प्रेमसागर/३१ गोपीविरह-वर्णन
श्रीशुकदेव मुनि बोले कि महाराज, एकाएकी श्रीकृष्णचंद को न देखतेही गोपियों की आँख के आगे अँधेरा हो गया औ अति दुख पाय ऐसे अकुलाई जैसे मनि खोय सर्प घबराता है। इसमें एक गोपी कहने लगी―
कहौ सखी मोहन कहाँ, गये हमें छिटकाय।
मेरे गरे भुजा धरे, रहे हुते उर लाय॥
अभी तो हमारे संग हिले मिले रास बिलास कर रहे थे, इतनैही में कहाँ गये, तुममें से किसीने भी जाते न देखा। यह बचन सुन सब गोपी बिरह की मारी निपट उदास हो हाय मार बोलीं―
कहाँ जायँ कैसी करैं, कासों कहैं पुकारि।
हैं कित कछू न जानिये, क्योकर सिले मुरारि॥
ऐसे कह हरि मदमाती होय सब गोपी लगीं चारो ओर ढूंढ़ ढूंढ़ गुन गाय गाय रो रो यों पुकारने―
हमको क्यों छोड़ी ब्रजनाथ, सरबस दिया तुम्हारे साथ।
जब वहाँ न पाया तब आगे जाय आपस में बोलीं―सखी, यहाँ तो हम किसी को नहीं देखतीं, किससे पूछें कि हरि किधर गए। यों सुन एक गोपी ने कहा―सुनो आली, एक बात मेरे जी में आई है कि ये जितने इस वन में पशु पक्षी औ वृक्ष है सो सब ऋषि मुनि हैं, ये कृष्णलीला देखने को औतार ले आये है, इन्हीं से पूछो, ये यहाँ खड़े देखते हैं, जिधर हरि गए होगे तिधर बता देगे। इतना बचन सुनते ही सब गोपी बिरह से व्याकुल हो क्या जड़ क्या चैतन्य लगी एक एक से पूछने―
हे बड़ पीपल पाकड़ बीर। लहा पुण्य कर उच्च शरीर॥
पर उपकारी तुमही भये। बृक्ष रूप पृथ्वी पर लये॥
घाम सीत बरषा दुख सहौ। काज पराये ठाढ़े रहौ॥
बकला फूल मूल फल डार। तिनस करत पराई सार॥
सबका मन घन हर नंदलाल। गये इधर को कहो दयाल॥
हे कदम्य अम्ब कचनारि। तुम कहुँ देखे जात मुरारि॥
हे अशोक चम्पा करवीर। जात लखे तुमने धलबीर॥
हे तुलसी अति हरि की प्यारी। तन ते कहूँन राखत न्यारी॥
फूली आज मिले हरि आय। हमहूँ को किन देत बताय॥
जाती जुही मालती माई। इत ह्वै निकसे कुँवर कन्हाई॥
मृगनि पुकारि कहै ब्रजभारी। इत तुम जात लखे बनवारी॥
इतना कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, इसी रीति से
हा हा नाथ परम हितकारी। कहाँ गये स्वच्छंद बिहारी॥
चरन सरन दासी मैं तेरी। कृपासिंधु लीजे सुध मेरी॥
कि इतने में सब गोपी भी ढूँढ़ती ढूँढती उसके पास जा पहुँचीं, औ विसके गले लग लग सबों ने मिल मिल ऐसा सुख माना कि
जैसे कोई महा धन खोय मध्य आधा घन पाय सुख माने। निदान
सब गोपी भी विसे अति दुखित जान साथ ले महा अन मैं पैठीं,
औ जहाँ लग चाँदना देखा तहाँ लग गोपियों ने बन में श्रीकृष्णचंद्र
को ढूँढ़ा, जब साधन बन के अँधेरे में बाट न पाई तब वे
सब वहाँ से फिर धीरज धर मिलने की आस कर, जमुना के उसी
तीर पर आय बैठीं, जहाँ श्रीकृष्णचंद ने अधिक सुख दिया था।
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