प्रेमाश्रम
प्रेमचंद

सरस्वती प्रेस, पृष्ठ ३९० से – ३९६ तक

 

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गायत्री के आदेशानुसार ज्ञानशंकर २००० रु महीना मायाशंकर के खर्च के लिए देते जाते थे। प्रेमशंकर की इच्छा थी कि कई अध्यापक रखे जायें, सैर करने के लिए गाड़ियां रखी जायें, कई नौकर सेवा-व्हल के लिए लगाये जायें, पर मायाशंकर अपने ऊपर इतना खर्च करने को राजी न हुआ। प्रेमशंकर को मजबूर हो कर उसकी बात माननी पड़ी। केवल दो अध्यापक उसे पढाने आते थे। फारसी पढ़ाने के लिए ईजाद हुसैन और संस्कृत पढ़ाने के लिए एक पडिंत। सवारी के लिए एक घोडा भी था। अँगरेजी प्रेमशंकर स्वयं पढाते थे। गणित ज्वालासिंह के जिम्मे था, डाक्टर प्रियनाथ सप्ताह में दो दिन गाने की शिक्षा देते थे, जिसमें यह निपुण थे और दो दिन आरोग्य शास्त्र पढ़ाते थे। डाक्टर इर्फान अली अर्थशास्त्र के ज्ञाता थे। सप्ताह में दो दिन कानून सिखाते और दो दिन अर्थशास्त्र की व्याख्या करते। कालेज के कई विद्यार्थी शहर से इन व्याख्यानों को सुनने के लिए आ जाते थे और प्रियनाथ का संगीत समाज तो सारे शहर में प्रसिद्ध था। इधर की बचत मित्र-भवन, इत्तहादी अनाथालय और प्रियनाथ के चिकित्सालय के संचालन में खर्च होती थी। विद्यावती के नाम से बीस-बीस रुपये की देस छात्रवृत्तियाँ भी दी जाती थीं। इतना सब खर्च करने पर भी महीने में खासी बचत हो जाती थी। इन तीन वर्षों में कोई २५ हजार रुपये जमा हो गये थे। प्रेमशंकर चाहते थे कि ज्ञानशंकर की सम्मति ले कर माया को कुछ दिनों के लिए यूरोप, अमेरिका आदि देशों में भ्रमण करने के लिए भेज दिया जाय। इस धन को इससे अच्छा उपयोग न हो सकता था। पर मायाशंकर की कुछ और ही इच्छा थी। वह यात्रा करने के लिए तो उत्सुक था, पर एक हजार रुपये महीने से ज्यादा खर्च न करना चाहता था। इस घन के सदुपयोग की उसने दूसरी ही विधि सोची थी, पर प्रेमशंकर से यह प्रकट करते हुए सकुचाता था। संयोग से इसी बीच में उसे इसका अच्छा अवसर मिल गया।

लीला प्रभाशंकर ने प्रेमशंकर को लखनपुर के मुकदमे से बचाने के लिए जो रुपये उघार लिये थे उसकी अवधि तीन साल थी। यह मियाद पूरी हो गयी थी, पर रुपये का सूद तक न अदा हुआ था। पहले प्रेमशंकर को इस मामले की जरा भी खबर न थी, पर जब महाजन ने अदालत में नालिश की तो उन्हें खबर हुई। रुपये क्यों उधार लिये गये, यह बात शीघ्र ही मालूम हो गयी। तब से यह घोर चिन्ता में पड़े हुए थे कि यह रुपये कैसे दिये जायें? यद्यपि मुकदमे में रुपये का एक ही भाग खर्च हुआ था, अधिकांश खाने-खिलाने शादी-ब्याह में उड़ा था, पर यह हिसाब-किताव करने का समय न था। प्रेमशंकर ऋण का पूरा भार लेना चाहते थे। लेकिन रुपये कहाँ से आयें? वे कई दिन इसी चिन्ता में विकल रहे। कभी सोचते ज्ञानशंकर से माँगें, कभी प्रियनाथ से माँगने का विचार करते, पर संकोचवश किसी से कहते न बनता था।

