पुरातत्त्व प्रसंग/प्राचीन हिन्दुओं की समुद्र-यात्रा

प्राचीन हिन्दुओं की समुद्र-यात्रा

कलकत्ते से एक सामयिक पत्रिका अँगरेज़ी भाषा में निकलती रही है। मालूम नहीं, वह अब तक अस्तित्व में है या नहीं। नाम उसका था--डान सोसायटीज़ मैगजीन (Down Socities-Magazine)। उसकी कुछ संख्याओ में हिन्दुओ की समुद्र-यात्रा के सम्बन्ध में कई महत्त्वपूर्ण और प्रमाण-पुष्ट लेख निकले थे। उन्ही का आशय नीचे दिया जाता है।

कुछ लोगों का ख़याल है कि हिन्दू सनातन ही से पूर-मण्डूकता के प्रेमी हैं। समुद्र-यात्रा के वे सदा ही से विरोधी रहे हैं। प्राचीन काल में वे विदेशी या विदेशियो से कुछ भी नग्यन्ध न रखते थे। अन्य देशों को आना-जाना या समुद्र-यात्रा करना वे पाप समझते थे। जहाज आदि जल-यान भी उनके पास न थे; न वे उन्हें बनाना ही जानते थे। उन्हें यह भी न मालूम था की अपने देश के सिवा दुनिया में कोई और भी देश है। मतलब यह कि वे निर गृप-मण्डूक यने अपने ही घर में मस्त रहते थे। पर वास्तव में यह बात नहीं। लोगों के ये ख्याल बिलकुल ही गलत हैं। प्राचीन काल के हिन्दू

व्यापार, धर्म-प्रचार, युद्ध या उपनिवेश-स्थापना आदि के लिए, जल-स्थल दोनो के द्वारा, नाना देशो में गमना- गमन करते थे; उनके पास जहाज़ थे; दुनिया का भौगोलिक वृत्तान्त भी वे बहुत कुछ जानते थे। वे सभ्य, साहसी, उदार, व्यापार-कुशल, शिल्पकलानिपुण, वीर और अध्यवसायशील थे। उस समय के प्रायः सभी सभ्य और अर्द्ध-सभ्य देशो से उनका सम्बन्ध था। वैदिक और लौकिक संस्कृत-भाषा के कितने ही ग्रन्थों में इस बात के अनेक प्रमाण पाये जाते हैं।

संसार में ऋग्वेद सबसे अधिक पुराना ग्रन्थ है। उसके भिन्न भिन्न ५ मन्त्रों से यह सिद्ध होता है कि प्राचीन आर्य्य, व्यापार आदि के लिए, समुद्र की राह,


*ऊपर जिन मन्त्रों का हवाला दिया गया है वे ये हैं--

(१) वेदा यो वीना यदमन्तारक्षेण पतताम्।

वेद नावः समुद्रियः (१-२५-७)

(२) उवासोषा उच्छाच्च भु देवी जीरा स्थानाम्।

ये अस्या आदरणेषु दघ्रिरे न श्रवस्य वः (१-४८-३)

(३) तं गूर्तयो नेमन्निषः परीणसः

समुद्रं न संचरणे सनिप्यवः

पति दक्षस्य विदमस्य नू सहो

गिरिं न वेना अधिरोह तेजसा। (१-५६-२)
अन्य देशों को जाते थे। उसमें एक जगह (१-२५-७) लिखा है कि समुद्र में जिस रास्ते जहाज, चलते हैं उसका पूर्ण ज्ञान वरुण को है। दूसरी जगह (१-४८-६) लिखा है कि लोभ के वशीभूत होकर व्यापारी लोग अपने अपने जहाज, विदेशो को ले जाते हैं। तीसरी जगह (१-५६-२) लिखा है कि व्यापारी बड़े ही कर्मशील हैं; वे अपने लाभ के लिए सब जगह जाते हैं; समुद्र का ऐसा कोई भी हिस्सा नहीं जहाँ वे न गये हों। चौथी जगह (७-८८-३,४ ) लिखा है कि एक जहाज़ के बनाने में बड़ी कारीगरी की गई थी। उस पर सवार होकर


