बिहारी-रत्नाकर
बिहारी, संपादक जगन्नाथ दास रत्नाकर 'बी.ए.'

अमीनाबाद पार्क लखनऊ: गंगा-पुस्तकमाला कार्यालय, पृष्ठ २०६ से – २४८ तक

 

लटुवा ल प्रभु-कर-गहैं निगुनी गुन लपटाई । वहे गुनी-कर हैं छुटैं' निगुनीयै है जर ।। ५०१ ॥ निगुनी ( निर्गुणी )= ( १ ) गुण ( शता, कलाकौशल इत्यादि ) से विहीन मनुष्य । ( २ ) डॉग से रहित लट् ॥ गुन ( गुण ) = ( १ ) कलाकोशलादि गुण । ( २ ) लेट किराने की डोरी ॥ गुनी " ( गुणी )=(१) सर्वगुणसंपन्न ईश्वर । ( २ ) लढू फिराने की डोरी को धारण करने वाला ॥ ( अवतरण )-कवि की उक्ति है कि जिस पर ईश्वर की कृपा होती है, वह गुणहीन होने पर भी गुणी हो जाता है, और फिर वही गुणी, प्रभु की कृपा से वंचित होने पर, गुणहीन रह जाता है । इसी बात को कवि ईश्वर को लट्ट फिराने वाले की तथा मनुष्य को लट्ट की उपमा दे कर करता है| ( अर्थ )- लट्ट की भाँति प्रभु ( १. ईश्वर । २. लट्ट के स्वामी ) के हाथ में पकवृने ( १. सहायता करने । २. हाथ में लेने ) पर निर्गुणी ( १. गुणहीन मनुष्य । २. विना डोरी का लट्ट) गुण ( १. विद्वत्तादि । २. डोरी ) में लिपट जाता है ( १. अनेक प्रकार के शुभ गुणों से आच्छादित हो जाता है । २. डोरी में लिपट जाता है )। [ फिर ] वही गुणी ( १. ईश्वर । २. डोरी वाले) के हाथ से छूटने पर ( संसार में ] निर्गुणी ही ( १. शुभगुणहीन ही । २. डोरी से रहित ही ) हो जाता है ( १. माना जाता है। २. रह जाता है ) ॥ है हिय रहति हेई छई, नई जुगति जगे जोइ । दीठिहिँ दीठि लगैं, दई, देह दूरी होइ ।। ५०२ ॥ १. लागन ( २, ४) । २. उहे ( ३, ५ ) । ३. कुटो ( ४, ५) । ४. दई ( २ ) । ५. यह ( २ ) ६. लगें ( ३ ), लगा ( ४ ), लगे ( ५ ) । ७. बड़ी ( २ ) । ________________

बिहारी-रत्नाकर हुई-यह शब्द संस्कृत ‘हति' शब्द का अपभ्रंश-रूप है । 'हृति' का अर्थ विस्मय, भय, विवशता, निराशता इत्यादि होता है । यहाँ र.का अर्थ भय अथवा विस्मय है। किसी किसी ने, 'हई को अरबी शब्द ‘हयरत' का बिगड़ा हुश्रा रुप मान कर, बिहारी पर शब्दों के मरोड़ने का धप्पा धरा है । पर ‘हई' शब्द का प्रयोग बिहारी ने बिगाड़ कर नहीं किया है । यह शब्द अब भी-सामान्यतः अवध प्रांत में-भय के अर्थ में बोला जाता है, जैसे उस खेत में बंदरों की बड़ी हुई है। जुगति ( युक्ति ) = योजना विधि, रीति || जोइ = देख कर ॥ दीठि=( १ ) दृष्टि । ( २ ) कुदृष्टि । दुबरी= दुर्बल ।। ( अवतरण )-पूर्वानुरागिनी का वचन अंतरंगिनी सखी से. ( अर्थ )-जगत् में [ यह ] नई रीति देख कर दय में हुई ( विस्मय, भय ) छाई रहती है [ कि ] है दई, लगती तो दृष्टि को दृष्टि ( १. आँख से आँख । २. अख को कुदृष्टि ) है, [ पर ] दुबली देह होती है । | भय का कारण यह है कि जगत् में सामान्य ति तो यह है कि जिसको कुइष्टि लगता है, वही दुबला होता है, पर स्नेह-व्यापार मैं लगती तो दृष्टि की दृष्टि है, और दुबली देह होती है। जज्य उझकि झाँपति बदनु, झुकति बिहँसि, सतराइ । तत्य गुलाल-मुठी झुठी झझकावत यो जाइ ॥ ५०३ ॥ झाँपति = ढाँपती है ।। सतराइ= खिभला कर || झुठी= विना गुलाल-भरी ॥ झझकावत = डराता । ( अवतरण )- होली के खेल में नायक को गुलाल-भरी मूठ ताने हुए देख कर नायिका, आँखाँ मैं गुलाल पड़ने के भय से चौंक कर, पूँघट से मुख ढाँपती, झुक जाती, हँसती और खिझलाती है। नायक को उसकी यह चेष्टा ऐसी अच्छी लगती है कि वह उसको फिर फिर देखना चाहता है, अतः वह विना गुलात-भरी ही मूठ तान तान कर उसको डराता जाता है, जिसमें वह फिर फिर वही चेष्टा करे । विना गुलाल की मूठ वह इसलिए तानता है कि उसको भी अपनी परम सुकुमारी प्राणप्यारी की आखों में गुलाल पड़ने का भय है, और वह यह भी सोचता है कि यदि एक बार गुलाल अाखाँ मैं पछ जायगा, तो फिर वह निडर हो जायगी, और मेरी मूठ का तानना देख भी न सकेगी, अतः फिर मुठ तानने पर वह मनोमोहिनी चेष्टा न करेगी। सखी-वचन सखी से ( अर्थ )-[ हे सखी ! देख, कैसा सुंदर खल हो रहा है ] 'जज्यो' ( ज्यों ज्यों ) [ नायिका ] उझक कर (चीक कर) [ अपना ] वदन ( मुख ) ढाँपती है, [ तथा ] विचित्र प्रकार स हँस [ तथा ] खिभला कर भुक जाती है, 'तय' ( त्यों यों) ‘प्यौ' ( प्रियतम ) [ उसकी उस मनोहारिणी चेष्टा से रीझ कर ] गुलाल की झूठी मूठ से [ उसको ] झझकाता ( डराता ) जाता है [ जिसमें वह फिर फिर वैसी ही चेष्टा करे ] ॥ छिनकु, छबीले लाल, वह नहिँ जौ लँग बराति। ऊख, महुष, पियूष के तौ लागि भूख न जाति ॥ ५०४ ।। १. ज्यों य (४, ५)। २. ढाँपतिं ( २ ) । ३. यौं न्यौं ( ४, ५) | ४. १६य ( ४ ) ५, श्राइ ( २ )। ६. लगु ( ३, ४ }। ७, बतराइ ( २, ४) । ६, मयूष ( ३, ५) । ६. तर ( ३, ५ )।१०. आइ ( ३, ४ ) । २०८ विहारी-कर | मष= मधु, शहद ।। पियूष ( पीयूष )=अमृत ॥ (अवतरण)-तमधिराजवती मुग्धा नायिका की सली, मात्र से नायिका की वचनमाधुरी की प्रशंसा कर के, उसके हृदय में प्रीति उपजाती है। कहती है कि अभी खजा-वश वह तुमसे बोलती नीं, अतः तुमको उसकी वचन-माधुरी श अनुभव नहीं है, और इसी से तुम्हें ऊस, मधु एवं अमृत में माधुरी जान पड़ती है। पर जब वह क्षण भर भी तुमसे बातें करेगी, तो उसकी वचनमाधुरी के आगे ये सब पदार्थ तुमको फीके लगने लगेंगे | ( अर्थ ) है छबीले लाल, वह जब तक [ तुमसे ] क्षण मात्र बातें नहीं करती, तब तक [ तुम्हारी ] ऊख, शहद [ तथा ] अमृत की भूख (चाह ) नहीं जाती [ जहाँ उसने तुमसे दो दो बातें कीं, वहाँ तुम इन सबकी माधुरी भूल कर उसकी बातों ही की माधुरी के पान करने की लालसा में लीन रहने लगोगे अँगुरिनु उचि, भरु भीति है, उलंमि चितै चख लोल । रुचि सौं दुहुँ दुहुँनु के चुमे चारु कपोल ॥ ५०५ ॥ उलमि = झुक कर । लोल = चंचल ।। ( अवतरण )-उपपति नायक तथा परकीया नायिका के घरों के बीच में केवल एक भित्ति मात्र का अंतर है। किसी दिन अवसर पा कर दोनों ने अपनी अनी छत पर से उचक कर परस्पर कपोत्न का चुंबन किया । वही वृत्तांत कोई अंतरंगिनी सखी किसी अन्य अंतरागनी सखी से कहती है | ( अर्थ )-[ पांवों की ] उँगलियों पर उचक कर, भीति ( मुंडेर ) पर [ अपना अपना ] भार दे कर, [ आगे की ओर ] झुक कर [ तथा ] चंचल दृगों से [ चारों ओर ] देख कर [ कि कोई देखता तो नहीं है ] दोनों ने दोनों के सुंदर कपाल [ बड़ी ] चाह से चूमे ।। नागरि, बिबिध विलास तजि, घसी गवैलिनु हँहि । मूढे नि मैं गनी कि तूं हूट्यौ है इठेलाँहि ॥ ५०६॥ बिलास= नागरियाँ क से सुख चैन, रहन सहन, चेष्टा इत्यादि । गर्वोलिनु = गवारियाँ ॥ मूढ़नि= ज्ञान-शून्य, निर्बुद्धियों॥ गनिवी=गिनी जायगी, गिनने के योग्य होगी । किनँ =या तो तू, नहीं तो तू ॥ हुव्य है-इठा देने का अर्थ १३-संख्यक दोहे में द्रष्टव्य है ।। ( अवतरण )-गवॉरिय मैं बसी हुई किसी नागरी पर अन्योकि कर के कवि कहता है कि गवां मैं बस कर गुणी को, उन्हीं का सा गवाँरपन न करने पर, हास्यास्पद हो होना पड़ता है | (अर्थ)-हे नागरी ! [ अब तू नागरियों के से] विविध चाल व्यवहार, रहन सहन छोड़ दे।[क्योंकि तु] गवॉरिया में बसी है, या ते [अर्थात् नहीं तो ] तु मूढ़ १. उलट ( ३, ५ ) । २. चूने (४) । ३. मोह ( २, ३ ), माह (४) । ४. मूवी ( ३, ४, ५ ) । ५. इठलाह ( २ ), इठलाई (४) । ________________

विहारीकर २०६ में परिगणित होगी । [ देख, ये सब गवाँरिने तेरे नागरिक व्यवहार पर ]gठा दे कर इठलाती हैं । इस दोहे के अर्थ में टीकाका के मत में भेद है। प्रायः टकाकारों ने इठलँहि' को विधिवाचक क्रिया मान कर उसका अन्वय से किया है। पर यह ठीक नहीं है। इस दोहे के भावार्थ का मिलान २७६:संख्यक दोहे से करना चाहिए । विथुस्यौ जीव सौति-पग निरखि हँसी गहि गाँसु।। सर्लज हँसौंहीं लखि लिय' अाधी हँसी उसाँसु ।। ५०७ ॥ गाँसु ( ग्रास ) =किसी की ओर हृदय में कुछ गुप्त भावना रखना ।। ( अवतरण )-नायिका, अपनी सौत के पाँवाँ मैं फैला हुआ महावर देख कर, पहिले तो चित्त मैं गान रख कर कि यह ऐसी फूहर है कि इसे महावर देना नहीं अता, हँस, पर फिर, उसको लज़ायुत ईसह देख कर, उसने नि छरित कर लिया कि यह महावर का बिथरापन इसके फडः इसके फूडरपने के कारण नहीं है, प्रत्यत यह महावर प्रियतम के हाथ का लगाया हुअा है. अंर लाते समय कंप अस्तव्यस्त हो गया है । इस विचार से वह अन्य-संभाग-दुःखिता हो गई, और जो हँसी उसको अाई थी, वह पूरी भी न होने पाई, और उसने अाधी ही हूँ मैं दुःखच्छास लिया । सखी-वचन सखी से-- ( अर्थ )-सीत के पॉवों में विधुरा ( फैला ) हुअा जावक ( महावर ) देख कर [ वह मन में ] गाँस ( गुप्त भावना ) रख कर हँसी। [ पर फिर उसे सौत को ] लञ्जायुक्त हँसती स देख कर [ उसने ] अाधा ही हँसी में ( हँसी के बीच ही में ) [ खेद से ] ऊँवा श्वास लिया ॥ नायिका के दुःख का कारण यह अनुमान भी हो सकता है कि नायक सौत को मनाने के लिए उसके पाँवाँ पर पड़ा था, जिससे उसका जावक फैल गया है ।। मोसौं मिलवति चातुरी, हूँ नहिँ भानति भेउ । कहे देत यह प्रगट ही प्रगव्य पूस पसेउ । ५०८ ॥ | ( अवतरण )-नायक को देख कर नायिका को स्वेद साविक हुअा है । उसे छिपाने के निमित्त वह सर्ल से कुछ बात बनाती है। पर सखी उसके स्वेद से अनुराग लक्षित कर के कहती है ( अर्थ )-[ तेरे अंग में, नायक को देख कर, ] पूस महीने में प्रकटा हुअर ( प्रकट रूप से निकला हुआ ) पसेव ( प्रस्वेद, पसीना ) प्रकट ही ( स्पष्ट ही ) यह कहे देता है [ कि तू जो बातें बना रही है, वह त केवल ] मुझसे चतुराई मिलती है ( मेरी चतुराई से अपनी चतुराई का मिलान कर के अपनी चतुराई को अधिक ठहराया चाहती है ), [ और ] भेव (भेद, रहस्य की बात ) नहीं भानती ( फोड़ती, खोलती ) ॥ १. सहज ( २ ) । ३. लयो ( ३, ५) । ३. निकट ( २ )।

विहारी-रत्नाकर सौं हूँ हेयौ न हैं, केती दयाई सौंह ।। एहो, क्यौं बैठी किए हँठी ग्वैठी भौंह ॥ ५०६ ॥ ( अवतरण )-कचहांतरिता नायिका को अभी ऊपर से वैसा ही टेढ़ा भौहें किए देख कर, और उसके मन का पश्चात्ताप समझ कर, सखी कहती है कि अब तू क्यों टेही भौहें किए बैठी है, अब तो नायक यहाँ से चला भी गया । सखी का तात्पर्य यह है कि यदि अब भी नायिका का मान ढीला पड़ा हो, और वह अपना पश्चात्ताप प्रकट करे, तो मैं जा कर नायक को बुला लऊँ ( अर्थ )-[ नायक तथा हम लोगों ने तुझे, मान छोड़ने के निमित्त, ] कितनी ही शपथ दिलाई, [ पर मान छोड़ना तो कौन कहे ] तूने सामने ( नायक की ओर ) देखा भी नहीं । [ तव लाचार हो कर वह बेचारा यहाँ से चला गया | अरी, [ भला बतला तो सही कि अब तू ] क्यों टेढ़ी मेढ़ी भाह किए बैठी है [ अव तो रोष का नहीं, पछताने का अवसर ३ ] ॥ ही और सी लै गई टरी औधि कैं नाम । दुर्जे के डारी खरी बौरी बौरै आम ॥ ५१० ॥ । अवतरण )-प्रापित पतिका नायिका एक तो यह सुन कर अत्यंत व्याकुल हो रही है कि प्रियतम ने थाने की जो अवध बदी थी, वह टल गई है। दूसरे वसंत के बारे हुए आमाँ ने उसको सर्वथा बावली ही कर दिया है। सखी-वचन सखी से ( अर्थ )-[ एक ते ] टली हुई अवधि के नाम ( सुनगुनी, चर्चा ) [ सुनने ] से [ वह हृदय में [ कुछ ] और ही सी ( विलक्षण तथा अस्वाभाविक चित्तवृत्ति वाली ) हो [ ही ] गई थी, दूसरे [ अब उसको ] वौरे हुए आमों ने खरी ( सर्वथा, पूर्ण रीति से) बौरी बावली ) कर डाला ॥ सही रँगीलें रतिगै जंगी पगी सुख चैन । अलसैहैं। सहैं कि मैं कहैं हँस नैन । ५११ ।।। रति-जगे = (१) किसी उत्सव के कारण रात्रि भर के जागरण में । (२) रति के निमित्त जागरण में। अवतरण –नायिका ने रात्रि भर नायक के साथ रत्युत्सव में जागरण किया है, जिससे उसकी आँखें अलॉहीं हो रही हैं। अखिों के उनींदी होने का कारण वह सखी से किसी उत्सव के रतजग मैं जागना बतलाती है। पर जब वह आँखें सामने करती है, तो वे हसाँहीं हो जाती हैं, जिससे सखी सही बात लक्षित कर के कहती है | ( अ )- [ तेरे ] अलसाहें नयन सामने करने पर अथवा शपथ खा कर हसाहे [हो] कहते हैं कि तु सह(सचमुच) रंगीले (रंग-भरे, सरस, मंदप्रद) रति जगे (१. किसी उत्सव के रतिजगे । ३. रति के जागरण ) में सुख [ और ] चैन में पगी हुई जागी है ॥ १. चायो । २ ) । २. हिय ( ४ ) । ३. सु और ( ३,५ ) । ४. रही ( २ ) । ५. जु डरी ( २ ) । ६. प्रारं ( २ ). ७. दैन ( ३, ५ )। ________________