एक दिन वह इसी उधेड़-बुन में पड़े हुए थे कि भोला आ कर खड़ा हो गया और उन्हें चिन्तित देख बोला-बावू जी आज-कल आप बहुत उदास रहते हैं, क्या बात है? हमारे लायक कोई काम हो तो बताइए, भरसक उसे पूरा करेंगे।

प्रेमशंकर को भोली से बहुत स्नेह था। इनके सत्संग से उसकी शराब जुए की आदत छूट गयी थी। वह इनको अपना मुक्तिदाता समझता था और इन पर असीम श्रद्धा रखता था। प्रेमशंकर भी उस पर विश्वास करते थे। बोले--कुछ ऐसी ही चिन्ता है, मगर तुम सुन कर क्या करोगे?

भोला-और तो क्या करूँगा? हाँ, जान लड़ा दूंगा।

प्रेम---जान लड़ाने से मेरी चिंता दूर न होगी, उनका कोई और ही उपाय करना पड़ेगा। भोला--कहिए वह करने को तैयार हूँ। जब तक आप न बतायेंगे पिंड न छोड़ूँगा।

अन्त मे विवश हो कर प्रेमशंकर ने कहा--मुझे कुछ रुपयो की जरूरत है और समझ में नहीं आता कि कौन सा उपाय करूं।

भोला--हजार दो हजार से काम चले तो मेरे पास है, ले लीजिए। ज्यादा की जरूरत हो तो कोई और उपाय करूँ।

प्रेम-हजार दो हजार का तुम क्या प्रबन्ध करोगे? तुम्हारे पास तो है नहीं, किसी से लेने ही पडेगें।

भोला---नही बाबू जी, आपकी दुआ से अब इतने फटेहाल नहीं हूँ। हजार से कुछ ऊपर तो अपने ही है। एक हजार मस्ता में रखने को दिये है। दुर्गा और दमड़ी भी कुछ रुपये रखने को देते थे, पर मैंने नहीं लिये। पराये रुपये घर में रख कर कौन जजाल पाले? कही कुछ हो जाय तो लोग समझे इसने खा लिये होगें।

प्रेम–तुम लोगों के पास इतने रुपये कहाँ से आ गये?

भोला-आप ही ने दिये है, और कहाँ से आये? जवानी की कसम खा कर कहता हूँ कि इधर तीन साल से एक दिन भी कौड़ी हाथ से छुई हो या दारू मुंह से लगायी हो। आप लोगों जैसे भले आदमियों के साथ रह कर ऐसे कुकर्म करता तो कौन मुंह दिखाता? भस्ला के बारे में भी कह सकता हूँ कि इधर दो-ढाई साल से किसी के माल की तरफ आँख उठा कर नहीं देखा। अभी थोड़े ही दिनों की बात है, भवानी सिंह की अटीं से पाँच गिन्नियाँ गिर गयीं थी। मस्सा ने खेत में पड़ी पायी और उसी दिन जा कर उन्हें दे आया। पहले इसी बगीचे से फल-फलारी तोड़ कर बेच लिया करता था पर अब यह सारी आदते छूट गयी। दुर्गा और दमड़ी गाँजा-चरस तो पीते हैं, लेकिन बहुत कम और मैंने उन्हें कोई कुचाल चलते नहीं देखा। हम सभी रोटी, दाल तरकारी खा कर दो-तीन सौ रुपये बचा लेते है। तो कहिए, जितने रुपये मेरे पास है वह लाऊँ?

प्रेम----यह सुन कर मुझे बड़ी खुसी हुई कि तुम लोग भी चार पैसे के आदमी हो गयें। यह सब तुम्हारे सुविचार का फल है। लेकिन मेरा काम इतने रुपये में न चलेगा। मुझे पच्चीस हजार की जरूरत है।

सहसा मायाशंकर आ कर खड़ा हो गया। उसकी आँखें डबडबायी हुई थी और मुंह पर करुण उत्सुकता झलक रहीं थी। प्रेमशंकर ने भोला को आँखो के इशारे से हटा दिया तब माया से बोले- आँखे क्यो भरी हुई है? बैठो।

