प्रताप पीयूष  (१९३३) 
द्वारा प्रतापनारायण मिश्र

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तांबे के पत्र पर लिखा लीजिए। तीसरे गोरक्षा के लिए तन, मन, धन से उद्योग करनेवाले । अन्न, धन, दूध, पूत सब कुछ न पावें, तथा शरीर-मोक्ष का मज़ा. न उठावें तो वेद, शास्त्र, पुराण और हम सबको झूठा समझ लेना । चौथे परमेश्वर के प्रेमानन्द में मस्त रहने वाले तथा भारत-भूमि को सच्चे चित्त से प्यार करनेवाले एक ऐसा अलौकिक अपरिमित एवं अकथ आनन्द लूटेंगे कि उसके आगे भुक्ति और मुक्ति तृण से भी तुच्छ हैं। हमारे वचन को 'ब्रह्मवाक्य सदा सत्यम्' न समझेगा वह सब नास्तिकों का गुरू है।


होली है

तुम्हारा सिर है ! यहां दरिद्र की आग के मारे होला (अथवा होरा भुना हुवा हरा चना) हो रहे हैं इन्हें होली है, हे !

अरे कैसे मनहूस हो ? बरस २ का तिवहार है, उसमें भी वही रोनी सूरत ! एक बार तो प्रसन्न हो कर बोलो, होरी है !

अरे भाई हम पुराने समय के बंगाली भी तो नहीं हैं कि तुम ऐसे मित्रों की जबरदस्ती से होरी (हरि) बोलके शांत हो जाते। हम तो बीसवीं शताब्दी के अभागे हिन्दुस्तानी हैं, जिन्हें कृषि, वाणिज्य शिल्प सेवादि किसी में भी कुछ तंत नहीं है। खेतों की उपज अतिवृष्टि, अनावृष्टि, जंगलों का कट जाना रेलों और नहरों की वृद्धि इत्यादि ने मट्टी करदी है। जो कुछ
उपजता भी है वह कटके खलियान में नहीं आने पाता, ऊपर ही ऊपर लद जाता है ! रुजगार-व्यौहार में कहीं कुछ देखी नहीं पड़ता। जिन बजारों में, अभी दस वर्ष भी नहीं हुए, कंचन बरसता था वहां अब दूकानें भांय २ होती हैं ! देशी कारीगरी को देश ही वाले नहीं पूछते । विशेषतः जो छाती ठोंक २ ताली वजवा २ काग़जों के तखते रंग २ कर देशहित के गीत गाते फिरते हैं वह और भी देशी वस्तु का व्यवहार करना अपनी शान से बईद समझते हैं। नौकरी वी० ए०, एम० ए०, पास करनेवालों को भी उचित रूप में मुशकिल से मिलती है। ऐसी दशा में हमें होली सूझती है कि दिवाली !

यह ठीक है। पर यह भी तो सोचो कि हम तुम वंशज किनके हैं ? उन्हीं के न, जो किसी समय बसंत- पंचमी ही सेः-

"आई माघ की पांचैं बूढी डोकरियां


का उदाहरण बन जाते थे, पर जब इतनी सामर्थ्य न रही तब शिवरात्रि से होलिकोत्सव का आरंभ करने लगे। जब इसका भी निर्वाह कठिन हुआ तब फागुन सुदी अष्टमी से-

"होरी मध्ये आठ दिन, व्याह मांह दिन चार।
शठ पण्डित, वेश्या बधू सबै भए इकसार”

का नमूना दिखलाने लगे। पर उन्हीं आनंदमय पुरुषों के वंश में होकर तुम ऐसे मुहर्रमी बने जाते हो कि आज तिवहार के

दिन भी आनन्द-बदन से होली का शब्द तक उच्चारण नहीं

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करते । सच कहो, कहीं होली बाइबिल की हवा लगने से हिन्दू-पन को सलीब पर तो नहीं चढ़ा दिया ?

