प्रताप पीयूष  (१९३३) 
द्वारा प्रतापनारायण मिश्र

'कहा मैं क्या करूँ मरजी खुदा की'।
ज़मीं पर किसके हो हिन्दू रहें अब,
'खबर लादे कोई तहतुस्सरा की'।
कोई पूछे तो हिन्दुस्तानियों से,
'कि तुमने किस तवक्का पर वफ़ा की'।
उसे मोमिन न समझो ऐ बरहमन,
'सताये जो कोई खिलकत खुदा की'।
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ककाराष्टक।
कलह करावन माहिं परम पंडित कलुषाकर।
कोटिन कल्पित पंथ प्रचारि सधर्म नीति हर॥
काम कला सिसु ताहि मोहिं सिखवत बल नासत।
कहुं मंहगी कहुं कुरुज भांति भांतिन परकाशत॥
करके मिस दीन प्रजान कर सब प्रकार सरबस हरन।
कलिराज कपटमय जयति जय भारत कहं गारत करन॥१॥
करुणानिधि पद बिमुख देव देवी बहु मानत।
कन्या अरु कामिन सराप लहि पाप न जानत॥
केवल दायज लेत और उद्योग न भावत।
करि बकरा भच्छन निज पेटहि कबर बनावत॥
का खा गा घा हू बिन पढ़े तिरबेदी पदवी धरन।
कलह प्रिय जयति कनौजिया भारत कहं गारत करन॥२॥

कलिया और शराब बिना नहिं कौर उठावत।
केश भेष महं निपट नजाकत नितहि दिखावत॥
केवल पूजा तजि न और आरजपन राखत।
कौन दूसरी आस जु निज भाषहु नहिं भाषत॥
कसबिन संग काटत बयस वर एक न छत्रिय आचरन।
कायस्थ बंश कलि प्रिय जयतु भारत कहं गारत करन॥३॥
कुलवंतन कहं देत कुकृति कर सविध सुभीता।
कम दामन मद, मास, मीन, मैथुन चित चीता॥
काहू सो न कुपथिन कर कछु भेद बखानत।
कौल धर्म के सकल सबिध संकेतहि जानत॥
कलवरिया तीरथ थापि बरबनि दीक्षित तारन तरन।
कलि भंडारी, कलवार जय भारत कहं गारत करन॥४॥
कलह कुबच कुलवान सिसुन कहं सहज सिखावत।
कांधे डोली धरि पापिन इत उत पहुंचावत॥
कोटिन कीटन मछरिन कहं हंसि २ संहारत।
कबहुं चोर संग मिलत साह कर भवन उजारत॥
कंठी बांधे भगतहु बने घात न चूकत घुसि घरन
कलि दूत कहारहु धन्य हैं भारत के गारत करन॥५॥
करत रहत पशु घात दया की छुवत न छाहीं।
केवल नामहि हिन्दू यवन सांचहु कछु नाहीं॥
काहू कर नहिं शील करत ऐंठत सबही सन।
करि निज पाप प्रसंस दुखावत रहत सुजन मन॥

करुना बरुनालय विष्णु की निरबल परजा संहरन।
कलि भूपति सेन कसाय गत भारत के गारत करन॥६॥
केवल धन हित दरसावत झूठे सनेह कहं।
काम अन्ध अज्ञानिन मूंड़हिं बात बात महं॥
करहिं आशरय दान चोर ज्वारिन व्यभिचारन।
काल पाय सिखवहिं कुकर्म बालक अरु नारिन॥
कुटिलाई की कुशला सविधि मूढ़ धनिक सेवित चरन।
कलि महाशक्ति कंचन जयतु भारत कहं गारत करन॥७॥
कोऊ काहू को न कतहुं न सतकर्म सहायक।
केवल बात बनाय बनत सहसन सब लायक॥
कुटिलन सों ठग जाहिं ठगहिं सूधे सुहृदन कहं।
करहिं कुकर्म करोरि छिपावहिं न्याय धर्म महं॥
कुछ डरत नाहिं जगदीश कहं करत कपटमय आचरन।
कलियुग रजधानी कानपुर भारत कहं गारत करन॥८॥
इति श्री दग्ध हृदयाचार्य विरचितं ककाराष्टकं समाप्तम्।
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जन्म सुफल कब होय?
श्री लार्ड रिपन उवाच।
सब कलंक सर्कार के जायं सहजही धोय।
"राजा राज प्रजा सुखी" जन्म सुफल तब होय॥१॥

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