही ७१३ दोहे स्वीकृत किए गए हैं, जो मानसिंह वाली टीका तथा रत्नकुँवर जी वाली प्रति अर्थात् हमारी तीसरी तथा पाँचवी पुस्तकों में हैं ॥ बिहार-रत्नाकर का पाठ-संशोधन दोहों के पाठ शुद्ध करने में हमको बड़ा श्रम उठाना पड़ा । प्रत्येक दोहे के पाठ का मिलान पाँच प्राचीन प्रतियों से करने के अतिरिक़ जो शब्द सतसई में अथवा अन्यान्य प्रजभाषा-ग्रंथों में कई कई रूपों में लिखे मिलते हैं, उनके विहारी-स्वीकृत रूप । निर्धारित करने में बहुत समय व्यय हुआ, और बड़ी कठिनाई उठानी पड़ी । जैसे 'नॅक' शब्द प्रजभाषा की अन्यान्य पुस्तकों तथा सतसई की अनेक प्रतियों में ‘नेक', 'नैक', 'नॅक' तथा 'नेकु' रूपों में लिखा मिलता है । इसका विहारी-स्वीकृत रूप स्थिर करने के लिये पहले तो यह निर्धारित किया गया कि सतसई भर में यह १५ दोहों में आया है, और उनके अतिरिक्त ४ दोदों में यह 'नॅक' के रूप में मिलता है । पहली पुस्तक में केवल ४९३ दोहे हैं, अतः उसमें यह शब्द बारह दोहों में आया है। इनमें से आठ दोहों में तो यह ‘नैक' रूप में लिखा है, और चार दोहों में 'नैक' रूप में। दूसरी पुस्तक में यह एक स्थान पर 'नैक', दस स्थानों पर 'नैंक', दो स्थानों पर 'कु' तथा दो स्थानों पर 'नैन' के रूप में मिलता है। तीसरी पुस्तक में आदि के २५० दोहे खंडित है, अतः उसमें यह शब्द केवल छ दोहा में आया है। उनमें से एक दोहे में 'नेक',एक में नैक तथा चार में 'नॅक' रूप में हैं। चौथी पुस्तक में यह एक स्थान पर 'नेकु' तथा चौदह स्थानों पर 'नेक'लिंखा मिलता है। पाँचवाँ : पुस्तक में इसका रूप छ स्थानों पर 'नॅक' और नव स्थान पर 'नेक पाया जाता हैं ॥: . ________________
प्राक्कथन यहाँ यह कह देना आवश्यक है कि हमारी प्राचीन प्रतियों में से भी परली तथा दूसरी प्रतियाँ विशेष प्रामाणिक तथा शुद्ध हैं । अतः शब्दों के रूप-निर्धारण में विशेषतः इन्हीं से सहायता ली गई है। इन दोनों पुस्तकों को मिला कर ६ स्थान पर इसका पाठ 'नैक', १४स्थानों पर 'नॅक' और दो दो स्थानों पर नंकु' तथा नॅन' मिलता है। अतएव सतसई में प्रयोगाधिक्य के विचार से इस शब्द का 'नॅक' पाठ ही ठीक ठहरता है । फिर इस बात पर विचार करने से भी कि यह शब्द संस्कृत शब्द ईषदर्थवाचक 'न' में 'क' प्रत्यय लगा कर बना हुआ प्रतीत होता है, इसका नैक' रूप शुद्ध जचता है । इसका कई ‘नेक', कहीं नैक' इत्यादि लिखना लेखकों की असावधानी मात्र है। अब रह गया इस बात पर विचार करना कि नक' तथा 'नैकु' रूपों में कौन विशेष ग्राह्य है । इसके विषय में यह वक्तव्य है कि प्राचीन प्रतियों के किसी किसी दोहे में यह शब्द उकारांत लिखा मिलता है, और ब्रजभाषा की अन्यान्य पुस्तकों में भी कहीं कहीं यह उकारांत ही दिखाई देता है। इस का कारण यह प्रतीत होता है कि यह शब्द प्रायः क्रियाविशेषणवत् ही प्रयुक्त किया जाता है, और ऐसे क्रियाविशेषण संस्कृत में कर्मकारक रूप में रखे जाते हैं । अपभ्रंश तथा प्राचीन साहित्यिक प्रजभाषा में अकारांत पुंलिंग शब्द के कर्मकारक का एकवचन रूप उकारांत होता था, अतः 'नॅक' शब्द का, उसके क्रियाविशेषण होने की अवस्था में, उकारांत प्रयोग समीचीन है। इसी विचार से ऐसे अवसरों पर उसका पाठ'नकु' रखा गया है । पर जहाँ वह क्रियाविशेषण-रूप से नहीं आया है-जैसे ७९ अंक के दोहे में-वहाँ वह अकारांत ही रक्खा गया है ॥ | इसी प्रकार सतसई की प्राचीन प्रतियों तथा ब्रजभाषा के अन्यान्य ग्रंथों में अनेक अकारांत शब्दों को कहाँ अकारांत तथा कहाँ उकारांत लिखा पा कर जैसे स्याम, रूप इत्यादि तथा स्यामु, रूपु इत्यादि-इस बात के निर्णय की आवश्यकता पड़ी कि उकारांत लिखने की प्रथा किसी सिद्धांत पर निर्भर है, अथवा कवि तथा लेखक की रुचि की अनुसारिणः । पाँच प्रतियों के ऐसे उकारांत लिखे हुए शब्दों की जाँच करने पर ज्ञात हुआ कि ऐसा उकार एकवचन शब्दों ही में लगाया गया है । इसके अतिरिक़ यह भी निर्धारित हुआ कि वे शब्द पुलिंग कर्ताकारक अथवा कर्मकारक हैं । यद्यपि किसी किसी प्रति में कहाँ कहाँ कर्ता तथा कर्मकारों के अतिरिक्त अन्य प्रकार के कोई कोई शब्द भी उकारांत लिखे दृष्टिगोचर हुए, पर उनकी संख्या इतना न्यून है कि वे परिगणनीय नहीं । उनके लेख में लेखक का प्रमादि मात्र मानना ही समुचित प्रतीत हुआ । प्रथम तथा द्वितीय पुस्तकों में तो यह लेख-प्रणाली भली भाँति निबाही गई है, केवल परिगणित स्थानों पर यथेष्ट उकार लगा नहीं निकलता, जो कि लेखक की असावधानी मात्र कही जा सकती हैं। तृतीय पुस्तक में और भी अधिक उकार छोड़ दिए गए हैं, और चतुर्थ तथा पंचम पुस्तक में बहुत अधिक। पर यह बात ध्यान देने की है कि जिन जिन स्थानों पर प्रथम अथवा द्वतीय पुस्तक में उकार छूट गया है, उनमें से कितने ही स्थानों पर तृतीय, चतुर्थ अथवा पंचम पुस्तक में वह लंगा मिलता है । अतः सय मिला कर जाँच करने से ऐसे स्थान बहुत ही कम रह जाते हैं, जहाँ पाँचौं पुस्तकों में से किसी में यथेष्ट स्थगन पर उकार न लगा हो । इस जाँच है यह बात सिद्ध हुई कि बिहारी ने एक विशेष प्रकार के अकारांत पुंलिंग शब्द के कर्ता ________________
३६ बिहारी-रत्नाकर तथा कर्मकारक * एकवचन का प्रयोग उकारांत रूप में किया है, और इस नियम का निर्वाह उन्होंने, केवल दोहों के मध्य ही में नहीं, जहाँ कि अकारांत को उकारांत अथवा उकारांत को अकारांत लिखने में कोई बाधा नहीं पड़ती, प्रत्युत तुकांतों में भी किया है, जहाँ अंन्यानुप्रास लेख-प्रणाली को स्वेच्छाचारिणी नहीं होने देता, जैसा कि ११८, ६२५, ६७५ इत्यादि अंकों के दोहों से विदित होता है । सतसई में इस नियम का निरीक्षण करने पर इस बात पर ध्यान गया कि अपभ्रंश में भी उसी प्रकार के अकारांत पुंलिग तथा नपुंसकलिंग शब्दों के कता तथा कर्मकारक के एकवचन रूप उकारांत होते थे। अतः ऐसे रूपों को इस संस्करण में उकारांत स्वीकृत करना समुचित समझा गया, और तदः नुमार वर्तमानकालिक कृदंत के एकवचन के रूप की भी जॉच करके वह भी उकारांत ही स्वीकृत किया गया, जैसे-१० अंक के दोहे में 'रहतु, २७ अंक के दोहे में 'बेधतु, ३६ अंक के दोहे में 'आवतु' इत्यादि । इस उकारांत-प्रथा के ग्रहण करने में इस बात को भी विचार कर लिया गया है कि ऐसे पाठ मे पुस्तक भर में कहाँ पाठ-साम्य में बाधा नहीं पड़ सकनी, प्रन्युन विना इस परिपाटी के ग्रहण किए पाठ-साम्य स्थापित नहीं हो सकता ॥ सामान्यकारक के बहुवचन को रुप, सतसई की भिन्न भिन्न प्रतियों में, कहाँ इकारांत और कहीं उकारांत देखने में आता है, जैसे-दृगनि, दृगनु, भागनि, भागनु इत्यादि। कहाँ कहाँ ऐसे शब्द अकारांत लिखे हुए भी मिलते हैं, जैसे-दृगन, भागन इत्यादि । हमारी प्रथम प्राचीन पुस्तक में, जैसा कि ऊपर कहा गया है, केवल ४६३ दोहे हैं। उनमें ऐसे शब्द अनुमान से १३०-१३५ स्थानों पर आए हैं। उनमें से २८-३० स्थानों पर तो वे अकारांत लिखे हैं, ४ स्थानों पर इकागंन तथा शेष स्थान पर उकारांत । अकारांत रूपों के विषय में तो यह कहा जा सकता है कि लेखक की असावधानी से उनमें उकार लगाना रह गया है, और इकारांत रुप इतने कम हैं कि उनको भी लेखक का प्रमोद मानना ही समुचित है । अतः प्रथम पुस्तक के अनुसार सनसई में ऐसे कपों का उकारांत प्रयोग सिद्ध होता है। द्वितीय पुस्तक में ऐसे शब्द अनुमान से २६ स्थानों पर अकारांत, १७ स्थानों पर उकारांत तथा १३६ स्थानों पर इकारांना मिलते हैं । अतः इस पुस्तक के अनुसार ऐसे शब्दों का इकारांत होना कहा जा सकता है। तृतीय पुस्तक में ऐसे शब्द ३१ स्थानों पर अकारांत, ४० स्थानों पर प्रकारांत तथा ५६ स्थानों पर उकारांन हैं, और चतुर्थ पुस्तक में ६६ स्थानों पर अकारांत, ३६ स्थानों पर इकारांत तथा ८१ स्थानों पर उकारांत हूँ। पाँचव पुस्तक में ऐसे शब्द ८१ स्थानों पर अकारांत, ३१ स्थानों पर इकारांत तथा ७४ स्थानों पर उकारांत हैं । पाँचों पुस्तकों को मिला कर ऐसे शब्द २२३ स्थानों पर अकारांत,२५० स्थानों पर इका त तथा ३२८ स्थानों पर उकारांत ठहरते हैं *। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि जो शब्द एक प्रति में इकारांत लिस्था मिलता है, वह अन्य प्रति में उकारांत दिखाई देता है।
- स्थान की संख्याएँ को दी गई हैं, उनकी जाँच भली भाँति नहीं की गई है। अतः संभावंता है कि इनमें दो एक संस्थाओं की भूल हो । पर जो निकर्ष उनसे निकाला गया है, उसमें इस अस्प भूख से किसी भी की संभावना नहीं है। ________________
মাথন अतः ऐसे शब्द बहुत न्युन रह जाते हैं, जो अधिक प्रतियों में इकारांत लिखे हों, और ऐसे बहुत अधिक, जो अधिकांश प्रतियों में उकारांत । इस गणना से भी सतसई में ऐसे रूपों का पाठ-साम्य के अनुरोध से उकारांत ही स्वीकृत करना समीचीन प्रतीत हुआ । इसके अति रिक पाठ-साम्य की दृष्टि से विचार करने पर ऐसे शब्दों के अकारांत तथा इकारांत रूप का निर्वाह सतसई भर में होता दिखाई नहीं दिया, जैसे-६७५, ४२६ इत्यादि दोहों में। पर उनके उकारांत रूप रखने में कहीं कोई बाधा नहीं पड़ी, अतः सतसई भर में ऐसे शब्द उकारांत ही रखे गए हैं। केवल दो एक स्थानों पर वे असावधानी से इकारांत छप गए हैं, और ३२०-संख्यक दोहे में ‘दृगनि' शब्द जान बूझ कर इकारांत छोड़ दिया गया है, जिस का कारण टीका में दिखा दिया गया है। पर हमारी समझ में उसको भी पाठ-साम्य के अनुः रोध से ‘दृगनु' ही होना युक्र है ॥ | कारणचक ऐसे शब्द, जैसे–चलें, परें, क्रीन, लखें इत्यादि, जिनका अर्थ, चलने से, चलने में, चलने पर इत्यादि होता है, सतसई तथा प्रजभाषा के अन्यान्य ग्रंथों में कई रूप से लिखे दिखाई देते हैं। इनके बिहारी-स्वकृत रूपों के निर्धारित करने के निमित्त भी पाँचों प्रतियों में आए हुए रूपों की संख्याओं की जाँच की गई, और अनुप्रास में आए हुए ऐसे रुपों पर भी विचार किया गया, जैसे १८४ अंक के दोहे के ‘क’ शब्द पर। इन अनुसंधानों से ऐसे शब्दों का 'चलें, परै' इत्यादि रूप स्वीकृत करना युक्त प्रतीत हुआ । फिर ऐसे रूपों की व्युत्पत्ति पर विचार किया गया, तो ज्ञात हुआ कि ये रूप संस्कृत के क्रियार्थक संशा ‘चलन', 'पतन' इत्यादि अथवा भूतकालिक कृदंत 'चलित', 'पतित' इत्यादि के सामान्यकारक के रूप के-अर्थात् 'चलनहिं, पतनहिँ' अथवा 'चलितह, पतितहि' इत्यादि के-रुपांतर मात्र हैं, जो करण-कारक के अर्थ में प्रयुक्त किए जाते हैं, जैसे संस्कृत के 'चलनेन, पतनेन' इत्यादि । 'चलनहिँ' अथवा 'चलितहिं” इत्यादि से चले' इत्यादि रूप उसी प्रकार बन जाते हैं, जैसे 'राम' से 'रामें' । ऐसे शब्दों के ‘चले’, ‘परें' इत्यादि रूप ही प्राय ठहरते हैं ॥ । बिहारी-रत्नाकर की पाठ-शुद्धि के निमित्त इसी प्रकार प्रत्येक शब्द के यथार्थ रूप पर यथाशक्ति भली भाँति विचार किया गया है, जिसके निदर्शनार्थ दो चार शब्दों की संशोधनविधि ‘स्थालीपुलोकन्याय' से ऊपर कथन कर दी गई है। यद्यपि पाठ की शुद्धि तथा साम्य में यथाशक्ति श्रम किया गया है, पर फिर भी कहीं कहीं असावधानी अथवा भ्रम से अशुद्धियाँ तथा पाठ-विषमताएँ रह गई है। कहीं उकार छूट गया है, तो कहीं अधिक लग गया है। कहीं हैं के स्थान पर 'ए' अथवा 'ए' के स्थान पर हैं' छप गया है, तो कहीं 'ए' के स्थान पर 'ये' अथवा 'ये' के स्थान पर 'ए' हो गया है, इत्यादि । यद्यपि ऐसी अशुद्धियों की संख्या अधिक नहीं है-वे उँगलियों पर गिनी जा सकती हैं, तथापि हम उनके निमित्त प्रिय पाठक से क्षमाप्रार्थी हैं। हमारा विचार था कि पुस्तकांत में एक शुद्धाशुद्ध पत्र लगा दिया जाय, पर फिर यह अचेत प्रतीत हुआ कि दूसरे संस्करण में फिर से और भी भली भांति विचार कर के पाठ-परिवर्तन किया जाय, इस संस्करण में जो कुछ है, वही रहने दिया जाय ॥ ________________
३० बिहार-रत्नाकर विहारी-रत्नाकर टीका इस ग्रंथ का टीका-भाग, सं० १९७८ के माघ मास से, श्री अयोध्यापुरी में, आरंभ हो कर संवन् १९७६ भाद्रपद की ऋषि-पंचमी को, हमारी ५६वीं वर्षगाँठ के दिन, कश्मीरप्रांत के निशानबाग-नामक स्थान में समाप्त हुआ । | पहले हमारा विचार था कि इस टीका में प्रत्येक दोहे पर साहित्य के सब अंगअलंकार, लक्षणा, व्यंजना, ध्वनि इन्यादि-भी लिखें । पर अवकाशाभावात् उफ़ संकल्प के पूरे होने में बहुत दिनों की आवश्यकता थी । अतः हमारे कई सज्जन मित्रों ने सम्मति दी कि इस ग्रंथ का प्रथम संस्करण केवल दोहों की पाठ-शुद्धि कर के तथा अर्थ मात्र दे कर प्रकाशित कर दिया जाय; क्योंकि पाठ-शुद्धि तथा अर्थ ही पर अलंकारादि निर्भर रहते हैं। उनके अनुरोध तथा सम्मति से हमने भी