बिल्लेसुर बकरिहा  (1941) 
द्वारा सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

[ ३४ ]

(११)

जब से त्रिलोचन के बैल न लेकर बिल्लेसुर ने बकरियाँ ख़रीदी तभी से इस बेचारे को जुटाने के लिये त्रिलोचन पेच भर रहे थे। बकरियों के बच्चों के बढ़ने के साथ गाँव में धनिकता के लिये बिल्लेसुर का नाम भी बढ़ा। लोग तरह-तरह की राय ज़ाहिर करने लगे। क्वार का महीना; बिल्लेसुर की शकरकन्द की बेलें लहलही दिख रही थीं; लोग अन्दाज़ा लड़ा रहे थे कि इतने मन शकरकन्द निकलेगी; बिल्लेसुर छप्पर के नीचे बकरी के दूध में सानकर सत्तू गुड़ खा रहे थे, त्रिलोचन आये। बकरी के बच्चों पर एक झौआ औंधाया था, उस पर चढ़कर बैठने के लिये घूमें, लेकिन बिल्लेसुर को हाथ हिलाते देखकर वहीं ज़मीन पर बैठ गये। "एक बड़ी बढ़िया ख़बर है, बिल्लेसुर।" बिल्लेसुर से मुस्कराते हुए कहा। उपदेशक की मुद्रा से हथेली उठाकर बिना कुछ बोले, आश्वासन देते हुए, बिल्लेसुर ने समझाया, कुछ देर धीरज रक्खो। त्रिलोचन ने पूछा "भोजन करते बोलते नहीं क्या?" गम्भीर भाव से आँखें मूँदकर सिर हिलाते हुए बिल्लेसुर ने जवाब दिया। त्रिलोचन अपनी बातचीत का सिलसिला मन-ही-मन जोड़ते रहे।

जल्दी-जल्दी सत्तू खाकर बिल्लेसुर उठें। पनाले के पास बैठकर हाथ धोये, कुल्ले किये, अभ्यास के अनुसार जनेऊ में बँधी ताँबे की दंतखोदनी उठाकर दाँत खरिका किये, फिर कुल्ले किये, और एक डकार छोड़कर सर झुकाये हुए कोठरी के भीतर गये। त्रिलोचन देखते रहे। बिल्लेसुर एक खटोला निकालकर बाहर ले आये। [ ३५ ]डालकर कहा,––"आओ, ज़रा सँभलकर बैठना, हचकना नहीं।" त्रिलोचन उठकर खटोले पर बैठें। एक तरफ़ बिल्लेसुर बैठें।

त्रिलोचन ने बिल्लेसुर को देखा, फिर आश्चर्य से आँखें निकालकर कहा, "करना चाहो तो एक बड़ा अच्छा ब्याह है।"

विवाह के नाममात्र से बिल्लेसुर की नसों में बिजली दौड़ गई; लेकिन हिन्दुधर्म के अनुसार उसे उपयोगितावाद में लाते हुए कहा, "अब देखते ही हो, सत्तू खाना पड़ा है। औरत कोई होती तो मरती हुई भी रोटी सेंककर रखती।"

"यथार्थ है," त्रिलोचन गम्भीर होकर बोले।

बिल्लसुर को बढ़ावा मिला, कहा, "गाँव के चार भाइयों का मोह है, पड़ा हूँ, नहीं तो मरने के लिये दुनिया भर में मुझे ठौर है।"

"अब यह भी तुम समझाओगे तब समझेंगे?"

बिल्लेसुर का पौरुष जग गया। उन्होंने कहा, "बंगाल गया था, चाहता तो एक बैठा लेता; लेकिन बापदादे का नाम भी तो है? सोचा, कौन नाक कटाये? तुम्हीं लोग कहते, बिल्लेसुर ने बाप के नाम की लुटिया डुबो दी।" बिल्लेसुर अपनी भूमिका से एकाएक विषय पर नहीं आ सकते थे। आने के लिये बढ़कर फिर हट जाते थे। त्रिलोचन ने कहा, "सारा गाँव तुम्हारी तारीफ़ करता है; गाँव ही नहीं, ग्वेंड़ भी कि बिल्लेसुर मर्द आदमी है।"

बिल्लेसुर ने कहा, "नाम के लिये दुनिया मरती है। इतनी मिहनत हम क्यों करते हैं? नाम ही नहीं तो कुछ नहीं। हमारे बाप मरकर भी नहीं मरे, क्यों? और अगर उनके पोता न रहा तो?"