(४) आ यद्रुहाव वरुणश्च नाव
प्रयत् समुद्रभीरयाव मध्यमम्।
अधियदपा स्रुभिश्चराव
प्रप्रेख ईखयावहै शुभे कम्॥
वशिष्टं ह वरुणो नाव्याद्या दृषि चकार स्वपामहोभिः।
स्तोतारं विप्रः सुदिनत्वे अन्हा षान्नुद्यावस्ततनन्यादुषासः

(७-८८-३,४)

(५) तग्रो ह भुज्युभिश्चिनोदमेघ
रयिं न कश्चिन्ममृवा अवाहाः।
तमूहथु नौभिरात्मन्वतीभिरन्तरिक्ष
प्रद्भिरपोदकाभिः॥ (१-११६-३


वशिष्ठ और वरुण समुद्र-यात्रा करने गये थे। उन्हें उसके हिलने से बडा आनन्द आया था। पांचवीं जगह (१- ११६-३) लिखा है कि राजर्षि तुग्र ने, सुदृर-द्वीप-निवासी अपने कुछ शत्रुओ पर आक्रमण करने के लिए, अपने पुत्र भुज्यु को जल-सेना के साथ, भेजा था। रास्ते में तूफ़ान आ जाने से जहाज़ टूट गया। इस कारण भुज्यु, अपने साथियों समेत, समुद्र में डूबने लगा। वहाँ, उस समय, उसे उस-विपत्ति से बचानेवाला कोई न था। परन्तु दैव- योग से अश्विन नाम के दो जोड़िया भाइयो ने आकर उसकी रक्षा की और वह डूबने से बच गया।

रामायण में ऐसे कितने ही श्लोक हैं जिनसे प्रकट होता है कि भारतवासी समुद्र की राह अन्यान्य देशो को जाते थे। जब चानरेन्द्र सुग्रीव बड़े बड़े वानरों को, सीताजी का पता लगाने के लिए, भेजने लगे तब उन्होंने उनको उन स्थानो के भी नाम बताये जहाँ सीता के मिलने की सम्भावना थी। जिन श्लोकों या श्लोक-खण्डों में उन नामों का उल्लेख है उन्हें हम यहाँ पर उद्धृत करते हैं-

समुद्रमवगाढॉश्च पर्वतान् पत्तनानि च।
भूमिञ्च कोपकाराणां भूमिञ्च रजताकराम्।
यत्नवन्तो यवद्वीपं सप्तराज्योपशोभितम्।
सुवर्णरूप्यकद्वीपं सुवर्णकरमण्डितम्।
ततो रक्तजलं भीमं लोहितं नाम सागरम्।

इनमें से पहले श्लोकखण्ड में समुद्र के द्वीपों के पहाड़ों और नगरों का और दूसरे में कोषकारों की भूमि का उल्लेख है। कोषकारों की भूमि से मतलब वर्तमान चीन से है। तीसरे में यवद्वीप और सुवर्ण-द्वीप का नाम आया है । उन्हें आज-कल जावा और सुमात्रा टापू कहते हैं। चौथे में रक्त सागर का उल्लेख है। वही वर्तमान लाल समुद्र (Red Sea) है। रामायण के अयोध्याकाण्ड में एक श्लोक* है, जिसमें जलयुद्ध की तैयारी का इशारा है। इससे मालूम होता है कि उस समय के लोग जङ्गी जहाज़ बनाना और समुद्र में युद्ध करना अच्छी तरह जानते थे। इसके सिवा रामायण में उन व्यापारियो का भी जिक्र है जो समुद्र-पार के देशों में जाकर व्यापार करते और वहाँ से अपने राजा को भेंट करने के लिए अच्छी अच्छी चीजें लाते थे।