तुम्हें आज क्या सूझी है, जो अपने पराए सभी पर मुंह. चला रहे हो ? होली बाइबिल अन्य धर्म का ग्रंथ है, उसके माननेवाले बिचारे पहिले ही से तुम्हारे साथ का भीतरी-बाहरी: सम्बन्ध छोड़ देते हैं। पहिली उमंग में कुछ दिन तुम्हारे मत. पर कुछ चोट चला भी दिया करते थे, पर अब बरसों से वह चर्चा भी न होने के बराबर हो गई है । फिर, उन छुटे हुए भाइयों पर क्यों बौछार करते हो ? ऐसी ही लड़ास लगी हो तो उनसे जा भिड़ो जो अभी तुम्हारे ही कहलाते हैं, तुम्हारे ही साथ रोटी-बेटी का व्यौहार रखते हैं, तुम्हारे ही दो चार मान्य ग्रन्थों के माननेवाले बनते हैं, पर तुम्हारे ही देवता पितर इत्यादि की निन्दा कर करके तुम्हें चिढ़ाने ही में अपना धर्म और अपने देश की उन्नति समझते हैं।

अरे राम राम ! पर्व के दिन कौन चरचा चलाते हो! हम तो जानते थे तुम्ही मनहूस हो, पर तुम्हारे पास बैठे सो भी नसूढ़िया हो जाय। अरे बाबा दुनियाभर का बोझा परमेश्वर ने तुम्हीं को नहीं लदा दिया। यह कारखाने हैं, भले बुरे लोग और दुःख-सुख की दशा होती ही हुवाती रहती है। पर मनुष्य को चाहिए कि जब जैसे पुरुष और समय का सामना आ पड़े तब तैसा बन जाय । मन को किसी झगड़े में

फंसने न दे।

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आज तुम सचमुच कहीं से भांग खाके आए हो। इसी से ऐसी बेसिर-पैर की हांक रहे हो। अभी कल तक प्रेम- सिद्धान्त के अनुसार यह सिद्ध करते थे कि मन का किसी ओर लगा रहना ही कल्याण का कारण है, और इस समय कह रहे हो कि 'मन को किसी झगड़े में फंसने न दे।' वाह ! भला तुम्हारी किस बात को मानें ?

हमारी बात मानने का मन करो तो कुछ हो ही न जाओ! यही तो तुमसे नहीं होता। तुम तो जानते हो कि हम चोरी चहारी सिखावेंगे।

नहीं यह दो नहीं जानते । और जानते भी हों तो बुरा न मानते। क्योंकि जिस काल में देश का अधिकांश निर्धन, निर्बल, निरुपाय हो रहा है, उसमें यदि कुछ लोग “बुभुक्षितः किं न करोति पापं" का उदाहरण बन जायं तो कोई आश्चर्य नहीं है। पर हां यह तो कहेंगे कि तुम्हारी बातें कभी २ समझ में नहीं आतीं। इससे मानने को जी नहीं चाहता।

यह ठीक है, पर याद रक्खो कि हमारी बातें मानने का मानस करोगे तो समझ में भी आने लगेंगी, और प्रत्यक्ष फल भी देंगी।

अच्छा साहब मानते हैं, पर यह तो बतलाइए जब हम मानने के योग्य ही नहीं हैं तो कैसे मान सकते हैं ?

छिः क्या समझ है ! अरे बाबा। हमारी बातें मानने में योग्य होना और सकना आवश्यक नहीं है। जो बातें हमारे

मुंह से निकलती हैं वह वास्तव में हमारी नहीं हैं, और उनके

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मानने की योग्यता और शक्ति हमको तुमको क्या किसी को भी तीन लोक और तीन काल में नहीं है। पर इसमें भी सन्देह न करना कि जो कोई चुपचाप आंखें मींच के मान लेता है वह परमानन्द भागी हो जाता है।

हिहि ! ऐसी बातें मानने तो कौन आता है, पर सुनकर परमानन्द तो नहीं, हां, मसखरेपन का कुछ मज़ा ज़रूर पा जाता है !

