पुरातत्त्व प्रसंग/पुरातत्त्व का पूर्वेतिहास
गुजरात की पुरातत्त्व-ग्रन्थावली के तीसरे ग्रन्थाङ्क में इस देश के पुरातत्व के इतिहास पर जो लेख प्रकाशित हुमा है उसका सारांश नीचे दिया जाता है।
पुरातत्व संस्कृत-शब्द है। वह अंग्रेज़ी शब्द Antiquity के अर्थ में व्यवहार होता है। पुरानी वस्तुओं का तत्व जानना, उनकी रक्षा करना, उनके विषय में गवेपणा करना, उनके सम्बन्ध की भूलों और भ्रमों का निरसन करना आदि इस शास्त्र के जाननेवालों का काम है।
प्राणियों में मनुष्य ही सबसे श्रेष्ठ है, क्योंकि
उसी में सब से अधिक ज्ञान का विकास पाया जाता
है। जिसमें ज्ञान की मात्रा जितनी ही कम है वह
मनुष्य उतना ही अधिक पशुत्व की ओर झुका हुआ
समझा जाता है। इसी तरह जिसमें उसकी मात्रा
अधिक है वह उतना ही अधिक ईश्वरत्व अथवा
सर्वज्ञत्व की ओर झुका हुआ समझा जाता है। कोई
मनुष्य आज तक सर्वज्ञ हुआ है या नहीं, इसका तो
पता नही; परन्तु, हाँ, ज्ञान के न्यूनाधिकत्व के अनुसार
किसी में अल्पज्ञता और किसी में बहुज्ञता ज़रूर ही
पाई जाती है।
संसार में आज तक असंख्य ज्ञानवान् मनुष्य उत्पन्न हो चुके हैं। वे सब अपनी अपनी ज्ञान-शक्ति के अनुसार ज्ञानमूलक वस्तुओ के रूप में न मालूम कितनी मिलकियत छोड़ गये हैं। उन सबका मिश्रित ज्ञान-भाण्डार इतना है जिसकी थाह नहीं। तथापि, फिर भी, कोई मनुष्य यह कहने का साहस नहीं कर सकता कि जानने योग्य सभी बातें जान ली गई हैं। सच तो यह है कि यह सृष्टि अब तक भी प्रायः अज्ञेय या अज्ञात वस्तुओं से ही अधिकतर भरी पड़ी है। इस जगत् के विषय में प्राचीन ऋषि जैसे कहते थे--
को ददर्श प्रथमं जायमानम्
अथवा,को अद्धा वेद क इह प्रवोचत्
कुत आ जाताः कुत इयं विसृष्टिः
वैसे ही आज कल के भी--इस बीसवीं शताब्दी
के भी--ज्ञानी पुरुष कहते हैं। इस विषय में न
पुराने ज्ञानियों ही को सफलता हुई और न आजकल
के नवीनों ही को। वात पूर्ववत् ही अज्ञात है। इसी
से ज्ञान-सम्पादन की जिज्ञासा ज्यों की त्यों बनी हुई है।
श्रम, खोज, विचार, विवेक आदि की सहायता से ज्ञान-वृद्धि ज़रूर हो रही है। एक समय वह था जब आकाश में सहसा मेघ मँडराते, आँधी आते और जङ्गलों में भाग लग जाते देख वैदिक ऋपियो को आश्चर्य होता था। वे भयभीत हो उठते थे और प्राकृतिक घटनाओं को देवी कोप समान कर उनसे परित्राण पाने के लिए इन्द्र, अग्नि, वायु आदि की शरण जाते थे। पर जैसे ही जैसे है विश्व-रहस्य का ज्ञान प्राप्त करते गये वैसे ही वैसे यथार्थ बात उनकी समझ में आती गई; उनका भय दूर होता गया; पानी परसने, हवा ज़ोर से चलने और आग लग जाने का यथार्थ कारण वे जानते गये।
इस तरह का ज्ञान-समूह अनन्त काल से सचित होता
चला आ रहा है। उसके सजय का कोप ही इतिहास
है। इन्द्रियों के द्वारा मनुष्य केपल अपने समय का ज्ञान
प्राप्त कर सकता है, भूत-भविष्यत् का नहीं। तो ज्ञान
इन्द्रियातीत है उसकी प्राप्ति वह नहीं कर सक्ता । संसर्ग
भौर अनुभव के भतीत ज्ञान की प्राप्ति उसे यदि हो