विहारी-रत्नाकर २११ इस दोहे मैं रँगीलैं', 'रतिज', 'सुख चैन' तथा 'हँस हैं' शब्द से सखी नायिका की रति लक्षित करना व्यंजित करती है ॥ कहा कुसुमु, कह कौमुदी, कितंक आरसी जोति । जाकी उजराई लखें अखि ऊजरी होति ॥ ५१२ ।।। ( अवतरण )-सखी, नायिका के गौर वर्ण की प्रशंसा नायक से कर के, स्त्रच उपजाती है, अथवा नायक नायिका का गुराई पर रीझ कर स्वगत कहता है ( अर्थ )-जिसकी उजराई ( उज्ज्वलता ) देखने पर आँख उज्ज्वल (ज्योति-संपन्न ) होती है, [ भला उसके आगे ] कुसुम ( पुष्प ) क्या वस्तु है, कौमुदी ( चाँदनी ) क्या है, [ और ] आरसी ( दर्पण ) में कितनी ज्योति ( चमक ) है ॥ ‘कुसुम' शब्द से यहाँ श्वेत अथवा पांत कुसुम ग्राह्य है ॥ पहिरत ही गोर गर्दै य दौरी दुति, लाल । मनी पररास पुलकित भई बौलसिरी की माल ।। ५१३ ।। बोलसिरी ( बकुलश्री )= मौलसिरी । मौलसिरी के वृक्ष को संस्कृत में बकुल तथा मकुल कहते हैं। बकुल श्री अथवा मकुल श्री का अर्थ बकुल अथवा मकुल की शोभा, अर्थात् पुष्प, होता है । प्राकृत में 'श्री' का रूपांतर 'सिरी' हो जाता है, अतः ‘बकुल श्री' से बोलसिरी अथवा बौलसिरी तथा मकुल श्री से मोलसिरी अथवा मौलसिरी बनता है। सतसया के केवल दो दोहाँ में बिहारी ने इस शब्द का प्रयोग किया है, और दोनों ही स्थानों पर 'बौलसिरी' रूप ग्रहण किया है । इस दोहे के भाव में कुछ ऐसी अस्पष्टता है कि इसका अर्थ भिन्न भिन्न टीकाका ने भिन्न भिन्न प्रकार से किया है, पर संतोषप्रद अर्थ कोई भी नहीं प्रतीत होता ॥ सतसैया के सबसे पहले टीकाकार मानसिंह ने इसका अर्थ यह लिखा है-“श्रीराधाजू के गोरे गैरै पहिरत ही लाल तमाक्ष-उप्प की मान्न ताकी ऐसी दुति दौरी । जानिये कै गोरे गरे मैं पुलक-भरी बोलसिरी की माल पहिरी है। इस अर्थ में टीकाकार ने 'लाल' का अर्थ लाल तमान-पुष्प की माल किया है। यदि लाल का अर्थ यह हो भी, तो भी इस अर्थ मैं दूरान्वये दोष पड़ता है ।। अनवर-चंद्रिका में इस दोहे पर यह लिखा है-*तो माला ले गई ही, ताक कुतत्व ते रोमांचित कहि नाइका को प्रेम नाइक स जतावति है।" इस अर्थ मैं यह नहीं समझ में आता कि माली के रोमांचित होने से नायिका का प्रेम कैसे प्रकट होता है ।। अमरचंद्रिका मैं यह लिखा है 'प्रश्न पुलकित सी होतहि सु तो मौलसिरी की माल । ताहि कहैं पुलकित भई परसै प्रश्न विसाल ॥ १. कितिक (२) ।

२१२ विशारी-खाकर तुम जु दई तिहिँ मात्र, तिहिं परसत गर्दै गईं। याँ बढी छवि बाल, लाल परसि पुलकित मनौ ॥" अमरचंद्रिका का भावार्थ यह हुआ। -'तुम्हारी दी हुई मौलसिरी की माला को गोरे गले में परिनने से उसकी ऐसी छवि हुई मानो वह तुम्ही को स्पर्श कर के पुलति हुई है। यह भाव अच्छा है, पर इस अर्थ में 'पहिरत' के साथ 'बीजसिरी की माल' का अन्वय बड़ी क्लिष्टता से करना पड़ता है। हरिप्रकाश तथा बिहारी बोधिनी टीका में भी अमरचंद्रिका का अनुसरण किया गया है ॥ रसचंद्रिका में यह अर्थ लिखा है--‘नाइक ने जर हार भेजा था नाइका के सो सखी नाइक साँ कही है कि है लाल, नाटक के गरे गरे की शोभा स मालसिरी के फूल के जो कटे थे, सो ऐसे लगने लगे कि काँटे नहीं हैं, मानो माला भी पुलकित भई है। यह भावार्थ स्पष्ट त अवश्य है, पर कुछ विशेष संतोषप्रद नहीं है । कृष्ण कवि की टीका तथा लाल चंद्रिका में भी यही भावार्थ माना गया है ॥ देवकीनंदन की टका में अमर चंद्रिका तथा रसचंद्रिका, दोनों के अथो का संग्रह है। प्रभुदयाल पाँर्जी ने विलक्षण ही अर्थ किया है -'गोरे गले में पहनते ही जाल युति याँ देई, म ने स्पर्श कर के मालसिरी की माला पुलकित भई ॥ | हमारी समझ में इस दोहे का भावार्थ ४७०-संख्यक दोहे के अनुसार मानना चाहिए । भस प्रकार उस दोह में नायिका के शरीर ही का पुलकित हो कर कदंब की माला हो जाना कहा गया है, उसी प्रकार इस दोहे मैं नायिका के शरीर का पुलकित हो कर मौलसिरी की माल' हो जाना समझना चाहिए । ( अवतरण )-नायक ने नायिका के निमित्त मानसिरी की माल उसकी अंतरंगिनी सखी के हाथ भेजः थी । सखी ने जब वह मला नायिका को पहनाई, तो, इस विचार से कि वह मःला नायक की भेजी हुई एवं उसके द्वारा स्पर्श की हुई है, उसको पुलक सात्विक हुआ । यह वृत्तांत सखी नायक से कह कर यह व्यंजित करती है कि आपके हाथ की स्पर्श की हुई माला के स्पर्श से उसका सवंग पुलकित हो जाता है । सखी का अभिप्राय नायिका का प्रेमाधिक्य व्यंजित कर के नायक की प्रीति बढ़ाना है ( अ )--हे लाल ! [ तुम्हारी भेजी हुई मौलसिरी की माला के ] गेरे गले में पहनते ही [ पुलक सात्विक के कारण उस नायिका पर ] ऐसी यति ( शोभा ) दौड़ पड़ी ( गले से आरंभ हो कर अति शीघ्र सवांग में छा गई ), मानो [ उसको ] परस कर पुलकी हुई [ वह नायिका स्वयं ] मौलसिरी की माला हो गई ॥ | इस अर्थ में प्रथम मौलसिरी की माला को अध्याहार करना पड़ता है। पर वह नायिका स्वयं मौलसिरी की माला हो गई', इस खंडवाक्य के बल से यह अध्याहार हो जाता है। रस-भिजए दोऊ दहुनु, तउ टिकि रहे, टरौं न । छवि सौं छिरकत प्रेम-इँगु भरि पिचकारी नैन । ५१४ ॥ १. ती ( २, ४) । ________________

विदारी-रत्नाकर २१३ ( अवतरण )–नायक नायिका पारस्परिक शोभा देखते तथा नेत्रों के भाव से अपना अपना प्रेम सचित करते हैं। इस व्यवस्था का रूपक होली के खेल से कर के सखी सखा से कहती है | { अर्थ )-दोन ( नायक नायिका ) के द्वारा दोनों ( नायिका नायक ) रस ( अनुराग-रूपी रग ) से भिगो दिए गए हैं, [ और ऐसी दशा में चाहिए तो यह था कि सामने से हट जाते, क्योंकि होली के खेल में जो सराबोर हो जाता है, वह भाग कर हट जाता है ], तो भी [ ये ] नयन-रूपी पिचकारियाँ भर कर प्रेम-रूपी रंग ! बड़ी ] सुंदरता से छिड़कते हुए ( अपना अपना प्रेम बड़ी सुंदर रीति से सूचित कर के दूसरे को प्रेम में सराबोर करते हुए ) टिक रहे हैं ( आमने सामने डटे हुए हैं ), टलते नहीं ! कारे-बरन डरावने कत आवत इहिँ गेह ।। कै वा लखी, सखी, लखें लगै थरथरी देह ।। ५१५ ॥ कै वा=कै बार ॥ लखी—'लख ( लक्ष )' धातु का प्रयोग बिहारी ने अकर्मक तथा समक, दान” रूप में किया है । इस दोहे में 'लखी' क्रिया अकर्मक रूप से प्रयुक्त हुई है ।। ( अवतरण )–नायिका बहिरंगिनी सखियाँ में बैठी है । इतने ही मैं श्रीकृष्णचंद्र किसी व्याज से उसके घर आए हैं। उनको देख कर नायिका को कंप सात्विक हुआ है । अनुराग छिपाने के निमित्त वह सखौ से उस कंप का भय के कारण होना कहती है ( अर्थ )-यह काले वर्ण वाले डरावने [ मनुष्य ] इस घर में [ बार बार ] क्यों अाया करते हैं । हे सखी, [ में ] कितने [ ही ] वार देख चुकी हूँ (अनुभव कर चुकी हूँ ) [ कि इनके ] देखने से [ मेरी ] देह में [ भय के कारण ] थरथरी ( कंप ) लगती है। ( होने लगती है ) ॥ कर के मीड़े कुसुम लौं गई विरह कुम्हिलाई । सदा-समीपनि सखिनु हुँ नीठि पिछानी जाइ ।। ५१६ ।।। मड़ ( मुदित ) =हुए, मसले हुए । ( अवतरण )-सखा नायक से नायिका की व्याधि उशा का वर्णन कर के उस उसके इस अने पर उद्यत किया चाहती है | ( अर्थ )-हाथ से मले हुए फूल की भाँति [ २ ] विरह से [ ऐसी ] कुन्हिला गई है [ ] सदा समीप रहने वाली सखियों के द्वारा भी बड़ी कठिनता से पहिचान जाती है। चितवत, जितबत हित हियँ, कियँ तिरीछ नैन । भी तम दोऊ कॅपैं, क्यौं हूँ जप निबरें न ॥ ५१७ ॥ १. अरहर ( २ )। बिहारी-रखाकर जितवत = जताते हुए । निवरौं न = निवृत्त नहीं होते, समाप्त नहीं होते ॥ ( अवतरण )--नायक नायिका, जाड़े के दिन मैं किसी जलाशय में स्नान कर के, जप करने के व्याज से पानी ही मैं खड़े, तिरछी दृष्टि से परस्पर अपना अपना प्रेम सूचित कर रहे हैं। अतः विशेष विलंब हो जाने पर भी उनके जप समाप्त नहीं होते । सखी-वचन सखी से ( अर्थ )-[ एक दूसरे के ] हृदय में [ अपना ] प्रेम जताते हुए, तिरछे नयन किए ( औरों की आँखें बचाए ) [ परस्पर ] देखते ( अवलोकन करते ) हुए दोनों [ स्नान कर के ] भीगे तन से [ पानी में खड़े ] काँप रहे हैं, [ और ] किसी प्रकार ( बहुत विलंब होने पर भी ) [ उनके ] जप समाप्त नहीं होते ।। कियौ जु, चिवुक उठाइ कै, कंपित कर भरतार । टेढ़ीयै टेढ़ी फिरति टेर्दै तिलक लिलार ।। ५१८ ।। ( अवतरण ) --नायक न एक हाथ से नायिका की ठोढी उभा कर दूसरे हाथ से उसके ललाट पर तिलक लगाया है। नायक के केंप सात्विक के कारण तिलक टेढ़ा हो गया है । नायिका नायक का प्रेम उसके साविक से निश्चित कर के उनी फिरती है। इसी प्रेम-गवंता नायिका का वृत्तांत सखी सखी से कहती है ( अर्थ ):-चिंबुक ( ठेढ़ ) उठ कर, [ साविक के कारण ] काँपते हुए हाथ से, जो [ तिलक ] भर्तार ने [ उलको ] किया ( लगाया ), ललाट पर [ उस ] टेढ़े ( प्रियतम के प्रेम-साविक से कंप होने के सूत्रक ) तिलक [ के गर्व ] से [ वह ] टेढ़ी ही टेढ़ी ( पेठेती, इतराती ) फिरती है ॥ भौ यह ऐसाई समौ, जहाँ सुखद दुखु देत । चैत-चाँद व चाँदनी डारति किए अचेत ॥ ५१९ ॥ ( अवतरण )-प्रोपितपतिका नायिका का वचन सखी से ( अर्थ )-[ प्रियतम के विरह में ] यह समय ऐसा ही हो गया है [ कि ] जहाँ ( जिसमें ) सुखद [ पदार्थ ] दुःख देते हैं । [ देख, यह ] चैत्र [ मास ] के चंद्रमा की चाँदनी [ जो संयोग-समय में सुखद थी, इस समय मुझे ] अवेत ( विरह-व्यथा का उद्दीपन कर के दुःखाधिक्य के कारण चेतनाशून्य ) किए डालती है ॥ कत कहियत दुख देन कौं रचि रचि बचन अलीक। सबै कहाउ रणौ लखें, लाल, महावर-लीक ।। ५२० ॥ अलीक= रीति-रहित, मनमाने, मिथ्या ॥ कहाउ = कहना सुनना, वक्तव्य ॥ लीक= लकीर ।। १. जहँ सुख तहँ दुख (४) । ________________

बिहारी-रत्नाकर २१५ ( अवतरण )-नायक अन्य स्त्री के पास रात भर रह कर प्रातकाल इस नायिका के यहाँ अाया है, श्रार रात को अपने न आने के अनेक मिथ्या कारण गढ़ गढ़ कर कह रहा है। इतने मैं उसके भाव पर महावर की लीक नायिका देख लेती है, जिससे वह सच्चा कारण निश्चित कर के कहती है ( अर्थ )-[ मुझे ] दुःख देने ( और भी अधिक चिढ़ाने) के निमित्त [ २ ] मिथ्या वचन रच रच कर क्यों कहे जाते हैं । हे लाल, [ तुम्हारा ] सभी कहना सुनना महावर की लकीर देखने पर रह गया ( वृथा हो गया ) ।। लोपे कोपे इंद्र लौं रोपे प्रलंय अकाल । गिरिधारी राखे सबै गो, गोपी, गोपाल ।। ५२१ ॥ ( अबतरण )-कोई सज्जन भक़, किसी बलिष्ठ दुर्जन के द्वारा दुःख दिए जाने पर, अपने मन को धर्य देता है कि रे मन, तू घरा मत, धैर्य धारण कर, तेरे प्रभु गिरिधम्लाले भवत्सल हैं कि उन्हौंने समस्त ज के प्राणियों की रक्षा की, और ऐसे शक्ति-संपन्न हैं कि श्रीर की कौन कहे, इंद्र से प्रबल शत्रु भी उनके आगे भाग गए - ( अर्थ )-गिरिधारी ( गोवर्द्धन गिरि धारण करने वाले ) [ श्रीकृष्णवंद्र ] ने गउएँ, गापियाँ [ तथा ] गोपाल ( ग्वाल ). [ ये ] सब ही [ दुष्टों से ] रक्षित किए, [ एवं और की कान कहे ] विना समय का प्रलय रोपे ( प्रलय करना ठाने ) हुए कुपित इंद्र ऐसे [ शत्रु भी ] लोपे ( लुप्त किए, भगा दिए ) ॥ ढोरी लाई सुनन की, कहि गोरी मुसकात । थोरी थोरी सकुच सी भरी भरी बात ॥ ५२२ ॥ ढोरी= धुन, उत्कृष्ट अभिलाषा ।। ( अवतरण )-नायक ने नायिका को मुसकिरा कर भोली भोली बातें करते सुना है। उससे उसको ऐसा आनंद मिला है कि वैसी ही बातें सुनने की धुन लग गई है । अतः वह अपनी दृशा सखी से कहता है | ( अर्थ )—उस गोरी ( गौरवर्णी नायिका ) ने मुसकिराते हुए थोड़ी थोड़ी लजा से भोली भोली बात कह कर [ मुझे वैसी ही बात फिर फिर ] सुनने की दोरी ( धुन ) लगा दी है ॥ आज कळू औरै भए, छैए नए ठिकछैन । चित के हित के चुल ए नित के होहिं न नैन ॥ ५२३ ॥ ठिकठैन= ठाटबाट । चुगल = किसी के छिपे भेद को प्रकट कर देने वाले ॥ हहिँ-'होहिं १. प्रलै ( ३ ), प्रलौ ( ४, ५ )। २. मुसिकात ( २ ), मुसुकात ( ४ ) । ३, नए ए ( ४ ) । ४. जुगल (५)।

२१६ विहारी-रत्नाकर का प्रयोग हैं के स्थान पर अवधी भाषा में प्रचलित है । श्रीगोस्वामी तुलस.दासजी ने भी होहिं का प्रयोग हैं के अर्थ में बहुतायत से किया है। इस प्रयोग के शुद्ध त्रजभाषा में प्रचलित होने में संदेह है। ५४९-संख्यक दोहे में भी ‘होहिं का ऐसा ही प्रयोग है ।। | ( अवतरण )-लक्षित नायिका की आँखों की विलक्षण झलक से सखा उसके हृदय का स्नेह लक्षित कर के कहती है ( अर्थ )-ये [ तेरे ] हृदय के हित ( प्रेम ) के चुराल नयन नित के ( नित्यप्रति जैसे रहते थे, वैसे) नहीं हैं, आज नए ठाटबाट से छाए हुए कुछ और ही [ से ] हो गए हैं [ जिससे यह बात स्पष्ट लक्षित होती है कि तेरा हृदय किसी पर अनुरक्र हुआ है ] ॥ छुटै न लाज न लालचौ प्यौ लाख नैहर गई । सटपटात लोचन खरे भरे संकोच, सनेह ॥ ५२४ ॥ सटपटात= संशय में पड़े हैं कि सामने देखें अथवा नीचे हुए हैं, अतः ग्रति शीघ्रता से सामने तथा नीचे होते हैं । | ( अवतरण )--नायिका अपने नैहर में है। नायक भी वहाँ आया है। नायिका के नेत्र * नायक के देखने की अभिलाषा तथा माता, भगिनी इत्यादि का संकोच, दोन द्वंद्व मचाए हुए हैं। अभिल। या तो आँखाँ को नायक की ओर प्रेरित करती है, और संकोच उन्हें नीची किए देता है। अतः अाँखें कभी सामने, कभी नीची होती हैं। यही व्यवस्था सखी सखी से कहती है ( अर्थ )-प्रियतम को नैहर के घर में देख कर [ नायिका के नेत्रों से ] न | तो ? लजा छूटती है, [ और ] न लालच ही । [ अतः उसके ] नेत्र संकोच [ तथा ] स्नेह से भरे हुए अत्यंत सटपटाते है ॥ --- --- ह्याँ हैं हाँ, हाँ हैं इहाँ, नेक' धनंति न धीर । निसि दिन डेढ़ी सी किरति झाड़ी गाढ़ा पीर ।। ५२५ ।। डाढ़ी ( दग्धा )= दाही, जलाई हुई । 'डाढी' शब्द का प्रयाग जली हुई अथका जलाई हुई के अर्थ में काव्य-भाषा में प्रचलित है । अवध प्रांत में ‘डादा शब्द अग्नि के अर्थ में, बोलचाल में भा, श्राता है । स्त्रिया कोसने में भी कहती हैं कि 'तेरे मुंह में डाढ़ा लागे । | ( अवतरण )—पूर्वानुरागिनी नायिका की उद्वेग दशा सखी सखा से, अथवा नायक से, कहती है ( अर्थ )-[वह ] किंचिन्मात्र भी धैर्य न धरती हुई ( अर्थात् परम विकल नायिका ) बद्दी हुई गढ़ी पीड़ा से दग्ध ली रात दिन यहाँ से वहाँ [ और ] वहाँ से यहाँ फिर करती है॥ १. बुराई ( ३, ५ ) । २. घरत ( ५ ) । ३. दादी ( ५ ) । ________________