महाभारत में भी कितने ही श्लोक भारतवर्ष तथा अन्य देशों के परस्पर सम्बन्धः को प्रकट करते हैं। अर्जुन के दिग्विजय और राजसूय यज्ञ के प्रसङ्ग में ऐसे कितने ही देशों के नाम आये हैं जो हिन्दुस्तान से बहुत दूर स्थित हैं। उस समय इस देश से उनका घनिष्ठ सम्बन्ध था

*नावां शतानां पञ्चानां कैवर्तीनां शतं शतम्।
सन्नद्धानां तथा यूनान्तिष्ठन्तीत्यभ्यचोदयत्॥


अथवा उन्हें पाण्डवों ने जीत लिया था। सभा-पर्व में लिखा है--

सागरद्वीपवासॉश्च नृपतीन् म्लेच्छयोनिजान्।

निपादान् पुरुषाढॉश्च कर्णप्राधरणानपि॥

द्वीपं नाम्नाह्वयञ्चैव वशे कृत्वा महामतिः

इससे सिद्ध है कि महामति सहदेव ने सागरद्वीप- वासी म्लेच्छनरेशों और निषाद तथा कर्ण-जाति के लोगों को परास्त और वशीभूत किया था। उनमें ताम्रद्वीप का राजा भी शामिल था।

रामायण और महाभारत ही में नहीं, सूत्रग्रन्थों में भी इस बात का प्रमाण पाया जाता है कि प्राचीन भारतवासी समुद्र की राह अन्य देशो से व्यापार करते थे। इस विषय में प्रसिद्ध जर्मन-विद्वान् अध्यापक बूलर ने लिखा है--

“दो अत्यन्त प्राचीन धर्मसूत्रों में भी समुद्र-यात्रा का उल्लेख पाया जाता है। बौधायन-धर्मसूत्रो मे एक जगह (२-२-२ में) लिखा है कि ब्राहाणों को समुद्रयात्रा न करनी चाहिए। परन्तु दूसरी जगह (१-२-४ में) लिखा है कि आर्य्य देश के निवासी धड़ाधड़ समुद्र-यात्रा करते हैं। अन्यत्र लिखा है कि वे ऊन और पशुओं का व्यापार भी करते हैं। जहाज़ों के मालिकों को जो महसुल राजा को देना पड़ता था उसका उल्लेख भी बौधा
यन-धर्मसूत्र (१-१८-१४) और गौतमीय-सूत्र (१०- ३३) में पाया जाता है।"

स्मृतियों में भी सामुद्रिक व्यापार के हवाले हैं। मनुस्मृति में एक जगह (३-१५८) लिखा है कि वह ब्राह्मण जिसने समुद्र-यात्रा की हो श्राद्ध में बुलाये जाने का पात्र नहीं। एक श्लोक* में लिखा है कि जो लोग समुद्रयान में कुशल और देशकालार्थदशी हैं वे जहाज़ बनाने के लिए दिये हुए रुपये का जो सूद निश्चित करेंगे वही प्रामाणिक माना जायगा। एक और श्लोक में नदी और समुद्र में चलने वाले जलयानों के किराये का जिक्र है। एक और जगह लिखा है कि समुद्र में जहाज़ चलानेवालों के दोष से यात्रियों के माल की जो हानि होगी उसके जिम्मेदार जहाज़ चलानेवाले ही होगे। परन्तु जो हानि


  • समुद्रयानकुशला देशकालार्थदर्शिनः।

स्थापयन्ति तु या वृद्धिं सा तत्राधिगमं प्रति॥
दीर्घाध्वनि यथादेशं यथाकालं तरी भवेत्।
नदीतीरेषु तद्विद्यात् समुद्रे नास्ति लक्षणम्॥
यन्नावि किञ्चिद्दाशाना विशीर्य्यंतापराधतः।
तद्दाशैरेव दातव्यं समागम्य स्वतेऽशतः॥
एष नौयायिनामुक्तो व्यवहारस्य निर्णयः।
दाशापराधतस्तोये दैविके नास्ति निग्रहः॥


