प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ २१ से – २३ तक

 

चौथा अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले―राजा, जिस समै श्रीकृष्णचंद जन्म लेने लगे, तिस काल सबही के जी में ऐसा आनंद उपजा कि दुख नाम को भी न रहा, हरष से लगे बन उपवन हरे हो हो फूलने फलने, नदी नाले सरोवर भरने, तिनपर भाँति भाँति के पंछी कलोले करने, और नगर नगर गाँव गाँव घर घर मंगलाचार होने, ब्राह्मन यज्ञ रचने, दसो दिसा के दिगपाल हरषने, बाल ब्रजसंडल पर फिरने, देवता अपने अपने बिमानों में बैठे आकाश से फूल बरसावने, विद्याधर, गंधर्व, चारन, ढोल, दमामे, भेर, बजाय बजाय गुन गाने। और एक ओर उर्बसी आदि सब अप्सरा नाच रही थी कि ऐसे समै भादो बदी अष्टमी बुधबार रोहिनी नक्षत्र में आधी रात श्रीकृष्ण ने जन्म लिया, और मेघ बरन, चंद मुख, कमल नैन हो, पितांबर काळे, मुकुट धरे, बैजन्ती माल और रतनजटित आभूषन पहिरे, चतुर्भुज रूप किये, शंख, चक्र, गदा, पद्म लिये बसुदेव देवकी को दरसन दिया। देखते ही अचंभे हो विन दोनों ने ज्ञान से बिचारा तो आदि पुरुष को जाना, तब हाथ जोड़ बिनती कर कहा―हमारे बड़े भाग जो अपने दरसन दिया और जन्म मरन का निबेड़ा किया।

इतना कह पहली कथा सब सुनाई जैसे जैसे कँस ने दुख दिया था। तहाँ श्रीकृष्णचंद बोले―तुम अब किसी बात की चिंता मन में अत करो, क्योकि मैंने तुम्हारे दुख के दूर करनेही को औतार लिया है, पर इस समै मुझे गोकुल पहुँचा दो और इसी बिरियाँ जसोदा के लड़की हुई है सो कंस को ला दो, अपने जाने का कारन कहता हूँ तो सुनो।

नंद जसोदा तप करयों, मोही सो मन लाय॥
देख्यो चाहत बाल सुख, रहौं कछू दिन जाय॥

फिर कंस को मार आन मिलूँगा, तुम अपने मन में धीर धरो। ऐसे बसुदेव देवकी को समझाय, श्रीकृष्ण चालक बन रोने लगे, और अपनी माया फैला दी, तब तो बसुदेव देवकी का ज्ञान गया औ जाना कि हमारे पुत्र भया। यह समझ दस सहस्र गाय सुन में संकल्प कर लड़के को गोद में उठा छाती से लगा लिया, उसका मुँह देख देख दोनो लंबी साँसें भर भर आपस में लगे कहने―जो किसी रीत से इस लड़के को भगा दीजे तो कंस पापी के हाथ से बचे। बसुदेव बोले―

बिधना बिन राखै नहि कोई। कर्म लिखा सोई फल होई॥
तब कर जोर देवकी कहै। नंद मित्र गोकुल में रहै॥
पीर जसोदा हरें हमारी। नारि रोहनी तहाँ तिहारी॥

इस बालक को वहाँ ले जाओ। यो सुन वसुदेव अकुलाकर कहने लगे कि इस कठिन बंधन से छूट कैसे ले जाऊँ। जो इतनी बात कही तो सब बेड़ी हथकड़ी खुल पड़ीं, चारो ओर के किवाड़ उधड़े गये, पहरुए अचेत नींद बस भये, सब तो बसुदेवजी ने श्रीकृष्ण को सूप में रख सिर पर धर लिया और झटपट ही गोकुल को प्रस्थान किया।

ऊपर बरसे देव, पीछे सिंह जु गुंंजरै।
सोचत है बसुदेव, जमुना देखि प्रवाह अति॥

नदी के तीर खड़े हो बसुदेव विचारने लगे कि पीछे तो सिंह बोलता है औं आगे अथाह जमुना बह रही है। अब क्या करूँ। ऐसे कह भगवान का ध्यान धुर जमुना में पैठे। जो जो आगे जाते थे तो तो नदी बढ़ती थी। जब नाक तक पानी आया तब तो ये निपट घबराए। इनको व्याकुल जान श्रीकृष्ण ने अपना पाँव बढ़ाय हुंकारा दिया। चरन छूते ही जमुना थाह हुई, बसुदेव पार हो नंद की पौर पर जा पहुँचे। वहाँ किवाड़ खुले पाये, भीतर धस के देखे तो सब सोए पड़े हैं। देवी ने ऐसी मोहनी डाली थी कि जसोदा को लड़की के होने की भी सुध न थी। वसुदेवजी ने कृष्ण को तो जसोदा के ढिग सुला दिया, और कन्या को ले चट अपना पंथ लिया। नदी उतर फिर आए तहाँ, बैठी सोचती थी देवकी जहाँ। कन्या दे वहाँ की कुशल कही, सुनते ही देवकी प्रसन्न हो बोली―हे स्वामी हमें कंस अब मार डाले तो भी कुछ चिता नहीं, क्योकि इस दुष्ट के हाथ से पुत्र तो बचा।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी राजा परीक्षित से कहने लगे कि जब बसुदेव लड़की को ले आए तब किवाड़ जो के तो भिड़ गये और दोनों ने हथकड़ियाँ बेड़ियाँ पहर लीं। कन्या रों उठी, रोने की धुन सुन पहरुए जागे तो अपने अपने शस्त्र ले ले सावधान हो लगे तुपक छोड़ने। तिनका शब्द सुन लगे हाथी चिंघाड़ने, सिह दहाड़ने और कुत्ते भोकने। तिसी समै अंधेरी रात के बीच बरसते में एक रखवाले ने आ हाथ जोड़ कंस से कहा―महाराज, तुम्हारा बैरी उपजा। यह सुन कंस मूर्छित हो गिरा।