बिहारी-रत्नाकर विरह-विकल बिनु ही लिखी पाती दई पठाइ । आँक-बिहूनीयौ सुचित सूनै बाँचेत जाइ ।। ५२६ ॥ आँक-विहूनी= अक्षरों से रहित । ( अवतरण )-प्रोषितपतिका नायिका तथा प्रोषित नायक, दोन की विरह-विकलता नायिका की पत्रिका के जाने वाली दूती अपने मन मैं कहती है ( अर्थ )-[ उधर नायिका की तो यह दशा है कि उस ] विरह-विकल ने [ नायक को चिट्ठी लिखना चाहा; पर जब विकलता के कारण न लिख सकी, ते ] विना लिखी ही ‘पात' ( पत्रिका ) भेज दी । [ इधर नायक की यह दशा है कि यह ] विना अक्षर की [ पत्रिका ] भी ‘सूनँ' ( एकांत में ) जा कर [ और ] सुचिनु हो कर ( बड़े ध्यान से ) बाँचता है । इस दोहे के भाव से ६० तथा ३२८-संख्यक दोहाँ का भाव मिलने के योग्य है ॥ समरस-समर-सकोच-बस-बिबस न ठिक ठहराइ । फिरि फिरि उझकति, फिरि दुति,रि दुरिउझकति आइ ॥५२७॥ ( अबतरण )-- परकीया नायिका नायक को अपनी खिड़की में से देख कर काम-पीड़ित हुई है, पर संकोचवश एकाएक आँख भर कर नहीं देख सकती। अतः वह कभी तो उझक कर देखती है, और कभी नायक को अपनी ओर देखता देख कर छिप जाती है, और फिर अन्य लोग की दृष्टि बचाकर देखती है ( अर्थ )-बयर के स्मर [ तथा ] संकोच के वश में [पड़ कर ] विवश हुई [ वह नायिका किसी एक दशा में ] ठीक नहीं ठहरती। फिर फिर (वारंवार )[ नायक को देखने के निमित्त झरोखे में ] उझकती है, [ और ] फिर छिप जाती है, [ इसी प्रकार वह ] छिप छिप कर ( लोगों की तथा नायक की दृष्टि बचा बचा कर ) [ झरोखे में ] आ कर उझकती है ॥ इस नायिका के मध्य स्वकीया भी मान सकते हैं। | फिरत जु अटकत कटनि-बिनु, रसिक, सुरस न, खियाल। अनत अनत नित नित हितनु चिते सकुचत कत, लाल ।। ५२८॥ ( अवतरण ९. )-नायिका नायक को अन्य सिर्यों के साथ हँसते बोलते देख कर कुछ रुष्ट हुई है, जिस पर नायक ने उससे कहा है कि मैं उन स्त्रियाँ से कुछ प्रेम-संबंध से बातचीत नहीं करता था, प्रत्युत केवल आमोद प्रमोद मैं उलझा था । यह कहते समय नायक का मने अपनी नावटी बात पर कुछ संकुचित हुआ । यह संकोच उसकी चेष्टा से लक्षित कर के एवं सच्ची बात निद्धारित कर के नायिका कहती है १. अंक ( २ ) । २. बाँचति ( २,४ ) । ३. झुकति ( ४ ) । ४. दुर उझकत फिरि आइ (४) । ५. कत सकुचावत लाल ( २ ), चित संकुचित कत लाल ( ५ ) । विहारी-रत्नाकर ( अर्थ १ )-हे रसिक ![ तुम ]जो ‘कटनि' ( प्रेम की काट, प्रेम के प्रभाव ) विना अटकते ( अन्य स्त्रियों से उलझते ) फिरते हो, [ वह अटकना ] रस नहीं है ( प्रेम के कारण नहीं है). [ प्रत्युत ] ‘खियाल ( खिलवाड़ ) [ मात्र] है, हे लाल, [यदि तुम्हारा यह कथन सच है, और तुम अपराधी नहीं हो, तो फिर तुम यह तो बतलाओ कि ]'नित नित' ( नित्यप्रति ) 'अनत अनत' (अन्य अन्य स्त्रियों के ) हितों से चित्त में संकुचित क्यों होते हैं। [ वे हित तो तुम्हारे कथनानुसार केवल खिलवाड़-संबंधी हैं, कुछ प्रेमसंबंधी नहीं कि संकोच के कारण हों ] ॥ नायिका नायक को 'रसिक' शब्द से संबोधित कर के यह व्यजित करती है कि तुम जो अन्य खिय से अटकने का कारण खिलवाड़ मात्र बतलाते हो, वह मिथ्या है; क्योंकि तुम तो रसिक हो, विना रस के अटकने वाले नहीं । | इस दोहे के ‘चित सकुचत कत, लाल' के स्थान पर हमारी दूसरे अंक की पुस्तक मैं ‘कृत सकुचावत, लाल' पाठ है, और अनवर-चंद्रिकादि सटक ग्रंथाँ मैं भी यही पाठ ग्रहण किया गया है। पर हमारी तीन प्राचीन पुस्तक में वही पाठ है, जो इस संस्करण में रखा गया है, और जिसके अनुसार ऊपर लिखा हुआ अर्थ किया गया है। हमारी प्रथम अंक की पुस्तक मैं यह दोहा नहीं है, क्याँकि उसमें केवल १६४ दोहे हैं। यदि दूसरे अंक की पुस्तक का पाठ शुद्ध माना जाय, तो इस दोहे का अवतरण तथा अर्थ यह होगा--- ( अवतरण २ )-परकीया नायिका, नायक के बहुत दिन न मिलने से यह समझ कर कि वह अब अन्य स्त्रियों में उलझा रहता है, उसको उराहना देती है ( अर्थ २ )-[ तुम ] जो ‘कटनि' ( प्रेम की काट अर्थात् चोट ) विना ‘नित नित ( नित्यप्रति ) 'अनत अनत' ( नई नई स्त्रियों से ) अटकते फिरते हो, [सी] हे रसिक, वह [ तुम्हारा अटकना ]रस नहीं, [ प्रत्युत ] खिलवाड़ [ मात्र ] है । हे लाल, [ इस विना रस के अटकने से ] तुम हितों को ( प्रेम के भावों को ) क्या संकुचित करते हो [ अर्थात् तुम्हारी इस विना प्रेम की क्रीड़ा से प्रेम वेचारा संकुचित होता है ] ॥ विपरीत अक्षणा से इस अर्थ में रसिक का अर्थ अरसक होता है । अरैं' परै न करै हियौ खेरै जरै पर जार। स्तावति घोरि गुलाब सौं, मलै मिलै घनसार ।। ५२९ ।। अरें = अड़ में, हठ में ॥ जार= जलन ॥ ( अवतरण )-विरहिणी नायिका की कोई सखी उसके ताप को दूर करने के निमित्त चंदन तथा कपूर को गुलाब-जल मैं घोल कर लगाती है । पर उससे उसका हृदय और भी संतप्त हो कर तन मैं जलन उत्पन्न करता है। अतः वह सखी को उस कार्य से वारण करता है १. अरे पैरें न करे ( २ ), अरे परे न करें ( ३ ), अरे परे न करे (४), अरें परै न करे ( ५ )। २. जरै स्वरी ( २ ), जरे पेरें ( ३ ), जरे खरे (४)। ३. मलय मिलें ( ३ ), मिले मिते (५), मलय मिले (५) । ________________

विहारी-राफर २१४ ( अर्थ )-[अरी ] घनसार ( कपूर ) में ‘मलै’ (मलय, चंदन ) मिला कर [ एवं ] गुलाब-जल से ( में ) घोल कर लगाती हुई [ सखी, तू इस लेप लगाने की ] 'अरें' ( हठ में ) मत पड़ ( हठ मत ठान ); [ क्योंकि मेरा] हृदय [ विरह से ] भली भाँति जले हुए होने पर [ भी इस लेप से शरीर में और भी ] जलन [ उत्पन्न ] करता है ॥ दोऊ चोरमिहीचनी खेलु न खेलि अघात । दुरत हियँ लपटाइ कै छुवत हियँ लपटात ।। ५३० ॥ चौरमिहीचनी-यह एक प्रकार का खेल है, जिसको आँखमिचौल या आँखमिचौनी भी कहते । हैं। इसमें पाँच सात लड़के लड़कियाँ सम्मिलित होते हैं। उनमें से एक की आँखें बंद की जाती हैं, और शेष सब भाग कर जहाँ तहाँ छिप जाते हैं। तब उसकी अाँखें खोल दी जाती हैं, और वह सबको खोजने के लिए इधर उधर दौड़ता है । इतने मैं सब अपने अपने छिपने के स्थानों से निकल निकल कर उस स्थान को, जहाँ ग्रॉखें मूंदी गई थीं और जिसको खुटवा कहते हैं, दौड़ दौड़ कर छूने का यत्न करते हैं। जिस व्यक्ति के। वह, जिसकी आँखें मूंदी गई थी, बँटवा छूने के पहिले, छू लेता है, वह चोर हो जाता है । फिर दूसरी बार उसी की आँखें मीची जाती हैं । इस खेल में कभी चोर किसी के छिपने के स्थान ही पर पहुँच जाता है, तो उसे देख कर छिपने वाला वहाँ से भागता है, जिसमें वह चोर उसको छ न सके । ( अवतरण )–नायक नायिका, दोनों सखियाँ के साथ अाँखामचौअल खेलते हैं, पर उस खेल से तृप्त नहीं होते; क्याँकि उनको उस मैं परस्पर आलिंगन करने का अवसर मिलता है। सखी-वचन सखी से--- | ( अर्थ )-दोनों ( नायक नायिका ) चोमिहीचनी का खेल खेल कर अघाते नहीं ( तृप्त नहीं होते )। [ दोनों एक दूसरे के ] हृदय से लिपट कर छिपते हैं, [ अर्थात् जब किसी अन्य की आँख मीचने की पारी होती है, तब दोनों एक ही स्थान में जा छिपते है, और वहाँ एकांत पा कर परस्पर आलिंगन करते हैं, और ] छूते समय [ भी परस्पर ] हृदय से लिपटते हैं [ अर्थात् जय इनमें से किसी की आँखें मीचने की पारी पड़ती है, तो दूसरा जिस गुप्त स्थान में छिपता है, वहाँ वह उसको खोजता हुआ पहुँच जाता है। उसको देख कर छिपने वाला भागता नहीं, प्रत्युत छ जाता है, और उस एकांत स्थल में दोनों परस्पर आलिंगन करते हैं ] ॥ मिर्सि हाँ मिसि आतप दुसह दुईं और बहराइ । चले ललन मनभावतिहिँ तन की छाँह छिपाइ ।। ५३१ ॥ ( अवतरण )-ज्येष्ठा कनिष्ठ। नायिका के साथ नायक के बताँव का वर्णन गई सखी किसी अन्य सस्त्री से करती है ( अर्थ )-दुसह (कठिनता से सटे जाने के योग्य ) आसप ( धूप) के बहाने ही १. मित ही मिस ( २,४)। २. लाल (३)। ३. तिनको (४)।

बिहारी-रत्नाकर बहाने से ( वृथा वहाने से ) और [ सब नायिकाएँ तो नायक ने ] बहरा दाँ ( टाल दीं, वहाँ से हटा दी ), [ अर्थात् इस समय बड़ी धूप है, अतः कुंजभवन में चलने का अवसर नहीं है, यह कह कर अपने अपने महलों को भेज दीं, और अपनी ] मनभावती | "यिका ] को [ अपने ] तन की छाया में छिपा कर ललन [ कुंजभवन को ] चले ॥ लहलहाति तने तरु नई लचि लग लौं लफि जाई ।। ल लॉक लोइन-भरी लोइनु लेति लगाँइ ॥ ५३२ ॥ लग-हमारी चार पुरतकों में यही पाठ है । पर कई टीकाकारों ने ‘लग के स्थान पर लगि' पाठ रक्खा है। दोनों पाठों का अर्थ एक ही, अर्थात् कंपा, हे ॥ लोइन-भरी= (१) लावण्य-भरी । (२) लासा:भरी । चिडिया साने के लासे को भी लोयन कहते हैं। किसी किसी ने ‘लोइन' शब्द का एक ही अर्थ, अर्थात् लुनाई, मान कर इसे बिहारी के बिगाड़े हुए शब्दों में परिगणित किया है । पर विहारी ने सततैया के तीन आर दोहाँ में भी ‘लाइन' शब्द ‘लुनाई' के अर्थ में रक्खा है, जिससे प्रमाणित होता है कि किसी अावश्यकता के कारण बिहारी ने 'लुनाई' को बिगाड़ कर ‘लोइन' नहीं कर डाला था, प्रत्युत उस समय लोइन' शब्द 'लावण्य' के अर्थ मैं प्रचलित था । 'लोइन' शब्द लावण्य शब्द का अपभ्रंश इस क्रम से हो गया है-लावण्य, लोअन, लायन, लोइन । लोइनु= ( १ ) नेत्र । ( २ ) लवा पक्षी ॥ | ( अवतरण )-नायक के नेत्र नायिका की लंक पर मोहित हुए हैं, सो नायक अपने नेत्र की उपमा लवा पक्षिय से एवं नायिका की कटि की उपमा बहेलिए की लग्गी से दे कर कहता है| ( अर्थ १ )-‘लाइन'(१.लावण्य । २. लासा )-भरी लाँक (कटि) तन-रूपी तरु(वृक्ष) में नई ( झुकी )[ और ] लहलहाती ( लपलपाती ) हुई लचक कर ‘लग' ( क ) की भाँति ‘लाफ' ( झुक ) जाती है, [ और ] ‘लोइन' (१. लोचन । २. लवा पक्षियों ) का लगने पर ( १. अपने पर पड़ने पर। २. अपने से छू जाने पर ) लगा लेती है ( १. सक़ कर लेती है। २. फंसा लेती है ) ॥ | इस दोहे का दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है ( अर्थ २ )-[ उसके ] शरीर में तरुनई (जवानी ) लहलहा रही है, [ तथा उसकी ] लावण्य-भरी कटि लोचन के लगने से ( उस पर पड़ने से ) लचक कर 'लग' ( बाँस की पतली छडी ) की भॉति ‘लफि' ( झुक ) जाती है, [ और देखने वालों की ] आँखों को [ अपने में ] लगा लेती है ( आसफ़ कर लेती है ) ॥ । रही अचल सी है, मनौ लिखी चित्र की आहि । तनैं लाज, उरु लोक कौ, कहौषिलोकति काहि ।। ५३३ ॥ ( अवतरण )-उपपति नायक ने परकीया का अपने ऊपर अनुराग होना छिपा रखा था। इस नमय नायिका को उसकी ओर जड़वत् टकटकी बाँध कर देखते देख कर, और उसका प्रेम लक्षित कर के, १. तनु (३, ५ )। २. जाय ( ३ )। ३. लगाय ( ३ ) । ४. की ( २, ४) । ________________

विहारी-राकर २२१ सखो नायक से, ताना देती हुई, कहती है कि आप तो उसका प्रेम छिपाए हुए थे, पर अब बताइए कि वह इस अनुरागमय जवृता-भाव से किसको देख रही है| ( अर्थ )-[ देखो, वह तुम्हें देख कर ] अचल सी ( जड़ पदार्थ सी ) हो रही है, मानो चित्र में लिखी हुई [ मूर्ति ] है।[ यदि वह तुम पर अनुरक्त नहीं है, जैसा कि तुम कहते हो, तो ] कहो [ कि ] लज्जा [ तथा ] लोक का डर तजे हुए [ इस भाँति वह ] किसको देख रही है ॥ पता न चलें, जाकि सी रही, थकि सी रही उसास । अवहीं तनु रितयौ; कहौ, मनु पठ्यौ किहिँ पास ॥ ५३४ ॥ १ अवतरण )--परकीया नायिका ने अपना उपपति-विषयक प्रेम सखी से छिपा रखा था। पर अब, नायक के सामने आने पर, सखी वह गुप्त प्रेम बाक्षित कर के परिहास-पूर्वक कहती है | ( अर्थ )-[ इस नायक को देख कर तेरी ] पलकें चलती नहीं (तेरी टकटकी बँध गई है ), [१] स्तंभित सी हो रही है, [ तथा तेरी ] उसास थक सी रही है ( तेरी साँस बहुत मंद मंद चलने लगी है, अर्थात् तु साँस रोक कर उसको देख रही है ) । [ अभी तक तो तेरी ऐसी दशा नहीं थी, पर ] अभी ( इस नायक को देखते ही ) [ तूने अपना ] शरीर [ मन से ] खाली कर दिया । [ फिर यदि तु इस पर अनुरक्त जहाँ है, तो ] बतला, मन किसके पास भेजा है। मैं लै दयौ, लयौ सु, कर छुवत छिनकि गौ नीरु । लाल, तिहरी अरगजा उर है लग्यो अबीरु ॥ ५३५ ॥ | अवतरण )-पूर्वानुराग मैं नायक ने नायिका के पास प्रेमपहार-रूप अरगजा भेजा था। उस से उद्दीपन होने के कारण नायिका के शरीर में अत्यंत ताप उत्पन्न हुआ । उसी ताप का वर्णन सस्त्र नायक से, प्रेम बढ़ाने के निमित्त अत्युक्ति मैं, करती है | ( अर्थ )-मैंने [ तुमसे ] ले कर [ उसको ] दिया, [ और ] उसने लिया, [ पर वह अरगजा अरगजा-रूप से उसके उर तक न पहुँचने पाया । उसके ] हाथ से छूते [ही तोपाधिक्य के कारण उसका] नीर ‘छिनकि गौ' (छनछना कर जल गया)।[अतः ] है लाल, तुम्हारा [ भेजा हुआ ] अरगजा [उसके] उर पर अबीर हो कर लगा ॥ चलो, चलें छुटि जाईंगौ हङ राव सँकोच । खरे बढ़ाए हे, ति अब आए लोचन लोच ॥ ५३६ ॥ ( अवतरण )-जहांतरिता नायिका की सखी का वचन नाव से-- ( अर्थ )-[ अब आप फिर ] चलिए। [अब आपके] चलने पर आपके संकोच १ कहूँ ( ३, ५) । २. तुम्हारी ( ३, ५) । ३. जाहिगौ ( २ ) । २२२ विहारी-रत्नाकर ( मुरव्वत ) से [ उसका ] हठ छूट जायगा [ कि अब रोष की वह तेज़ नहीं है; जो तब ] खरे चढ़ाए हुए थे, वे लोचन असे लोव ( लचकरने, नर्मी ) पर आ गए हैं। कहे जु पयन बियोगिनी विरह-विकल बिललाइ । किए न को अँसुवा-सहित सुवा ति बोल सुनाइ ॥ ५३७ ।। ( अवतरण १ )-प्रोषितपतिका नायिका ने विरह-दुःख से प्राण त्यागते समय विबला कर जो वचन कहे थे, उमको शुक ने याद कर लिया था, और फिर उसने उन करुणामय शब्द का उच्चारण कर कर के सुनने वा को रुला रुला दिया । यही वृत्तांत उस मृत विरहिणी की कोई सखा किसी से हती है ( अर्थ १ )-[ उस ] विरह से विकल वियोगिनी ने [ प्राण त्यागते समय ] जो [ करुणामय ] वचन लिला कर ( विवशता तथा हताशता से भरा हुआ विलाप कर के ) कहे [५], उन शब्दों को सुना कर सुग्गे ने किनके आँसुओं के सहित नहीं कर दिया (किनको नहीं रुला दिया, अर्थात् सब सुनने वालों को रुला दिया ) ॥ | इस दोहे का अर्थ अन्य टीकाकारों ने जीवित प्रोचितपतिका नायिका पर लगाया है, क्याँकि श्रृंगार रस मैं मरणावस्था का वर्णन निविद माना जाता है। पर दोहे के शब्द से नायिका का विलक्षा कर प्राण त्याग देना प्रतीत होता है। ‘क’ भूतकालीन क्रिया है। अतः उससे प्रतीत होता है कि अब वैसे वचन वह नही करती । इसके दो कारण हो सकते हैं-एक तो उसके पति का आ जाना और दूसरा उसका शरीर त्याग देना । पति के आ जाने पर भी सखा उससे शुक वाला वृत्तांत, नायिका का प्रेमाधिस्य व्यंजित रने के निमित्त, कर सकती है। पर दोहे के शब्द से ऊपर लिखा हुआ अर्थ ही कुछ विशेष झलकता है॥ बायो ने भंगार रस में दशम दशा का वर्णन निस्संदेह निविद माना है। पर जहाँ ऐसी घटना हो जाती है, वहाँ उसका वर्णन करना ही पडता है। इसके अतिरिक्त बिहारी की सतलैया में यपि श्रृंगार की प्रधानता है, तथापि इसमें अन्य रस के दोहाँ का अभाव भी नहीं है। अतः इस दोहे को करुण अंगार का दोहा मानने में कोई बाधा नही ज्ञात शेती ॥ यदि इस दोहे । अर्थ जीवित नायिका हो पर लगाना हो, तो इस प्रकार लगाना चाहिए ( अवतरण २ )-नायक के परदेश से पाने पर सखी नायिका के वियोग-दुःख का वर्णन, उसके उदय में प्रति बढ़ाने के अभिप्राय से, करती है | ( अर्थ २ )-[इस] विरह से विकल वियोगिनी ने (जिस समय यह विरह से विकल वियोगिनी थी, उस समय इसने ) जो वचन बिलला कर ( विवशता तथा अतुरता से भरा हुआ विलाप कर के ) कहे, [ वे ऐसे करुणाजनक थे कि उनसे इसका तो लोगों को रुला वेना कोई बात ही न था ]उन बोलें ( शन्दों ) को सुग्गे ने सुना कर किनको ( ऐसे कौन कठिन हदय के थे, जिनको) असू-साहित नहीं कर दिया ( किनके नहीं रुला दिया, अर्थात् सब सुनने वालों को रुला दिया ) ॥ ________________