माया--जीं, कुछ नहीं। अभी तेजू और पद्म की याद आ गयी थी। दोनों अब तक होते तो उन्हें यहीं बुला कर रखता। उस समय मैं बड़ा निर्दयी था। बेचारो को अपना ठाट दिखा कर जलाना चाहता था। मेरी शेखी की बातें सुन-सुन वे भी कहा करते थे, हम वह मन्त्र जगायेंगे कि कोई मार ही न सके। ऐसे-ऐसे मन्त्री को अपने वश में कर लेगे कि घर बैठे संसार की जो वस्तु चाहे मँगा लेंगे! उस वक्त मेरी समझ में वे बाते ने आती थी, दिल्लगी समझता था, पर अब तो उन बातों को याद करता हूँ तो ऐसा मालूम होता है कि मैं ही उनका घातक हूँ। चित्त व्याकुल हो जाता है और अपने ऊपर ऐसा क्रोध आता है कि क्या कहूँ। अभी बाबा से मिलने गया था। वहुत दुखी थे। किसी महाजन ने उनपर नालिश भी कर दी है, इससे और भी चिन्तित थे। अगर यह मुसीबत न आती तो शायद वह इतने दुखी न होते। विपत्ति में शोक और भी दुस्सह हो जाता है। शोक का घाव भरमा तो असम्भव है, पर इस नयी विपत्ति का निवारण हो सकता है। आपसे कहते हुए संकोच होता है, पर इस समय मुझे क्षमा कीजिए। चाचा दयाशंकर तो बाबा से कह रहे थे, हमे जमीन की परवाह नहीं है, निकल जाने दीजिए। आपको अब क्या करना है? मेरे सिर पर जो पड़ेगी, देख लूंगा, लेकिन बाबा की इच्छा यह थी कि महाजन से कुछ दिनो की मुहलत ली जाय। अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं जा कर बातचीत करूँ। मुझसे वह कुछ दवेगा भी।

प्रेमशंकर--रुपयों की फिक्र तो मैं कर रहा हूँ, पर मालूम नहीं उन्हें कितने रुपयों की जरूरत है। उन्होंने मुझमें कभी यह जिक्र नहीं किया।

माया-बातचीत से मालूम होता था कि पन्द्रह-बीस हजार का मुआमला है।

प्रेम-यही मेरा अनुमान है। दो-चार दिन में कुछ न कुछ उपाय निकल ही आयेगा। या तो महाजन को समझा-बुझा दूंगा या दो-चार हजार दे कर कुछ दिनों की मुहलत ले लूंगा।।

माया-मैं चाहता हूँ कि बाबा को मालूम भी न होने पाये और महाजन के सब रुपये पहुँच जाये जिसमे यह झंझट न रहे। अब हमारे पास रुपये हैं तो फिर महाजन की खुशामद क्यों की जाय?

प्रेम----वह रुपये अमानत है। उन्हें छूने का अधिकार नहीं है। उन्हें मैंने तुम्हारी यूरोप-यात्रा के लिए अलग कर दिया है।

माया-मेरी यूरोप यात्रा इतनी आवश्यक नहीं है कि घरवालो को संकट मे छोड़ कर चला जाऊँ।

प्रेम—जिस काम के लिए वह रुपये दिये गये है उसी काम में खर्च होने चाहिए।

माया मन में खिन्न हो कर चला गया, पर श्रद्धा से ढीठ हो गया था। उसके पास जा कर बोला--अगर चाचा साहब बाबा को रुपये न देंगे तो मैं यूरोप कदापि न जाऊँगा। तीस हजार ले कर मैं वहाँ क्या करूंगा? मेरे लिए चलते समय पांच हजार काफी है। चाचा साहब से पचीस हजार दिला दो।

प्रेमशंकर ने श्रद्धा से भी वही बात कही। श्रद्धा ने माया का पक्ष लिया। बहस होने लगी। कुछ निश्चय न हो सका। दूसरे दिन श्रद्धा ने फिर वही प्रश्न उठाया। आखिर जब उसने देखा कि यह दलीलो से हार जाने पर भी रुपये नहीं देना चाहते तो जरा गर्म हो कर बोली-अगर तुमने दादा जी को रुपये न दिये तो माया कभी यूरोप न जायेगा।

प्रेम-वह मेरी बात को कभी नहीं टाल सकता।

श्रद्धा-और बातों को नहीं टाल सकता पर इस बात को हर्गिज न मानेगा।

प्रेम---तुमने यह शिक्षा दी होगी। श्रद्धा ने कुछ जवाब न दिया। यह बात उसे लग गयी। एक क्षण तक चुपचाप बैठी रही। तब जाने के लिए उठी। प्रेमशंकर के मुंह से बात तो निकल गयी थी, पर अपनी कठोरता पर लज्जित थे। बोले--अगर ज्ञानशंकर कुछ आपत्ति करें तो?