सकती है तो इतिहास की की व्दौलत हो सकती है।
समय समय का ज्ञान यदि इतिहास चढ होता चला गया
नो वह सब एकत्र रहता है और आगे की पीढ़ियों के
काम आता है।
दुःख की बात है कि हमारे पूर्वजों का रचा हुआ सच्चा और विस्तृत इतिहास उपलब्ध नहीं। अपने देश के ज्ञान-समूह का सञ्चय उन्होंने इतिहास-मञ्जूपा के भीतर नहीं बन्द किया और यदि किया भी हो तो उसका कहीं भी अस्तित्व नहीं पाया जाता। दूर की बातें जाने दोजिए, सौ दो सौ वर्ष पहले की भी घटनाओं का यथार्थ वृत्तान्त प्राप्त नहीं। और कहाँ तक कहें जिसके संवत् का उल्लेख हम लोग प्रतिदिन सङ्कल्प में करते हैं उस तक के विषय में निश्चयपूर्वक हम यह नहीं कह सकते कि वह कौन था, कब हुआ और क्या क्या काम उसने किये। हमारे इस दुर्भाग्य का भी भला कहीं ठिकाना है! भोज- प्रबन्ध आदि के ढँग को जो पुस्तकें मिलती हैं वे इतिहास नहीं। वे तो कल्पित कहानियों की परम्परा-मात्र हैं। भोज- प्रबन्ध में कालिदास, बाण, माघ आदि कवि भोज के खमकालीन बताये गये हैं, यद्यपि वे उसके सैकड़ों वर्ष पहले हो चुके थे!
यद्यपि हमारे पूर्वजों का लिखा हुआ यथार्थ
इतिहास उपलब्ध नहीं तथापि उनकी निर्माण की हुई
ऐसी भनन्त सामग्री विद्यमान है जिसकी सहायता से
हम प्राचीन समय की घटनाओं का बहुत कुछ ज्ञान
प्राप्त कर सकते हैं और उस समय के इतिहास की रचना भी कर सकते हैं। यह सामग्री प्राचीन ग्रन्थ, शिलालेख, ताम्रपत्र, कीर्तिस्तम्भ, सिक्के, मन्दिर, स्तूप, किले, प्रासाद आदि के रूप में विद्यमान है। परन्तु इतिहास के महत्त्य से अनभिज्ञ होने के कारण हम लोगों ने इस मामग्री से भी लाभ नहीं उठाया--अपने आप इतिहास-रचना का सूत्रपान तक नहीं किया। भारत के प्राचीन इतिहास के निर्म्माण का पाठ हमें पढ़ाया है सात समुद्र पार रहनेवाले पश्चिमी देशों के निवासियों ने। उन्होनें इसका पाठ ही हमें नहीं पढ़ाया,
इतिहास का कुछ अंग स्वयं ही निर्म्माण करके हमारे सामने रख भी दिया है। इसके आरम्भ का श्रेय इंगलि-स्तान की निवासिनी अंगरेज जाति की है। अतएव इस विषय में हम लोग उसके कृतज्ञ हैं।
कैसी है? उनके रीति-रस्म कैसे हैं? उनके पूर्वजों की
दशा कैसी थी? इत्यादि। अतएव वह उनकी लिपि,
उनकी राजनीति, उनकी समाजनीति, उनकी कला-कुशलता आदि से परिचय प्राप्त करने की चेष्टा करता है, और
धीरे धीरे उनके धर्म्म, समाज और इतिहास आदि
विषयों का ज्ञान-सम्पादन करने में लग जाता है। पहले
पहल व्यापार करने और तदनन्तर भारत में अपना राज-
चक्र चलाने के लिए आये हुए अँगरेज़ों ने, इसी प्रवृत्ति
के वशीभूत होकर, इस देश के इतिहास की खोज का
उपक्रम किया था।
पलासी के युद्ध के बाद अंगरेजों की ईस्ट इंडिया
कम्पनी का प्रावल्य इस देश में बढ़ने लगा। १७७४ ईसवी
में उसने बङ्गाले के तत्कालीन नवाब को पदच्युत करके
उस प्रान्त के शासन का सूत्र, अपना गवर्नर जनरल
नियत करके, उसके हाथ में दे दिया। अतएव अँगरेज-कर्म-
चारियों की संख्या वृद्धि होने लगी। इन कर्मचारियों में
