पुरातत्त्व प्रसंग/प्राचीन भारत में नाट्यशालायें

प्राचीन भारत में नाट्यशालायें

दक्षिणी भारतवर्ष में हजारों वर्ष तक हिन्दू-नरेशों का अखण्ड भाधिपत्य रहा। वहाँ के निवासियों की मातृ-भाषायें अन्य प्रान्तों के निवासियों की भाषाओं से भिन्न थीं और अब भी है। तथापि हिन्दू-धर्म्म, हिन्दू-शास्त्र, हिन्दू-साहित्य और हिन्दू-सभ्यता ही का दौरदौरा वहाँ सदा ही रहा है। गङ्गा, चालुक्य, चोल, पाण्ड्य आदि वंशों के नरेशों ने सहस्रशः मन्दिर, मठे, धर्म्मशालायें, कूप, तडाग आदि बनवा डाले; ग्राम, भूमि आदि ब्राह्मणों को दे डाली; अन्नसत्रों की स्थापना कर दी; समय समय पर अन्न-धन आदि के दान से पण्डितों, विद्वानों, कलाकोविदों का दुःख-दारिद्र दूर किया। विजयनगर, माइसोर, तांजोर आदि के नराधिपों ने भी बहुत दान-पुण्य किया। प्राचीन प्रथा के अनुसार इन नर-नायकों ने अपने इन सुकृतों के सूचक अनन्त दान-पत्र आदि ताम्रपत्रों और शिलाओं पर उत्कीर्ण करा कर यथास्थान लगवा दिये अथवा जिनके पास रहने चाहिये उन्हें दे दिये। इन लेखों की संख्या सचमुच ही अनन्त अथवा असंख्य है। मुद्दतों से पुरा-

तत्त्व-विभाग इन्हें खोज खोज कर इनकी तालिका बना रहा है और कुछ को प्रकाशित भी कर रहा है; पर उनका अन्त नहीं मिलता। हर साल नये नये सैकड़ों ही प्राचीन लेख मिलते हैं। उनमें से कुछ की भाषा संस्कृत, कुछ की तामील, कुछ को तैलगू, कुछ की मल- याली है। कुछ अन्य भाषाओं में भी इस तरह के लेख मिलते हैं। दक्षिणी भारत के प्राचीन लेखों के सम्बन्ध में ३१ मार्च १९२५ तक की एक साल की जो रिपोर्ट अभी, कुछ समय पूर्व, निकली है उसमें ४२० शिला- लेखों और १९ ताम्रपत्रों का उल्लेख है। शिलालेखों में से एक लेख ऐसा है जिससे सूचित होता है कि प्राचीन भारत के कोई कोई नरेश गीत, वाघ और नाट्य-कला के बड़े ही प्रेमी थे। चोल-वंश का अधीश राजेन्द्र चोल अथवा राजराजदेव (प्रथम) ऐसा ही था। यह राजा राजकेसरी चम्मन के भी नाम से प्रसिद्ध था। यह ईसा की दसवीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में विद्यमान था।

राजेन्द्र चोल (प्रथम) का एक शिलालेख मिला है। वह उसके राज्यारोहण के नवें वर्ष में उत्कीर्ण हुआ था। उस दिन शुक्ल पक्ष की षष्टी और दिन शनिवार था। हिसाब लगाने से उस दिन ९९४ ईसवी के आक्टोबर महीने की १३ तारीख थी। दक्षिण में एक जगह तिरूवाडु-

थी। ये दासियाँ या नर्तकियों सेकड़ो की संख्या में मन्दि- रस्थ देवताओं और उनके भक्तों को नाच-कूद कर रिझाया करती थी। जिस राजराज चोल (प्रथम) का उल्लेख ऊपर हुआ है उसने तो दक्षिणी भारत के भिन्न भिन्न मन्दिरो से ४०० नर्तकियाँ लाकर उन्हें तांजोर में बसा दिया था। वहाँ वे उस नगर के देवस्थानो को दिन-रात गुलज़ार रखती थी। इस बात का उल्लेख राजराज ने अपने एक शिलालेख में बड़े गर्व के साथ किया है। उसके पुत्र ने राजराजेश्वर नाटक खेलने के लिए विजयराजेन्द्र आचार्य को एक विशेष दान से सस्कृत किया था। तिरूविडाईमरु- दूर नामक स्थान में महालिगेश्वर नाम का एक मन्दिर है। वहाँ नाटक दिखाने के लिए एक नट को चोल-नरेश राजाधिराज (प्रथम) ने भी कुछ भूमि दान दी थी। चोल-नरेश कुलो तुङ्ग (तृतीय) ने एक नर्तकाचार्य को एक मन्दिर मे इसलिए रक्खा था कि वह मुँह से कुछ न कह कर केवल भावभङ्गी और नृत्य ही के द्वारा देवताओं और देवभक्तों तथा यात्रियो को अपना अभिनय दिखाया करे। ये बातें सुनी सुनाई नहीं; इन सबका उल्लेख शिलाओं पर उत्कीर्ण लेखो में पाया जाता है।

इन प्रमाणों से ज्ञात होता है कि किसी समय दक्षिणी भारत में नाट्यकला उन्नतावस्था में थी और जगह जगह नाट्यशालायें थीं। उनमें स्त्रियाँ और पुरुष

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