श्रद्धा ने तिनक कर कहा--तो साफ-साफ क्यों नही कहते कि ज्ञानशंकर के डर से नहीं देता। अविकार, कर्तव्य और अमानत का आश्रय क्यों लेते हो?

प्रेमशंकर ने असम में पड़ कर कहा- डर की बात नहीं है। रुपयों के विषय में मुझे पूरा अधिकार है, लेकिन ज्ञानशंकर की अनुमति के बिना मैं उसे इस तरह खर्च नहीं करना चाहता।

श्रद्धा--तो एक चिट्ठी लिख कर पूछ लो। मुझे तो पूरा विश्वास है कि उन्हें कोई आपत्ति न होगी। अब वह ज्ञानशंकर नही हैं जो पैसे-पैसे पर जान देते थे।

प्रेमशंकर बाहर आ कर ज्ञानशंकर को पत्र लिखने बैठे। लेकिन फिर ख्याल आया कि उन्होंने अनुमति दे दी तो! अनुमति देने में उनकी क्या हानि है? तब मुझे विवश हो कर पये देने पड़ेंगे। यह रुपये न मेरे हैं, न माया के हैं, न ज्ञानशंकर के हैं। यह माया की शिक्षावृत्ति है। पत्र न लिखा! ज्वालासिंह के सामने यह समस्या पेश की। उन्होंने भी कुछ निश्चय न किया। डाक्टर इर्फानअली से परामर्श लेने की ठहरी। डॉक्टर साहब ने फैसला किया कि यह रकम माया की शिक्षा के सिवा और किती काम में नहीं खर्च की जा सकती।।

मायाशंकर ने यह फैसला सुना तो झुंझला उठा। जी में आया कि चलकर डाक्टर साहब से खूब बहश करूँ, पर इस कि कहीं वह इसे बेअदबी न समझें। क्यों न महाजन के पास जा कर वह सब रुपये माँग लूं? अभी नाबालिग हूँ, शायद उसे कुछ आपत्ति हो, लेकिन एक के दो देने पर तैयार हो जाऊँगा तो मान जायगा। लेकिन फिर शंका हुई कि चाचा साहब को मालूम हो गया तो मुंह से तो चाहे कुछ न कहै, पर मन में बहुत नाराज होंगे। विचारा इन्हीं दुश्चिन्ताओं में डूबा हुआ मलीन, उदास जा कर लेट रहा। सन्ध्या हो गयी पर कमरे से न निकला। डॉक्टर इर्फानअली ने पढ़ने के लिए। बुलाया। कहला भेजा, मेरे सिर में दर्द है। भोजन का समय अया। मित्र-भवन के और सब छात्र भोजन करने लगे। माया ने कहला भेजा, मेरे सिर में दर्द हैं। श्रद्धा बुलाने आयी। उसे देखते ही माया रो पड़ा।

श्रद्धा ने प्रेम है आँसू पोछ्ते हुए कहा- बेटा, चल कर थोड़ा सा खाना खा लो। सबेरे मैं फिर उनसे कहूँगी। डाक्टर इर्फानअली ने बात बिगाड़ दी, नहीं तो मैंने तो राजी कर लिया था।

माया–चाची, मेरी जाने की बिलकुल इच्छा नहीं है। (रो कर) तेजू और पदमु के प्राण मैंने लिये और अब मैं बाबा की कुछ मदद भी नहीं कर सकता। ऐसे जीने पर धिक्कार है।

श्रद्धा भी करुणावेग से विवश हो गयीं। अंचल ने माया के आँसू पोछती थी और स्वयं रोनी थी। माया ने कहा-चाची, तुम नाहक हलाकान होती हो, मैं अभागी हूँ, मुझे रोने दो।