कितने ही विद्वान और सुशिक्षित थे। उन्हीने पहले
पहल भारत के पुरावृत्त के निर्माण का श्रीगणेश किया।
पीछे से तो फ्रांस, जर्मनी और आस्टिया आदि देशों के
निवासियों ने भी इस काम में हाथ लगाया और अँगरेजों
को अपेक्षा इन्हीं लोगों ने भारतीय इतिहास का अधिक
उद्धार किया। परन्तु काम का आरम्भ ईस्ट इंडिया
कम्पनी के अँगरेज़-कर्मचारियों हो ने किया और उसकी
सफलता के बहुत कुछ साधन भी उन्हीं लोगों ने प्रस्तुत किये।
सर विलियम जोन्स पहले अँगरेज़ थे जिन्होंने संस्कृत- भाषा का ज्ञान-सम्पादन किया। इस काम में उन्हें बड़ी बड़ी बाधाओं का सामना करना पड़ा। पण्डितों की दृष्टि में वे म्लेच्छ थे। म्लेच्छ को संस्कृत पढ़ा कर भला कौन धर्म-भीरु पण्डित अपनी धर्म-हानि करेगा? परन्तु दृढ़- प्रतिज्ञ होने के कारण, सभी आगत विघ्नों के पार जाकर जोन्स साहब ने काफी संस्कृत-ज्ञान प्राप्त कर लिया। संस्कृत सीख कर उन्होंने शकुन्तला-नाटक, और मनुस्मृति का अनुवाद अँगरेज़ी में प्रकाशित किया। उन्हें देख कर योरप के विद्वानों में खलबली मच गई। उन्होंने कहा, जिस जाति के ज्ञानभाण्डार में ऐसी ऐसी पुस्तकें विद्यमान हैं उसका भूतकाल बड़ा ही उज्ज्वल रहा होगा; उसमें ऐसे ऐसे न मालूम और कितने ग्रन्थ- रत्न पड़े होगे; अतएव इस जाति के पूर्वेतिहास से परिचय प्राप्त करने से अनेक लाभ होने की सम्भावना है।
इस प्रकार की सम्भावना से प्ररित होकर कई
अँगरेज़ इस देश के पुराने ग्रन्थों का पता लगाने और
उनके अनुशीलन में प्रवृत्त हो गये। इस प्रवृत्ति--इस
ज्ञान लिप्सा--का फल यह हुआ कि सर विलियम जोन्स
ने, तत्कालीन गवर्नर जनरल बारन हेस्टिग्ज की सहायता
से, कलकत्ते मे, १५ जनवरी १७७४ को, एशियाटिक
सोसायटी नाम की एक संस्था की संस्थापना की। इस
संस्था ने एशियाखण्ड के इतिहास, साहित्य, स्थापत्य,
धर्म्म, समाज और विज्ञान आदि विषयों के सम्बन्ध में
खोज करना अपना उद्दश निश्चित किया। बस, इस
सभा की स्थापना के साथ ही भारतवर्ष के इतिहास
अर्थात् पुरातत्त्व के अन्वेषण का शुभ काम आरम्भ हुआ।
परन्तु इस कार्यारम्भ के पहले ही सैकड़ों प्राचीन
इमारतें नष्टभ्रष्ट होगई; सैकड़ों शिलालेखों की सिलें
और लोढ़े बन गये; सैकड़ों शिलालेख मकानों की दीवारों
में चुन दिये गये; सैकड़ों दानपत्रों के ताम्रफलक गलाकर
घड़े, लोटे तथा और बर्तन बना डाले गये। प्राचीन ग्रन्थ
कितने गले, कितने कीटभक्ष्य बने, कितने पंसारियों
की दूकानों में पहुँचे, इसका तो कुछ हिसाब ही नहीं।
खैर, भारत के सौभाग्य से इस नई संस्थापित संस्था
ने इन पुरानी वस्तुओं की रक्षा का सूत्रपात कर दिया।