दैवी दुर्घटना के कारण होगी उसके लिए वे उत्तरदाता न होगे। याज्ञवल्क्य-स्मृति के व्यवहाराध्याय में लिखा है--"ये समुद्रगा वृद्धया धनं गृहीत्वा अधिलाभार्थ प्राणधनविनाशशङ्कास्थानं समुद्रं गच्छन्ति ते विंश शतं मासि मासि दध:।" इससे साफ़ जाहिर है कि हिन्दू- लोग धन-प्राप्ति की इच्छा से समुद्र के बड़े बड़े भयङ्कर स्थानो तक की यात्रा करते थे।

पुराणों में भी उन व्यापारियों का ज़िक्र है जो समुद्र की राह व्यापार करते थे। वाराहपुराण में गोकर्ण-नामक एक निःसन्तान व्यापारी का उल्लेख है। वह समुद्र-पार व्यापार करने गया था, परन्तु तूफान आजाने से वह समुद्र मे डूब गया। इसी पुराण में एक जगह लिखा है कि एक व्यापारी ने कुछ रत्नपरीक्षको के साथ मोतियों की तलाश में समुद्र-यात्रा की थी।


$ पुनस्तत्रैव गमने वणिग्भावे मतिर्गता।
समुद्र-याने रत्नानि महास्थौल्यानि साधुभिः॥
रत्नपरीक्षकैः सार्धमानयिष्ये बहूनि च।
एवं निश्चित्य मनसा महासार्थपुरःसरः॥
समुद्रयायिभिर्लोकैः सविदं सूच्य निर्गतः।
शुकेन सह सम्प्राप्तो महान्तं लवणार्णवम्॥
पोतारूढास्ततः सर्वे पोतवाहैरुपोषिताः।

वेद, रामायण, महाभारत, सूत्र-ग्रंथ, पुराण आदि के सिवा संस्कृत के गद्य-पद्य-काव्यों तथा अन्य ग्रन्थों में भी इस बात के प्रमाण मौजूद हैं कि प्राचीन आर्य्य व्यापार, धर्म-प्रचार या जल-युद्ध आदि के लिए समुद्रयात्रा करते थे। महाकवि कालिदास के रघुवंश में एक जगह* (४-३६) लिखा है कि महाराज रघु ने एक बड़े ही विकट जल-युद्ध में वङ्ग-नरेश को परास्त किया था और गङ्गा के बीचोंबीच अपना जयस्तम्भ गाड़ा था। इसी ग्रंथ के एक अन्य स्थान में लिखा है कि महाराज रघु ने फा़रिस पर आक्रमण किया था, यद्यपि यह चढ़ाई स्थल ही की राह हुई थी। कविवर श्रीहर्ष की प्रसिद्ध नाटिका रत्नावली में सिंहलेश्वर विक्रमबाहु की एक कन्या का उल्लेख है, जो जहाज़ टूट जाने से बीच समुद्र में डूब गई थी और जिसे कौशाम्बी के कुछ


  • वङ्गानुत्खाय तरसा नेता नौसाधनोधतान्।

निचखान जयस्तम्भ गङ्गास्रोतोऽन्तरेषु च॥
पारसीकान् ततो जेतुं प्रतस्थे स्थलवर्त्मना।
अन्यथा क सिद्धादेशजनितप्रत्ययमप्रार्थितायाः सिहलेश्वरदुहितुः समुद्रेयानभनन्गनिमन्गयाः फलकमादानं क च कौशाम्बीयेन वणिजा सिहलेभ्यः प्रत्यागच्छता तदवस्थायाः सम्भावनम्।