त्रिलोचन ने कहा, "तुम्हारे जैसा समझदार लड़का जिनके है––"उनके पोता कैसे न रहेगा?" कहकर त्रिलोचन गम्भीर हो गये। [ ३६ ]

बिल्लेसुर ने कहा, "माँ-बाप ही दुनिया के देवता हैं। धर्म तो रहा ही न होता अगर माँ-बाप न रहे होते।"

त्रिलोचन ने कहा, "वेशक! धर्म की रक्षा हर एक को करनी चाहिये। तभी तो धर्म के पीछे जान दे देने के लिये कहा है।"

"अब देखो, खेत में काम करने गये, घर आये, औरत नहीं; बिना औरत के भोजन विधि-समेत नहीं पकता, न जल्दी में नहाते बनता है, न रोटी बनाते, न खाते; धर्म कहाँ रहा?" बिल्लेसुर उत्तेजित होकर बोले।

"हम तो बहुत पहले समझ चुके थे, अब तुम्हीं समझो।" कहकर त्रिलोचन ने तीसरी आँख पर मन को चढ़ाया।

बिल्लेसुर ने एक दफ़ा त्रिलोचन को देखा, फिर सोचने लगे, "देखो, दलाल बनकर आया है। सोचता है, दुनिया में हम ही चालाक है। अभी रुपए का सवाल पेश करेगा। पता नहीं, किसकी लड़की है, कौन है? ज़रूर कुछ दाग होगा। अड़चन यह है कि निबाह नहीं होता। भूख लगती है, इसलिए खाना पड़ता है। पानी बरसता है, धूप होती है, लू चलती है इसलिये मकान में रहना पड़ता है। मकान की रखवाली के लिए ब्याह करना पड़ता है। मकान का काम स्त्री ही आकर सँभालती है। लोग तरह-तरह की चीज़-वस्तुओं से घर भर देते हैं; स्त्री को ज़ेवर गहने बनवाते हैं। यों सब झोल है––ढोल में सब पोल ही पोल तो है?" बिल्लेसुर को गुरुआइन की याद आई, गाँव के घर-घर का सुना इतिहास आँख के सामने घूम गया। अब तक वे झूठ कहते रहे। यही कारण है कि बुलबुल काँपे में फँसता है। त्रिलोचन के ज्ञान में रहने की प्रतिक्रिया बिल्लेसुर में हुई। फिर यह सोचकर [ ३७ ]कि अपना क्या बिगड़ता है,––इसका मतलब मालूम कर लेना चाहिये, करुण स्वर से बोले, "हाँ भय्या, समझदार तुमको गाँव के सभी मानते हैं।"

खुश होकर त्रिलोचन ने कहा, "ऐसी औरत गाँव में आई नहीं–– सोलह साल की, आगभभूका।"

बिल्लेसुर को देवियों की याद आ गई थी, इसलिये बिचलित होकर सँभल गये। कहा, "तुम्हारी आँख कभी धोखा खा सकती है? कहाँ की है?"

"यह तो न बतायेंगे, जब ब्याहने चलोगे, तभी मालूम करोगे।"

"पहले तो फलदान चढ़ेंगे, या इसकी भी ज़रूरत नहीं?"

"फलदान चढ़ेंगे, लेकिन कोई पूछताछ न होगी, तिवारियों के यहाँ की लड़की है। सब काम हमारी मारफ़त होगा।"

"किस गाँव की है?"

"इतना बता दिया तो क्या रह जायगा? यह ब्याह से पहले मालूम हो ही जायगा। मगर एक बात है। उनके यहाँ ब्याह का ख़र्च नहीं। भलेमानस हैं। लड़की नहीं बेचेंगे, पर ख़र्च तुम्हें देना होगा।"

"कितना?"