भला हमारी बातों में तुम्हारे मुंह से हिहि तो निकली ! इस तोबड़ा से लटके हुए मुंह के टांकों के समान दो तीन दांत तो निकले। और नहीं तो, मसखरेपन ही का सही, मजा तो आया। देखो, आंखें मट्टी के तेल की रोशनी और कुल्हिया के ऐनक की चमक से चौंधिया न गई हों तो देखो! छत्तिसौ जात, बरंच अजात के जूठे गिलास की मदिरा तथा भच्छ अभच्छ की गंध से अकिल भाग न गई हो तो समझो। हमारी बातें सुनने में इतना फल पाया है तो मानने में न जाने क्या प्राप्त हो जायगा । इसी से कहते हैं, भैया मान जाव, राजा मान जाव, मुन्ना मान जावो । आज मन मारके बैठे रहने का दिन नहीं है । पुरखों के प्राचीन सुख-सम्पति को स्मरण करने का दिन है। इससे हंसो, बोलो, गाओ बजाओ, त्योहार मनाओ, और सब से कहते फिरो-होली है।

हो तो ली ही है । नहीं तो अब रही क्या गया है।

खैर, जो कुछ रह गया है उसी के रखने का यत्न करो,

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पर अपने ढंग से, नकि विदेशी ढंग से । स्मरण रक्खो कि जब तक उत्साह के साथ अपनी हो रीति-नीति का अनुसरण न करोगे तबतक कुछ न होगा। अपनी बातों को बुरी दृष्टि देखना पागलपन है। रोना निस्साहसों का काम है। अपनी भलाई अपने हाथ से हो सकती है। मांगने पर कोई नित्य डबलरोटी का टुकड़ा भी न देगा। इससे अपनपना मत छोड़ो। कहना मान जाव । आज होली है।

हां, हमारा हृदय तो दुर्दैव के वाणों से पूर्णतया होली (होल अंगरेजी में छेद को कहते हैं, उससे युक्त ) है ! हमें तुम्हारी सी जिंदादिली (सहृदयता) कहां से सूझे ?

तो सहृदयता के बिना कुछ आप कर भी नहीं सकते, यदि कुछ रोए पीटे दैवयोग से हो भी जायगा तो "नकटा जिया बुरे हवाल" का लेखा होगा। इससे हृदय में होल (छेद) हैं तो उन पर साहस की पट्टो चढ़ाओ। मृतक की भांति पड़े २ कांखने से कुछ न होगा। आज उछलने ही कूदने का दिन है। सामर्थ्य न हो तो चलो किसी हौली (मद्यालय) से थोड़ी सी पिला लावें, जिसमें कुछ देर के लिए होली के काम के हो जाओ, यह नेस्ती काम की नहीं।

वाह तो क्या मदिरा पिलाया चाहते हो ?

यह कलजुग है। बड़े २ वाजपेयी पीते हैं। पीछे से बल, बुद्धि, धर्म, धन, मान, प्रान सब स्वाहा हो जाय तो बला से ! पर थोड़ी देर उसकी तरंग में "हाथी मच्छर, सूरज' जुगनू"

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दिखाई देता है । इससे, और मनोविनोद के अभाव में, उसके सेवकों के लिए कभी २ उसका सेवन कर लेना इतना बुरा नहीं है जितना मृतचित्त बन बैठना। सुनिए ! संगीत, साहित्य, सुरा और सौंदर्य के साथ यदि नियम-विरुद्ध बर्ताव न किया जाय तो मन की प्रसन्नता और एकाग्रता कुछ न कुछ लाभ अवश्य होता है, और सहृदयता की प्राप्ति के लिए इन दो गुणों की आवश्यकता है, जिनके बिना जीवन की सार्थ- कता दुःसाध्य है।

बलिहारी है, महाराज इस क्षणिक बुद्धि की। अभी तो कहते थे कि मन को किसी झगड़े में फंसने न देना चाहिए, और अभी कहने लगे कि मन की एकाग्रता के बिना सहृदयता तथा सहृदयता के बिना जीवन की सार्थकता दुःसाध्य है ! धन्य हैं, यह सरगापत्ताली बातें! भला हम आपको अनुरागी समझे या विरागी ?

