बिरजा/७
सप्तमाध्याय।
(ऐतिहासिक काल का वा भौगोलिक पन्था का अनुसरण करना उपन्यास रचना की प्रथा नहीं है, अतएव समय गंगाधर के निरुद्देश्य होने के दो वरस अनन्तर स्थान कलकत्ते की जेनरेल पोस्टआफिस)।
डाकघर का नियम यह है कि जो पत्र नहीं बँट जाते हैं और जिन्हें विज्ञापन देने से भी कोई नहीं ले जाता है, वह अग्नि में दग्धकर दिये जाते हैं। एक बाबू उन्हें खोल खोल कर, देख देख कर, देता जाता है एक जलाता जाता है। बाबू ने आज बहुत से पत्र देखकर दिये। देखते २ एक बंगलापत्र उनके हाथ में आया। पत्र मोटे श्रीरामपुरी कागज पर लिखा था। बाबू ने पत्र खोला, देखा कि उस में एक स्त्री का नाम स्वाक्षरित है। उन्होंने पत्र पाकेट में रख लिया। और मन मन में विचारा कि यह किसी सुन्दरी की प्रणयपत्रिका होगी। घर चलकर पढ़ेंगे। पत्र पाकेट में रहा, वह अपने कर्न्म में व्यावृत हुये।
इन बाबू का घर शिमले (कलकत्त की वीथीविशेष) में था। बाबू अपरान्ह में घर आय कर विश्राम कर हैं इसी समय में उन्हें उस पत्र की बात स्मरण आई। वह पत्र को पाकेट से निकालकर पढ़ने लगे।
इन बाबू का वय:क्रम प्रायः तीस वर्ष का था इस वयस में बंगाली बाबू अविवाहित नहीं रहते हैं किन्तु इन्हीं ने विवाह किया था, वा नहीं, यह हम नहीं जानते, क्रम से जाना जायगा।
पत्र पढ़ते पढ़ते बाबू का ललाट स्वेदार्द्र हो गया, बदन में आनन्द, विस्मय, प्रभृति नाना मानसिक भावों के प्रतिबिम्ब अङ्गित होने लगे जिस पत्र को पढ़कर बाबू के मन में इस प्रकार का भावोदय हुआ, उसका अनुवाद यहां लिखते हैं। "श्रीमती भवतारिणी देवी के श्रीचरणों में,——
आप जानती हैं कि मैं आज दो बरस से निराश हूँ। में किसी से बिना कहे आपका घर परित्याग करके चली आई। कारण यह है कि आप मुझे पीछे "नवीन को वध किया है' कहकर पुलिस में देती, क्योंकि नवीन और मैं एक संग घाट पर गई थी। भुरहरी रात नवीन का शव जल में उछल पाया था। सब को सन्देह होता, मैं यदि कहती कि मैंने नवीन को नहीं मारा है तो कौन विश्वास करता? नाना कारणों से लोग मुझ पर सन्देह करते। इसीलिये मैं भाग आई।
किन्तु आज कहती हूँ, कि मैंने नवीन का वध नहीं किया, आज कहती हूँ कि मैंने नवीन को नहीं मारा। मैं उसे प्राण के समान चाहती थी। किन्तु उनके मरने के समय अपने प्राण भय से जो खोलकर रोने भी नहीं पाई उसके पीछे रोई थी।
गंगाधर बाबू भयानक पीड़ित होकर कलकत्ते के अस्पताल में आये थे। उन्होंने मरण काल में समस्त ही स्वीकार कर लिया, नवीन और मैं एक संग घाट पर गई थी, यह ठीक है, किन्तु बगीचे में ताल गिरने से नवीन ने मुझसे उसके लाने के लिये कहा। मैं ताल लेने गई, ताल ढूंढ़ने में मुझे विलम्ब हुआ। नवीन उस समय अंग धो रही थी। इतने ही में गङ्गाधर बाबू ने जाय कर उसे जल में गेर दिया, और दृढ़ पकड़ लिया, जब तब वह जल में नहीं डूबी, तब तक नहीं छोड़ा। मैंने उन्हें जल से निकलकर जाते देखा था, परन्तु इस बात के कहने में तब कौन विश्वास करता। कल प्रात:काल गङ्गाधर बाबू की मृत्यु हो गई। मृत्यु के समय वह मुझे बचा गये, और वह भी सुना है कि इनकी यह सब बातें हस्पताल के साहब ने लिखकर आपके जिला के मजिष्ट्रेट साहब के पास लिख भेजा