बिरजा/६
षष्ठाध्याय ।
रात्रि प्रभात हो गई, सब से पहिले भवतारिणी खिड़की के घाट पर गई। वायु के हिल्लोल से नवीनमणि का मृत देह घाट के दक्षिण पार्श्व में आय गया भवतारिणी सहसा मरा मनुष्य जल में तैरता देखकर थहराने लगी। उसे भय हुआ, किन्तु उसका पाद संचार नहीं हुआ, स्तम्भित की न्याय दण्डायमान रह गई। इच्छा थी कि पीछे फिर कर घर में चली जाऊँ परन्तु पद युगल उस्की इच्छा के अनुगत नहीं हुये। वह दण्डवत् खड़ी रही। जितने काल उसकी दृष्टि उस मृत देह की ओर रही, उतने काल वह एक पांव भी पीछे नहीं हट सकी अब ज्योंही उसकी दृष्टि अन्य दिशा में पतित हुई, त्योंही उसने पीछे हटने का आरम्भ किया। खिड़की के हार पर्यन्त धीरे २ गई, द्वार अतिक्रम करते मात्रही जई ऊर्व्दश्वस स से दौड़कर एकबार में ही अपनी कक्ष में घुस गई। गोविन्द ने पत्नी का ऐसे भाव से गृहप्रवेश देखकर शय्या से उठकर पूछा "क्या वृत्तान्त है? जो ऐसा दौड़कर आती हो?"। भवतारिणी ने धननिश्वास त्यागजनित अस्पष्ट स्वर से कहा "घाट पर मुर्दा पड़ा है।"
गो०—घाट पर मुर्दा पड़ा है।
भ०—हां देखो।
गो०—तुमने और कुछ भी देखा है?
भ०—नहीं, मुर्दा पड़ा है, और अब देखें, चलो।
गोविन्दचन्द्र देखने चले, भवतारिणी उनके पीछे पीछे चली। जाने के समय भवतारिणी ने नवीन के शयन कक्ष के झरोखे में आघात करके नवीन को पुकारा। जब उत्तर न पाया तो कहा, 'अभागी! उठ उठ, देख घाट पर मुर्दा पड़ा है' यह कहकर द्रुत पद से स्वामी का अनुगमन किया। उसके जाने से पहिले ही गोविन्द घाट पर पहुंचकर गाल पर हाथ रखकर सोच कर रहे थे। भव को उनके गाल पर हाथ रखकर सोचने का कारण नहीं पूछना पड़ा उसने इस समय पहिचान लिया कि नवीन का देह जल में पड़ा है। भव उन रव से रोने को उद्यत हुई पर गोविन्द ने उसके मुंह पर हाथ धर कर रोने को निषेध कर दिया, भव नहीं रोई।
कियत्क्षण पीछे घर के सब लोगों ने ही जान लिया कि नवीन जल में डूबकर मर गई, और देखा गया तो बिरजा भी नहीं है उसका टीन बक्स खोलकर देखा गया, तो उसके गहने का डिब्बा भी नहीं है। तब तो स्पष्ट जाना गया कि बिरजा भाग गई है । बिरजा जब भाग गई है, तब उसी से नवीन का प्राण नाश हुआ है। गंगाधर उस रात्रि में बाहर सोया था, उसने कहा मैंने नवीन और बिरजा को रात्रि में खाली हाथ में लेकर घाट पर जाते देखा। तब तो सभी को विश्वास हो गया कि बिरजाही नवीन को मारकर, गेर कर, भाग गई। गंगाधर आपही थाने में सम्वाद देने गया। गांव के सब लोगों ने जाना। नवीन का देह पुष्करिणी में तैरने लगा। प्रहरी लोग कूल पर बैठकर पहरा देने लगे।
गृहिणी शोक करने लगी, उन्होंने सोचा मैं उस पापिनी को क्यों घर में लाई। इससे मेरा सर्वनाश हुआ। कुल में कलङ्क लगा। हमारे घर में जो कभी नहीं हुआ वह हुआ। भवतारिणी ने भी अनेक क्षण रोदन किया। उसके अनेक क्षण रोदन करने का कारण यह था कि वह नवीन और बिरजा दोनों को ही अधिक चाहती थी। उसको विश्वास नहीं हुआ कि विरजा ने नवीन का वध किया है। वह गंगाधर का चरित्र विलक्षण जानती थी और यह भी जानती थी कि गंगाधर की बिरजा पर आशक्ति जन्मी है। वरन इसीलिये दो एक वार बिरजा को सावधान करके उसने कहा भी था "बिरजे! सावधान! भ्रमर पीछ लगा है" इस पर बिरजा ने भी कहा था कि "जीजी! कुछ भय नहीं है"। बिरजा अवस्था में बालक ठीक थी, किन्तु धर्म्म भय उसे था। उसको बहुत बातें स्मरन हो आई किसी दिन गंगाधर ने बिरजा पर किस प्रकार सानुराग दृष्टिपात किया था, उसपर बिरजा किस प्रकार घूंघट मार कर हट गई थी यह स्मरन आया, गंगाधर नवीन से सचराचर किस प्रकार विरतिभाव प्रकाश