प्रेमसागर/३० रासक्रीड़ारंभ

[ ८९ ]इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी बोले―

जैसे हरि गोपिन सहित, कीनौ रास विलास।
सो― पंचाध्याई कहो, जैसो बुद्धि प्रकास॥

जब श्रीकृष्ण ने चीर हरे थे तब गोपियों को यह बचन दिया था कि हम कार्तिक महीने में तुम्हारे साथ रास करेगे, तभी से गोपी रास की आस किये मन में उदास रहें औ भित उठ कार्तिक मास ही को मनाया करें। दैवी उनके मनाते मनाते सुखदाई सरद ऋतु आई।

लाग्यौ जब से कार्तिक मास। घाम सीत बरषा कौ नास॥
निर्मल जल सरबर भर रहे। फूले कँवल होय डहडहे॥
कुमुद चकोर कंत कामिनी। फूलहिं देख चंद्रजामिनी॥
चकई मलिन कँवल कुम्हलाने। जे निज मित्र भानु कौ माने॥

ऐसे कह श्रीशुकदेव मुनि फिर बोले कि पृथ्वीनाथ, एक दि॰ श्रीकृष्णचंद कार्तिक पून्यो की रात्रि को घर से निकल बाहर आय देखे तो निर्मल आकाश में तारे छिटक रहे हैं, चॉदनी दसो दिसा में फैल रही है। सीतल सुगंध सहित मंद गति पौन बह रही है। औ एक और सघन बन की छबि अधिक ही सोभा दे रही है। ऐसा समा देखते ही उनके मन में आया कि हमने गोपियो को यह बचन दिया है जो सरद ऋतु में तुम्हारे साथ रास करेंगे, सो पूरा किया चाहिये। यह बिचारकर बन में जाय श्रीकृष्ण ने [ ९० ]बाँसुरी बजाई। बंसी की धुनि सुनि सब ब्रज युवती बिरह की मारी कामातुर हो अति घबराईं। निदान कुटुंब की माया छोड़, कुलकान पटक, गृहकाज तज, हड़बड़ाय उलटा पुलदा सिंगार कर उठ धाईं। एक गोपी जो अपने पति के पास से जो उठ चली तो उसके पति ने बाट में जा रोका औ फेरकर घर ले आया, जाने न दिया, तब तो वह हरि को ध्यान कर देह छोड़ सबसे पहले जा मिली। विसके चित की प्रीति देख श्रीकृष्णचंद ने तुरंत मुक्ति गति दी।

इतनी कथा सुन राजा परीक्षित ने श्रीशुकदेवजी से पूछा कि कृपानाथ, गोपी ने श्रीकृष्णजी को ईश्वर जानके तो नहीं माना, केवल विषय की वासना कर भेजा, वह मुक्त कैसे हुई, सो मुझे समझाके कहो जो मेरे मन को संदेह जाय। श्रीशुकदेव मुनि बोले―धर्म्मावतार, जो जन श्रीकृष्णचंद की महिमा का अनजाने भी गुन गाते है सो भी निस्संदेह भक्ति मुक्ति पाते हैं, जैसे कोई बिन जाने अमृत पियेगा, वह भी अमर हो जियेगा औ जान के पियेगा विसे भी गुन होगी। यह सब जानते हैं कि पदारथ का गुन औ फल बिन हुए रहता नहीं। ऐसेही हरिभजन का प्रताप है, कोई किसी भाव से भजो मुक्त होयगा। कहा है- जप माला छाप तिलक, सरै न एकै काम। मन काचे नाचै वृथा, सांचे राचे राम॥ औ सुनो जिन जिनने जैसे जैसे भाव से श्रीकृष्ण को मान के सुक्ति पाई सो कहता हूँ कि नंद जसोदादि ने तो पुत्र कर बुझा, गोपियो ने जार कर समझा, कंस ने भय कर भेजा, ग्वाल बालो के मित्र कर जपा, पांडवों ने प्रीतम कर जाना, सिसुपाल ने शत्रु [ ९१ ]कर माना, यदुबंसियो ने अपना कर ठान्ना औ जोगी जती सुनियों ने ईश्वर कर ध्याया, पर अंतमें मुक्ति पदारथ सबही ने पाया। जो एक गोपी प्रभु का ध्यान कर तरी तो क्या अचरज हुआ।


