प्रेमाश्रम
प्रेमचंद

सरस्वती प्रेस, पृष्ठ ३८६ से – ३९० तक

 

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मानव चरित्र न बिलकुल श्यामल होता है न बिलकुल श्वेत। उसमें दोनो ही रंगों का विचित्र सम्मिश्रण होता है। स्थिति अनुकूल हुई तो वह ऋषितुल्य हो जाता है, प्रतिकूल हुई तो नराधम। वह अपनी परिस्थितियों का खिलौना मात्र है। बाबू ज्ञानशंकर अगर अब तक स्वार्थी, लोभी और संकीर्ण-हृदय थे तो वह परिस्थितियों का फल था। भूखा आदमी उस समय तक कुत्ते को कौर नहीं देता जब तक वह स्वयं सन्तुष्ट न हो जाये। अप्रसन्नता ने उनकी श्यामलता को और भी उज्ज्वल कर दिया था। उन्होंने ऐसे घर में जन्म लिया था जिसने कुल-मर्यादा की रक्षा में अपनी श्री का अन्त कर दिया था। ऐसी अवस्था में उन्हें सन्तोष से ही शान्ति मिल सकती थी, पर उनकी उच्च शिक्षा ने उन्हे जीवन को एक वृहत साम-क्षेत्र समझना सिखाया था। उनके सामने जिन महान् पुरुषो के आदर्श रखे गये थे उन्होने भी सघर्ष-नीति का आश्रय ले कर सफलता प्राप्त की थी। इसमें संदेह नहीं कि इस शिक्षा ने उन्हें लेख और बाणी में प्रवीण, तर्क में कुशल, व्यवहार में चतुर बना दिया था, पर उसके साथ ही उन्हें स्वार्थ और स्वहित का दास बना दिया था। यह वह शिक्षा न थीं जो अपने झोपड़ी का द्वार खुला रखने का अनुरोध करती है, जो दूसरों को खिला कर आप खाने की नीति सिखाती हैं। ज्ञानशंकर किसी को आश्रय देने की कल्पना भी न कर सकते थे जब तक अपना प्रासाद न बना ले, वह किसी को मुट्ठी भर अन्न भी न दे सकते थे, जब तक अपनी धान्यशाला को भर न ले।

सौभाग्य से उनका प्रासाद निमित हो चुका था। अब वह दूसरों को आश्रय देने पर तैयार थे, उनकी घान्यशाला परिपूर्ण हो चुकी थी। अब उन्हें भिक्षुओं से घृणा ने थी। सम्पत्तिशाली हो कर वह उदार, दयालु, दीनवत्सल और कर्तव्यपरायण हो गये थे। लाला प्रभाशंकर की पुत्रियों के विवाह में उन्होने खासी मदद की थी और पुत्रो के मातम में शरीक होने के लिए भी गोरखपुर से आये थे। प्रेमशंकर के प्रति भी भ्रातृ-प्रेम जाग्रत हो गया था, यहाँ तक कि लखनपुरवालों के मुक्त हो जाने पर उन्हें बधाई दी थी। गायत्री की मृत्यु का शोक समाचार मिला तो उन्होने उसका संस्कार बड़ी धूमधाम से किया और कई हजार रुपये खर्च किये। उसकी यादगार में एक पक्का तालाब खुदवा दिया। जब तक वह फुस के झोपडे में रहते थे, आग की चिनगारियों से डरते थे। अब उनका पक्का महल था, फुलझडियों का तमाशा सावधानी से देख सकते थे।

ज्ञानशंकर अब ख्याति और सुकीर्ति के लिए लालायित रहते थे। लखनऊ के मान्यगण उन्हे अनधिकारी समझ कर उनसे कुछ खिचे रहते थे। और यद्यपि गोरखपुर मे पहले ही उन्होने सम्मानपद प्राप्त कर लिया था, पर इस नयी हैसियत में देख कर अक्सर लोग उनसे जलते थे। ज्ञानशंकर ने दोनो शहरो के रईसो में मेल-जोल बढ़ाना शुरू किया। पहले वह राय साहब के अव्यवस्थित व्यय को घटाना परमावश्यक समझते थे। कई घोड़े, एक मोटर, कई सवारी गाडियाँ निकाल देना चाहते थे। लेकिन अब उन्हें अपनी सम्मान रक्षा के लिए उस ठाट-बाट को निचाहना ही नहीं, उसे और बढ़ाना जरूरी मालूम होता था जिसमें लोग उनकी हँसी न उड़ाये। वह उन लोगों की बारबार दावते करते, छोटे-बड़े सबसे नम्रता और विनय का व्यवहार करते और सत्कार्यों के लिए दिल खोल कर चन्दे देते। पत्र-सम्पादको से उनका परिचय पहले ही से था अब और भी घनिष्ठ हो गया। अखबारो में उनकी उदारता और सज्जनता की प्रशंसा होने लगी। यहाँ तक कि साल भी न बीतने पाया था कि वह लखनऊ की ताल्लुकेदार सभा के मंत्री चुन लिये गये। राज्याधिकारियों में भी उनका सम्मान होने लगा। वह वाणी में कुशल थे ही, प्राय जातीय-सम्मेलन में ओजस्विनी बक्तूती देते। पत्रों में वाह-वाह होने लगती। अतएव वह इधर तो जाति के नेताओं में गिने जाने लगे, उघर अधिकारियों में भी मान-प्रतिष्ठा होने लगी।

