प्रताप पीयूष/प्रेम सिद्धान्त ।

प्रेम सिद्धान्त।
जगत जाहि सबते बढ़ि सुन्दर अकथ अनूपम भाखै है॥
अहंकार कुछ तासु प्यार कर चित्त हमारहु राखै है॥१॥
फंसे न हम काहू के मत में नहिं कछु विधि निषेध मानैं॥
है कोउ अपनी एकतासु हैं प्रेम दास हम यह जानैं॥२॥
जदपि तोहि सपनेहु में कबहूं नैनन नहिं लखि पायो है॥
पै हे प्राणनाथ ! तुम्हरे हित मन ते ज्ञान गंवायो है॥३॥
ना हम कबहुं धर्म निन्दक बनि नर्क अग्नि ते नेक हरैं॥
ना कबहूं धर्म धर्म करि कै बैकुंठ मिलन के हेतु मरैं॥४॥
प्राण लेइ प्यारी हम तबहूं रीति प्रीति ही की जानैं॥
देहिं कहा दुख देखि उरहनो ? सुख लखिकै गुन का मानैं॥५॥
रावन सरिस और के आगे हमहुं न सीस नवावेंगे॥
सब जग निन्दा भलेहि करौ हम अपनी टेक निभावेंगे॥६॥
कब केहि देख्यौ ब्रह्म कबै निज मुख मूरति जगदीश बनी॥
पूजत सब जग प्रेम देव कहं बादि अनारिन रारि ठनी॥७॥
नृग से दाता गिरें कूप में ध्रुव से सिसु पद परम लहैं॥
कोऊ का करि सकै ? प्रेममय हरि केहि हित का करत अहैं॥८॥
अकथ अनन्द प्रेम मदिरा को कैसे कोउ कहि पावै है॥
महा मुदित मन होत कबहुं जो ध्यानहु याको आवै है॥९॥

( १९८)

उर्दू अनुवाद
(यह कोई गीत नहीं है कि सब अंतरों में एक सा भाव
होता। यह तो प्रेमियों के विनोदार्थ थोड़ी सी बातें फुटकर
पद्य बद्ध कर दी गई हैं।
इसका उर्दू में भावार्थ
जहां कायल है जिस शाहंशाहे खूंवा की वहिदत का॥
हमारे दिल को भी दावा है कुछ उसकी मुहब्बत का॥१॥
न कैदी हूं किसी मजहब का न मैं पाबन्द मिल्लत का॥
किसी अपने का कोई एक हूं बन्दा मुहब्बत का॥२॥
अगर्चे ख्वाब में भी तुझको आखों ने नहीं देखा॥
वले ऐ जानेजां! बोयम है तू ही दिल की वहिशत का॥३॥
ना क़ाफ़िर हूं कि मुझको खौफ़ हो नारे जहन्नुम से॥
न हूं दीदार जो हो मुझको लालच बारो जन्नत का॥४॥
हमारी जान ले लेना तलक है प्यार से उसको॥
कहां का शिकवए रंज और कैसा शुक्र राहत का॥५॥
नहीं झुकने के पेशे गैर हम भी सूरते शैतां॥
पिन्हाए शौक से अहले मज़हब तीक लानत का॥६॥
खुदा को किसने देखा? कब कहां बुत ने अनल मअबूद(मैं ईश्वर हूं)।
परस्तार इश्क़ के सब हैं तअस्सुब है हिमाक़त का॥७॥
कुएं में हों फ़रिश्ते कैद गुज़रैं अर्श से इन्सा॥
समझता कौन है हिकमत खुदा की भेद उल्फत का॥८॥
बरहमन दिल में आती है अजब इकतई की मस्ती॥

( १९९)

कभी जो ध्यान तक आता सहबाए मुहब्बत का॥९॥
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स्फुट सवैये और कवित्त।
बाम बसैं नित पारबती तऊ जोगि सिरोमनि काम अराती।
पान कियों अति तुच्छ हलाहल तौ हू आनन्द रहैं दिन राती॥
भूत सखा घर घोर मसान तऊ शिवरूप सदा सब भांती।
धन्य है प्रेम प्रभाव पवित्र बिचारत ही जिहि बुद्धि बिलाती॥१॥
भावै अवासहि में दुरि बैठिबो वास में आनन ढांकि रहे हैं।
बात चले परतापनरायन गात सबै थहरात महै हैं॥
शोर करें सिसकी के घने निसिनाथ ते दूरि रह्यो ही चहै हैं।
लोग सबै ऋतु शीत की भीति ते नारि नवोढ़ा की रीति गहै हैं॥२॥
मारन मार लग्यों कुसुमायुध ज्यों जगते हैं उचाट उमाहत।
बुद्धि रही थमि मेरो प्रताप तिहारे स्वरूप समुद्रहि थाहत॥
बर्सि सुधा मृदु बोलन में मन कर्सि लियों कि बनै न सराहत।
नेक हंसी में बसी करिकै तुम मोहिकै मोहि कहा कियो चाहत॥३॥
कल पावैं न प्राण तुम्हैं बिन देखें इन्हें अधिकौ कलपाइए ना।
परतापनरायन जू के निहोरे प्रीति प्रथा बिसराइए ना॥
अहो प्यारे बिचारे दुखारेन पै इतनी निठुराई जताइए ना।
करि एक ही गांव में बास हहा सुख देखिबे को तरसाइए ना॥४॥
योहूं हंस हंसिहैं सब वोहूं दुहूं बिधि सों उपहास तो हैऐ।
तौ परताप वियोग की ताप में क्यों फिर आपनो जीव जरैऐ॥

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