प्रताप पीयूष  (१९३३) 
द्वारा प्रतापनारायण मिश्र

( २०३)

बार पाकि गे रीरौ झुकि गै
मूंडौ सासुर हालन लाग।
हाथ पांव कुछु रहे न आपनि
केहिके आगे दुखु र्वावन॥३॥
यही लकुठिया के बूते अब
जस तस डोलित डालित है।
जेहिका लै कै सब कामेन मा
सदा खखारत फिरत रहन।
जियत रहैं महराज सदा जो
-हम ऐस्यन का पालति हैं।
नाहीं तो अब को धौ पूंछै
केहिके कौने काम के हन॥४॥
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सभा-वर्णन।
दिन के दिन सब कोउ जुरि आये, देखवैया औ कारगुजार॥
कोऊ आये हैं बिरिया पर, कोउ कोउ पहरन समै बिताय॥
लगी कचेहरी नुनि लाला की, भरमाभूत लगे दरबार॥
रंग बिरंगे कपड़ा झलकैं, शोभा तिलक त्रिपुंडन क्यार॥
गरे जंजीरैं हैं सोने की, मानौ बंधुवा कलियुग क्यार॥
बाँह अनन्ता कोउ कोउ पहिरे, टड़ियाँ मनौ मेहरियन क्यार॥

(२०४)

घड़ी अंगरखन मां कोउ खोंसे, टिहुना छड़ी धरे कोउ ज्वान॥
भरि भरि चुटका सुंघनी सूघैं, कोउ. कोउ चर चर चाबैं पान॥
बड़े बड़े पंडित धरम सभा के, बड़े बड़े पूत महाजन क्यार॥
बड़े बड़े चेला दयानन्द के, जिन घर वेदन के अधिकार॥
आइके बैठे जेहि छन सगरे, औ सब करैं लाग सल्लाह॥
मैं तुम तन तुम मोहिं तन चितवैं, ना मुहँ खुलै न सूझै राह॥
कुरसी के संग कुरसी रगरैं, टेबिलैं रगरि रगरि रह जांय॥
बड़े बड़े जोधा तंह बैठे हैं, टिहुना धरे नगिन तरवारि॥
बिछे गलीचा ई मजलिस मा, खोपरी पाउँइ धरत बिलाय॥
फट फट फट कोउ बोतल खोले, कट कट कट कोउ हाड़ चबाय॥
खाये अफीमन के कोउ गोटा, आंखी उघरैं औ रहि जाय॥
ददकैं चिलमैं रे गांजन की, मानौ बनमां लागि दवारि॥
तबला ठनकै लखनौहन को, बँगला में होय परिन का नाचु॥
मटकै मुन्शी उइ मँगचिरवा, मेहरि मन्सु परै ना जानि॥
कपड़ा पहिरे चुतरकटा उइ, नकलैं करै कलेजिहा भांड़॥
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लावनियाँ।
दीदारी दुनियादारी सब नाहक का उलझेडा़ है।
सिवा इश्क के, जहां जो कुछ है निरा बखेड़ा है॥


यह पण्डित प्रतापनारायण की वर्णन-सजीवता का अच्छा नमूना है।

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