ऐसा ही करना उचित समझा, जिसमें जो श्रम हो चुका है, वह दृथा न जाय । यदि अवकाश प्राप्त हुआ, और इस ग्रंथ के पुनः संस्करण का अवसर आया, तो यथासंभव कुछ साहित्यिक विषय भी प्रेमी पाठकों की सेवा मैं उपस्थित किए जायेंगे । | इम टीका में विशेषतः इस बात का ध्यान रखा गया है कि पाठकों की समझ में शब्दार्थ तथा भावार्थ भली भाँति आ जायें । दोहे के शब्दों के पारस्परिक व्याकरणिक संबंध तथा कारक इत्यादि के, स्पष्ट रूप से, प्रकट करने का भी यथासंभव प्रयत्न किया गया है। प्रत्येक दोहे के पश्चात् उसके कठिन शब्दों के अर्थ दे दिए गए हैं, और फिर उस दोहे के कहे जाने का अवसर, वझा, बोधव्य इत्यादि, 'अवतरण' शीर्षक के अंतर्गत, बतलाए गए है । उसके पश्चात् 'अर्थ' शीर्षक के अंतर्गत दोहे का अर्थ लिखा गया है। अर्थ लिखने में जो कोई शब्द अथवा वाक्यांश कठिन ज्ञात हुआ, उसका अर्थ, उसके पश्चात्, गोल कोष्ठक में दे दिया गया है, और जिस किसी शब्द अथवा वाक्यखंड का अध्याहार करना उचित समझा गया, वह चौखूटे कोष्ठक में रख दिया गया है । जहाँ कहीं कोई विशेष यात कहने की आवश्यकता प्रतीत हुई, वहाँ वह टिप्पणी-रूप से एक भिन्न वाक्य-विच्छेद (पैराग्राफ़ ) मैं लिखी गई है ॥ पांचों प्रतियों के आवश्यक आवश्यक पाठांतर भो, दोहे के शब्दों पर १,२ आदि अक लगा कर, पाद-टिप्पणियों में दे दिए गए हैं। पाद-टिप्पणियों में जो अंक कोष्ठक के थाहर हैं, वे तो घे हैं, जो दोहों पर दिए गए हैं, और पाठांतर के पश्चात् जो अंक कोष्ठक में है, वे पाँच प्रतिरों के सांकेतिक अंक हैं॥ इस टीका में अधिकांश दोह के अर्थ अन्यान्य ! काओं से भिन्न हैं । उनके यथार्थ होने की विवेचना पाठकों की समझ, रुचि तथा न्याय पर निर्भर है ॥ हमारे विद्याभूषण पं० रामनाथ जी ज्योतिषी बिहारी-सतसई की अनेक प्रतियों के साथ बिहारी के एक चित्र की अनुकृति भी जयपुर से लाए हैं । उक्त चित्र किसी अतः में लगा हुआ है । उसका पता पंडित जी को संयेाग से लग गया, और उन्होंने अपने तथा उद्योग से उसकी अनुकृति प्राप्त कर ली । उसमें उस समर का दृश्य दिखलाया है, जब बिहारी ने “नहिं पराग, नएँ मधुर मधु” इत्यादि दोहा लिई कर महाराज जाँके
बिहारी-रत्नाकर
प्रायन पास भेजा था । अमेरगढ़ के विनायक-पौरि तथा उसके सामने के प्रशस्त चबूतरे का दृश्य उसमें दिखलाया गया है। बिहारी के चित्र उसमें दो जगह हैं। एक तो बिहारी के आते समय का चित्र है, जिसके पीछे खासे ढाल वाला एक मिरदहा, जो बिहारी को बुलाने गया था, खड़ा है, और सामने कोई राजकर्मचारी विहारी का स्वागत कर रहा है । दुसरे स्थान पर कतिपय और कर्मचारियों के साथ बिहार को बैठा हुआ: चित्र है। इसमें बिहारी उक्त दोहा लिख कर एक वर्षधर ( खोजे ) को देते हुए दिलाए गए हैं, और वह वर्षवर वह दोहा ले जा कर किसी दासी को दे रहा है । इस चित्र के विषय में जयपुर में यह कहा जाता है कि जब बिहारी के दोहे के प्रभाव से राजा नवोढ़ा रानी के प्रेम-पाश से मुक्त हो कर बाहर निकल आए, और अपना काम-काज करने लगे, तो चौहानी रानी ने प्रसन्न हो कर झा दी कि उस समय की घटना