विहारी-रत्नाकर २३ छिप्य छवीलौ बँड लसै नीले अंधर-चीर । मनौ कलानिधि झलमलै कालिंदी के नर ॥ ५३८ ॥ ( अवतरण )-सखी नायक से नायिका की शोभा का वर्णन कर के उसकी रुचि उपजाती है ( अर्थ )-[ उसका ] छबीला मुख नीले अंचल-पट में छिपा हुअर [ ऐसा ] लसता ( शोभा देता ) है, मानो कलानिधि (चंद्रमा) कालिंदी के [ नीले ] नीर मैं झलमला। ( प्रतिबिंबित हो कर मंद लहरियों के कारण हिलती हुई अभिर दे ) रहा है। मानु तमासौ करि रही बिबस बारुनी सेइ ।। झुकति,हँसति; हँसि हसि झुकति, झुकिझुकि हँस हँसि देई ।।५३९॥ ( अवतरण )-नायिका वारुणी-पान कर के विवश हो रही है, और ऐसी ही अवस्था में उसने मान किया है, पर विवशता के कारण इसको खिझलाते समय इस अ जाती हैं, और फिर हंसते समय रोष हो अाता है। अतः उसका मान एक तमाशा सा हो रहा है। सखी-वचन सखी से ( अर्थ )-[ देख, यह ] वारुणी का सेवन कर के विवश हुई [ नायिका ] मान को [ पक] तमाशा कर रही है ( बना रहा है )। [ वह कभी ते ] झुकती ( झिइकतर, परुष वचन कहता ) है, [ और कभी ] हँसता है; हँस हँस कर [तो वह ]झुकती( खीझती ) है, [ और ] झुक झुक कर ( खीझ खीझ कर ) हँस हँस देती है [ अतः उसकी हँसी और झिड़की के मेल से मान के स्थान पर एक तमाशा हो जाता है ] ॥ सदन सदन के फिरन की सद् न छुटै, हरिराइ । रुचै, तितै बिहरत फिरौ ; कत बिहरत उँरु आइ ॥ ५४० ॥ ( अवतरण )-प्रौढ़ा धीरा खंडिता नायिका सापराध नायक से कहती है-- ( अर्थ ) हे हरिराय ( हरिजी महाराज ), [आपकी ] घर घर फिरने की ‘सद ( कुटेव, कुबान ) नहीं छूटती [ तो फिर अच्छा मैं ने संतोष कर लिया । मैं भी उसी मैं प्रसन्न हैं, जिसमें आपको आनंद मिले ] [ आपको जहाँ ]रुवे ( अच्छा लगे ), 'तितै' ( वहाँ ) विहार करते फिरिए, [ यहाँ ] कर [ मेरा ] हृदय क्यों 'बिहरत' (विदीर्ण करते ) हैं ॥ । 'हरिरा', यह प्रतिष्ठासूचक पद यहाँ क्षया शक्ति से अप्रतिष्ठा-सूचक है, जैसे कोई किसी अरराधी से कहे कि “भाइए, महाराज प्रलय-करन अरषेने लगे जुरि जलधर इकसाथ ।। सुरपति-गरहखी हरषि गिरिधरं गिरि धरि हाथ ।। ५४१ ॥ १. छप्यो ( ४ ) । ३. झीनैं ( २ ) । ३. अंचल ( २ ) | ४. इत (४) । ५. बरसन ( २, ४) ६. गर्व ( २ ) । ७. गिरधर ( ४, ५ ) । ८. गिरिधर ( २ ), गिरधर ( ३, ५ ) । २९४ बिहारी-रत्नाकर ( अवतरण )-कोई सजन कृष्ण-भक्त अपने प्रभु के वीरव का वर्णन करता है ( अर्थ )-[ सब ] प्रलय-करण ( प्रलय करने वाले ) जलधर (मेध ) [ इंद्र की आशा से ब्रज को बहा देने के निमित्त ] जुड़ कर ( इकड़े हो कर) एक साथ [ ही ] बरसने लगे। [ पर उनकी कुछ भी न चली ] गिरिधर ( श्रीकृष्णचंद्र ) ने हर्ष-पूर्वक [ गोवर्द्धन ] गिरि को हाथ पर धर कर [ और व्रजवासियों को उसके नीचे शरण दे कर ] सुरपति ( इंद्र) का गर्व ( यह अभियान कि मैं व्रज को बहा दूंगा ) हरा ( नष्ट कर दिया ) ॥ करे चाह स चुटकि कै खरै उहैं मैन । लाज नवाएँ तरफरत करत खुद सी नैन ॥ ५४२ ॥ चुटकि कै= चुटकारी दे कर । चुटकने के विषय में लाला भगवानदीनजी की टिप्पणी द्रष्टव्य है । अतः वह नाचे उद्धत की जाती है--सन की एक गावदुम लंबी रस्सी सी ( वेणी के आकार की ) बनाई जाती है। उसे चुटकी कहते हैं । घोड़ा निकालते समय जब घोड़े को 'उड़ान' सिखाना होता है, तब यह चुटकी घोड़े के पछि तड़ाक तड़ाक बजाई जाती है, जिससे डर कर घोड़ा उड़ना ( कूदते हुए चलना ) सीखता है। ख़ुद-इसे शब्द पर श्रीपंडित पद्मसिंहजी शर्मा की टिप्पणी उद्धत की जाती है-“लवु द्रत गति से जमीन को काटते हुए चलना, जहाँ से पैर उठाया है फिर वहीं रखना, इत्यादि खुद करने का अर्थ है, जिसे इधर की ग्रामीण भाषा में ‘खोर खोदना' भी कहते हैं। जब बछेरे को ‘ोघी' में फेरते वक़ चाबुकसवार उसके चाबुक या कोड़ा मारता है, तो वह ऊपर को उठ जाता है, और भागना चाहता है ; परंतु बार्गे सिँची रहने के कारण भाग नहीं सकता, झुक कर वहीं अा रहता है । | ( अवतरण )-मध्या नायिका के नेत्र चाह से तो ऊँचे हो कर नायक को देखना चाहते हैं, पर जजा से दब कर फिर नीचे हो जाते हैं। उनकी यह व्यवस्था कोई सच्ची उनकी उपमा खैद करते हुए घोड़ों से दे कर किसी अन्य सखी से कहती है | ( अर्थ )-चाह-रुपी चुटकी ] से चुटक कर मदन[-रुपी सवार] के द्वारा ‘ख’ ( भली भाँति ) उi ( उड़ान अर्थात् कुदान करने पर उद्यत ) किए हुए [ इसके ] नयन [-रुपी तुरंग] सजा-रूपी लगाम ] से 'नवारें' ( झुकाए जाने से ) [ एक ही स्थल पर ] तरफड़ाते हैं, मानो खैर कर रहे हैं। ज्यौं ज्याँ प्रावति निकट निसि, त्यौं त्यौं खरी उताल । झमक झमकि टहलें करै लगी रहच बाल ॥ ५४३ ।। उताल = चित्त मैं शीघ्रता रख कर ॥ रहच बरस की चाट अर्थात् लालच में ॥ । ( अवतरण )--प्रियतम से शीघ्र ही मिलने के बावच से नायिका घर के साथ काम काज जल्दी जल्दी कर के साँझ री से छुट्टी पा जाना चाहती है। सखी-वचन सखी से-- ( अर्थ )-[ देख, ] रस की चाट में लगी हुई [ यह ] बाला ज्यों ज्यों रात समीप १• चटके ( ३,५ ) । २. दवाएँ ( २ )। ________________

विहारी-रत्नाकर २२५ आती है, त्यो त्यों खरी (अत्यंत ) उताल (उतावली अर्थात् शीघ्रता से ) झमक झमक कर (उत्साहपूर्वक जल्दी जल्दी अपने भूषणों को यजाती हुई चल चल कर ) [ घर की सब ] टहलें ( सेवाएँ, अपने करने के काम ) करती है ( निपटाए लेती है ) ॥ रही, पैज कीनी जु मैं; दीनी तुमहिं मिलाइ । राखंड चंपकमाल लौं, लाल, हियँ लपटाइ ॥ ५४४ ॥ ( अवतरण )-दूती-वचन नायक से ( अर्थ )-[ इस नायिका को प्राप्त होना तो बड़ा कठिन था, पर मैंने जो 'पैज' ( प्रतिज्ञा) की थी, [वह किसी न किसी प्रकार ]रह गई, [ और मैंने उसको ] तुमसे मिला दिया । [अब ] हे लाल, [ तुम इस चंपकवर्णी के अपने ] हृदय में चंपकमाला की भाँति लिपटा रक्खो [ देखो, ऐसा न हो कि इसका निरादर हो, जिससे फिर यह तुम्हारे पास न आवे ] ॥ दोऊ चाह-भरे कळू चाहत कह्यौ, कहैं न । नहिं जाँचकु सुनि, सूमल बाहिर निकसत बैंन ।। ५४५ ॥ ( अवतरण )-नायक नायिका, दोन एक दूसरे के वचन सुनने के अभिभाषी हैं, और परस्पर कुछ कहना भी चाहते हैं, पर नए स्नेह के कारण संकोच तथा जज्ञा-वश कहते नहीं । सखो-वचन सब्री से ( अर्थ )-दोनों [ एक दूसरे के वचन सुनने की ] चाह से भरे कुछ कहना चाहते हैं, [पर संकोचवश ] कहते नहीं। याचक ( मंगन, अपने से कुछ आकांक्षा रखने वाले ) को [ द्वार पर उपस्थित ] सुन कर ( जान कर )[ दोनों के ] वचन सुम ( कृपण ) की भाँति [ मुख-रूपी सदन से ] बाहर नहीं निकलते ।। । यद्यपि 'बैन' शब्द वचन से बनता है, और इसका बकार सानुनासिक नहीं है, पर व्रजभाषा के प्राचीन कवियाँ की यह परिपाटी थी कि जब किसी शब्द मैं कोई अनुनासिक अक्षर -जैसे न, म-- आता था, और उसके पूर्व का अक्षर निरनुनासिक तथा दीर्घ होता था, तो उस निग्ननासिक, दीर्घ अक्षर को सानुनासिक भी बोलने तथा त्रिखते थे। इसी परिपाटी के अनुसार बैन' का 'ब' सानुनासिक माना गया है। सुभर भयौ तुवगुन-कननु, पकयौ कपट-कुचाल । क्यौं ६, दारयौ ज्यौं, हियौ दरकतु नहिँन, लाल ॥ ५४६ ॥ | १. सु ( २, ४) । २. दोन्ही ( २, ४) । ३. तुमैं ( २, ४) । ४. राखौ ( २, ४) । ५. सी ( ४ )। ६. सुमर (४) । ७. गननु (४) । ८. पचयी ( ३, ४, ५ ) । ६. ल. (२) । १०. नाहाँ ( २ ), नहिँ नंदलाल (४) । २२६ बिहारी-रत्नाकर | नाहिँन--यह दुहरा निषध-वाचक शब्द ब्रजमावा मैं नहीं है' के अर्थ में आता है। बिहारी ने इसको ४८:9-संग्व्यक दोहे में भी प्रयुक्त किया है। देव इत्यादि अन्य श्रेष्ठ कवियों ने भी इसको लिखा है ॥ | ( अबतरण )-प्रौदा खंडिता नायिका का वचन नायक से ( अर्थ )-[ मेरा हृदय-रूपी दाडिम ] तुम्हारे गुण( अवगुण )-रूपी कणों ( दान ) से ‘सुभर' (अच्छे भराव से, हँस हँस कर ) भर गया है, [ और तुम्हारे ] कपट ( १. दुराव। ३. आवरण अर्थात् वह कपड़ा, जो अनार के फलों पर, चिड़ियों से उनकी रक्षा करने तथा उन्हें शीघ्र पकाने के निमित्त, बाँध दिया जाता हैं ) की कुचाल ( १. बुरी चाल । २. बुरे अच्छादन ) से पकाया गया ( १. पीड़ित किया गया। २. परिपक्र किया गया ) है, [ तो फिर ] हे लाल, [यह ] हृदय जिस भाँति 'दास्य' (दाडिम) [दरकता है, उस भाँति ] 'क्य ध' ( न जाने क्यों ) दरक नहीं जाता ॥ अनार जब दान से भली भांति भर जाता और पक जाता है, तो दरक जाता है ।


---- चितु दे देवि चकोर-त्यौं, ती भजै न भूख ।।

चिनगी चुंगै अँगार की, चुगै कि चंद-मयूग्व ॥ ५४७ ॥ ( अवतरण ) --किसी उत्तम पद अथवा पदार्थ के अधिकारी को कोई निकृष्ट वइ अथवा पदार्थ देना चाहता है । वह उसको लेना अस्वीकृत कर के, अपनी चित्तवृत्ति के विषय में चकोर पर अन्योकिं कर के, कहता है कि या तो मैं जिस पद अथवा पदार्थ का अधिकारी हूँ, उसके न मिलने पर दुःख ही झेलँगा अथवा यदि मिल सकेगा, तो वही लँगा, जैसे चोर या तो चिनगी । चुगता रहता है, या चंद्रमा की किरण का अमृत ही पान करता है । | ( अर्थ :-[ नैक ] चकोर की ओर चित्त दे कर देख [ता कि उसका कैसा दृढ़ व्रत है कि ] या तो { वह ] गंगारे की चिनगियाँ चुगता है, या चंद्रमा की किरणें ही पान करता है, तीसरे [ पदार्थ ] का [ वह ] भूख में नहीं भजता ( भोगता अथवा ध्यान करता ) ॥ तुएँ कहति, हौं आपु हूँ समुझति सबै सयानु । लाग्वि मोहनु जौ मनु रहै, तौ मन राखौं मानु ।। ५४८ ॥ ( श्रवतरण )- सखा नायिका को मान करना सिखजाती है, और कहती है कि यदि त् बीच बीच मैं मान कर के उसको धमकाती न रहेगी, तो वह सर्वथा स्वछंद हो जायगा, और फिर संभव है कि शनैः शनैः किवी अन्य स्त्री के फंदे में ऐसा कैंस जाय कि तेरे हाथ ही से निकल जाम । ये री बातें उसने नायिका को पहले भी कई बार समझाई थी, पर उससे मान करते नहीं बनता था। इस बार उसके विशेष समझाने पर नायिका करती है कि तेरा उपदेश वो वास्तव मैं ठीक है, पर मैं क्या कहें, नाम का देस र मेरा मन अपने वश में न रहता १. चुनें ( २ ) । २. राखहु ( ३, ५ ) ।। ________________