त्रिलोचन हिसाब लगाने लगे, खुलकर कहते हुए, "तुम्हारे यहाँ फलदान चढ़ाने आयेंगे तो ठहरेंगे हमारे यहाँ। थाल में सात रुपये रक्खेंगे और नारियल के साथ एक थान। इसमें बीस रुपये का ख़र्च है। यह तुम्हें फलदान के दिन से सात रोज़ पहले दे देना होगा। फिर फलदान चढ़ जाने पर डेढ़-सौ रुपए विवाह के ख़र्च के लिए उसी दिन देना पड़ेगा, सब हमारी मारफ़त। भले आदमी [ ३८ ]हैं, नहीं निबाह सकते। तुमसे हाथ फैलाकर लें, तो कैसे? द्वार के चार से, ब्याह, भात और बड़ाहार, बरतौनी तक डेढ़ सौ, दाल में नमक के बराबर भी नहीं। लेकिन तुम्हें भी तो नहीं उजाड़ सकते? कुल में तुम से बड़े।"

बिल्लेसुर ने कहा, "कुल में बड़े हैं तो ब्याह फलेगा नहीं। मन्नु बाजपेयी ने, रुपये न होने से, उतरकर ब्याह किया, लड़की बेवा हो गई। भय्या, मुझे तो यही बड़ा डर है कि कहीं......"

त्रिलोचन का चेहरा उतर गया। बोले, "घबड़ाते हो नाहक। जितने बड़े हैं, सब बने हुए हैं। अस्ल में बड़े हैं ही नहीं। मन्नी बाजपेयी की लड़की ने अपने पति को मार डाला। कहते हैं, उसकी उम्र ज़्यादा हो गई थी, मायके में ही वह बिगड़ गई थी, इसीलिये मन्नु ने उसका ब्याह उतरकर कर दिया था। अपने यार के कहने से उसने पति को ज़हर खिला दिया। वह कुछ दिन से बीमार था, दवा हो रही थी।"

"कहीं यह भी ऐसा ही मुझ पर करे।" बिल्लेसुर शंका की दृष्टि से देखने लगे।

"कहता तो हूँ, किसी तरह का ख़ौफ़ न खाओ। विचवानी मैं हूँ। लड़की में न दाग़, न कलङ्क, न चाल-चलन बिगड़ा, न काली-कानी-लँगड़ी-लूली।"

जब तुम कह रहे हो तो एतबार सोलहो आने है; लेकिन पता बिना जाने दस रोज़ पहले आये नातेदारों से क्या कहूँगा? उनसे यह भी नहीं कहते बनता कि त्रिलोचन भय्या जानते हैं; इसीलिए पता पूछता हूँ। दूसरी बात; कुण्डली बिचरवा लेनी है। लड़की की कुण्डली ले आओ। मैं अपने सामने बिचरवाऊँगा। लड़की [ ३९ ]मंगली निकली तो बेमौत मरना होगा? ब्याह करना है तो आँखें खोलकर करना चाहिये।"

त्रिलोचन मन से बहुत नाराज़ हुए। बोले, "ऐसी बातें करते हो जैसे बाला के हो। तुम्हारे यहाँ वे नहीं आए और कभी कोई भलामानस न आयेगा। हम कहते थे कि भद्रा के जैसे मारे इधर उधर घूमते हो, तुम्हारा घर बस जाय, लेकिन तुम आ गये अपनी अस्लियत पर। मान लो, तुम्हीं मङ्गली निकले, तो? कौन बाप अपनी लड़की तुम्हें सौंप देगा? रही बात नातेदारी वाली, सो हम तो इसे सोलहो आने बेवकूफ़ी समझते हैं। बैठे-बैठाये पच्चीस रुपये का ख़र्च सिर पर। हम तो कहते हैं, चुपचाप चले चलो, विवाह कर लाओ। लड़की के बाप का नाम मालूम करना चाहते हो तो चले चलो, उनका घर भी देख आओ। लेकिन तुम्हारा जाना शोभित नहीं है, गाँव भर तुम दोनों को हँसेंगे।"

बिल्लेसुर को कुछ विश्वास हुआ। लेकिन रुपये की सोचकर कटे। लड़की के रूप का मोह भी घेरे था, सैकड़ों कलियाँ चटक रही थीं, खुशबू उड़ रही थी, पर त्रिलोचन पर पूरा-पूरा विश्वास न हो रहा था। पूछा, "यहाँ से कितनी दूर है?"

"तीन-चार कोस होगा।"

बिल्लेसुर ने सोचा, एक दिन में चले चलेंगे और लौट भी आयेंगे। बकरियों को बड़ी तकलीफ़ न होगी। पत्ते काटकर डाल जायेंगे। बोले, "तो चले चलो भय्या, देख लेना चाहिये, जिस दिन कहो तैयारी कर दी जाय।"

त्रिलोचन ने मतलब गाँठकर कहा, "अच्छा आज के चौथे दिन चलेंगे।"