किन्तु अपनी मूक, दीन प्रजा के साथ उनका बर्ताव इतना सदय न था। उन वृक्षो में काँटे न थे, इसलिए उनके फल तोड़ने में कोई बाधा न थी। असामियों पर अखराज, बकाया और इजाफे की नालिजें घूम से हो रही थी, उनके पट्टे बदले जा रहे थे और नजराने बड़ी कठोरता से वसूल किये जा रहे थे। राय साहब ने रियासत पर पाँच लाख का ऋण छोड़ा था। उस पर लगभग २५ हजार वार्षिक ब्याज होता था। ज्ञानशंकर ने इन प्रयत्नों से सूद की पूर्ति कर ली। इतने अत्याचार पर भी प्रजा उनसे असन्तुष्ट न थी। वह कडवी हवाएँ मीठी करके पिलाते थे। गायत्री की बरसी में उन्होने असामियों को एक हजार कम्बल बाँटे और ब्राह्मणों को भोज दिया। इसी तरह राय साहब के इलाके में होली के दिन जलसे कराये और भोले-भाले असामियों को भर पेट भंग पिला कर मुग्ध कर दिया। कई जगह मड़ियाँ लगवा दी जिससे कृषकों को अपनी जिन्हें बेचने में सुविधा हो गयी और रियासत को भी अच्छा लाभ होने लगा।

इस तरह दो साल गुजर गये। ज्ञानशंकर का सौभाग्य-सुर्य अब मध्याह्न पर था। राय साहब के ऋण से वह बहुत कुछ मुक्त हो चुके थे। हाकिमों में मान था, रईसो में प्रतिष्ठा थी, विद्वज्जनो में आदर था, मर्मत्र लेखक थे, कुशल वक्ता थे। सुख-भोग की सब सामग्रियाँ प्राप्त थी। जीवन की महत्त्वाकाक्षाएँ पूरी हो गयी थी। वह जब कभी अनेकाश के समय अपनी गत अवस्था पर विचार करते तब उन्हें अपनी सफलता पर आश्चर्य होता था। मैं क्या से क्या हो गया? अभी तीन ही साल पहले मैं एक हजार सालाना नफे के लिए सारे गाँव को फांसी पर चढ़वा देना चाहता था। तब मेरी दृष्टि कितनीं संकीर्ण थी। एक तुच्छ बात के लिए चचा से अलग हो गया, यहाँ तक कि अपने सगे भाई का भी अहित सोचता था। उन्हें फैसले में कोई बात उठा नही रखी। पर अब ऐसी कितनी रकमें दान कर देता हूँ। कहाँ एक ताँगा रखने की सामर्थ्य न थी, कहाँ अब मोटरें मैंगनी दिया करता हूँ। निस्सदेह इस सफलता के लिए मुझे स्वाँग भरने पड़े, हाथ रंगने पड़े, पाप, छल, कपट सब कुछ करने पड़े, किंतु अँधेरे में खोह में उतरे बिना अनमोल रत्न कहाँ मिलते है? लेकिन इसे अपने ही कृत्यो का फल समझना मेरी नितान्त भूल है। ईश्वरीय व्यवस्था न होती तो मेरी चाल कभी सीधी न पड़ती! उस समय तो ऐसा जान पड़ता था, कि पौसा पट पड़ा, बार खाली गया, लेकिन सौभाग्य से उन्हीं खाली वारो ने, उन्ही उल्टी चालों ने बाजी जिता दी।

