विभिन्न
मतवादी अवश्य नर्क जायंगे।

हमारी समझ में बड़ी बड़ी पोथियां देखने और बड़े बड़े व्याख्यान सुनने पर भी आज तक न आया कि नर्क कहां है और कैसा है। पर, जैसे तैसे यह हमने मान रक्खा है कि संसार में विघ्न करने वालों की दुर्गति का नाम नर्क है। मरने के पीछे भी यदि कहीं कुछ होता हो तो ऐसे लोग अवश्य कठिन दंड के भागी हैं जो स्वार्थ में अंधे होके पराया दुख सुख हानि लाभ मान अपमान नहीं विचारते अगले लोगों ने कहा है कि 'बैद चितेरो जोतपी हरनिंदक औ कव्बि । इनका नर्क विशेष है औरन का जब तव्बि ।' पर इस बचन में हमें शंका है-काहेसे कि बैद और चितेरे आदि में अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के लोग पाये जाते हैं। फिर यह कहां संभव है कि सब के सभी नर्क के पात्र हों ? वह वैद्य नर्क जाते होंगे जो न रोग जानै न देश काल पात्र पहिचानैं केवल अपना पेट पालने को यह सिद्धान्त किए वैठे हैं कि “यस्य कस्य चपत्राणि येन केन समन्वितं । यस्मै कस्मै प्रदातव्यं यद्वा तद्वा भविष्यिति ।" पर वह क्यों नर्क जायंगे जो समझ बूझ के औषधि करते हैं और रोगी दुख सुख का ध्यान रखते हैं अथवा अपनी दवा और मिहनत का दाम लेने में संकोच नहीं करते । चित्रकारों से किसी

की कोई बड़ी हानि नहीं होती बरंच उनके द्वारा भूत और वर्त-br>

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मान समय के अच्छे बुरे लोगों का अन्य लोगों को स्मरण होता है। अतः औरों की अपेक्षा इन में से नर्कगामी थोड़े होने चाहिये। हां, जोतषियों में बहुत लोग ऐसे हैं जो पढ़े लिखे राम का नाम ही हैं, पर सबके अदृष्ट बतलाने तथा अनमिल जोड़ी मिलाने और वर कन्या का जन्म नशाने एवं बैठे बिठाये गृहस्थों को जी में शंका उपजाने का बीड़ा उठाये बैठे हैं। वे अवश्य नर्क भागी हों। पर जो अपनी विद्या के बल से भूगोल खगोल को हस्ता-मलक किये बैठे हैं उन्हें कौन नर्क भेज सकता है ? अथवा यह कह देते हैं कि अमुक ग्रंथ के अनुसार हमारे विचार यों आता है आगे क्या होगा क्या नहीं यह प्रश्न ईश्वर से जाके करो, वह कहने वाले नर्क से दूर हैं।

रहे हरनिन्दक । उन्हें नर्क से कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि परमेश्वर सदा एकरस, आनन्दमय है। उनकी निन्दा से न उसको हानि है, न जगत की हानि है। हां, निन्दक अपना पागलपन दिखाता है । सो पागलपन एक रोग है, पाप नहीं। यदि हरनिन्दक का अर्थ 'अनीश्वरवादी' लीजिये, तो भी नर्क को उससे क्या सम्बन्ध है ? एक बात उसकी समझ में नहीं आती, उसे वह नहीं मानता। बस ! बरंच हम देखते हैं तो सबकी स्वत्वरक्षा सब से न्यायाचरण आदि गुण बहुधा नास्तिकों ही में पाये जाते हैं। कपटी उनमें बहुत कम हैं। भला ऐसे लोग नर्क जायंगे ? हो, हरि की वास्तविक निन्दा किसी