यह सुन राजा परीक्षित ने श्रीशुकदेव मुनि से कहा कि कृपा नाथ, मेरे मन को संदेह गया, अब कृपा कर आगे कथा कहिये। श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, जिस काल सब गोपियाँ अपनै अपने झुंड लिये, श्रीकृष्णचंद जगत-उजागर रूपसागर, से धायकर यो जाय मिलीं कि जैसे चौमासे की नदियाँ बल कर समुद्र को जाय मिले। उस समैं के बनाव की सोभा बिहारीलाल की कुछ बरनी नहीं जाती, कि सब सिंगार करे, नटवर भेष धरे, ऐसे मनभावने सुंदर सुहावने लगते थे कि ब्रज युवती हरि छबि देखतेही छक रहीं। तब मोहन विनकी क्षेम कुशल पूछ रूखे हो बोले―कहो रात समैं भूत प्रेत की बिरियाँ भयावनी बाट काट, उलटे पुलटे वस्त्र आभूषण पहले, अति घबराई, कुटुम्ब की माया तज इस महाबन में तुम कैसे आईं। ऐसा साहस करना नारी को उचित नहीं। स्त्री को कहा है कि कादर, कुमत, कूढ़, कपटी, कुरूप, कोढ़ी, काना, अन्धा, तुला, लँगड़ा, दुरिद्री, कैसाही पति हो पर इसे उसकी सेवा करनी जोर है, इसमें उसका कल्यान है औ जगत में बड़ाई। कुलवन्ती पतिव्रता का धर्म हैं कि पति को क्षण भर न छोड़े और जो स्त्री अपने पुरुष को छोड़ पर पुरुष के पास जाती है सो जन्म जन्म नके बास पाती है। ऐसे कह फिर बोले कि सुनौ, तुमने आघ सघन बैन, निर्मल चाँदनी, औ जमुना तीर की सोभा देखी, अब घर जाय मन लगाय कंत की सेवा करो, इसमें तुम्हारा सब भाँति भला है। इतना बचन श्रीकृष्ण के [ ९२ ]मुख से सुमतेही सब गोपी एक बार तो अचेत हो अपार सोच सागर में पड़ीं, पीछे―

नीचे चितै उसासे लई। पद नख तें भौं खोदत भईं।
या दृग सो छूटी जलधारा। मानहु छूटे मोतीहारा।

निदान दुख से अति घबराय रो रो कहने लगी कि अहो कृष्ण, तुम बड़े ठग हो, पहले तो बंसी बजाय अचानक हमारा ज्ञान ध्यान मन धन हर लिया, अब निंदेई होय कपट कर कर्कस बचन कह प्रान लिया चाहते हो। यो सुनाय पुनि बोलीं―

लोग कुटुम थर पति तजें, तेजी लोक की लाज।
हैं अनाथ, कोऊ नहीं, राखि सरन ब्रजराज॥

औ जो जन तुम्हारे चरनों में रहते हैं सो धन तन लाज बड़ाई नहीं चाहते विनके तो तुम्हीं हो जन्म जन्म के कंत, हे प्रानरूप भगवंत।

करिहैं कहा जाय हुम गेह। अरुझे प्रान तुम्हारे नेह॥

इतनी बात के सुनतेही श्रीकृष्णचंद ने मुसकुराय सब गोपियो का निकट बुलायके कहा―जो तुम राची हो इस रंग, तो खेलो रास हमारे संग। यह बचन सुन दुख तज दोपी प्रसन्नता से चारों और घिर आईं औ हारिमुख निरख निरख लोचन सुफल करने लगीं।

ठाढ़े बीच जु स्याम घन, इहि बिधि काछिनि केलि॥
मनहुँ नील निरि तरे तें, उलही कंचन बेलि॥

आगे श्रीकृष्णजी ने अपनी माया की आज्ञा की कि हम रास करेंगे उसके लिये तू एक अच्छा स्थान रच औ यहाँ खड़ी रहे, जो जो जिस जिंस क्स्तु की इच्छा करै सो सो ला दीजो। महाराज, बिसने सुनतेही जंमुना के तीर जाय एक कंचन का मंडला[ ९३ ]कार बड़ा चौंतरा बनाय, मोती हीरे जड़, उसके चारों ओर सपल्लव केले के खंभ लगाय, तिनमें बंदनवार औ भाँति भाँति के फूलो की माला बाँध, आ श्रीकृष्णचंद से कहा। ये सुनतेही प्रसन्न हो सब ब्रज युवतियों को साथ ले जमुना तीर को चले। वहाँ जाय देखें तो चंद्रमंडल से रासमंडल के चौतरे की चमक चौगुनी सोभा दे रही है। उसके चारों ओर रेती चाँदनी सी फैल रही है। सुगंध समेत शीतल मीठी मीठी पौन चल रही है औ एक ओर सघन बन की हरियाली उजाली रात में अधिक छबि ले रही है।

इस समैं को देखतेही सब गोपी नगन हो, उसी स्थान के निकट मानसरोवर नाम एक सरोवर था तिसके तीर जाय मन मानते सुथरे वस्त्र आभूषन पहन, नख सिख से सिंगार कर अच्छे वाजे बीन पखावज आदि सुर बाँध बाँध ले आईं, औं लगी प्रेम मद माती हो सोच संकोच तज श्रीकृष्ण के साथ मिल बजाने, गाने, नाचने। उस समै श्रीगोबिंद गोपियों की मंडली के मध्य ऐसे सुहावने लगते थे जैसे तारामंडल में चंद।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले―सुनो महाराज, जब गोपियो ने ज्ञान विवेक छोड़ रास में हरि को मन से बिषई पति कर माना औ अपने आधीन जाना, तब श्रीकृष्णाचंद ने मन से विचारा कि―

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अब मोहि इन अपने बस जान्यौ। पति बिषई सम मनमें आन्यौ॥
भई अझान लाज तजि देह। लपटहि पकरहि कंते सनेह॥
ज्ञान ध्यान मिलकैं बिसरायौ। छाँड़ि जाउँ इनि गर्व बढ़ायौ॥

देखूँ मुझ बिन पीछे बन मैं क्या करती है और कैसे रहती हैं। ऐसे विचार श्रीराधिका को साथ ले श्रीकृष्णचंद अंतरध्यान हुए।

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