बिहारी-रत्नाकर २७ ( अर्थ )-तू भी कहती है ( मान करने के लिए उपदेश देती है ), [ और ] मैं स्वयं भी सभी सयानपन ( मान करने की उपयोगिता) समझती हैं।[ पर मैं क्या करूँ,] मोहन ( मोह लेने वाले श्रीकृष्णचंद्र ) को देख कर जे [ मेरा ] मन [ मुझमें ] रहे, तो [ मैं उस ] मन मैं मान रक्खू ( धारण करू)[ मोहन के देखते ही जब मेरा मन चट उनके पास चला जाता है, और मेरे वश में रहता ही नहीं, तो भला फिर मैं उसमें मान कैसे रखें ] ॥ धुरवा होहिँ न, अलि, उटै धुवाँ धरनि-चहुँकोद । जारत आवत जगत क पावस-प्रथमपयोद ॥ ५४९ ।। ( अवतरण )-प्रोपितपतिका नायिका को नए वादन अग्नि की भाँति ताप देते हैं। अतः वह उनको देख कर सखी से कहता ( अर्थ ) हे अलि, [ये जे पृथ्वी के छेर से उठते हुए दिखाई देते हैं, वे ] धुरवा नहीं हैं । पावस ऋतु के पहिले बादल जगत् के जलाते हुए चले आ रहे हैं; [ यह उसी का ] धुआँ धरती के चारों ओर उठ रहा है । नख-रुचि-चुरेनु डारि कै, उँगि, लगाइ निज साध । रह्यो राखि हठि ले गए हाथी मनु हाथ ।। ५५० ॥ रुचि-चूरनु ठग लोग किसी तांत्रिक क्रिया के द्वारा एक प्रकार की मोहिनी विभूति बनाते हैं। यह विभूति जब किसी पर डाल दी जाती है, तो उसकी बुद्धि स्थगित हो जाती है, और वह विभूति डालने वाले पर ऐसा मोहित हो जाता है कि उसके साथ लग लेता है कोई लाख समझाने और रोके, पर रुकता नहीं । जब कोई ठग किसी धनी का धन लेना चाहता है, तो उस पर यह बुकनी बुरका देता है। बस, फिर वह उसके साथ लेग कर चला जाता है। किसी निर्जन स्थान में ले जा कर वह ठग उसका सर्वस्व अपहरण कर लेता है । बहुधा यह बुकनी मनुष्या अथवा अन्य जीवों के हाड़ अथवा नखों की बनाई जाती है । इमी से कवि ने ‘नखरुचि-चूरनु' कहा है ।। रुचि-यह शब्द यहाँ श्लिष्ट है। इसका एक अर्थ शोभा है, जिसके कारण यह 'नख' से अन्वित होता है, और दूसरा अर्थ चाह हैं, जिससे यह 'चूरनु' से अन्वित होता है । | ( अवतरण )-नायक नायिका के हाथ तथा उनके नख पर माहित हो कर अपनी दशा उसकी सखी से कहता है ( अर्थ )- उसके ] हाथ-रूपी ठग] नख-शोभा-रूपी रुचिचूर्ण (महिनी विभूति ) डाल कर, ठग कर (बुद्धि के स्थगित कर के ), [ और ] अपने साथ लगा कर [ मेरे ] रक्षित किए जाते ( जाने से रोके जाते ) हुए मन को हठात् हाथों हाथ ( देखते ही देखते ) ले गए ॥ .. १. चख (४) । २. चेटक (४) । ३. ठग ( २ ) । ४. गयी ( ३, ५ ) । ६ बिहारी-रत्नाकर चलत देत आभारु सुनि उहीँ परोसिंहिँ नाह । लसी तमासे की दृगनु हाँसी आँसुनु माँह ।। ५५१ ।। | ( अवतरण )- इस दोहे की नायिका अपने किसी परोसी से अनुरक़ है। इस समय उसका पति विदेश जा रहा है, जिससे वह अपनी आँखों में आँसू भरे हुए है। इतने ही मैं उसने सुना कि उसका पति उसी परोसी को घर सँभालने का भार दे रहा है। यह सुनते ही, हर्ष के कारण, उसको आँसू-भरी आँखों में हँसी आ गई। यही वृत्तांत कोई सखी किसी अन्य सखी से कहती है ( अर्थ )-[ विदेश ] चलते समय [ अपने ] नाथ ( पति ) को उसी परोसी को [ जिससे यह नायिका अनुरक्र है, अपने न रहने पर घरद्वार सँभालने का ] आभार ( बोझा ) देते हुए सुन कर [ इसकी ] आँखों में आँसुओं के बीच तमाशे की ( द्रष्टव्य, विलक्षण ) इंसी लसी ( शोभित हुई, उमड़ आई ) ॥ | हँसी का ‘तमासे की' इस निमित्त कहा है कि वह श्रायु के बीच में एकाएकी आ गई है, जो कि एक विलक्षण बात है ॥ सुरति न ताल ने तान की, उठ्यौ न सुरु ठहराइ । ऐरी, राजु बिगारि गौ बैरी बोलु सुनाइ ।। ५५२ ।। ( अवतरण }-नायिका कोई राग गाना चाहती थी, और उसका स्वर उटा कर गुनगुना रही थी । इतने । मैं उसको नायक का शब्द सुनाई पड़ गया, जिससे उसको स्वरभंग साविक हो गया, और गाना बिगड़ गया । किसी अंतरंगिनी सखी के यह कहने पर कि तु तो बहुत अच्छा गाया करती थी, आज क्या है, जो बेसूरी हो रही है, वह कहती है ( अर्थ )-[ मैं क्या करूँ, मुझे कुछ ] सुधि न ताल की [ रह गई हैं ], न तान की, [ और ] न उठा हुआ ( आरंभ किया हुआ ) स्वर ठहरता है ( जमता है, स्थिर रहता है)। हे सखी, [ वह मेरा ] वैरी ( प्रियतम, परंतु सखियों के बीच में मुझे, अच्छा न गा सकने के कारण, संकुचित करने वाला ) [ अपना ] बोल सुना कर [ और स्वरभंग सात्त्विक उपजा कर मेरा ] राग ( गाना ) बिगड़ गया। प्रर्जस्यौ अगि वियोग की, बह्यौ विलोचन-नीर । आठौं जाम हियौ रहै उड़यौ उसास-समीर ॥ ५५३ ॥ ( अबतरण )-नायिका की सखी अथवा दूती नायक से उसका विरह निवेदन करती है ( अर्थ )-वियोगाग्नि से जला हुआ [ तथा ] आँखों के नीर ( आँसू ) से बहा हुआ [ उसका ] हृदय-रूपी पतंग ] आठौं याम उसास-रुपी समीर (वायु) से उड़ा रहता है( स्थिर नहीं रहता, स्वस्थ नहीं रहता ) ॥ १. परीसिनि ( २ ) । २. रु ( ४ ) । ३. ऐरी ( ३, ५ ) । ४. पजरी ( २ )। ________________

बिहारी-रत्नाकर २२९ गई जल जाने अथवा भीग जाने पर नहीं उड़ती । पर उसके हृदय में यह विलक्षणता है कि वह जलने तथा भीगने पर भी उड़ा रहता है । -- ---- उरु उरुझयौ चितचोर सौ, गुरु गुरुजन की लाज । चर्दै हिडोरै मैं हियँ कियें बनै गृह-काज ॥ ५५४ ॥ ( अवतरण )--उधर तो नायिका का मन नायक से अनुरक़ हो रहा है, और इधर उसको ने की ताज़ा है। इन दोनों की खींचातानी मैं यद्यपि वह घर के कामकाज करती तो है, पर ठीक ठीक नहीं कर सकती । अंतररांगनी सखियाँ उसकी यह दशा आपस मैं कहती हैं | ( अर्थ )-[ इसका ] उर [ एक ओर तो ] चितचोर ( नायक ) से उलझा ( फंसा ) हुआ है, [ और दूसरी ओर ] गुरुजन ( सास, जेठानी इत्यादि ) की गुरु ( भारी ) लजा है। [ इसी खींचातानी में इस धेचारी से घर के कामकाज यद्यपि यथार्थ रीति पर नहीं हो सकते, तथापि ऐसे ] हिँडोले पर चढ़े हुए हृदय से [ भी उसको ] गृह-काज किए [ ही ] वता है ।। पट सौं” पछि परी करौ, खरी-भयानक-भेषं ।। नगिनि है लागति दृगनु नागबेलिहँगे-रेख ।। ५५५ ।। ( अवतरण )-खंडिता-वचन नायक से ( अर्थ )-[ हे लाल ! यह जो तुम्हारी ] आँखों में नागबेल ( पान ) के रंग की रेखा | है, वह मुझे ] बड़ी भयानक भेष ( वेष) वाली नागिन हो कर लगती है ( पीड़ा देती है ); [ अतः तुम उसको ] पट ( वस्त्र ) से पोंछ कर परी ( परे, दूर ) कर डालो ॥ लाल रंग की नागिन बड़ी ही भयानक तथा विषैली होती है ॥ तो लखि मो मन जो लही, सो गति कही न जाति । ठोड़ी-गाड़ गड़यो, तऊ उड़यो रहै दिन राति ॥ ५५६ ॥ गन्यौ-चित्त का किसी वस्तु में अटल रूप से लग जाना उसका उसमें गड़ जाना कहलाता है ॥ उथौ-चित्त का उड़ा रहना वाक्य व्यवहार में चित्त के स्थिर तथा ठिकाने, अर्थान् अपने वश में, न रहने को कहते हैं । ( अवतरण }-नायक नायिका की ठोड़ी की शोभा पर मोहित हो कर उससे कहता है ( अर्थ )-तुझको देख कर मेरे मन ने जो गति ( व्यवस्था ) धारण की है। वह कही नहीं जाती । [यद्यपि वह तेरी ] ठोड़ी की गाड़ में गड़ गया है ( अटल रूप से लग गया है ), तथापि दिन रात उड़ा रहता है ( ठिकाने नहीं रहता ) ॥ इस दोहे मैं विलक्षणता यह है कि गड़ी हुई वस्तु नहीं उड़ती, पर मन ठोड़ी-गाड़ में गड़े रहने पर भी उड़ा रहता है। यही विचित्र गति नायक के मन ने नायिका को देख कर प्राप्त की हैं। १. वेष ( २ )। २. रस ( ४ ) । ३. ठोढ़ी ( २ ) ।

३० बिहारी-रत्नाकर 4 सोरठा मैं लाख नारी-ज्ञानु करि राख्यौ निरधारु यह । वहई रोग-निदानु, वहै' बैदु, ओषधि व ॥ ५५७ ।। नारी-मानु-यह पद यहां श्लिष्ट है । इसका पहिला अर्थ नाड़ी-ज्ञान अर्थात् नाड़ी-परीक्षा का ग्रंथ विशष श्रीर दूसरा अर्थ नारी-ज्ञान अर्थात् स्त्रियों के स्वभाव, ग्राकृति इत्यादि से उनके वृत्तांत का ज्ञान प्राप्त करने का शास्त्र है ॥ रोग-निदानु=रोग उत्पन्न होने का आदि कारण ।। ( अवतरण )- पूर्वानुरागिनी नायिका विरह से व्याकुब तथा रोगग्रस्त हो रही है, पर अपना अनुराग छिपाए है। सखियाँ अनेक सपाय करती हैं. पर कुछ लाभ नहीं होता । तब एक सखी, जो उसके रोग का कारण समझ गई है, उससे कहती है कि मैं तेरा रोग समझ गई हैं। तेरे रोग का जो अादि कारण है, वही इसका वैय और वहीं इसकी औषधि भी है। अब त घबरा मत, मैं इस रोग की निवृत्ति का उपाय करूंगी ( अर्थ )-मैंने नारी-ज्ञान (१. नाड़ी-शान । २. नारी ज्ञान ) देख कर (तेरी दशा का मिलान नारी-शान से कर के ) यह निश्चय कर रखा है [ कि तेरे ] रोग का वही [ तो ] आदि कारण है, वही वैद्य है, [ और ] वही औषधि है [ अर्थात् तेरे रोग का कारण किसी पर अनुरक्त होना है, और बस वही तेरा चिकित्सक तथा औषधि है ] ॥ नायिका बहिरंगिनी सखियाँ तथा गुरुजन मैं वठी है । इसलिए इस सखी ने श्लेष से यह बात जो तिय तुमै मर्नभावती राखी हियँ बसोइ । मोहिँ झुकावति दृगनु है वहई उझकति अाइ ॥ ५५८॥ ( अवतरण )–नायक नायिका को किसी अन्य स्त्री के नाम से पुकार बैठा है । उस पर नायिका रुष्ट हो कर कहती है कि जिस स्त्री को तुमने अपने हृदय में बसा रक्खा है, वही मुझको चिढ़ाने के लिए तुम्हारी आँखों मैं उझक उझक कर अाती है, अतः उस का रूप तुमको दिखलाई देता है, और तुम मुझको इसी के नाम से पुकारते हो--- | ( अर्थ )-जो मनभावती स्त्री तुमने | अपने ] हृदय में बसा रखी है, वही मुझ को खिझाती हुई [ तुम्हारी ] आँखों के द्वारा आ आ कर उझकती है [ जिससे तुम्हें मुझमें भी उसी का रूप दिखाई देता है, और तुम उसी के नाम से मुझको पुकारते हो ] ॥ जिसके मन में जो बहुत बसा रहता है, उसका नाम उसके मुंह से, अन्य किसी से बातचीत करते समय अथवा अन्य किसी को संबोधित करते समय, अनायास ही निकल जाता है । नायर के मुंह से अन्य सी का नाम निकल जाने पर नायिका के मन करने का वर्णन अनेक कवियाँ ने किया है। बिहारी ने अपने ५६९:संख्यक दोहे में भी यह भाव कहा है॥ १. उहे ( ३, ५) । २. श्रौषदि ( २ ), औषद ( ३, ५ ) । ३. तुव ( ४ ) | ४. जिय ( ३, ५) । ५. लगाव ( २ )। ६. उहई ( ३, ५ ) । ________________

विहारी-रत्नाकर दोऊ अधिकाई-भरे एकै गौं गहराई । कौनु मनावै, को मनै, मने मन ठहराइ ॥ ५५६ ॥ ( अवतरण )-नायक नायिका, दोन अपने अपने रूप यौवन के घमंड में हैं। प्रत्येक समझता है कि मुझसे बोले विना दूसरे से न रहा जायगा । एक समय दोन ने, यह ठान कर कि देखें, परिबे कौन मनाता है, और कौन मानता है, परस्पर प्रणय-मान किया है। इसी का वर्णन कोई सल्ली किसी अन्य सखी से करती है ( अर्थ )-मनों को ठहरा कर ( स्थिर कर के, रोक कर )[ यह बात ] माने हुए[ कि देखें , ] कौन मनाता है, [और ] कौन मानता है, दोनों ( नायक तथा नायिका) एक ही गों ( अभीष्ट, मतलब, उद्देश्य ) से [ कि वह अन्य मुझको मनावे ] गहरा कर (ओठों ही में कुछ गर्वयुत बुड़बुड़ा कर ) अधिकाई (उत्कर्ष, अपनी अपनी बात रखने की अभिलाषा की अधिकाई) से भरे हुए हैं। इस दोहे मैं गहराना शब्द बही है, जो काशी तथा अवध के प्रांत मैं गहराना अथवा गभुराना बोला जाता है । उर लीनै अति चटपटी, सुनि मुरली-धुनि, धाइ । हौं निकैसी हुलसी, सु तौ गौ हुल सी हिय लाइ ॥ ५६० ।। ( अवतरण )–विप्रलब्ध नायिका, संकेतस्थत मैं नायक से भेंट न होने पर, लौट आ कर अपना दुःख अंतरंगिनी सखी से कहती है | ( अर्थ )-[ संकेत-निकुंज से नायक की ] मुरली की ध्वनि सुन कर उर में अति : चटपटी ( शीघ्रता, शीघ्र मिलने की अत्युत्कृष्ट अभिलाषा ) लिए हुए [ तथा, इस आशा से कि उससे मिलन होगा, ]हुलसी हुई दौड़ कर मैं [ घर से निकली । [ पर अपने भाग्य की हीनता क्या कहूं, ] वह तो [ मेरे वहाँ पहुँचने के पहले ही मेरे ] हृदय में हुल ( तलवार, बर्डी इत्यादि की कॉच) सी लगा कर [ वहाँ से ] चला गया । ब्रजबासिनु कौ उचित धनु, जो धन रुचित न कोई। सु चित न यो ; सुचित कहो, कहाँ हैं होई ॥ ५६१ ॥ इस दोहे मैं जो ‘धन' शब्द दूसरी बार पर है, उससे धोखा खा र टीकाका ने न जानें क्या क्या मनमाने अर्थ इस दोहे के कर आये हैं। किसी किसी ने तो इसके पाठ मैं भी अपनी कल्पना के अनुसार अंतर कर के कई न कोई अर्थ पहना दिया है। अनवरधि में जो धन' के स्थान पर 'नवपन' पाठ बनाया गया है। अमरचंद्रिका में 'रुचित' के स्थान पर 'त' है। हरिप्रकाश टीका में 'बो' के स्थान पर “सो' तथा 'लचित' के स्थान | १. कौन (४, ५) । ३. मान्वे (२)। ३. मत (२)। ४. हुलसी निकसी ( २ ) । ५. उर ( २ ), ही ( ५ ) । ६. अावे (४)। २३२ विहारी-रत्नाकर पर ‘रुचत' रखा गया है । तालचंद्रिका में ‘जो' के स्थान पर 'सो' मिलता है। प्रभुदयालु पाँडेजी ने ‘जो धन रचित न कोइ' के स्थान पर ‘जो धनरुचितन कोइ' लिखा है । श्रीयुत मिश्रबंधु महाशयाँ ने भी पाँडेजी ही का पाठ शुद्ध भाना है, पर वनरुचितन' के शब्द का पृथक् पृथक् लिखा है । बजा भगवानदीनजी ने भी पाँडे जी ही का पाठ ग्रहण किया है, पर पदच्छेद इस प्रकार रक्खा है-नो घनरुचि तन कोय ॥ | हमारी चार प्राचीन पुस्तक मैं वही पाठ है, जो इस संस्करण में रक ब्रा गया है, और पहिले अंक की पुस्तक में यह दोहा है ही नहीं ॥ 'जे धन रुचित न कोइ', इस खंड-वाक्य मैं ‘धन' शब्द ‘धन्य' का अरभ्रंश है। इसका शब्दार्थ यहाँ धन्यभागी, और लक्ष्यार्थ महा अभागी, है । जो धन रुचित न कोइ' का अर्थ यह होता हैजो किसी ही महा अभागी को रुचित ( रुघा हुआ ) नहीं है, अर्थात् जो किसी ही अभागी को नहीं रुचता । अथवा इस खंड-वाक्य का इस प्रकार अर्थ किया जाय-जो-धन-रुचित न ( जिस धन से नहीं रुचा हु ) कोइ' ( कोई ही ) है ॥ इन दोन प्रकारों में से किसी भी प्रकार उङ्ग खंड-वाक्य का अर्थ कर लेने पर दोहे में कोई उलझन नहीं रह जाती, और उसका अर्थ स्पष्ट हो जाता है ॥ | ( अवतरण )-कोई भङ्ग व्रजवासी किसी संसार में लिप्त तथा सुचित्तता प्राप्त न होने पर झीखते हुए अन्य ब्रजवासी से कहता है ( अर्थ )--व्रजवासियों का [ जो ] उचित ( परमोपार्जनीय ) धन है [ अर्थात् श्रीकृष्णचंद्र शथवा उनकी भक्ति ] 'जो धन रुचित न कोइ' ( जे किसी ही धन्यभाग, अर्थात् महा अभागी, को नहीं रुचता ), [ अथवा ] ‘जो-धन-रुचत न कोइ' (जिस धन से न रुचा हुआ काई ही हैं), सो [ तेरे ] चित्त में नहीं आया, । तो फिर ] कहो, ‘सुचित (चिस की स्वस्थता ) कहाँ से [ प्राप्त ] हा [ क्याकि विना उसके मानसिक स्वस्थता की प्राप्ति असंभव है ]॥ हमारी समझ में पहला अर्थ अधिक श्रेष्ठ है, अतः उसी के अनुसार इस दोहे का पदच्छेद किया गया है ।। हळु न हठीली कर सकें यह पावस-ऋतु पाई। अन गाँठि घंटि जाइ। त्य, मान-गाँठ छुटि जाइ ॥ ५६२ ॥ ( अवतरण )-मानिनी नायिका से सखी का वचन-- ( अर्थ )-[ इस महा उद्दीपनकारी ऋतु में तेरा मान करना उचित नहीं है। यदि तू करेगी, तो वह स्थिर न रह सकेगा, और तेरी बात ओछी पड़ जायगी । देख, बड़ी बड़ी ] हठीली [ भी ] इस पावस-ऋतु को पा कर हठ नहीं कर सकती ( अपने मान को, उद्दीपन के कारण, हठात् स्थिर नहीं रख सकतीं ): [क्योंकि इस ऋतु में जिस प्रकार ] अन्य गाँठ ( सन, सूत इत्यादि में पड़ी हुई गाँठ ) घुट जाती है ( वैठ जाती है, १. सँकति ( ४ ) । २. व्याँ घुटति ( २, ३, ५) । ________________