व्यापारियों ने बचाया था। कविश्रेष्ट दण्डी के दशकुमारचरित * में लिखा है कि रत्नद्भव नामक एक व्यापारी कालयवन नामक टापू में गया। वहाँ उसने एक सुन्दरी का पाणिग्रहण किया, परन्तु घर लौटते समय, जहाज़ समेत, समुद्र-गर्भ में निमग्न हो गया। इसी ग्रन्थ में मित्र-गुप्त का भी हाल है जो एक यवन-जलयान द्वारा कही गया था; परन्तु रास्ता भूल जाने के कारण, एक अन्य अज्ञात टापू में जा पहुंचा था। महाकवि माघ के शिशुपालवध में एक श्लोक है जिसमें लिखा है कि जब श्रीकृष्ण द्वारका से हस्तिनापुर जाते थे तब उन्होंने देखा था कि कुछ व्यापारी विक्रयार्थ माल से भरे हुए जहाज अन्य देशों से लिये आ रहे थे तथा भारतवर्ष का माल


  • ततः सोदरविलोकनकुतूहलेन रत्नोद्भवः

कथञ्चिच्छ्वशुरमनुनीय चपललोचनयानया सह
प्रवहणमारुह्य पुरुषपुरमभिप्रतस्थे। कलपोल-
मालिकाभिहतः पोतः समुद्राम्भस्यमज्जत्।
अस्मिन्नेव क्षणे नैकनौकापरिवृतः केऽपि
मद्गुः अभ्यधावत्। अभिभयुर्यवनाः। तावद-
तिजवा नौकाः श्वान इव वराहमस्मत्पोत पर्यरुत्सत।
विक्रीय दिश्यानि धनान्युरूणि द्वैप्यानसावतुमलाभभाजः।
तरीषु तत्रत्यमफल्गुभाण्ड स यात्रिकानावतोऽभ्यनन्दत्॥


अन्य देशों में बेचने के लिए यहाँ से जहाज़ों में लिये जा रहे थे।

काश्मीरक कवि सोमदेव के कथा-सरित्सागर में तो समुद्र-यात्रा और अन्य देशों में आने-जाने के सैकड़ों हवाले पाये जाते हैं। नवें लम्बक के पहले तरङ्ग में लिखा है कि पृथ्वीराज नामक राजा किसी चित्रकार के साथ एक जहाज से मुक्तिपुर-टापू को गया था। दूसरे तरङ्ग में लिखा है कि एक व्यापारी अपनी स्त्री के साथ किसी टापू को जा रहा था। राह में तूफान आजाने से जहाज़ टूट गया और दोनो का चिरवियोग होगया। चौथे तरङ्ग में समुद्र-सूर तथा एक अन्य व्यापारी का उल्लेख है जो सुवर्ण-द्वीप (सुमात्रा नाम के टापू) में व्यापार करने गये थे। छठे तरङ्ग में लिखा है कि चन्द्रस्वामी नाम का एक व्यापारी जहाज पर चढ़ कर लङ्का आदि कितने ही टापुओं में अपने पुत्र को खोजने गया था। हितोपदेश नामक पुस्तक में भी कन्दर्पकेतु नाम के एक व्यापारी का उल्लेख है जिसने समुद्र-यात्रा की थी। राजतरङ्गिणी में एक श्लोक है जिसमें लिखा है कि एक राजदूत को समुद्र में बड़ी ही भयङ्कर विपत्ति का सामना करना पड़ा था।


  • सन्धिविग्रहिकः सोऽथ गच्छन् पोतच्युतोऽम्बुधौ।

प्राप पारं तिमिग्रासात्तिमिमुत्पाट्य निर्गतः॥

इस तरह वेद, रामायण, महाभारत, सूत्र-ग्रन्थ, पुराण, काव्य, नाटक, उपाख्यान आदि संस्कृत-भाषा के सभी तरह के ग्रन्थों में भारत के सामुद्रिक व्यापार के हवाले भरे पड़े है। अधिक प्रमाण देने की आवश्यकता नही। जो प्रमाण दिये गये है उन्ही से यह अच्छी तरह सिद्ध होता है कि प्राचीन-काल में भारतवासी हिन्दू व्यापार या जलयुद्ध के लिए निःसङ्कोच समुद्र-यात्रा करते थे और अन्य देशों तथा टापुओं में जाते-आते तथा कभी कभी वहाँ बस भी जाते थे।