का ज्यों का त्ये चित्र बनाया जाय। यस, उसी प्रज्ञा के अनुसार उक्न चित्र तैयार किया गया । उसके नीचे के भाग में दोनों पाश्र्वो पर दो दो अंक लिखे हुए हैं, अर्थात् वाम पाश्र्व पर १६ तथा दक्षिण पाश्र्व पर १२। इन चारों अंके को मिला कर हम इसको विक्रम संवत् १६९२ अनुमानित करते हैं । उक्त चित्र बहुत बड़ा है । उसे छोटा कर के पुस्तक में देने योग्य बनवाने में बिहारी के चित्र के बहुत छोटे हो जाने की आशंका थी । अतः हमने उक्त चित्र में से केवल बिहारी का खड़ा चित्र अलग कर के बिहार-रत्नाकर में दे दिया है । मिज़ राजा जयशाह का भी एक चित्र पाठकों के अवलोकनार्थ इस पुस्तक में दिया गया है। यह वित्र भी हमारे पंडित जी जयपुर से लाए थे । | अब हम श्रीमान् महाराजाधिराज दरभंगा-नरेश, श्रीमान् महाराजाधिराज काशी-नरेश, श्रीयुत कर्नल विंध्येश्वरीप्रसाद सिंह सी० आई० ई० तथा स्वर्गवासी श्रीमान् महाराजाधिराज सवाई जयपुराधीश एवं जयपुर के उन सजनों को, जिनका नाम ऊपर कथन किया गया है, इस संस्करण की सामग्री एकत्र करने में सहायता पहुँचाने के निमित्त, अनेकानेक हार्दिक धन्यवाद देते हैं, और राजराजेश्वरी श्रीमती महारानी अवधेश्वरी की असीम कृतज्ञता स्वीकृत करते हैं, जिनके व्यय तथा उत्साह-प्रदान से यह टीका संपादित हो सकी। अपने वि० भू० पंडित श्री रामनाथ ज्योतिषी को भी हम, कष्ट उठा कर अनेक अमूल्य प्रतियाँ संग्रह धरने के निमित्त, साधुवाद का अधिकारी समझते हैं । माधुरी तथा गंगापुस्तकमाला के संपादक, हमारे मित्र श्री दुलारेलाल जी भार्गव ने इस ग्रंथ को प्रकाशित करने में बड़ा उत्साह प्रदर्शित किया, और इसके संशोधन में बहुत बड़ी सहायता दी, जिसके निमित्त हम उनको अनेकानेक धन्यवाद देते हैं, और इस संस्करण की भूल-चूक के निमित्त अपने सज्जन पाठक से क्षमा-प्रार्थना करके यह प्राक्कथन समाप्त करते है ॥ श्री राजसदन, अयोध्या श्री जगन्नाथदास भाद्र-कृष्णजन्माष्टमी, भौमवार, संवत् १९८२ वि॰ ।
( रत्नाकर ) ( तारीख ११ अगस्त, सन् १९२५ ई०) ) बिहारी-रत्नाकर के छप जाने पर हमारा विचार हुआ कि उसके साथ एक यथायोग्य भूमिका भी लगा दें, और हमने उसका लिखना आरंभ भी कर दिया । यद्यपि उसका अधिकांश तो लिख गया है, पर अवकाशाभाव से उसकी समाप्ति अभी तक न हो सकी, और इस समय कई कारणों से उसे पूरा करने का अवसर प्राप्त होना भी कठिन प्रतीत होता है । इधर बिहारी-रत्नाकर को छपे प्राय: डेढ़ वर्ष हो चुके हैं, और हमारे सज्जन मित्र तथा प्रेम पाठकगण उसे देखने की उत्कंठा प्रकट कर रहे हैं । इसके अतिरिक्त भूमिका का जितना भाग लिखा जा चुका है, उससे अनुमान करने पर स्वयं भूमिका ही एक स्वतंत्र ग्रंथ होने के निमित्त अलम् जान पड़ती है। अतः इस समय क्षमा-प्रार्थना के साथ केवल एक प्राकथन लगाकर बिहारी-रत्नाकर प्रकाशित कर दिया जाता है । आशा है, उसका भूमिका-भाग स्वतंत्र रूप में शीघ्र ही पाठकों की भेंट किया जायगा । श्रीअयोध्या फाल्गुन-कृष्ण १४ ( शिवरात्रि ), सं० १९८२ वि० जगन्नाथदास ( रत्नाकर )
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