विहारी-रत्नाकर २३३ कस जाती है, उसी प्रकार मान-गाँठ ( मान के कारण हृदय में पड़ी हुई गाँठ ) छुट जाती है ( खुल जाती है ) ॥ वेऊ चिरजीवी, अमर निधरक फिरौ कहाइ । छिनु बिछरें जिनकी नहीं पावस ओइ सिराइ ।। ५६३ ॥ ( अवतरण )-प्रवत्स्यत्पतिका नायिका की उक्ति नायक से ( अर्थ )-[ यह पावस-ऋतु ऐसी उद्दीपनकारिणी तथा वियोगियों का दुःखदायिनी है कि इसमें क्षण मात्र के वियोग से प्राण बचना दुस्तर है; सा ऐसी ] पावस-ऋतु में क्षण मात्र बिछुड़ने से जिनकी आयु सिरा नहीं जाती ( समाप्त नहीं हो जाती ), वे[ लग ] भी [ ऋषियों तथा देवत' की भाँति ] चिरजीव ( बहुत काल तक जीने वाले ) [ तथा ] अमर ( कभी न मरने वाले ) कहला कर अिधड़क ( निःशंक ) फिर करो [ क्योंकि जब वे पावस-ऋतु में वियोग होने पर भी जीवित ही रह गए, तो फिर अब उनके ऐसे न मरने वालों को कौन मार सकता है ] ॥ नायिका का तात्पर्य यह है कि अप तो कहते हैं कि तू घबरा मत, मैं शीघ्र ही लौट ऊr, पर इस पावस-ऋतु मैं तो क्षण मात्र के वियोग से भी प्राण का वचना असंभव है। भेटत बनै न भावतो, चितु तरसतु अति प्यार। धरति लगाइ लगाइ उर भूवन, बसन, हथ्यार ॥ ५६४ ।। ( अवतरण )-नायक पर देश से आया है । नायिका का चित्त उससे मिलने को तरस रहा है, पर गुरुजनों की जजा से वह उसको भेट नहीं सकती । अतः उसके भूषण, वसन इत्यादि को ठिकाने से रखने के व्याज से छाती में लगा लगा कर प्रियतम-मिजन-सुख का अनुभव करती है । सखी-वचन सखी से| ( अर्थ )-[ परदेश से आए हुए प्रियतम से भेटने के निमित्त तो इसका ] चित्त अति प्यार से तरस रहा है, [पर गुरुजनों की लज्जा स] 'भावता' ( प्रियतम ) भेटते नहीं बनता । [ अतः वह उसे भेटने के अभाव में उसके ] भूषण, वसन [ तथा ! हथियारों को [ यत्नपूर्वक रखने के व्याज से ] छाती में लगा लगा कर रखती हैं। वाही दिन हैं ना मिव्यौ मानु, कलह की मूलु ।। भखें पधारे, पाहुने, है गुड़हर को फूलु ॥ ५६५ ॥ (. अबतरण )-एक दिन नायक, नाभि से वह ह कर कि मुझे री हुने जाना है, बाहर गया, और रात भर ३ बाथा । प्रातःचे अर वह चौटा, तो उसकी आँख में जाने की लाली, इफेज पर पीक-दीड की बाली एवं माथे पर महावर टी सी इत्यादि रति-चि देकर १. मिथुरत ( ३, ५) । ३. ब्राउ ( २ ) । ३. निसि ( २ )। २३४ बिहारी-रत्नाकर नायिका ने मान किया । इस बात को यद्यपि कई दिन हो चुके हैं, पर उसने अभी मान छेड़ा नहीं है। नायिका प्रौदा धीर है, अतः अपना मान प्रकट नहीं करती, पर नायक से उदासीन तथा अनममी रहती है, जिसके कारण कभी कभी कुछ कलह भी हो जाया करता है । नायक उसकी इस वृत्ति से घबरा कर सखी से पूछता है कि यह क्या बात है । तब सखी अत्तर देती है कि इस कलह के कारण अप ही हैं, क्योंकि श्राप ही उस दिन पहुनाई के बहाने गए, और गुड़हर का फूल बन कर, अर्थात् नयन, जबाट इत्यादि का लाल किए हुए, आए । वस, उसी दिन से इसने मन ही मन मान ठान रक्खा है, और वई। मान इस ब ल ह का मूल है, क्योंकि जिस घर में गुर का फूल जाता है, उसमें कलह का होना अनिवार्य है। सखी का अभिप्राय यह है कि नायक समझ जाय कि नायिका ने मेरे ही अपराध से मन ठान रक्खा है, और उस को मना ले ( 24 )- हे पाहुने ( यह मिथ्या कहने वाले कि मुझे पाहुने जाना है ), [ तुम जो ] गुड़हर के फूल बन कर ( अपने नयनों, कपोलों तथा ललाट को लाल किए हुए ) [ उस दिन ] ‘भले' ( रखूब ) आए, [ बस ] उसी दिन से [ नायिका का ] मान, ( जो कि ] कलह ( बात बात में झगड़े ) का मूल [ है ], नहीं मिटा [ फ्याँकि गुड़हर का फूले जहाँ जाता है, वहाँ कलह होता ही है ] ॥ गुड़हर के फूल के विषय में यह प्रसिद्ध है कि वह जिस घर में रहता है, उसमें कज्ञह होता है । ‘पाहुने संबोधन का प्रयोग इस दोहे में कुछ विलक्षण रीति से हुआ है, और यही इसके यथार्थ अर्थ के समझ में आने में बाधा डालता है। इसके विषय मैं याँ समझना चाहिए कि जैसे यदि कोई मनुष्य विद्या का उपार्जन करने के बहाने घर से जार, और चारी इत्यादि कर के लौट अवे, तो बहुधा व्यंग्यभापी लोग उसको ‘आइए, विद्यार्थीजी' अथवा 'आइए, इंडितजी' कह कर संबोधित करेंगे, चसे ही सखी पहुनाई के व्याज से अन्य स्त्री के यहाँ जाने वाले इस नायक को पाहुने शब्द से संयधित करती है। मोहे लजावत, निलज ए हुलसि मिलेत सबै गात । भानु-उदै की ओस लौं मानु न जानाति जात ।। ५६६ ॥ ( ऋतरण )-- सखी ने नायिका से कहा है कि यद्यपि मैंने कई बार तुझको मान करने का उपयोग समझा दिया है, तथापि बड़े लज्जा की बात है कि पहले तो तू मान ठानती है, पर नायक को देखते ही ऐसी मोह में आ जाती है कि उससे लिपट जाती और मान छोड़ देती है। यह सुन कर नायिका उसको उत्तर देती है | ( अर्थ )-[ मैं क्या करूँ, मेरे ] ये सब निर्लज अंग [ नायक को देखते ही उससे बहुत ] हुलस ( उमॅग) कर मिलते हैं, [ और ] मुझे [ तुझसे ] लञ्जित करते हैं । भानु के उदय [ के समय ] की प्रेस की भॉति मान के जाते हुए [५] नहीं जान पाती ॥ | इस दोहे का भाव ५४८-संख्यक दोहे के भाव से मिलता है । १. उलमि ( ३ ) । २. मिले ( २ ) । ३. निज ( ५ ) । ४. जान्यो ( ३, ५ ) ।। ________________

बिहारी-रत्नाकर २३५ @ सोरठा छल तो तन अवध-अनूप रूपु लग्यौ सब जगत की । मो दृग लागे रूप, दृगनु लगी अति चटपटी ।। ५६७ ॥ ( अवतरण )-नायक नायिका को देख कर मोहित हो गया है, और अब उसके देखे विना बेचैन है । अतः उसने यह दोहा पत्रिका में लिख कर उसके पास भेजा है | ( अर्थ )-तेरे अवधि-अनूप (अवधि के अनूप, हद के अनूप ) तन में सब जगत् का रूप लग गया है (तेरे सुंदर शरीर के बनाने में विधाता ने जगत् भर की सुंदरता लगा दी है ), मेरे दृग [ तेरे ] रूप से लग गए हैं ( अनुरक़ हो गए हैं ), [ और फिर इन } दृगों में अति चटपटी ( फिर फिर देखने के निमित्त विकलता ) लग गई है ॥ इस दोहे में लगने क्रिया के तीन जगह तीन अर्थ है-( 1 ) रूपु अग्यौ सब जगत क' में ‘लग्यै।' का अर्थ व्यय हो गया है । ( २ ) 'मां दृग जागे रूप में जागे' का अर्थ अलक़ हो गए हैं। (३) इगन जगा अति चटपटी' में ‘जगी' का अर्थ व्याप्त हो गई है ॥ ॐ दोहा ® हैं निगोड़े नैन डिगि, गहैं न चेत अचेत । हौं कसु कै रिस के करौं, येनिसुके हँसिदेत ॥ ५६८ ॥ निगोड़े = गोरहित अर्थात् पादहीन, पंगु । जव स्त्रियाँ किसी व्यक्ति, अथवा पदार्थ, का नाम उसको कोसती हुई लेती हैं, तो उसके साथ निगाड़े, दईमारे, दाढ़ीजार इत्यादि शब्द को, विशेषण रूप से, लगा देती हैं ॥ निसुके–“इस शब्द का अर्थ मानसिंह ने 'निपीते' लिखा है । 'निपीते' का अर्थ प्रतिरहित अर्थात् मुझसे प्रीति न रखने वाले अथवा मेरा शील न रखने वाले हो सकता है। श्रीर किसी टीकाकार ने 'निमुके' पाठ नहाँ रक्खा है। किसी ने 'निरखें, किसी ने 'निसिखे', किसी ने 'नसिखे', और किसी ने निसखे पाठ रक्खा है, और प्रत्येक ने अपने अपने पाठ के अनुसार अर्थ किया है । हमारी समझ में निसुके' पाठ ठीक है, क्योंकि बिहारी के आदि टीकाकार मानसिंह ने यही पाठ ग्रहण किया है । इसके अतिरिक्त हमारी अन्य एक प्राचीन पुस्तक में भी यही पाठ है । मानसिंह ने जो निमुके' का अर्थ किया है, वह अवश्य चिंतनीय है । हमारी समझ में 'निसुके' शब्द संस्कृत 'निस्वक' शब्द का अपभ्रंश है। 'निस्वक' का अर्थ 'निज संपत्ति-विहीन' है । अतः ‘निसुके' का अर्थ निर्धन, दरिद्र, रंक इत्यादि मानना चाहिए, और इस शब्द को भी निगोड़े शब्द की भाँति, कोसने के निमित्त, स्त्रियों की बोलचाल का शब्द समझना चाहिए । | ( अवतरण )—मान सिखलाती हुई सखी से नायिका कहती है ( अर्थ )-[ ये मेरे ] निगोड़े नयन डिग [ ही ] कर रहते हैं (मैं लाख चाहती हैं कि ये नीचे हुए स्थिर रहैं, जैसे कि मान के समय इनको रहना चाहिए, परंतु ये, पादहीन होने पर भी, नायक के सामने आने पर, चंचल हो कर उसकी ओर चले है। जाते हैं ), [ और ये ] अचेत (बुद्धिहीन ) चेत ( चेतावनी, शिक्षा ) नहीं गहते ( ग्रहण १. गहूँ ( २ ) । २. गदि ( ३, ५ ) । ३. निसषे ( २ )। २३६ विहारी-रत्नाकर करते ) । मैं [ तो तेरे शिक्षानुसार ] 'कसु' ( बल, क़ाबू ) कर के ( बड़ी कठिनता से, अर्थात् यद्यपि ऐसा करने में मुझे कष्ट होता है, तथापि तेरे अनुरोध से ) [ इनको ] रिस के ( क्रोध के अर्थात् क्रोध भरे हुए से) करती हूँ ( बनाती हैं), [पर ]ये ‘निसुके' (प्रिय तम के दर्शन के निमित्त ललाए हुए ) हँस देते हैं । इस दोहे में अनेक पाठांतर हैं। हमारी पहिली तथा चौथी पुस्तक में यह दोहा नहीं है। जिन तीन पुस्तकों में यह है, उनमें भी इसके पाठ में अंतर हैं; जो कि पादटिप्पणी मैं दिखाए गए हैं। बहुधा टीकाकः ने 'र' के स्थान पर 'द', 'डिगि' के स्थान पर 'ये' एवं 'निसुके' के स्थान पर 'निसिखे' पाठ रक्खा है। इन पाठांतर से अर्ध निःसंदेह सरद्ध हो जाता है, पर हमारी तीन प्राचीन पुस्तकों में से किसी में यह पाठ नहीं है, अतः उन तीन पुस्तक के मिलाने से जो पाठ उचित प्रतीत हुअा, वह इस संस्करण में रखा गया है । कृष्ण कवि की टीका के पाठ से इस पाठ मैं केवल 'निसके' शब्द में अंतर पड़ता है । कृष्ण कवि की टीका मैं 'निसुके' के स्थान पर 'निसस पाठ है, और 'क' तथा 'के' के स्थान पर ‘करि' तथा 'क' ॥ मोहूँ स बातनु लगें लगी जीभ जिहिँ नाङ । सोई लै उर लाइये, लाल, लागियतु पाइ ।। ५३९ ।। नार= नाम ।। ( अवतरण )- नाथिका से बातें करते करते कहीं नायक के मुहँ से किसी सपत्नी अथवा अन्य स्त्री का नाम निकल पड़ा है, जिससे नायिका, उसके प्रति नायक का प्रेम अनुमानित कर के, कुछ रुष्ट सी हो गई है । नायक, उसको प्यार से अंक में भर कर, उस का रोष निवारण करना चाहता है । इस पर नायिका उससे कहती है | ( अर्थ )---हे लाल, [ मुझसे आपके ! पांव लगा जाता है ( पाँव लग कर विनती की जाती है ) [ कि ] मुझसे भी बातों में लगने पर ( बातें करते समय ) ( अापकी ] जीभ जिसके नाम से लगी हुई है, उसी के ले कर छाती से लगाइए [ मुझे छोड़ दीजिए ] ॥ नावक-सर से लाइ कै; तिलकु तरुनि इर्ते तक। पावक-झर सी झर्म कि कै, गई झरोखा झाँकि ॥ ५७० ॥ नावक-सर- फारसी भाषा मैं 'नाव' अथवा 'नाय' नल को कहते हैं। उसमें” छुद्रवाचक 'क' लगा कर 'नायक' शब्द बना है, जिसका अर्थ नलिका अर्थात् छोटा नल हुआ । इस शब्द का प्रयोग फ़ारसी में एक ऐसे बाण के अर्थ में किया जाता है, ओ नालिका के द्वारा चलाया जाता है । यह नलिका लोहे की होती हैं । इतमें बारूद तथा छोटे मोटे बाण भर दिए जाते हैं । इस नलिका में एक स्थान पर छिद्र होता है। उसमें अग्नि का संचार करने पर, बारूद के प्रभाव से, उसमें के बाण निकल कर, बंदूक की गोली की भाँति, बड़ी दूर १. जीधि ( ५ ) । २. सो ( ३ ) । ३. नैंक ( २ ) । ४. इति ( ३, ५) । ५. ताकि ( ३, ४, ५ ) । ६. भूम ( २ )। ________________

बिहारी-रत्नाकर ३३७ तक चोट करते हैं । इन बाणों के चलाते समय लव का अनुसंधान, अर्थात् उसकी दूरी, उँचान निचान तथा दिशा का तर्क, करना पड़ता है। इसी कारण कवि ने तंकि ( तर्क कर के ) को प्रयोग किया है। जब इस नलिका मैं अग्नि दी जाती है, तो रंजक के उड़ने से एक प्रकाश सा होता है, जिस पर विचार कर के कवि ने ‘पावक-झर सी झमक के कहा है। यहाँ झरोखे को कवि ने नलिका, नायिका के रूप के प्रकाश को अग्निसंचार की चमक एवं नायक पर दृष्टि की चोट को नाव क-सर का लगना माना है । तिलकु=तिल मात्र, जण मात्र । क्षण मात्र से कवि यह व्यंजित करता है कि नायिका नविक चलाने में ऐसी दक्ष है कि उसको लक्ष का अनुसंधान करने में विलंब नहीं लगा, और देखते ही तर्क कर के अचूक बाण मार गई । ताँकि = तर्क कर के, मेरी स्थिति का पूरा अंदाजा कर के । ताँक शब्द 'त' शब्द से बना है। जब किसी संयुक्त वर्ष में से एक वर्ष का लोप होता है, तो प्रायः उसके पूर्व का वर्ग सानुर रार हो जाता है, जैसे ‘वक्र' से 'बंक', 'कर्कट से कंकड़' इत्यादि । फिर इसी अनुस्वार के स्थान पर श्रद्धचद्र प्रयुक्त होता है, जैसे बंक' से 'बाँक' तथा 'कंकड़ से 'काँकड़ । पावक-झर= आग की लपट । झमवि: कै = शीघ्रतापूर्वक अपना प्रकाश दिखला कर ॥ ( अवतरण )-नायिका झरोखे मैं से नायक पर कटाक्ष कर के हट गई है। नायक सन कटाक्ष से घायल हो कर उससे मिखने के निमित्त विकल है, अतः अपनी दशा नायिका की सही अथवा दूती से कह कर उससे मिलने की प्रार्थना व्यंत्रित करता है ( अर्थ )-[ वह ] तरुणी झरोखा झाँक कर [ एवं ] क्षण मात्र इत ( मेरी ओर ) अनुसंधान कर के, अग्नि की ज्वाला सी झमक कर, [ मुझ पर ] नावक बाण से ‘लाइ कै' ( लगा कर, मार कर ) गई ( हट गई ) ॥