जो प्रमाण अब तक दिये गये वे सब हिन्दुओं के ग्रन्थों से दिये गये है। अब हम अपने कथन की पुष्टि के लिए कुछ प्रमाण बौद्धों के भी साहित्य से देना चाहते है।

महाराज विजय को समुद्र-यात्रा का वर्णन महावंश आदि कितने ही बौद्ध-ग्रन्थों में पाया जाता है। राजा- पली मे लिखा है कि वङ्ग-नरेश महाराज सिंहवाहु ने राज- कुमार विजय और उनके सात सौ साथियो को देश से । निकाल दिया था। बात यह हुई कि उन्होंने प्रजा पर बहुत अत्याचार किया था। वे लोग, अपने बालबच्चो समेत, तीन जहाजों पर चढ़ कर चले। जहाज सिहपुर नामक नगर के निकट से रवाना हुए थे। राह में वे सपारा नाम के बन्दरगाह में, कुछ समय तक, ठहरे थे।

डाक्टर बर्जेस का कथन है कि यह बन्दरगाह वर्तमान बेसीन नगर के पास था। अन्त में राजकुमार विजय लङ्का पहुँचे और यहाँ उन्होंने एक बड़े ही शक्तिशाली राजवंश की नींव डाली। लङ्का में उनकी स्थिति दृढ़ हो जाने पर विजय ने पाण्ड्य-देश के राजा के पास बहुत से जवाहरात, बतौर भेट के, भेजे। इस पर पाण्ड्य-नरेश ने एक राजकुमारी और सात सौ परिचारिकायें महाराज विजय को नजर की। उनको विजय और उसके साथियों ने क्रम से आपस में बाँट लिया और उनके साथ विवाह कर लिया। टर्नर साहब के द्वारा सम्पादित महावंश में लिखा है कि जिस जहाज पर पाण्ड्य-राजकुमारी लङ्का को लाई गई थी वह बहुत बड़ा था। उसमें १८ राजकर्मचारियों, ७० नौकर-चाकरो, बहुत से गुलामो, स्ययं राजकुमारी और उसकी ७०० परिचारिकाओं के रहने के लिए काफी जगह थी। विजय के कोई सन्तान न थी। इस कारण उसके मरने पर उसका भतीजा सागल-नगर से जहाज पर चढ़ कर लङ्का गया और विजय की जगह पर राज्य करने लगा। कुछ दिनों बाद उसके ६ भाई और उसको स्त्री, ये लोग भी लङ्का चले गये और वहीं रहने लगे। महापंश के अनुसार गङ्गा के मुहाने से चला हुमा जहाज बारह दिन बाद लङ्का पहुँचता था। एक बौद्ध-ग्रन्थ में लिखा है कि सपारक-निवासी पन्ना नाम का एक व्यापारी, अपने छोटे भाई चूल-पन्ना के साझे में. उत्तर-कोशल से व्यापार किया करता था। एक दिन श्रावस्ती में उसने बुद्ध को उपदेश करते हुए सुना। इसका प्रभाव उस पर इतना पड़ा कि वह तुरन्त बौद्ध हो गया। उसने लङ्का में रक्त-चन्दन की लकड़ी का एक विहार बनाने का इरादा किया। इसलिए उसने चन्दन की लकड़ो किसी दूरवती देश से, समुद्र की राह, मँगवाई। जिस जहाज पर यह लकडी लादी गई थी वह इतना बड़ा था कि हजारों मन लकड़ी के सिवा उसमें तीन सौ व्यापारी भी मजे से रह सकते थे। एक अन्य स्थान में लिखा है कि दो ब्रह्मदेशवासी व्यापारी, एक बड़े भारी जहाज पर बङ्ग-सागर को पार करके, कलिङ्ग-देश के अजित्ता बन्दर मे उतरे थे। वहाँ से वे मगध-देश को गये थे।