है। सुतराम् अब मैं मुक्त हूँ। आपके घर में अब फिर नहीं आऊँगी। और क्या करने को ही आऊँगी अब वह नवीन नहीं है, किसके संग जी खोल कर बातें करूँगी? गङ्गाधर बाबू ने कहा था कि आपकी सास की परलोक प्राप्ति हो गई है, सुतराम् अब किसको रामायण पढ़कर सुनाऊँगी? मैं आपके घर फिर नहीं पाऊँगी, किन्तु आप से भगिनी के समान प्रीति रखती हूँ यह आप जाने। बड़े बाबू जब कलकत्ते आवै शिवनाथ ठाकुर के घर मेरे साथ साक्षात् करने को कह देना, आप के लड़कों के लिये कुछ वस्तु भी दूंगी।
मैं आपलोगों की दया प्राण रहते नहीं भूल सकती। कहने से क्या है? आपकी स्वर्गवासिनी सास ने मेरी प्राण रक्षा की थी। वह यदि मुझे गङ्गातीर से उठायकर न ले आती तो मैं उसी रात्रि को पञ्चत्व पाती। किन्तु मेरी मृत्युही भली थी। आज आठ वर्ष से स्वामी का उद्देश नहीं मिला, वह क्या नौका डूबने के समय मर गये? तो विधाता ने मुझे किस विवेचना से बचा रक्खा है? बोध होता है वह वहां नहीं मरे नौका के एक बङ्गाली मांझी ने कहा था कि मैं तुम्हारी प्राणरक्षा करूँगा। जीजी मेरा मन कहता है कि वह अभी बचे हुये हैं। सुशील के बाप से कहना कि यदि विपिनविहारी चक्रवर्ती नामक किसी पुरुष का सन्धान पावै तो उससे मेरा विवरण कहें। जीजी अब पत्र शेष करती हैं।
"मैं वही बिरजा"
पत्र एक बार दो बार तीन बार पढ़ा गया तीन बार के पीछे पत्र उपधान पर रखकर बाबू ने एक दीर्घनिश्वास परित्याग किया किसी किसी पुरुष का यह स्वभाव होता है कि एक गुरुतर विषय उपस्थित होने पर बहुत क्षण बहुत दिन आगा पीछा विवेचना करते हैं, भविष्यत सोचते हैं। किन्तु ऐसे लोग प्रायः किसी विषय में भी कृतकार्य नहीं होते। हम जिन बाबू की बात कर रहे हैं यह ऐसे स्वभाव के लोग नहीं थे, इन्होंने एक बार में ही कर्तव्य स्थिर कर लिया, उठकर कमीज पहिर कर दुपट्टा और लकड़ी लेकर घर के बाहर हुये और पत्र साथ लिया। डाकृर शिवनाथ बाबू कलकत्ते में डाकृरी कार्य में बड़े विख्यात मनुष्य नहीं थे। कलकत्ते में अनेक डाकृर हैं, हाईकोर्ट के अनेक वकीलों के समान उनका वास व्यय पर्यन्त नहीं चलता शिवनाथ बाबू इस दल के डाकृर नहीं थे, परन्तु एक विख्यात डाकृर भी नहीं थे, उनके प्रतिवासी, आत्मीय, बन्धु, बान्धवों को छोड़ कर उन्हें और कोई बड़ा नहीं कहता था। अस्पताल में जो वेतन पाते थे उसी से स्वच्छन्द काम चलता था। शिवनाथ बाबू एक समय में ब्राह्मण थे, गुप्त में यज्ञोपवीत भी त्याग कर दिया था, परन्तु सुनते हैं कि माता की मृत्यु के पीछे फिर वैदिक हो गये, ब्राह्मण होकर स्त्री को विलक्षण लिखना पढ़ना सिखा दिया था और बहुत सी स्वाधीनता भी दे दी थी, पर अब वैदिका होने से वह स्वाधीनता न छीन सके। अब आपत्ति कर भक्ष्य अपेक्षाकृत अधिक खाया जाता था, परन्तु उसमें कुछ दोष नहीं था, क्योंकि वैदिक धर्म का आवरण अंग में था। यह जो कुछ हो, शिवनाथ बाबू बड़े भद्रलोक थे, और उनकी पत्नी कात्यायनी भी बड़ी दयावती अयच सुशीला थी। हमारी बिरजा इन्हीं के घर में रहती थी, जिस अवस्था में अंग्रेज पुरुष और स्त्रियों को युवक युवती कहते हैं, शिवनाथ बाबू और कात्यायनी की वही अवस्था थी। अर्थात् चालीस और पैंतीस थी। बिरजा शिवनाथ बाबू के घर में सामान्य परिचारिका की भांति नहीं रहती थी, शिवनाथ बाबू की दो कन्याओं को शिक्षा देना बिरजा का कर्तव्य कर्म था