---- सुख सौं बीती सब निसा, मनु सोए मिलि साथ।

मूका मेलि गहे, सु छिनु हाथ न छोड़े हाथ ।। ५७१ ॥ मूका= भीत का वह छेद, जिसमें से उजाले अथवा हवा का संचार होता है । ( अवतरण )-उपपति नायक तथा परकीया नायिका पड़ोसी हैं। उनके घरों के बीच केवल एक भीत मात्र का अंतर है, जिसमें एक मूक भी हैं । एक रात को उस मूके में हाथ खाज कर दोन ने एक दूसरे के हाथ पकड़ लिए, और स्पर्श-मुख मैं मग्न हो कर हाथ पकड़े ही पकड़े रात बिता है । सखी-वचन सखी से| ( अथ )-मूके में [ हाथ ] डाल कर [ दोनों ने जे एक दूसरे के हाथ ] पकड़े, सो हाथ [ फिर] हाथ से क्षण मात्र नहीं छोड़े, [ एवं वैसे ही हाथ पकड़े पकड़े] सारी रात [ ऐसे ] सुख से वीत गई, मानो [ दोनों एक ] साथ मिल कर सोए [ थे ]॥ बाम बाँहे, फरकैति; मिलें जौ हरि जीवनमूरि।। तौ तोहीं स भेटिड राखि दाहिनी दूरि ॥ ५७२ ॥ १. जनु ( ३, ५) । २. इक ( २ ), एक ( ४ ) । ३. गए ( ३, ५) । ४. बाहु ( २, ३, ५ ) । ५. फरकत ( २, ३, ५) ।

२३८ विहारी-राकर ( ३वतरण )- नायिका का पति विदेश से आने वाला है। इसकी सूचना उसकी बाई बाँह, फक कर, दे रही है। अतः वह शुभ संवाद देने वाली ऐसी बाँह को पुरस्कार देने की प्रतिज्ञा करती है | ( अर्थ )-[ हे मेरी ] वाइँ बाँह ! [ तु जो इस समय ] फड़क रही है, [ उससे प्रियतम का शुभागमन सूचित होता है। इस सूचना के अनुसार ] यदि [ मेरे ] 'जीवनमूरि' ( प्राणों के आधार ) हरि ( श्रीकृष्णचंद्र ) [मुझे आ ] मिलें, तो [ मैं इस शुभ सूचना के पुरस्कार में तुझे यह परम सुख देंगी कि ] दाहिनी [ बाँह ] को दूर रख कर तुझी से [ उनका ] आलिंगन करूँगी ॥ छुटै छुटावत जगत हैं सटकारे, सुकुमार । मनु बाँधत बेनी-बँधे नील, छबीले बार ॥ ५७३ ।। | ( अवतरण )–नायक ने नायिका के केश खुल तथा बँधे, दोन रूप में देखे हैं, और दोनों ही रूप शसको एक दूसरे से अधिक मनोहर लगे हैं। अतः उनके देखने से उसके मन की जो व्यवस्था हुई, उसका वर्णन वह सखी से करता है-- ( अर्थ )-[ उसके ] छुटे हुए सटकारे ( साटी के से लंबे, पतले तथा लचकत्ते ) [ तथा ] सुकुमार (कोमल ) [ बाल तो ] जगत् स [ मन को ] छुटा देते हैं (अर्थात् उनको देख कर फिर मन जगत् की किसी और वस्तु में नहीं लगता ), [ और उसके ] वेणी-बँधे (चोटी गुंथे हुए ) नीले [ तथा ] छबीले बाल मन को बाँध लेते हैं (अपने पर आसक्त कर लेते हैं ) [ भाव यह कि उसके बाल दोनों ही अवस्था में परम सुंदर और मनोहर लगते हैं ]॥ | दोहे के उत्तरार्द्ध में जो 'वार' तथा 'मनु' शब्द बाँधत क्रिया के कता तथा कर्म रूप से आए हैं, वहीं पूर्वाई में जो ‘छुटावत' क्रिया है, उसके भी कता तथा कर्म हैं॥ ‘कुटावत' क्रिया का कर्ता जो ‘बार होता है, उसके विशेषण ‘सटकार' तथा 'सुकुमार' हैं, क्योंकि खुले हुए बालों की सटकारता तथा सुकुमारता ही पर विशेषतः ध्यान जाता है। इसी प्रकार वेणी गॅथे हुए बाबाँ की नीचिमा ही पर ध्यान अधिक आकर्षित होता है, अतः वैनी-धे बार' के विशेषण ‘नी, छबीजे' रक्खे गए हैं। इहँ बसंत न खरी, अंरी, गरम न सीतल बात ।। कहि, क्य झलके देखियत पुलके, पसीजे गात ॥ ५७४ ॥ ( अवतरण )-नायिका सखियाँ मैं बैठी है, और उपपति नायक उसके सामने आ गया है । उसे देख कर नायिका को वेद तथा पुलक सात्त्विक हुए हैं। इन भाव से कोई सखी उसका अनुराग लक्षित कर के कहती है १. कुटdि ( २, ३, ५ ) । २. खरी ( ४ )। ३. गरम् ( ४ ) । ४. हुलसे ( ४ ) । ५. पुलाक ( २, ४) । ________________

बिहारी-रत्नाकर २३६ | ( अर्थ )-अरी, इस वसंत ऋतु में ‘बात' ( वायु ) न [ तो ] खरी( बहुत ) गरम है, [ और ] न [ बहुत ] शीतल [ ही ] [ अतः इस समय पसीने अथवा पुलक के होने की संभावना विना किसी गुप्त कारण के नहीं है । सो इस नायक को देख कर ही तुझे रवेद और पुलक हो गए हैं, जिससे तेरा अनुराग लक्षित होता है। यदि ऐसा नहीं है, तो तू ही ] कह, [ तेरे ] पुलक झलके हुए [ तथा ] गात्र पसीजे हुए क्या देखे जाते हैं। चित पितमरिक-जोगु गनि भयौ, भयँ सुत, सोगु । ' फिरि हुलैयौ जिय जोइसी समुझै जारज-जोगु ।। ५७५ ।। ( अवतरण }-यह दोहा हास्य रस का है। कवि किसी ज्योतिषी की व्यवस्था उसकी हँसी उड़ाता हुआ कहता है ( अर्थ )-[ ज्योतिषीजी के जब लड़का हुआ, और उन्होंने उसकी जन्मकुंडली वना कर ग्रह-संस्था पर विचार किया, तो पहिले तो उस कुंडली में ] पितृमारक ( पिता के मार डालने वाले ) योग की गणना कर के [ उनके ] चित्त में सुत होने पर [ प्रसन्नता के स्थान पर ] 'सोगु' (शोक ) हुआ । [ परंतु ] फिर [ उस लड़के के जन्म में j जारज-योग ( पितातिरिक्त किसी अन्य पुरुष से उत्पन्न होने का योग ) समझ कर ज्योतिषाजी [ अपन] जी ही जी में [ संकुचित तथा अप्रसन्न होने के बदले ] हुलसे (उमगे, हर्षित हुए ) ॥ । चमचमात चंचल नयन बिच घूघंट-पट झीन । मानहु सुरैसरिता-विमलजल उछरंत जुग मीन ।। ५७६ ॥ ( अवतरण )-सखी नायिका के नेत्र की प्रशंसा नायक से कर के उसकी रुचि बढ़ाती है ( अर्थ )-[ उसके ] चंचल नयन झीने (पतले, महीन ) पूँघट-पट ( पूँघट के कपड़े ) के वच में से ( भीतर से ) [ ऐसे ] चमचमाते ( चमकते हुए हिलते ) हैं, मानो सुरसरिता ( गंगा ) के विमल ( स्वच्छ ) जल में दो मीन (मछली ) उछलते हैं ॥ रहि मुंह फेरि कि हेरि“इत; हित-समुही चितु, नारि ।। डीठि-परैस उठि पीठि के पुलके हैं पुकारि ॥ ५७७॥ ( अवतरण )-नायिका उपपति को देख कर, अपनी अनुरागीकृति छिपाने के लिये, सखियाँ १. पितुमारक ( ३ ), पितुमारिग ( ४ ) । २. गुनि ( ४ ) । ३. अति हुलस्या ( ३, ५ ), मनु हुलस्यो ( ४ ) । ४. जतिसी ( २ ), जोयसी ( ३ ) । ५. समझयो : २) । ६. चलत नमकि ( २ ) । ७. चूँघुट ( ४ ) । ८. सुरसलिता ( ३, ४, ५) । ६. उछलत ( ३, ४, ५ ) । १०. हरियत ( ३, ५ ), हेरिहाँ ( ४ ) । ११. समुझौ ( ४ ) । १२. परसि ( २, ३, ५ ) । १३. के ( ३, ४)। १४. कहति (३,५) ।

३५० बिहारी-रत्नाकर तथा नायक की ओर से मुहँ फेर कर खड़ी हो गई है। पर कोई सखी उसकी पुकाबली से उसका अनुराग क्षक्षित कर के कहती है ( अर्थ )[ चाहे तू ] मुंह फेर कर रह ( स्थित हो ) अथवा इधर ( हम लोगों की ओर ) देख [तेरा अनुराग छिपाए छिप नहीं सकता ]। हे नारि, [ तेरी ] पीठ के पुलके ( पुलक-समुह ) [ नायक की ] दृष्टि के स्पर्श से उठ कर [ तेरे ] चित्त को हित-समुहा ( प्रेमोन्मुख अर्थात् प्रेम की ओर ढला हुआ ) होना पुकार कर ( प्रकाश रूप से ) कहते हैं ॥ बिछरें जिए, संकोच इहिँ बोलत बनत न बैन । दोऊ दौरि लगे हियँ किए लॉहैं नैन । ५८ ।। ( अवतरण )-नायक परदेश से आया है। नायक नायिका, दोन के हृदय में इस बात की लजा है कि हम लोग जे संयोग-दशा मैं यह कहा करते थे कि वियोग में हम न जितेंगे, वह मिथ्या हो गया। इसी जजा से दोन कुछ बोल नहीं सकते । बस, टोन दौड़ कर नीची अाँखें किए हुए लिपट गए । सखी-वचन सखी से-- ( अर्थ )-बिछुड़ने पर [ भी ] जीते रहे, इस लज्जा से [ दोनों से कुछ ] वचन बोलते नहीं बनता । [ बस, ] दोनों लजह ( लज्जा से नीचे ) नयन किए हुए दौड़ कर [ एक दूसरे की ] छाती से लग गए ।। मोहिँ करत कत बावरी, करें दुराउँ दुरौं न । कहे देत रँग राति के रँग-निनुरत से नैन । ५७६ ।।। ( अवतरण )-खंडिता नायिका का वचन शठ नायक से ( अर्थ )-मुझे [ तुम मीठी मीठी, मिथ्या बातें कर के ] बावली ( झूठी बातों से धोखा खाने वाली ) क बनाते हो ( बनाया चाहते हो ) । [ तुम्हारे ] दुराव ( छिपावे ) करने से [ रात के अनंद ] छिपते नहीं । [ तुम्हारे ] रंग निचुइते से ( भली भाँति लाल ) नयन रात के रंगों ( आनंद-क्रीड़ों ) को कहे देते हैं ( स्पष्ट रूप से प्रकाशित किए देते हैं ) ॥ छिर्दै छिपाकर छिति छंचें तम ससिंहरि न, सँभारि ।। हँसति हँसति चलि, ससिमुखी, मुख नैं चरु टारि ॥ ५८० ।। ( अवतरण )-अभिसारिका नायिका नायक के पास जा रही है। मार्ग में इसको चंद्रास्त हो गया और अंधेरा छा गया है, जिससे वह संकेतस्थल की ओर, जो कि कदाचित् किसी निर्जन १. बने ( ३, ५ ) । २. बाउरी ( ३ ) । ३. करत ( ३, ५) । ४. दुराव ( ४ ) । ५. बिया ( २ ), छपे (४)। ६. छपाकर (४) । ७. अयो (२) । ८. समहरि ( २ ), सासहर ( ३, ५) । १. अंचल ( २ ) । ________________

विधवारी-रखाकर तथा सधन वन में है, अदने से हिचकिचाने लगे है। यह देख कर उसके संग की पूती, उसके हृदय में ओज बढ़ाने तथा ढाढ़स बैराने के निमित्त उसके रूप की प्रशंसा करती हुई, उससे बेखटके भागे चलने का अनुरोध करती है ( अर्थ )-‘विपाकर' ( क्षपाकर, चंद्रमा ) के छिप जाने के कारण तम ( अंधकार ) के पृथ्वी को छूने ( छा ले . से [ 7 ] मत 'ससिहर' (डर ), [ प्रत्युत ] सँभाल ( १. अपने रूप के उत्कर्ष का स्मरण कर । २. अपने को सँभाल ले, चैतन्य हो जा ), [ और ] हे शशिमुखी, [ अपने ] मुख से घूघट हटा कर [१. जिसमें कि फिर चंद्रमा निकल आवे । २. जिसमें कि मार्ग भली भाँति दिखलाई ३ ] हँसती हँसती ( १. मुस्खे के हास्ययुत कर के, जिसमें कि मार्ग में प्रकाश हो जाय । २. हंसी खुशी से, जिसमें कि माई गढ़ाय नहीं )[ बेखटक ] चली चल ॥ | इस दोहे मैं कवि ने बड़ी बातरी दिखलाई है । एक ही वाक्य से दूतो नासिक के रूप की प्रशंसा कर के उसके हृदय में गर्व भी उत्पन्न करती है, जिसमें कि उसका मन अगे बढ़ने से कदम नहीं, क्याँकि हृश्य मैं गर्व व्याप्त हो जाने पर कदाई नई रइ जाती, अर उस के अँधेरे में मज़ कर तथा प्रससचित्त छ। सजने की शिक्षा भी देती है ॥ अपनें अपनै मत लगे बादि मचावत सोरु । ज्यै त्यै सब सेइबौ एकै नंदकिसोरु ।। ५८१ ॥ वादि= वृथा ।। . ( अवतरण }--कोई ज्ञानी भक्त, जो कि संसार भर को श्रीकृष्णमय समझे हुए हैं, अपना सिद्धांत मन से कहता है ( अर्थ )-[ संसार भर के भिन्न भिन्न देव-उपासक अर्थात् वैष्णव, शैव, शाक़ इत्यादी तथा भिन्न भिन्न मतवादी अर्थात् वैत, अद्वैत, वैताद्वैत इत्यादि मत वाल ] अपने अपने मत में लगे हुए ( अपने अपने सिद्धांत का समर्थन करते हुए ) वृथा हौर मचाया करते है ( वाद विवाद किया करते हैं ) । [ सच्चा सिद्धांत तो यह है कि ] सके। ये त्याँ ( किसी न किसी प्रकार, किसी न किसी रूप में ) एक नंदकिशोर ही की सेवा करना है। [ अर्थात् चाहे किसी देव की केाई सेवा करे, पर वास्तव में वह सेवा नंदकिशेर ही की होती है, क्योंकि अखिल ब्रह्मांड नंदकिशोरमय है ] ॥ लंहि सुंनै घरै कर गहत दिठाँदिठी की ईठि गड़ी सु चित नाहीं करति करि ललहीं डीठि ॥ ५२ ॥ | ( अवतरण )-नायक नायिका में केवल देखादेखी की मैत्री है। अभी विशेष परिचय नहीं हुआ है। एक दिन नायक ने नायिका के सूने घर में पा कर उसका हाथ पकड़ खिया, जिस पर नायिका ने, अपनी आँखें ललचाँहीं कर के, सी-जाति / स्वाभाविक सजा तथा इसे भय से कि कोई अ न १. लखि ( २ ) । २. सूनी ( २ ) । ३. घरु ( २ ) । ४. दिवादिखी ( २, ४ ) २४२ बिहारी-रत्नाकर जाय, ‘नहीं नहीं' की । नायिका की वह चेष्टा नायक के हो मैं गड़ गई और उसको उससे मिलने के निमित्त उत्सुक कर रही है । अतः वह इस व्यवस्था को किसी दूती अथवा नायिका की सखी से करता है, जिसमें वह मिलाने का उद्योग करे । 'दिठावित्री की ईठि' तथा 'करि ललचाँही दाठि' से वह यह व्यंजित करता है कि मुझसे उससे पहले से कुछ परिचय भी हैं, और उसको भी मुझसे मिलने की अभिलाषा है, अतः तुझको इस कार्य में विशेष कठिनता न पड़ेगी-- ( अ )-'दिठादिठी' ( देखादेखी ) की 'ईठि' ( मैत्री, जान पहिचान) से (के कारण) [ ढिठाई कर के एक दिन उसको ] सूने घर में पा कर [ उसका ] हाथ पकड़ते हुए वह ललचौहाँ ( लालच-भरी ) दृष्ट कर के 'नाहीं करती हुई [ मेरे ] चित्त में गड़ गई !! पिय कैं ध्यान गही गही रही वही है नारि । अपु आपु हीं आरसी लखि रीति रिझवारि ।। ५८३ ।। रिझवारि = रूप गुण पर रीझने की योग्यता रखने वाली ॥ | ( अवतरण )---- नायिका, नायक के ध्यान में निमग्न हो हो कर,तद्रूप हो रही है, और नायक हैं। की मनोवृत्ति सी उसका भी मनोवृत्ति हो गई है । अतः जिस प्रकार नायक उसको देख कर रीझता है, उसी प्रकार वह अपना रूप आरसी मैं देख कर रीझती है । सखो-वचन सखी से ( अर्थयितम के ध्यान से गही गही ( ग्रस्त हो हो कर ) [ यह ] नारी [ भुंगी-ग्रस्त कीट की भाँति ] वही हो रही है ( अपने को प्रियतम ही समझने लगी है ), [ अतः यक्ष् ] 'रिझवारि' अपने ही को आरसी (दर्पण ) में देख कर आप ही रीझती ( प्रसन्न होती ) है ॥ बुरौ बुराई जौ तजै, तो चितु खरी डरातु । ज्यौं निकलंकु मयंकु लाव गर्ने लोगे उतपातु ॥ ५८४ ॥ ( अवतरण )--कवि की प्रास्ताविक उक्ति है ( अर्थ ?-- यदि तुरा [ मनुष्य ] चुराई छोड़ दे, तो चित्त बहुत डरता है, जिस प्रकार चंद्रमा को कलंक-रहित देख कर लोग उत्पात गिनते ( संभावित करते ) हैं ॥ ज्योनिष का मत है कि जब संसार में कोई बड़ा उपद्रव होने को होता है, तो चंद्रमा निरुकलंक दिखाई देता है ॥ मरिचे कौ साहसु ककै बर्दै विरह की पीर । दौरति है सही ससी, सरसिज, सुरभि-समीर ॥ ५८५ ।। ( अवतरण )-प्रोषितपतिका नायिका की दशा सखियाँ आपस में कहती हैं-- १. रहिवे की ( ३, ५) । २. रिझवात ( ३, ५ ) । ३. छिनु ( २, ४) । ४. लोक ( ३, ५) ! ५. क ( २ ) । ६. समुहे ( ४ ) । ________________