एक तिब्बतीय बौद्ध-ग्रन्थ में लिखा है कि श्रावस्ती के कुछ व्यापारी लङ्का जाते हुए, बङ्ग-सागर मे तूफान आ जाने के कारण, रास्ता भूल गये थे; परन्तु तूफान शान्त हो जाने के बाद अपने गन्तव्य स्थान को पहुँच गये थे। एक चीनी ग्रन्थ मे एक सिंहकुमारी का जिक्र है जिसका जहाज पश्चिमी वायु के झोंके खाकर फारिस की खाड़ी में जा पड़ा था। वहाँ वह उतर पड़ी और समुद्र के

किनारे को भूमि में घर बनाकर वहीं रहने लगी। परन्तु दीपवंश नामक ग्रन्थ में लिखा है कि यह एक टापू में उतरी थी जिसका नाम, पोछे से, नारीपुर हो गया था। पादरी टी० फोक्स साहब कहते हैं कि इन ऐतिहासिक कथाओं से पता लगता है कि बुद्ध के जमाने में हिन्दु- स्तान और फारिस के बीच के समुद्र में जहाज चलते थे।

विनयपीठक में लिखा है कि पूर्ण नाम के एक हिन्दू व्यापारी ने छः दफे समुद्र-यात्रा की थी। सातवीं दके यात्रा करते समय श्रावस्ती के कुछ बौद्धों के द्वारा वह बौद्ध बनाया गया था। सूत्रपीठक में भी दूरवर्ती टापुओं को जहाज द्वारा जाने का जिक्र है। समयुक्त- निकाय और अंगुतर-निकाय नामक ग्रन्थों में लगातार . छः महीने तक जहाज पर यात्रा करने का जिक्र है। दीघनिकाय में तो समुद्र-यात्रा-विषयक बड़ी हो मनोरक्षक बातें पाई जाती हैं। उसमें लिखा है कि जब व्यापारी लोग समुद्र के रास्ते व्यापार करने जाते थे, तब वे अपने जहाजों पर कुछ चिड़ियाँ भी रख लेते थे, जिस समय जहाज बीच समुद्र में पहुँचता था और वहाँ से भूमि न देख पड़ती थी उस समय, यह जानने के लिए, कि भूमि किस तरफ है, व्यापारी लोग चिड़ियों को छोड़ देते थे। यदि भूमि निकट न होती थी तो चिड़ियाँ

चारों ओर चक्कर लगा कर जहाज, पर लौट आती थीं। परन्तु यदि भूमि जहाजों से कुछ ही मील दूर होती थी तो चिड़ियाँ उसी की ओर उड़ जाती थीं। इससे जहाज चलानेवाले जान जाते थे कि भूमि किस तरफ, है और वह कितनी दूर है।

समुद्र-यात्रा और सामुद्रिक व्यापार का सबसे अधिक और स्पष्ट उल्लेख जातक-ग्रन्थों में पाया जाता है। इन ग्रन्थों में ८०० ईसवी पूर्व से २०० ईसवी तक की सामुद्रिक बातों का जिक्र है। बबेरू-जातक से यह साफ तौर पर मालम होता है कि अशोक के पहले हिन्दुस्तान और बाबुल के बीच व्यापार होता था। पर- लोकवासी अध्यापक बूलर इस महत्त्वपूर्ण जातक के विषय में लिखते है कि--"बवेरू-जातक अब खूब प्रसिद्ध हो गया है। उसकी ओर लोगों का ध्यान पहले-पहल अध्यापक मिनायाफ ने आकृष्ट किया था । उसमें लिखा है कि हिन्दू-व्यापारी मोरों को बबेरू ले जाते और उन्हें वहाँ बेचते थे। बबेरू, बबीरू या बेबीलोन एकही देश के भिन्न भिन्न नाम है, इसमें कोई सन्देह नहीं। इस जातक की कथाओं से मालूम होता है कि आज-कल की तरह ईसा के पहले, पाँचवीं और छठी शताब्दी में भी, भारत के वणिक फारिस के उपसागर के किनारे बाले प्रान्तों में सामुद्रिक व्यापार करते थे। सम्भव है कि