ज्ञानाशंकर दूसरे-तीसरे महीने बनारस अवश्य जाते और प्रेमशंकर के पास रह कर सरल जीवन का आनद उठाते। उन्होंने प्रेमशंकर से कितनी ही बार साग्रह कहा कि अब आपको इस उजाड़ में झोपड़ा बना कर रहने की क्या जरूरत है? चल कर घर पर रहिए और ईश्वर की दी हुई सपत्ति भोगिए। यह मजूर न हो तो मेरे साथ चलिए। हुनास्दो हजार बीचे चक दे दें, वहीं दिल खोल कर कृषक जीवन का आनद उठाइए, लेकिन प्रेमशंकर कहते, मेरे लिए इतना ही काफी है, ज्यादा की जरूरत नहीं। हाँ, इस अनुरोध का इतना फल अवश्य हुआ कि वह अपनी मौत को बढ़ाने पर राजी हो गये। उनके डाँढ से मिली हुई पचास बीधे जमीन एक दूसरे जमींदार की थी। उन्होंने उसका पट्टा लिखा लिया और फूस के झोंपड़े की जगह खपरैल के मकान बनवा लिए। ज्ञानशंकर उनसे यह सब प्रस्ताव करते थे, पर उनके संतोषमय, सरल, निर्विरोध जीवन के महत्त्व से अनभिज्ञ थे। नाना प्रकार की चिताओं और बीघा में ग्रस्त रहने के बाद वहाँ के शान्तिमय, निविघ्न विश्राम से उनका चित्त प्रफुल्लित हो जाता था। यहाँ से जाने को जी न चाहता था। यह स्थान अब पहले की तरह न था, जहाँ केवल एक आदमी साधुओं की भाँति अपनी कुटी में पड़ा रहता हो। अब वह एक छोटी सी गुलजार बस्ती थी, जहाँ नित्य राजनीतिक और सामाजिक विषयों पर सम्वाद होते थे और जीवन-मरण के गूढ, जटिल प्रश्नो की मीमांसा की जाती थी! यह विद्वज्जनों की एक छोटी सी संगत थी, विद्वानों के पक्षपात और अहंकार से मुक्त। वास्तव में यह सारल्य, संतोष और सुविचार की तपोभूमि थी। यहाँ न ईर्षा का सन्ताप था, न लोभ का उन्माद, न तृष्णा का प्रकोप, यहाँ घन की पूजा न होती थी और न दीनता पैरो तले कुचली जाती थी। यहाँ न एक गद्दी लगा कर बैठता था और न दूसरा अपराधियों की भाँति उनके सामने हाथ बांध कर खड़ा होता था। यहाँ स्वामी की चुडकियाँ न थी, न सेवक की दीन ठकुरसोहातियाँ। यहाँ सब एक दूसरे के सेवक, एक दूसरे के मित्र और हितैषी थे। एक तरफ डाक्टर इन अली का सुदर बँगला था फूलो और लताओं से सजा हुआ। डाक्टर साहब अब केवल वही मुकदमें लेते थे जिनके सच्चे होने का उन्हें विश्वास होता था और उतना ही पारिश्रमिक लेते थे जितना रोजाना खर्च के लिए आवश्यक हो। संचय और संग्रह की चिंताओं से निवृत्त हो गये थे। शाम-सबेरे वह प्रेमशंकर के साथ बागवानी करते थे, जिसका उन्हें पहले से ही शौक था। पहले गमलो में लगे हुए पौधो को देख कर खुश होते थे, काम माली करता या। अब सारा काम अपने ही हाथों करते थे। उनके बँगले से मिला हुआ डाक्टर प्रियनाथ का मकान था। मकान के सामने एक औपधालय था। अब वे प्राय देहातो मे घूम-घूम कर रोगियों का कष्ट निवारण करते थे, नौकरी छोड़ दी थी। जीविका के लिए एक गौशाला खोल ली थी जिसमें कई पछाही गायें-भसे थीं। दूध-मक्खन बिकने के लिए शहर चला आता था। रोगियों से कुछ फीस न लेते थे। बाबू ज्वालासिंह और प्रेमशंकर एक ही मकान में रहते थे। श्रद्धा और शीलमणि मे खुब बनती थी। घर के कामों से फुरसत पावे ही दोनों चरखे पर बैठ जाती थी या मोजे बुनने लगती थी। प्रेमशंकर नियमानुसार खेत में काम करते थे और ज्वालासिंह नये प्रकार के करघो पर आप कपड़े बुनते थे और हाजीपुर के कई युवको को चुनना सिखाते थे। इस कला में वह बहुत निपुण हो गये थे। सैयद ईजाद हुसेन ने भी यही अड्डा जमाया। उनका परिवार अब भी शहर में ही रहता था, पर वह यतीमखाना यहीं उठ आया था। उसमे अब नकली नही, सच्चे यतीमों का पालन-पोषण होता था। सैयद साहब अपना 'इत्तहाद' अव भी निकालते थे और 'इत्तहाद' पर व्याख्यान देते थे, लेकिन चन्दे न वसूल करते थे और न स्वांग भरते थे। वह अब हिन्दू-मुसलिम एकता के सच्चे प्रचारक थे। यतीमखाने के समीप ही मायाशंकर का भित्र भवन था। यह एक छोटा स छात्रालय था। इसमे न अली के दो लड़के, प्रियनाथ के तीनों लड़के, दुर्गामाली का एक लड़का और मस्ता का एक छोटा भाई साथ-साथ रहते थे। सब साथ-साथ पाठशाला को जाते और साथ-साथ भोजन करते। उनका सब खर्च 'मायाशंकर अपने वजीफे से देता था। भोजन श्रद्धा पकाती थी। ज्ञानशंकर ने कई बार चाहा कि माया को ले जा कर लखनऊ के ताल्लुकेदार स्कूल में दाखिल करा दें, लेकिन वह राजी न होता था।