बिहारी-रत्नाकर | ( अर्थ )-[ यह ] विरह की पीड़ा के बढ़ने पर मरने का साहस ( हिम्मत ) कर कर के शाश, कमल [ तथा ] सुगंधित वायु से (के) सन्मुख हुई ( हो कर ) दौड़ती फिरती है ॥ शशि इत्यादि विरहिणी के ताप देते हैं । अतः नायिका समझती है कि इनके सामने अधिक होने से, तोपाधिक्य के कारण, प्राण निकल जायेंगे, और मैं विरह-व्यथा से छुट्टी पर जाऊँगी ॥ कब की ध्यान-लगी लखौं, यह घरु लेगिहै काहि ।। डरियतु भुंगी-कीट लैं मंति वहई है जाइ ॥ ५८६ ॥ भृगी= एक पंख वाला कीड़ा, जो अन्य छोटे छोटे कीड़ों को पकड़ कर अपनी वल्मीक में रखता ग्रेरि उनके चारों ओर चूम चूम कर इतना भनभनाता है कि उसके भय से 1 छोटे कीड़े उग्र के ध्यान में तल्लीन हो कर उसी का रूप धारण कर श्रृंगी ही हो जाते हैं । इसका वर्णन योग और साहित्य में बहुत अाया है ।। ( अवतरण )-पूर्वानुरागिनी नायिका, घर बार तथा खाने पीने की सुधि भूली हुई, बड़ी देर से नायक के ध्यान में लगी हुई है। उसकी हितकारिणी सखी उसे समझा कर आपे में लाया चाहती ; । सखी का अभिप्राय यह है कि यह खाए पिए और घर के काम काज देखे, जिसमें इसका अनुराग खुलने न पावे, और हम लोग इसको नायक से मिलाने का यथोचित उपाय करें ( अर्थ )-[ मैं तुझको ] कव की ( बड़ी देर से ) [ नायक के ] ध्यान में लगी हुई देखती हूँ, [ जिससे यह ] डर होता है [ कि ] कहाँ [ तू ] भुंगी-कीट ( भुंगी के द्वारा पकड़े गए कीड़े) की भाँति वही ( जिसके ध्यान में लगी हुई है ) न हो जाय। [ देसी अवस्था में तू बतला तो सही कि ] यह [ तेरा ] घर बार किसको लगेगा ( किसके सहारे चलेगा, क्योंकि तू तो तू रहे ही गी नहीं। अतः तुझका उचित है कि अपने को सँभाले) ॥ बिलखी लखै खरी खरी भरी अनख, बैरग । मृगनैनी सैन न भनै लखि बेनी के दाग ।। ५८७ ॥ सन—यह शब्द संज्ञा से बना है। इसका अर्थ इंगित अर्थात् इशारा है । यह विशेषतः अाँखा के इशारे के अर्थ में प्रयुक्त होता है । लक्षभा शक्ति से इसका अर्थ ग्राख अथवा पलक भी होता है । बोलचाल में भी लोग कहते हैं कि वह सैन नहीं भांजता', अर्थात् पलक नहीं गिराता ॥ | ( अवतरण )--मुग्धा खंडिता नायिका का वृत्तांत सखी सखी से कहती है ( अर्थ )-[ प्रियतम के अंग में अन्य स्त्री की ] वेणी के चिह्न [ उपदे हुए ] देख कर [ यह ] मृगनयनी सैन ( पलक ) नहीं भजती ( गिराती ), [ और ] ‘अनख' ( अमर्ष ) [ तथा ] 'बैराग' (उदासीनता ) से भरी [एक ही स्थल पर पुत सी सी ] खड़ी खड़ी ‘बिलखी' (दुखी ) हुई [एकटक ] देख रही है । १. लखे ( ३, ५ ) । २. लागाह ( ५ ) । ३. जिन ( ४ ) ।

विहारी-रत्नाकर अनियारे, दीरघ दृगनु किती न तरुनि समान । वह चितवन र कछु, जिविस होत सुजान ।। ५८ ॥ | ( अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्रि है कि बाह्य सौंदर्य मैं तो संसार की अनेक वस्तुएँ एक । सी ज्ञात होती हैं, पर सुजान लोग जिसमें कोई विशेष अतिरिक भाव होता है, उसी से अनुरङ्ग होते हैं। जैसे कि दृ तथा करदार दृग वाली अनेक विवाँ संसार में होती हैं, पर सुजान चोग सभी से अनुरक्त नहीं होते । र तो अनुरक्र करने वाली एक विशेष प्रकार की चितवन होती है। जो किसी ही किसी की अस्बिों में होती है । यह दोहा ऐसे स्थान पर पढ़ने के बाग्य है कि जब कोई राजा अथवा धनी यह सोचे कि हम धन दे कर अमुक गुण को वश कर लेंगे, पर वह गुणी उसके स्वभाव से प्रसन्न न हो कर उपके या न रहे, प्रत्युत किसी और के स्वभाव तथा सन्मान से सतुष्ट हो कर उसके यहां निवास करे| ( अर्थ )-अनियारे ( कोरदार ) [ तथा ] दीर्घ रगों में ( के कारण ) [ संसार में ] कितनी तरुणियाँ एक ही सा नहीं हैं ! [ परंतु सबकी चितवने एक सी नहीं होतीं ] वह चितवन कुछ और ही ( किभी विशेष प्रकार की ओर किसी ही किसी में ) होती है, जिससे सुजान ( गुणीजन ) वशीभूत होते है ॥ झुक झुक झपकै पलनु, फिरि फिरि जुरिजमुहाइ । बाँदि पिअागम, नीद-मिसि, द सब अंली उठाइ ।। ५८६ ।। जुरि =अंगड़ाई ले कर ।। बांदि = जान कर. ग्रन्मान कर के ।। ( अवतरण )-प्रदा वाकसज्ञा नायिका की चातुरी का वर्णन सखी सखी से करती है ( अ ) - [ इसने ] प्रियतम का आगम [ प्रेमाधिक्य के कारण अपने हृदय में ] ‘बादि' ( अनुमानित कर ), झपकते हुए से पलकों से ( सहित ) झुक झुक कर, [ और ] फिर फिर ( वारंवार ) अंगड़ाई ले ले कर [ तथा ] उँभा जैन कर. 'ईद मिसि' ( नई के बहाने, अर्थात् इस बात का झूठ ही दिखला कर कि मुझ को नींद आती हैं ), सव सखियाँ [अपने पाम से ] उठा द’ | और अपने शय्यागृह में एकांत कर लिया ] ॥ । बिहारी ने ‘पल' शब्द का प्रयोग संकृत के अनुसार पुलिंगवत किया है। पर भाषा में 'ज' तथा ‘पत्नक' शब्द का स्त्रीलिंग-प्रयोग देता है ॥ ओछे बड़े न है सकें, लगौ सतर है गैन । दीरघ होहिं न नैंक हूँ फरि निहारें नैन ।। ५९० ( अवतरण )-अवि की प्रास्ताविक उकि है कि अछे मनुष्य चाहे कितने है। ऊँचे बनें, पर बड़े नहीं हो सकते - ( अर्थ )-[ चाहे ] ‘सतर' हो कर (तनेने हा कर, ऐंठ कर) गैन' (गगन, अाकाश) १. पिय के आगम ( २ ), जानि पिपागम (४) । २. सखी ( २ ) । ३. हॉ६ ( २, ४) ! ________________

बिहारी-रत्नाकर में लग जायें, [ पर ] छ ( भुइ मनुष्य ) बड़े नहीं हो सकत । [ जैसे ] फाड़ फोड़ कर देखने से नयन किंचिन्मान भी बड़े नहीं हो जाते ॥ गह्य अबोलो बोलि प्यौ अपुहिँ पठे बसीठि । दीठि चुराई दुहुनु की लखि सकुचाँहीं दीठ ॥ ५९१ ॥ { इतरण ) -- नायिका ने नायक को बुलाने के लिए दृती भेजा थी, सो वह नायक से रमण केर के र उसको साथ ले कर आई है। रमण करने के कारण दान के अखें सन्रुवह हैं, जिससे नायिका ने रमण करना अनुमान कर के भान ठान लिया, और उन । भेर देती भी है। यही वृत्तांत सखी सखों से कहती है-- | ( 34 ) -[ इसने] श्राप ही (स्वयं बड़े चाव से) वसीटि' ( दृती ) भेज कर नायक को बुला कर [ उसके आने पर ] मौन धारण कर लिया है. [ अर ] दान ( नायक तथा दुती ) की सकुचाहीं ( लाजित ) दृष्टि देख कर [ अपनी] दृष्टि ! उनसे ] चुराई ( रोष से नीची कर ली ) ॥ दुखाइनु चरचा नहीं अानन अनिन अनि ।। लगी फिरै ठूका दिए कानन कानन कान ॥ ५९२ ।। दुखाइनु--इस शब्द का अर्थ, प्रभुदयालु पाँडे को छोड़ कर, प्रायः अर सब टीकाकारों ने ‘दुखदाइनि कर दिया है । पर ‘दुखहाइनु' का अर्थ ‘दुखदाइनि' नहीं है । इसका अर्थ ‘दुःख से हुती हुई है। इसका प्रयोग स्त्रियां 'दईमारी' की भाति कोसने में करती हैं । दूका-छप कर किसी की बात सुनने को ठूका देना अथवा इका लगना कहते हैं । ( अवतरण )-- दूत नायिका से नायक के पास, निकुंज में, चलने को कहती है । नायिका चवाइन से दुःखित हो रही है । अतः उसका उत्तर देती है कि इस समय चलने का अवसर नहीं है, आजकल चचाव बहुत फैल गया है, किंचित् वह पटा जाय, तो मैं चलँ | ( अर्थ )-[ इन ] दुखाइना [ अर्थात् चवाइनों ] के लिए मुख मुख में आन ( दूसरी. मेरी चर्चा छोड़ कर अन्य ) चर्चा नहीं है । [ये ] कानन कानन ( वन वन ) में कान दिए ( लगाए ) ठूका { परखी ) लगी फिरती हैं ॥ हितु करि तुम पठयौ, लगै वा बिजना की बाइ ! टली तपति तन की, तऊ चली पसीना-न्हाइ ।। ५8३ ।। ( अवतरण )-नायक के भेजे हुए पंखे की हवा खगने से नायिका को जो स्वेद सरिक हुआ, इसका अर्बन सी नायक से कर के नायिका का प्रेमाधिक्य भ्यंजित करती है ( अर्थ )-तुमने [ जो पंखा ; हित कर के ( प्रेम से ) [ उसके पास ] भेजा, [स] १. अापे ( ३ ), श्रापै (४) ।

२४६ बिहारी-रत्नाकर उस 'बिजना' ( व्यजन, पंखे ) की ‘वाइ’ (वायु) लगने से[यद्यपि उसके] तन की 'तपति' ( तपन )[ तो तुमसे प्रेमपहार पने के आनंद से ] टली, [पर ] तो भर ( तपन के इस जाने पर भी ) [ वह सात्विक के ] पसीने से नहा चली ॥ ध्यान अनि ढिग प्रानपति रहति मुदित दिन राति । पलकुकॅपति, पुलकति पलकु पलकु पसीजतिजति ।। ५९४ ।। ( अवतरण )--नायिका की स्मृति दशा का वर्णन सखा सखी से करती है ( अर्थ )-- प्राणपति ( प्राण के स्वामी, प्रियतम ) को ध्यान मैं [ अपने ] पास ला कर [ वह ] दिन रात प्रसन्न रहती हैं, 'पलकु' (पल मात्र, कभी) काँपती, ‘पलकु' (कभी) पुल*नी (रोमांचित होती ), [ और] ‘पलकु' (कभी) पसीजती (पसीने से भीगत ) जाती है। ‘जति', इस शब्द से यह पंजित होता है कि कंप, पुलक तथा स्वेद रात दिन पारी पारी से होते ही रहते हैं । ‘१लकु' शब्इ यहाँ क्रिया-विशेषण-रूप से प्रयुक्र हुअा है। ऐसे क्रिया-विशेषण संस्कृत में भी द्वितीयांत प्रयुक्त होते हैं । सकै सताइ न तमु बिरहु निसि दिन सरस, सनेह । है वंहै लागी दृगनु दीपलिया सी देह ।। ५५ ॥ ( अवतरण )-प्रोपितपतिका नायिका का संदेश ले कर कोई आया है, और कहता है कि उसकी तो आपके विरह मैं दारुण दशा हो रही है, जैसा मैं आपसे निवेदन-कर चुका हूँ, अब आप जो कहिए, वह जा कर मैं उससे कहूँ । नायक यह सोच कर कि एक ते वह बेचारी अपने विरहदुःख के मारे याँ ही विकल हो रही है, उस पर यदि मुझे दुःखित तथा कातर सुनेगी, तो फिर न जानें उस पर क्या बीतेगी, अपने दुःख को प्रकट नहीं करता, प्रत्युत कहता है कि मैं तो उसके ध्यान में ऐसा मग्न रहता हूँ कि मुझे विरह-दुःख व्याप्त ही नहीं होने पाता । इस कथन से नायक और भी दो अभिप्राय व्यंजित करता है—एक तो यह कि उसके। क्षण मात्र भूलता नहीं, और दूसरा यह कि उसे भी मेरी ही भाति धैर्य धारण कर के मेरे ध्यान से विरह-दुःख का निवारण करना चाहिए | ( अर्थ )-[ मुझे ] तम [ अर्थात् ] विरह सता ( दुःख दे ) नहीं सकता. [ क्यों कि] रात दिन वही ( उसी की ) सनेह ( नेह अर्थात् स्नेह-युत ), सरस ( रसीली ) देह दीपक शिखा ( दीपक की टेम ) की भाँति [ मेरे ] इगे में लगी रहती है ( मेरी आँखों के प्रति समाप उपस्थित रहती है ) ॥ । विरह-जरी लखि जीगर्नेनु कह्यौ न डहि कै बार। अरी, उ भजि भीतरी; बरसत आजु अँगार ॥ ५९६ ।। | १. रहें ( ३ ) । २. उही ( ३ ), उहें ( ५ ) । ३. जियगननु ( ३, ५) । ४. जान्ह ( ४ ) । ५. बरषत ( ३, ५) । ________________

बिहारी-रत्नाकर ( अवतरण }-विहिणी नायिका को वर्षा ऋतु मैं, अधिक उद्दीपन होने के कारण, जुगनू अंगारे से जान पड़े । अतः उसने सखी से कहा कि आज पानी के बदले अंगारे बरस रहे हैं, तू भीतर भाग आ । उसकी यह दशा सखी नायक से निवेदित करती है ( अर्थ )-जुगनुओं को देख कर [ उस] विरह से जली हुई ने [ और भर ] ‘उहि' ( दह कर, दुःख पा कर ) [ मुझसे ] कै बार नहीं कहा ( अनेक बार कहा ) [ कि ] अरी, ‘भीतरी' ( भीतर ) भाग , [ क्योंकि] आज अंगारे बरस रहे हैं ॥ फिरि घर कौं नूतन पथिक चले चकित-चित भागि । फुल्यौ देखि पलालु यन, समुही समुझि दवागि ।। ५६७॥ | ( अवतरण )--वसंत ऋतु में जब जंग में पलाश फूलता है, तो दूर से देखने वालँाँ को जान पड़ता है कि दवारि लगी हुई हैं । इस दृश्य का वर्णन कवि करता है, अर फूले हुए पलाशवन में दाग्नि के भ्रम होन की पुष्टि ग्रह कह कर करता है कि इस भ्रम का होना कुछ मेरी कल्पनः मात्र नहीं है, प्रत्युत, देखो, ऐसे पथिक, जिन्हौंने पहले कभी फूला हुअा पलाश-वन नहीं देखा था, इस दृश्य को देख कर ऐसे भ्रम में पड़ गए हैं कि आगे न बढ़ते और लौट कर घर भागे जाते हैं ( अर्थ ) --[ देखो,] जंगल में पलाश फूला हुआ देख कर, [ और उसे ] 'समुही ( सामने आई हुई ) दवाग्नि समझ कर, नए ( अनुभव शून्य ) पथिक लौट कर चकित चित्त ( भ्रम-भरे चित्त से ) घर के भाग चले ॥ गड़ी कुटुम की भीर मैं रही बैठि दै पीठि। तऊ पलकु परि जाति इत सलज, हँसह डाठि ।। ५९६ ॥ ( अवतरण )-नायिका अपने कुटुंबिय मैं है, और उसका उपपति वहाँ किसी कार्यवश आ गया है । उसे देख कर वह मुंह फेर कर बैठ गई है, पर सस्मित तथा लजीली दृष्टि से क्षण मात्र नायक को देख लेती है । उसके इसी प्रेम तथा चातुरी की प्रशंसा नायक अपने मन में करता है ( अर्थ )-[ अहा ! देखो, इसका प्रेम मुझ पर कैसा गूढ़ है, और यह कैसी चतुर है कि यद्यपि यह ] कुटुंब की भीड़ में गड़ी ( घिरी ) हुई [ मेरी ओर ] पीठ दे कर बैठ गई है, तथापि [ इसकी ] लजा-भरी, मुसकिराती हुई दृष्टि इस ओर ( मेरी ओर ) पल मात्र पढ़ [ ही ] जाती है ॥ नाउँ सुनत ही है गयौ तनु औरै, मनु और। दबै नहीं चित चढ़ि रह्यौ अबै चढ़ाएँ त्यौर ॥ ५९९ ॥ ( अवतरण )-प्रकृतिलक्षिता नायिका से सस्त्री की उक्लि ( अर्थ )-[ नायक का ] नाम सुनते ही [ ते तेरा ] तन [ पुल कादि के कारण ] और ही [सा ] हो गया, [ और ] मन [ भी ] और [ही j(दूसरे ही प्रकार का, अर्थात् १. चढायौ ( ३ ), चदाश्रो ( ५ ) ।

विहारी-रत्नाकर अपने वश से बाहर )। [ तो फिर ] अव [ तेरे इस ] तेवर चढ़ाने से [तेरे ] चित्त पर चढ़ा हुआ [ नायक] दर ( छिप ) नहीं सकता ॥ दुसह सौति-सालें, सु हिय गनतिन नाह-बियाह ।। धरे रूप गुन की गरवु फिरै अछेह उछाह ।। ६०० ।। ( अवतरण )-नायिका के पति के एक और विवाह की तैयारियाँ हो रही हैं। पर इस घटना से उसको किंचिन्मात्र भी दुःख नहीं होता, प्रत्युत इस गर्व से कि मेरे रूप तथा गुण ऐसे हैं कि नायक मेरे वश से अन्य के वश में नहीं जा सकता वह वैसा ही उत्साह भर फिरती हैं। सखेवचन सुखी सं-- ( अर्थ )-सोत की [ जो ] दुःसह साले ( व इत्यादि के गड़ने की सी पीड़ा ) [ होती ] हैं, उनको [ यह अपने ] हृदय में, [ अपने ] पति के [ अन्य ] विवाह में (के अवसर पर ), [ कुछ भी ] नहीं गिनती, [ प्रत्युत ] रूप [ तथा ] गुण का गर्व धारण किए अछेह ( अव्यवहित ) उछाह ( उत्साह ) से फिरता है ॥