यह व्यापार अत्यन्त प्राचीन काल से होता चला आया हो। क्योंकि जातको में बहुत से ऐसे किस्से हैं जिनमें समुद्र-पार के सुदूरवती देशों की सङ्कटापन्न यात्राओं का उल्लेख है। उनमें पश्चिमी किनारे के सपरिख (सपारा) और भरुकच्छ ( भडोच ) आदि अत्यन्त प्राचीन बन्दरगाहों का भी जिक्र है।"

समुहबनिज-जातक में लिखा है कि किसी गाँव में बहुत से बढ़ई रहते थे। उनसे किसी ने बहुत सी चीजें बनाने को कहा और उनकी कीमत भी पेशगी दे दी। परन्तु बढ़इयों की नीयत खराब हो गई। इस कारण उन्होंने चुपके चुपके एक जहाज बनाया। उस पर चढ़ कर वे लोग चल दिये। उन्होने समुद्र के बीच किसी टापू में एक वस्ती बनाई और वहीं बस गये। वलहास्स- जातक में कहीं के पाँच सौ व्यापारियों का जिक्र है जो एक कमजोर जहाज पर सवार थे। जहाज, टूट गया और वे सब लोग समुद्र में मग्न हो गये; परन्तु एक अद्भुत घटना घटित होने से बच गये। सप्पारक-जातक में लिखा है कि किसी समय सात सौ व्यापारियों ने समुद्र-द्वारा एक बड़ी ही भयङ्कर यात्रा की थी। उनका जहाज, मरकच्छ-चन्दरगाह से रवाना हुआ था। इस जहाज का माँझी अन्धा होने पर भी जहाज चलाने में पड़ा निपुण था। महाजनक-जातक में एक राजकुमार का

उल्लेख है जो अन्य कितने ही व्यापारियों के साथ कम्प ( भागलपुर ) से सुवर्ण-भूमि को व्यापार करने जाता था। परन्तु दुर्भाग्य से उसका जहाज बीच समुद्र में डूब गया। किसी किसी विद्वान् की राय मे सुवर्ण-भूमि से मतलब ब्रह्मदेश से और किसी किसी की राय में सुमात्रा नाम के टापू से है। शङ्ख-जातक में लिखा है कि काशी में एक बारण बड़ा दानी था। वह नित्य छः लाख रुपये का दान करता था। ऐसा न हो कि कही दान करते करते उसका धन निःशेष हो जाय, इसलिए उसने, धन की खोज में, सुवर्णभूमि जाने का सङ्कल्प किया। चलते चलते जब उसका जहाज बीच समुद्र में पहुँचा तब उसके पेंदे में कहीं छेद हो गया। परन्तु एक अन्य जहाज के आजाने से उसकी रक्षा हो गई। उस जहाज़वालों ने उसे अपने जहाज पर जगह दे दी। ससोंदी-जातक मे भी एक व्यापारी के सुवर्णभूमि जाने का उल्लेख है।

बौद्ध-ग्रन्थों के सब प्रमाणो से भी सिद्ध है कि प्राचीन काल में हिन्दू-लोग ब्रह्मदेश, चीन, लङ्का, मिस्र, फारिस, अरब और बाबुल आदि देशों तथा अन्य कितने ही दूरवती टापुओं में व्यापार आदि के लिए, समुद्र की राह, जहाजों पर बराबर जाते-आते थे। इससे स्पष्ट है कि वे लोग समुद्र-यात्रा करना बुरा या धर्मविहीन काम

न समझते थे और जहाज, बनाना तथा चलाना अच्छी तरह जानते थे। जिन लोगों की यह धारणा है कि प्राचीन-काल के भारतवासी कूपमण्डूकवत् अपने ही घर में घुसे रहते थे--द्वीप-द्वीपान्तरों को न जाते थे--उन्हें बौद्ध-ग्रन्थो से दिये गये प्रमाणों को कान खोल कर सुन लेना और अपने भ्रम तथा अज्ञान को दूर कर देना चाहिये।

[ अगस्त १९२७



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