अरे हम तो जो हैं वही हैं, तुम्हें जो समझना हो समझ जो। हमारी कुछ हानि नहीं है। पर यह सुन रक्खो, सीख रक्खो, समझ रक्खो कि अनुराग और विराग वास्तव में एक ही हैं। जब तक एक ओर अचल अनुराग न होगा तब तक जगत के खटराग में विराग नहीं हो सकता, और जब तक सब ओर से आंतरिक विराग न हो जाय तब तक अनुराग का निर्वाह सहज नहीं है। इसी से कहते हैं कि हमारी बातें चुप-

चाप मान ही लिया करो, बहुत अकिल को दौड़ा २ के थकाया

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न करो। इसी में आनन्द भी आता है,और हृदय का कपाट भी खुल जाता है। साधारण बुद्धिवाले लोग भगवान् भूतनाथ श्मसान-विहारी, मुंडमालाधारी को वैराग्य का अधिष्ठाता समझते हैं, पर वह आठों पहर अपनी प्यारी पर्वतराजनंदिनी को वामांग ही में धारण किए रहते हैं, और प्रेम-शास्त्र के आचार्य हैं । इसी प्रकार भगवान् कृष्णचन्द्र को लोग शृङ्गार रस का देवता सम- झते हैं, पर उनकी निर्लिप्तता गीता में देखनी चाहिए। जिसे सुनाके उन्होंने अर्जुन का मोह-जाल छुड़ाके वर्तमान कर्तव्य के लिए ऐसा दृढ़ कर दिया था कि उन्होंने सबकी दया-मया, मोह- ममता को तिलांजलि देके मारकाट प्रारंभ कर दी थी। इन बातों से तत्व-ग्राहिणी समझ भली भांति समझ सकती है कि भगवान प्रेमदेव की अनंत महिमा है। वहां अनुराग-विराग, सुख-दुःख, मुक्ति-साधन सब एक ही हैं। इसी से सच्चे समझ- दार संसार में रह कर सब कुछ देखते सुनते, करते धरते हुए भी संसारी नहीं होते । केवल अपनी मर्यादा में बने रहते हैं, और अपनी मर्यादा वही है जिसे सनातन से समस्त पूर्व-पुरुष रक्षित रखते आए हैं, और उनके सुपुत्र सदा मानते रहेंगे। काल, कर्म, ईश्वर अनुकूल हो वा प्रतिकूल, सारा संसार स्तुति करे वा निंदा, वाह्य दृष्टि से लाभ देख पड़े वा हानि, पर वीर पुरुष वही है जो कभी कहीं किसी दशा में अपनेपन से स्वप्न में भी विमुख न हो। इस मूलमंत्र को भूल के भी न भूले कि जो हमारा है

वही हमारा है। उसी से हमारी शोभा है, और उसी में हमारा

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वास्तविक कल्याण है।

एतदनुसार आज हमारी होली है। चित्त शुद्ध करके वर्ष- भर की कही सुनी क्षमा करके, हाथ जोड़ के, पांव पड़ के, मित्रों को मना के, बाहें पसार के उनसे मिलने और यथासामर्थ्य जी खोलके परस्पर की प्रसन्नता सम्पादन करने का दिन है । जो लोग प्रेम का तत्व तनिक भी नहीं समझते, केवल स्वार्थ- साधन ही को इतिकर्तव्य समझते हैं, पर हैं अपने ही देश जाति के, उनसे घृणा न करके ऊपरी आमोद-प्रमोद में मिला के समयान्तर में मित्रता का अधिकारी बनाने की चेष्टा करने का त्यौहार है। जो निष्प्रयोजन हमारी बात २ पर भुकरते ही हों उन्हें उनके भाग्य के आधीन छोड़के अपनी मौज में मस्त रहने का समय है। इसी से कहते हैं, नई बहू की नाईं घर में न घुसे रहो, पर्व के दिन मन मार के न बैठो, घर बाहर, हेती व्यौहारी से मानसिक आनन्द के साथ कहते फिरो-हो ओ ओ ली ई ई ई है।


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