प्रेमसागर/३२ गोपीजन-विरहकथा
श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, सब गोपी जमुना तीर पर बैठ प्रेम मदमाती ही हरि के चरित्र और गुन गाने लगीं कि प्रीतम जब से तुम ब्रज में आए तब से नये नये सुख यहाँ आनकर छाए। लक्ष्मी ने कर तुम्हारे चरन की आस, किया है अचल आय के बास। हम गोपी हैं दासी तुम्हारी, बेग सुध लीजे दया कर हमारी। जद से सुंदर साँवली सलोनी मूरति हैं हेरी, तद से हुई हैं बिन मोल की चेरी। तुम्हारे नैन बानो ने हने हैं हिये हमारे, सो प्यारे, किस लिए लेखे नहीं है तुम्हारे। जीव जाते है। हमारे, अब करुना कीजे, तजकर कठोरता बेग दरसन दीजे। जो तुम्हें मारनाही था तो हमको विषधर, आग औ जल से किस लिये बचाया, तभी मरने क्यो न दिया। तुम केवल जसोदासुत नहीं हो, तुम्हें तो ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्रादि सत्र देवता बिनती कर लाये हैं संसार की रक्षा के लिये।
हे प्राननाथ, हमे एक अचरज बड़ा है कि जो अपनोही को मारोगे, तो करोगे किसकी रखवाली। प्रीतम, तुम अन्तरजामी होय हसारे दुख हर मन की आस क्यों नहीं पूरी करते। क्या अबलाओ पर ही सूरत धारी है। हे प्यारे, जब तुम्हारी मन्द मुसकानयुत प्यार भरी चितवन, औ भृकुटी की मरोर, नैनो की मटकन-ग्रीवा की लटक, औ बातो की चदक, हमारे जिय में आती हैं, तब क्या क्या न दुख पाती है। और जिस समै तुम गौ चराचन जाते थे बन में, तिस समैं तुम्हारे कोमल चरन का ध्यान करने
से बन के कंकर काँटे आ कसकते थे हमारे मन में। भोर के गये साँझ को फिर आते थे, तिस पर भी हमें चार पहर चार युग से जानते थे। जद सनमुख बैठ सुंदर बदन निहारती थीं, तद अपने जी मे बिचारती थीं कि ब्रह्मा कोई बड़ा मूरख है जो पलक बनाई है, हमारे इकटक देखने में बाधा डालने को।
इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, इसी रीत से सब गोपी बिरह की मारीं श्रीकृष्णचंद के गुन औ चरित अनेक अनेक प्रकार से गाय गाय हारीं, तिसपर भी न आए बिहारी। तब तो निपट निरास हो, मिलने की आस कर, जीने का भरोसा छोड़, अति अधीरता से अचेत हो, गिरकर ऐसे से पुकारीं कि सुनकर चर अचर भी दुखित भये भारी।
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