श्रद्धा---तुम चल कर कुछ खा लो। मैं आज ही रात को यह बात छेड़ूँगी।

माया का चित्त बहुत खिन्न था, पर श्रद्धा की बात न टाल सका। दो-चार कौर खाये, पर ऐसा मालूम होता था कि कौर मुंह से निकला पड़ता है। हाथ-मुँह धो कर फिर अपने कमरे में लेट रहा।

सारी रात श्रद्धा यही सोचती रही कि इन्हें कैसे समझाऊँ। शीलमणि से भी सलाह ली, पर कोई युक्ति न सूझी।।

प्रात काल बुधिया किसी काम से आयी। बातो-बातो मे कहने लगी—बहू जी, पैसा सब कोई देखता है, मेहनत कोई नहीं देखता। मर्द दिन भर में एक-दो रुपया कमी लाता है तो मिजाज ही नहीं मिलता, औरत बेचारी रात-दिन चूल्हे-चक्की मे जुती रहे, फिर भी वह निकम्मी ही समझी जाती हैं।

श्रद्धा सहसा उछल पड़ी। जैसे सुलगती हुई आग हवा पा कर भभक उठती है। उसी भाँति इन बातों ने उसे एक युक्ति सुझा दी। भटकते हुए पथिक को रास्ता मिल गया। कोई चीज जिसे घंटों से तलाश करते-करते थक गयी थी, अचानक मिल गयी। ज्यो ही बुधिया गयी, वह प्रेमशंकर के पास आ कर बोली- चाचा जी को रुपये देने के बारे में क्या निश्चय किया?

प्रेम–फिक्र में हैं। दो चार दिन में कोई सूरत निकल ही आयेगी।

श्रद्धा–रुपये तो रखे ही है।

प्रेम-मुझे खर्च करने का अधिकार नहीं है।

श्रद्धा- यह किसके रुपये है।

प्रेम--(विस्मित होकर) माया के शिक्षार्थ दिये गये है।

श्रद्धा तो क्या २००० रु० महीने खर्च नहीं होते हैं?

प्रेम-क्या तुम जानती नहीं? लगभग ८०० रु० खर्च होते है, बाकी १२०० रु० बच रहते हैं।

श्रद्धा—यह क्यों बचे रहते है? क्या यह तुम्हारी समझ में नही आता? डाक्टर इर्फानअली को पढ़ाने के लिए कितना वेतन मिलना चाहिए ?डाक्टर प्रियनाथ और बाबू ज्वालासिंह को भी नौकर रखते तो कुछ न कुछ देना पड़ता। तुम्हारी मजूरी भी कुछ न कुछ होनी ही चाहिए। तुम्हारे विचार में इर्फानअली का वेतन कुछ होता ही नहीं? उनका एक दिन का मेहनताना ५०० रु० न दोगे? प्रियनाथ की आमदनी १०० रु० प्रति दिन से कम नहीं थी। पहले तो वह किसी के घर पढ़ाने जाये ही नहीं, जाये तो ५०० रु महीने से कम न लें। बाबू ज्वालासिंह भी १०० रु० पर महँगे नहीं हैं। रहे तुम तुम्हारा भतीजा है, उसे शौक से, प्रेम से पढ़ाते हो, पर दूसरो को क्या पड़ी है कि वह सेत में अपनी सिरपच्ची करें? इन रुपयो को तुम बचत समझते हो, यह सर्वथा अन्याय है। इसे चाहे अपनी सज्जनता का पुरस्कार समझो या उनके एहसान का मूल्य, इस धन के खर्च करने का उन्हे अधिकार है। प्रेमशंकर ने सन्दिग्ध भाव से कहा—माया और तुम बिना रुपये दिलाये न मानोगे, जैसी तुम्हारी इच्छा। तुम्हारी युक्ति में न्याय है, इसे मैं मानता हूँ, पर आत्मा सन्तुष्ट नहीं होती। मैं इस वक्त रुपये दिये देता हूँ पर इसे ऋण समझ कर सदैव अदा करने की चैप्टा करता रहूँगा।