पुन: पुन: धर्मपरिवर्तन से शिक्षित समाज में शिवनाथ बाबू का नाम प्रसिद्ध हो गया था। हम पहिले जिन बाबू की बात कहते थे, गोबर गोली निवन्धन न्याय से उन्होंने भी शिवनाथ वाबू का नाम सुना था।
रात्रि के दस बजे के पीछे शिवनाथ बाबू के द्वारपाल ने ऊपर जाय कर यह सम्वाद दिया कि एक बाबू आपके संग साक्षात् करने आये हैं। शिवनाथ बाबू उस समय आहारादि करके सर वाल्टर स्काट की "आईवान होप" नामक आख्यायिका का पाठ और उसका अर्थ अपनी पत्नी को समझा रहे थे, और इस पुस्तक के किस किस चित्र के साथ बंगला उपन्यास विशेष के किस २ चित्र का सादृश्य है, यह भी बता रहे थे। भगवती जैसे महादेवजी के मुख से अनन्यमना होकर योगकथा श्रवण करती थी, पतिप्राणा कात्यायनी भी कार्पट बुनते बुनते वैसे ही सुन रही थी। द्वारपाल के सम्वाद देने से शिवनाथ बाबू नीचे आये। नीचे की बैठक में आगन्तुक बाबू बैठे थे, शिवनाथ बाबू भी वहां जाय कर बैठे। आगन्तुक बाबू ने पूछा "आपका नाम शिवनाथ बाबू है?"। . शिवनाथ— जी हां, आपका किस प्रयोजन से आना हुआ?
आगन्तुक— इस पत्र के पाठ करने से आप सब जान जायँगे।
यह कहकर आगन्तुक बाबू ने डाकृर बाबू के हाथ में पत्र दिया, वह प्रदीप के निकट जाय कर पत्र पाठ करने लगे।
दीर्घ पत्र पढ़ने में किञ्चित् विलम्ब लगा, पाठ शेष होते ही पत्र के जिस पृष्ट में विपिनबिहारी चक्रवर्ती का नाम लिखा था, वह पृष्ट लौटकर शिवनाथ बाबू ने पूछा "क्या आपका नाम विपिन बाबू है"।
आ०—मेरा नाम विपिनबिहारी चक्रवर्ती है मैं बिरजा का स्वामी हूँ।
शि०— अब आपका क्या अभिप्राय है?
आ०— मैं बरिजा को स्वीकार किया चाहता हूँ।
शि०— आपने तब से और विवाह नहीं किया है?
आ०—नहीं किया, करता भी नहीं।
शि०— सुन करके हम बड़े सन्तुष्ट हुये, हमने बिरजा का समस्त विवरण सुना है। आपका अनुसन्धान हमने गुप्त गुप्त किया था, किन्तु उद्देश्य नहीं मिला। बिरजा अत्यन्त सती लक्ष्मी स्त्री है। हमारी ब्राह्मणी बिरजा से अपनी कन्या के समान स्नेह करती है, इससे बि रजा को हम संहंसा तो विदा नहीं कर सकते हैं। बिरजा हमारी कन्या के सदृश है, आप हमारे जामाता हैं। जैसे कन्या को विदा करते है वैसे हम बिरजा को विदा करेंगे।
आ०—आपने जो सम्पर्क गेरा है, मैं इसमें कुछ अधिक नहीं कह सका। केवल इतना ही कहा चाहता हूँ कि क्या आज मैं एक बार बिरजा के संग साक्षात् नहीं कर सकता?
शि०—अवश्य कर सकते हो, आप यहां बैठे में घर में यह समाचार कह आँऊ।
यह कहकर उन्होंने अन्तःपुर में जाय कर पत्नी से सब कहा, पत्नी ने बिरजा को बुलाय कर पूछा 'बिरजे! विपिनबिहारी चक्रवर्ती को तुम पहचानती हो?' बिरजा घबराय उठी। आनन्द और विस्मय ने बिरजा को पराभूत किया। क्षण एक काल स्तम्भित के न्याय रहकर बिरजा ने उत्तर दिया 'मेरे स्वामी का यह नाम है।'
प०—तुम उन्हें देखकर अब पहिचान सकोगी?
‘पहचान सकूंगी' कहकर बिरजा ने रोय दिया।
'मैं उन्हें ऊपर लिये आता हूँ' कहकर शिवनाथ बाबू नीचे गये।
गृहिणी ने बिरजा से कहा, वह तुम्हारे साथ साक्षात् करने आते हैं।