सर विलियम जोन्स के अनन्तर चार्ल्स विलकिन्स ने संस्कृत भाषा सीखी। उन्हीं के प्रयत्न से देवनागरी और बंगला-टाइप तैयार हुआ। उन्होंने कुछ पुराने लेख भी ढूँढ निकाले और उन पर विवेचनापूर्ण नोट भी लिखे। भगवद्गीता का अंग्रेजी-अनुवाद भी उन्होंने किया। एशियाटिक सोसायटी ने एशियाटिक रीसर्चेज नाम की एक पुस्तक-माला निकालना आरम्भ किया। १७८८ से १७९७ ईसवी तक इस माला के ५ भाग निकले। जो भिन्न भिन्न विद्वान भिन्न भिन्न पुरातत्व विषयों के अध्ययन में लगे हुए थे उनके लेख इसी माला में निक- लते रहे। इसकी बड़ी कदर हुई। इसके कई संस्करण इंगलैंड में भी निकले। एक फरासीसी विद्वान् ने इनका अनुवाद अपनी भाषा में प्रकाशित किया। इस प्रकार भारतीय पुरातत्त्व के संबंध में योरसवालों ने भी योग- दान आरम्भ कर दिया। नये नये पुरातत्त्वज्ञ पैदा होगये और यह काम झपाटे से होने लगा।
सर विलियम जोन्स की मृत्यु के बाद १७९४ में,
उनका स्थान हेनरी कोलबुक ने ग्रहण किया। वे भी
अच्छे संस्कृतज्ञ थे। उन्होंने इस देश के सम्बन्ध में
अनेक ग्रन्थ और लेख लिखे। "हिन्दुओं के धार्मिक रीति-
रवाज", "भारतीय-वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति",
"संस्कत और प्राकृत-भाषा", "संस्कृत और प्राकृत-छन्दः-
शास्त्र" आदि बड़े ही महत्त्व-पूर्ण लेख उन्होंने प्रकाशित
किये। वेद, सांख्य, मीमांसा, न्याय, वैशेषिक, वेदान्त,
कृषि, वाणिज्य, समाज-व्यवस्था, कानून, धर्म, गणित,
ज्योतिष इत्यादि अनेक विषयों पर भी बड़े ही गवेषणा-
पूर्ण लेख उन्होंने लिखे। इन लेखों में निर्दिष्ट बातों और
सिद्धान्तों को उनके परवर्ती विद्वान् आज तक सम्मान की
दृष्टि से देखते है। कोलबुक ने देहली के स्तम्भ पर
उत्कीर्ण विशालदेव की संस्कृत-प्रशस्ति का भी अनुवाद,
अंग्रेजी मे किया। १८०७ ईसवी में वे एशियाटिक
सोसायटी के सभापति हुए और उसी साल उन्होंने भार-
तीय ज्योतिष और खगोल-विद्या पर एक गहन ग्रन्थ
प्रकाशित किया। भारत से चले जाने पर उन्होंने इंगलैंड
में रायल एशियाटिक सोसायटी की स्थापना की और
संस्कृत-भाषा सीखने तथा भारतीय पुरातत्त्व का ज्ञान-
सम्पादन करने के विषय में लोगों को ऐसा चसका लगा
दिया कि दिन पर दिन नये नये संस्कृतज्ञ और पुरातत्त्वज्ञ
पैदा होने लगे। यदि कोलबुक के सद्दश प्रकाण्ड पण्डित
इस ओर इतना ध्यान न देते तो योरप में संस्कृत-भाषा
का इतना प्रचार शायद ही होता।
कोलबक साहब के साथ ही भारत में अन्य अँगरेज़
भी पुरातत्त्व-विषयक काम में लग गये थे। डाक्टर बुकनन
ने मैसूर-प्रान्त में, वहाँ के प्राचीन पदार्थों के विषय
में, बहुत कुछ ज्ञान-सम्पादन किया। इस बात से सन्तुष्ट
होकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने, १८०७ ईसवी में, उनको
एक विशिष्ट पद पर नियुक्त किया। उस पर रह कर उन्होंने
बङ्गाल, आसाम और बिहार के कितने ही जिलों में दौरे
करके वहाँ के पुरातत्त्व की खोज की और अनेक अज्ञात
ऐतिहासिक बातों का पता लगाया। इधर पश्चिमीय भारत
में साल्ट साहब ने कनेरी-गुफाओं का और रस्किन साहब
ने हाथी-गुफाओं ( Elephanta Caves ) का वृत्तान्त
लिखा। ये वर्णन बाम्बे टांजैक्शन्स ( Bombay Tra-
njactions ) नाम की पुस्तक के पहले भाग में प्रकाशित
किये गये। इसी पुस्तक के तीसरे भाग में साइक्स साहब
का लिखा हुआ बीजापुर का ऐतिहासिक वर्णन प्रकट