मत के कट्टर पक्षपाती अवश्य करते हैं। उनका नर्क-बास युक्ति-

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सिद्ध है। कवियों के लिये बेशक यह बात है कि वे अकेले क्या चाहै तो एक बड़े समूह को लेके नर्क यातना का स्वाद लें, चाहें बड़ी जथा जोड़ के जीवन मुक्ति का आनन्द भोगें, क्योंकि उन्हें अपनी और पराई मनोवृति फेर देने का अधिकार रहता है। सिद्धान्त यह, कि ऊपर कहे हुये सब लोग अवश्य नर्क ही जायंगे यह बात विचार शक्ति को कभी माननीय नहीं हो सकती । पर, हां, हमारे मत वाले भाई अफसोस है कि नर्क के लिये कमर कसे तैयार हैं। क्यों कि इन महापुरुषों का मुख्य उद्देश्य यह है कि दुनियां भर के लोग हमारे अथवा हमारे गुरू के चेले होजायँ । सो तो त्रिकाल में होना नहीं और लोगों का आत्मिक एवं सामाजिक अनिष्ट वात बात में है। यदि ऐसा होता कि आर्य समाजियों में आर्य सनातन धर्मियों में पंडित महाराज मुसल्मानों में मुल्ला जी ईसाइयों में पादरी साहब ही इत्यादि उपदेश करते तो कोई हानि न थी। बरंच यह लाभ होता कि प्रत्येक मत के लोग अपने अपने धर्म में दृढ़ हो जाते सो न करके एक मत का मनुष्य दूसरे संप्रदायियों में जाके शांति भंग करता है यही बड़ी खराबी है क्योंकि विश्वास हमारे और ईश्वर के बीच का निज सम्बन्ध है।

एकएक पुरुष ईश्वर की बड़ाई के कारण उसे अपना पिता मानता है, दूसरा उसके प्रेम के मारे अपना पुत्र कहता है। इसमें दूसरे के बाप का क्या इजारा है कि पहिले के विश्वास में

खलल डाले। वास्तव में ईश्वर सब से न्यारा एवं सत्र में व्याप्त

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है; वह किसी का कोई नहीं है और सबका सब कोई है । दृढ़ विश्वास और सरल स्नेह के साथ उसे जो कोई जिस रीति से भजता है वह उसका उसी रीति से कल्याण शांति दान अथच परित्राण करता है। इस बात के लिये किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। जिसका जी चाहे वह चाहे जिस रीति से भजन करके देख ले कि ईश्वर उसे उसी रीति में आनन्द देता है कि नहीं।

पर मतविषयक शास्त्रार्थ के लती स्वय भजन नहीं करते बरंच दूसरे की भजन प्रणाली में विक्षेप डालने का उद्योग करते हैं । बहुत वर्षों से अथवा बहुत पीढ़ियों से जो विश्वास एक के जी पर जमा हुआ है उसे उखाड़ कर उसके ठौर पर अपना विचार रक्खा चाहते हैं भला इससे बढ़के हरि-विमुखता क्या होगी ? और ऐसे विमुखों को भी नर्क न हो तो ईश्वर के घर में अंधेर है। संसार में जितनी पुस्तकें धर्मग्रन्थ कहलाती हैं सब के लिखने वाले भगवान के भक्त एवं जगत के हितैषी मनुष्य थे। अपने अपने देश काल अथच निज दशा के अनुसार सभों ने अच्छी ही अच्छी बातें लिखी हैं। रहा यह कि मनुष्य की बुद्धि सब बातों में और सब काल में पूर्णतया एक रूप नहीं रहती, इससे संभव है कि प्रत्येक मत के प्रवर्तक से कुछ बुराई हो गई हो या उसके लेख में कहीं भ्रम या दोष ही रह गया हो। पर, हमें अधिकार नहीं है कि उनके काम या

वचन पर आक्षेप करें। यदि आप यह न भी मानें कि हमारे दोषों

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से उनके अल्प थे तौ भी इसमें सन्देह नहीं है कि आपके भी सब काम और सब बातों में अशुद्धि का संभव है। फिर आप किस मुँह से दूसरों को बुरा कहें, जब कि भलाई-बुराई सब में है। तो मतवालों को यह अधिकार किसने दिया है कि दूसरे की बुराई गावैं ? यह उनकी शुद्ध दुष्टता नहीं है तो क्या है ? श्री रामानुज, श्री शंकराचार्य, श्री मसीह, श्री मुहम्मद सब मान्य पुरुष थे। इनमें से किसी के जीवन चरित्र में ऐसी बातें नहीं पाई जाती जैसी आजकल के लोग मुँह से बुरी बताते हैं पर करते अवश्य हैं । इसी प्रकार वेद, पुराण, बाइबिल, कुरआन सब धर्मग्रन्थ हैं, क्योंकि चोरी, जारी, विश्वासघात आदि की आज्ञा किसी में नहीं है। फिर इनकी निन्दा करने वाला स्वयं निन्दनीय नहीं है तो क्या है ?