करता था और वह भी गंगाधर के असद व्यवहार से किस प्रकार खेद करती थी, यह भी स्मरण आया। वह गृह कर्म छोड़कर रोने और सोचने अथवा सोचने और रोने लगी। घर नितान्त शून्य और शोकपरिपूर्ण बोध होने लगा, सभी के मुख पर विषाद का चिन्ह था और सभी शोकाकुल थे। गोविन्दचन्द्र शोक और लज्जा से अधोमुख होकर बाहर के घर में बैठे २ हुक्का पीने लगे, हुक्के में अग्नि नहीं थी, धुआँ खींचने से वाहर नहीं होता था, तथापि वह हुक्का खींचने और दीर्घ निवास परित्याग करने लगे। ग्रामस्थ प्राचीनों में से कोई कोई उनके पास बैठकर सांत्वना करगे लगे, परन्तु उनको वाक्य व्यय मात्रही सार हुआ, क्योंकि उनके सांत्वना सूचक समस्त वाक्यों ने गोविन्दचन्द्र के कर्ण में प्रवेश किया वा नहीं सन्देह का विषय है, किसी के कहने से शोक निवृत्त नहीं होता अकेला समयही शोक निवारण कर सत्का है, शोक कितनाही बड़ा क्यों न हो समय से समता को प्राप्त हो ही जाता है।
तीसरे पहर हरिपुर थाने के प्रतिनिधि स्थानाध्याक्ष (नायब थानेदार) कई जनों को संग लेकर निर्धारण (तहकीकात) करने आये उन्होंने निर्धारण करके व्यवस्था (रिपोर्ट) दी कि बिरजा सेही यह कार्य हुआ है। दण्ड नायक (मजिष्ट्रेट) महाशय को भी यही प्रतीति हुई। उन्होंने बिरजा की प्राकृति वर्णना करके विज्ञापन प्रसिध्द किया। और प्रतिज्ञा भी की कि जो कोई बिरजा को पकड़वाय देगा वह पांच सौ रुपया पुरस्कार पावैगा। थाने थाने यह बात विदित कर दी गई।
इस घटना में गंगाधर का चरित्र एक बारही परिवर्तित हो गया। अब वह गांव के गांजाखोर वा अफीम चियों के संग नहीं मिलता, और न आलस्य व्यवसाइयों के सग दिन रात तास पोट कार बड़ी टीपटाप से समय नष्ट करता। परन्तु घर का भी कोई काम नहीं देखता था बाहर के घर में बैठकर मन मन में कुछ सोचता और केवल तमाकू का नाश करता। स्नान करने के समय अंगौछा कन्धे पर धर कर घाट पर सोचता था।
आहार पर बैठने के समय सोचता, शय्या पर सोने को समय सोचता, सर्वदाही उसका विपन्न बदन रहता था। यह देखकर घर के सब लोगों ने ही समझा कि यद्यपि गंगाधर प्रगट में नवीन को अपनी प्रीति नहीं दिखाता था, परन्तु मन मन में प्रीति रखता था। अब उसके शोक में गंगाधर की यह दशा हो गई है। गृहिणी ने अपनी कोठरी के एक अंश में गंगाधर की शय्या कर दी, वह वहीं सोया करता, रात्रि में एक एक बार चोंक २ उठता।
क्रम से वर्ष एक अतीत हुआ, घर में जो काण्ड हुआ था, सब को एक प्रकार विभूत हो गया था। गोविन्दचन्द्र ने गंगाधर का और विवाह करना स्थिर किया। सहस्र दुचरित्र होने पर भी इस देश में, इस देश में क्यों, इस संसार में पुरुष के विवाह का कोई असुविधा नहीं, अधिकांश स्थल में लोग पुरुष का रूप नहीं देखते, गुण नहीं देखते, चरित्र नहीं देखते केवल कुल और धन देखते हैं। गंगाधर के यह था। कुल था, धन यद्यपि अधिक नहीं था, किन्तु जो था, सो यथेष्ट था। अनेक स्थल में विवाह की बातचीत हुई। दो एक स्थल में गोविन्दचन्द्र आप भी कन्या देखने गये, अनेक स्थल में कन्या देखने के अनन्तर एक स्थल में मनोभिमत कन्या पाई कि विवाह का समस्त विषयही स्थिर हो गया, केवल दिन नियत करना मात्र शेष था, इसी समय में एक दिन गंगाधर निरूद्देश (बेठिकाना) हो गया। ग्रामस्थ किसी घर में वह नहीं मिला, ग्रामान्तर में कुटुम्बियों के घर अनुसन्धान किया, वहां भी नहीं मिला। दो मास अनुसन्धान हुआ गंगाधर का उद्देश्य नहीं लगा। अन्त में स्थिर हुआ कि गंगाधर मन के दुःख से उदासीन (संन्यासी) हो गया। गृहिणी ने कहा "हाय! मेरा बेटा, वह के शोक से बाहर निकल गया!"।