हुआ। दक्षिणी भारतवर्ष के पुरातत्त्व के वर्णन तो कई
विद्वानों ने प्रकाशित किये। इस काम का आरम्भ टामस
डानियल ने किया। कर्नल मेकंजो ने सैकड़ों प्राचीन ग्रन्थ
और शिलालेख ढूँढ़ ढूँढ़ कर एकन्न किये। राजपूताने और
मध्य भारत की पुरानी बातों को खोज निकालने में कर्नल
टाड ने बड़ा नाम पाया।
इस प्रकार पूर्व, पश्चिम और दक्षिण भारत में, पुरातत्व-विषयक ज्ञान और सामग्री प्राप्त करने में, कितने ही विद्वान् लग गये। उनके लेखों और ग्रन्थों के प्रकाशन से अनेक अज्ञात और विस्मृत वस्तुओं के ज्ञान का उद्धार हुआ।
इस प्रणाली से थोड़ा-बहुत काम तो अवश्य हुआ;
पर पुराने शिलालेख और ताम्रपन्न आदि जो अब तक मिले
थे वे वैसे ही बिना पढ़े पड़े थे। क्योंकि उनकी लिपि
परानी होने के कारण पढ़ी नहीं जा सकती थी। जिस
लिपि को हम देवनागरी कहते हैं वह विकसित लिपि है।
वह तीन रूपान्तर प्राप्त करने के अनन्तर अपने वर्तमान
रूप में आई है। उसका पहला रूप ब्राह्मी कहाता है।
वह सन् ईसवी के ५०० वर्ष पहले से लेकर प्रायः ३५०
ईसवी तक पाया जाता है। इसके अनन्तर उसे जो रूप
मिला वह गुप्त-लिपि के नाम से अभिहित है। वह विशेष
करके गुप्तवंशी नरेशों के शासन-समय मे -- अर्थात् सन्
ईसवी के पांचवें शतक तक -- प्रचलित थी। उसके बाद
का उसका विकसित रूप कुटिल-लिपि के नाम से उल्लि-
खित है। उसका प्रचार ईसा के छठे से लेकर दसवें शतक
तक माना जाता है। इससे पाठकों को ज्ञात हो जायगा
कि हमारी वर्तमान देवनागरी लिपि के पुराने तीनों रूपों
से परिचित हुए विना पुराने ग्रन्थों और उत्कीर्ण लेखों
का पढ़ा जाना असम्भव है। ये रूप धीरे धीरे दुर्बोधता
से सुबोधता की ओर पहुँचते गये हैं। जो लिपि जितनी
ही अधिक पुरानी है, अपरिचित होने के कारण, वह
उतनी ही दुर्बोध भी है।
पहले पहल चार्ल्सं विलकिन्स ने पुरानी लिपि में
लिखे गये अर्थात् उत्कीर्ण लेख पढ़ने की चेष्टा की।
दीनाजपुर जिले में एक स्तम्भ के ऊपर खुदे हुए, राजा
नारायणपाल के समय के, एक लेख का उद्धार उन्होंने,
१७८५ ईसवी में, किया। पण्डित राधाकान्त शर्मा ने
देहली के अशोकस्तम्भ के अपर उत्कीर्ण ३ लेख पढ़े। ये
लेख चौहान राजा बीसलदेव के थे। इनमें से एक का
समय "संवत् १२२० वैशाख सुदी ५" ज्ञात हुआ।
जे० एच० हैरिंग्टन ने भी कई पुराने लेखों को पढ़ा।
इन सबकी लिपि बहुत पुरानी न थी। इससे ये लेख
थोड़े ही परिश्रम और मनोयोग से पढ लिये गये।
विशेष फठिन लिपि है गुप्तकालीन देवनागरी। चार्ल्स
विलकिन्स ने उसके पढ़ने के लिये कोई चार वर्ष तक
परिश्रम किया। अन्त में उन्होंने इस लिपि की प्रायः
आधी वर्णमाला से परिचय प्राप्त कर लिया। उधर और
लोग भी पुरानी लिपियाँ पढ़ने की चेष्टा में सतत लगे
हुए थे। उनमें से कर्नल जेम्स टाड, मिस्टर बी० जी०
बैंबिंग्टन, वाल्टर इलियट, कैप्टन टायर, डाक्टर मिल,
डब्लू० एच० बाथ के नाम सबसे अधिक उल्लेखयोग्य
हैं। किसी ने राजपूताने के कुछ पुराने लेख पढ़े, किसी