यदि परमेश्वर संसार भर का स्वामी है और सभी की भलाई का उद्योग करता है तो यह कैसे हो सकता है कि एक ही भाषा की एकही पोथी और केवल एकही आचार्य की बनाई हुई सब देशों और सब काल के लिये ठीक हो सके ? हर देश के लोगों की प्रकृति स्वभाव, सामर्थ्य, भाषा, चाल-ढाल, खाना- पहिनना आदि एक सा कभी नहीं हो सकता। फिर ईश्वर की एक ही आज्ञा सब कहीं के,सब जन कैसे पालन कर सकते हैं ? आज भारतवर्ष का कौन राजा अश्वमेध अथवा राजसूय यज्ञ कर सकता है ? अरब (या अपने ही यहां बंगाल) के रहने वाले

माँस बिना कै दिन सुख से रह सक्ते हैं ? चालीस चालीस दिन

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का व्रत (रोजा) निर्बल और कोमल प्रकृति वालों से कब निभ सकता है ? फिर यदि ईश्वर एकही लाठी से सबको हाँके तो उसकी जगदीशता का क्या हाल हो ? कभी किसी वैद्य को हमने नहीं देखा कि एकही औषधि सब प्रकार के रोगियों को दे देता हो।

जब जिसके लिये जो बात ईश्वर योग्य समझता है तब तिसकी तौन ही बतला देता है। उससे बढ़ के बुद्धिमान कोई नहीं है। वह अपनी प्रजा का हिताहित आप जानता है। बेद, बाइबिल, कुरान बना के मर नहीं गया, न पागल हो गया है कि अब पुस्तक रचना न कर सके। यदि एक ही मत से सबका उद्धार समझता हो तो अन्य मतावलंबियों के ग्रन्थ, मनुष्य और सारे चिन्ह नाश ही कर देने में उसे किसका डर है ? इन सब बातों को देख-सुन और सोच के भी मतवादीगण सबको अपनी राह चलाने के लिये हाव हाव करते हैं, फिर हम क्यों न कहें कि वे परमात्मा से अधिक बुद्धिमान बन के उसकी चलती गाड़ी में रोड़ा अटकाते हैं । भला सबसे बढ़के हरि-निन्दा और नर्क का सामान क्या होगा ? जैसे हमारी प्रतिमा न पूजने वालों को कभी एक फूल उठा देती है, न निन्दकों को एक थप्पड़ मार देती है, वैसेही आपके निराकार भी न किसी उपासक को प्यार की बात कहते हैं, न गाली देने वाले का शिर दुखाते हैं । फिर हम आपको अथवा आप हमारी पूजा-पद्धति पर आक्षेप

करें तो सिवाय परस्पर बिरोध उपजाने के और क्या करते हैं ?

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यदि बेद, बाइबिल, कुरानादि की एक प्रति अग्नि तथा जल में डाल दी जाय तो जलने अथवा गलने से कोई बच न जायगी। फिर एक मतवाला किस शेखी पर अपने को अच्छा और दूसरे को बुरा समझता है ? आप को जिस बात में विश्वास हो उसको मानिये, हम आप की आत्मा के इजारदार नहीं हैं जो यह कहें कि यों नहीं यों कर । यदि आप दृढ़ विश्वासी हैं तो हम अपनी बातों से डिगा नहीं सकते । पर डिगाने की नियत कर चुके फिर कहिये बिश्वास डिगाने की मनसा ही कौन धर्म है, जो आपका विश्वास कच्चा है तो हमारी बातों से आप फिसल जायंगे पर यह कदापि संभव नहीं है पूर्णरूप से अपनी मुद्दत से मानी हुई रीति को छोड़ के सक साथ हमारी भांति हो जाइये । इस दशा में हम और भी घोर पाप करते हैं कि अपनी राह पर तो भली भांति ला नहीं सकते पर आप जिस राह में आनन्द से चले जाते थे उससे फिर गये। भला धर्ममार्ग से फेर देने वाला या फेरने की इच्छा रखने वाला नर्क के बिना कहां जायगा?


'ब्राह्मण' के उद्देश्य ।

प्रस्तावना-हम ब्राह्मण हैं । हमारे पूर्व पुरुष अपने गुणों के कारण किसी समय सब प्रतिष्ठा के पात्र थे। उन्हीं के नाते आज तक हमारे बहुत से भाई काला अक्षर भैंस बराबर होने पर भी जगत गुरु महा कुकर्म करने पर भी देवता और भीख

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