एक बार ज्ञानशंकर लखनऊ से आये तो माया के वास्ते एक बहुत सुंदर रेशमी सूट सिला लाये, लेकिन माया ने उसको उस वक्त तक न पहना जब तक मित्र-भवन के और छात्रों के लिए वैसे ही सूट न तैयार हो गये। ज्ञानशंकर मन में बहुत लज्जित हुए और बहुत जत्न करने पर भी उनके मुहँ से इतना निकल ही गया, भाई साहब मैं इस साम्य-सिद्धान्त पर आपसे सहमत नहीं हूँ। यह एक अस्वाभाविक सिद्धान्त है। सिद्धान्त रुप में हम चाहे इसकी कितनी ही प्रशंसा करे पर इसका व्यवहार में लाना असंभव हैं। मैं यूरोप के कितने ही साम्यवादियो को जानता हूँ जो अमीरों की भाँति रहते है, मोटरो पर सैर करते है और साल में छह महीने इटली या फ्रांस में विहार किया करते हैं। जब वह अपने को साम्यवादी कह सकते है तो कोई कारण नहीं है कि हम इस अस्वाभाविक नीति पर जान दे।

प्रेमशंकर ने विनीत भाव से कहा—यहाँ साम्यवाद की तो कभी चर्चा नहीं हुई है।

ज्ञान—तो फिर यहाँ के जलवायु से यह असर होगा। यद्यपि मुझे इस विषय में आपसे कुछ कहने का अधिकार नहीं है पर पिता के नाते में इतना कहने की क्षमा चाहता हूँ कि ऐसी शिक्षा का फल माया के लिए हितकर न होगा।

प्रेम—अगर तुम चाहो और माया की इच्छा हो तो उसे लखनऊ ले जाओ, मुझे कोई आपत्ति नहीं है। यहाँ के जलवायु को बदलना मेरे वश की बात नहीं।

ज्ञान—यह तो आप जानते है कि माया और उसके साथियों की स्थिति में कितना अन्तर हैं।

प्रेमशंकर ने गम्भीरता से कहा—हाँ, खूब जानता हूँ, पर यह नहीं जानता कि इस अन्तर को प्रदर्शित क्यों किया जाय। मायाशंकर थोड़े दिनों में एक बड़ा इलाकेदार होगा, यह सब लड़को को मालूम है। क्या यह बात उन्हें अपने दुर्भाग्य पर रुलाने के लिए काफी नहीं है कि इन विभिन्नता का स्वाँग दिखा कर उन्हें और भी चोट पहुँचायी जाय? तुम्हें मालूम न होगा, पर मैं यह विश्वस्त रूप से कहता हूँ कि तेजू और पनू का बलिदान माया के गोद लिए जाने के ही कारण हुआ। माया को अचानक इस रुप में देख कर सिद्धि प्राप्त करने की प्रेरणा हुई। माया डीगे मार-मार कर उनकी लालसा को और भी उत्तेजित करता रहा और उसका यह भयकर परिणाम हुआ

इतने में माया आ गया और प्रेमशंकर को अपनी बात अधूरी ही छोडनी पड़ी। ज्ञानशंकर भी अन्यमनस्क हो कर वहा से उठ गये।