ने बल्लभी के, किसी ने प्रयाग के, किसी ने और प्रान्तों
के। बैबिग्टन और इलियट ने प्राचीन तामिल और कानडी-
लिपियों की वर्णमालाओं का अधिकांश ज्ञान-सम्पादन
करके उन लिपियों में उत्कीर्ण कितने ही शिलालेख पढ़
डाले। इस प्रकार १८५३ ईसवी तक बहुत से पुराने
लेखों का उद्धार होगया। इस काम में जेम्स प्रिंसेप-नाम
के एक विद्वान् ने बड़ा काम किया। उन्होंने देहली,
कमाऊँ और एरण के स्तम्भों के ऊपर के, साँची और
अमरावती के स्तूपों के ऊपर के, और गिरनार-पर्वत के
ऊपर के अनेक लेख पढ़ डाले और उनके अनुवाद भी,
विवेचना-सहित, प्रकाशित कर दिये। सो इन अनेक
विद्वानों के सतत परिश्रम का फल यह हुआ कि गुप्तका-
लीन लिपि का सारा भेद खुल गया। वह हस्तामलकवत्
होगई। उसमें उत्कीर्ण लेख अच्छी तरह पढ़ लिये जाने
लगे। रहे कुटिल-लिपि में लिखे गये या उत्कीर्ण ग्रन्थ
और शिलालेख आदि, सो यह लिपि वर्तमान देवनागरी
लिपि से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। इससे उनके पढ़े
जाने में विशेष कठिनता न हुई। वे तो सहज ही पढ़
लिये गये।
पुरातत्त्वज्ञ विद्वानों ने जव कुटिल-लिपि और गुप्त- लिपि को आयत्त कर लिया तब सन् ईसवी के चौथे शतक के उत्तरार्द्ध से लेकर दसवें शतक तक के प्राचीन भारत के इतिहास का बहुत कुछ अंश अंधेरे से उजेले में आने लगा। सैकड़ों शिलालेख, ताम्रपत्र और सिक्के पढ़े जाने और उन पर विवरणात्मक लेख प्रकाशित होने लगे। जिन अनेक प्राचीन राजों और राजवंशों के नाम तक न सुने गये थे उनके ऐतिहासिक वृत्तान्त प्रकाशित होने लगें।
परन्तु भारत की सबसे पुरानी ब्राही लिपि को तब
तक भी कोई न पढ़ सका था। इस लिपि में खुदे हुए
लेख थे। इसके बाद ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण और भी
अनेक लेख मिलते गये।
इन लेखों को पढ़ लेने की सबसे अधिक जिज्ञासा
जेम्स प्रिंसेप के हृदय में उत्पन्न हुई। उन्होंने अनेक लेखों
की छापें मँगा कर सामने रक्खीं और लगे सवको परस्पर
मिलाने। धीरे धीरे उन्हें कुछ वर्ण, रूप में एक ही से,
मालम हुए। उनको वे अलग करते गये और अन्त में
वे इस लिपि के स्वरों से परिचित होंगये। इससे उनका
उत्साह बढ़ा। वे और वर्णों को भी पहचानने की चेष्टा
करने लगे। गुप्त-लिपि के वर्णों से मिलान कर करके
उन्होंने कितने ही व्यञ्जनों से भी परिचय प्राप्त कर
लिया। इस काम में पादरी जेम्स स्टीवन्स आदि ने
भी उनकी कुछ सहायता की। उन्होंने भी कुछ वर्ण
पहचाने। इस प्रकार अनवरत उद्योग करते करते प्रिंसेप
को इस लिपि का पूरा ज्ञान प्राप्त हो गया और उन्हें यह
भी मालूम होगया कि इस लिपि में खुदे हुए अशोक के
समय के इन लेखों की भाषा संस्कृत नहीं, प्राकृत है।
इलाहाबाद, साँची, गिरनार, धौली आदि के अशोक
स्तम्भों के लेखों को पढ़ लेने पर उन्होंने यह पूर्वोक्त
निष्कर्ष निकाला जो सर्वथा सच था। इस वर्णमाला
का ज्ञान हो जाने पर ब्राह्मी लिपि के लेख धड़ाधड़ पढ़े
जाने लगे और सन् ईसवी के पहले के भी भारतीय
इतिहास की घटनायें प्रकाश में आने लगीं। यह बहुत
बड़ा काम हुआ। इसका सारा श्रेय जेम्स प्रिंसेप को
मिला।
बस, अब भारत की पुरानी लिपियों में से केवल एक
लिपि का ज्ञान-सम्पादन करना शेष रहा। उसका नाम
है खरोष्ठी। यह लिपि पुराने जमाने में केवल पञ्जाब और
उसके आगे गान्धार देश ही के लेखों आदि में, सन्
ईसा के तीन चार सौ वर्ष पहले तक, प्रयुक्त हुई
थी। बाक्टियन श्रीक, शक, क्षत्रप आदि राजवंशों के
समय के सिक्कों पर यही लिपि व्यवहृत हुई थी।
अफ़गानिस्तान की सीमा और उस देश के भीतर भी
पाये गये अशोक के कई अभिलेख भी इसी लिपि में हैं।
इसे पहले कोई ससेनियम लिपि कहता था, कोई पहलवी,
कोई ब्राली का ही पूर्वरूप, कोई कुछ, कोई कुछ। पर पढ़
कोई नहीं सका। उधर मिले हुए सिक्कों पर एक ओर
ग्रीक और दूसरी और खरोष्ठी लिपि को देख कर मेसन
साहब ने अन्दाज़न कुछ नाम पढ़े; यथा मिनेड्रो, अपो-
लोडौटौ, अरमाइयो आदि। ग्रीक नाम पढ़ कर, कुछ कुछ
अक्षर साम्य के आधार पर, उन्होंने इस तरह का
अन्दाज़ा किया। उन्होंने इस विषय में प्रिंसेप साहब से
लिखा पढ़ी की। उन्होंने कई नामों और कई पदवियों
को पढ़ लिया। इस प्रकार खरोष्ठी-लिपि के कई अक्षरों
का उद्घाटन होगया। साथ ही यह भी मालूम होगया
कि यह लिपि अरबी-फारसी-लिपि के सदृश दाहिनी तरफ़
से बाईं तरफ को लिखी जाती है। और सेमेटिक वर्ग
की है। पर इस लिपि में लिखी गई भाषा कौनसी है,
इसका पता तब तक भी नहीं लगा। १८३८ ईसवी में
बाक्ट्रिया के ग्रीको के कुछ सिक्कों पर पाली-भाषा के लेख
मिले। इस पर यह सन्देह हुआ कि खरोष्ठी-लिपि वाले
लेखों की भी भाषा हो न हो पाली ही होगी। यह
अनुमान सच निकला। अतएव इस लिपि में लिखी हुई
भाषा का भी पता लग गया। इस भाषा-ज्ञान की सहायता से प्रिंसेप साहब ने खरोष्ठी के १७ अक्षर पढ़ लिये।
अवशिष्ट अक्षरों में से कुछ नारिस साहब ने और कुछ
जनरल कनिहाम ने पढ़े। इस तरह इस वर्णमाला का भी
सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त होगया और भारत के प्राचीन इतिहास
की जानकारी प्राप्त करने का मार्ग यथेच्छ खल गया।
"एन्झ्यंट इंडियन अल्फाबेट" नाम की पुस्तक में
इस विषय का बड़ा ही मनोरञ्जक वर्णन है। कितनी
कठिनाइयों को पार करके और कितने अजस्र उद्योग करने
के अनन्तर प्राचीन लिपियों को पढ़ लेने में सफलता हुई,
इसका अन्दाज़ा पूर्वोक्त लेख पढ़ने पर ही हो सकता है।
इस काम में सबसे अधिक सफलता प्रिंसेप साहब ही को
हुई। अतएव हम भारतवासियों को उनका विशेष कृतज्ञ
होना चाहिए। यही मत जनरल कनिहाम का भी है।
जनरल साहब ने पुरातत्व विषयक जो पुस्तक-माला लिसी
है उसके भी पहले भाग में उन्होंने इस विषय का बड़ा
मनोरञ्जक वर्णन किया है। सम्भव है, मूल-लेखक ने
अपने लेख का अधिकांश उसी की सहायता से लिखा हो।
प्रिंसेप के बाद कोई ३० वर्ष तक जेम्स फर्गुसन,
मेजर किष्टी, एडवर्ड टामस, जनरल कनिहाम, वाल्टर
इलियट, मंडोज़ टेलर, टी वन्स, भाऊदाजी आदि कितने
ती ही विद्वानों ने भारतीय पुरातत्त्व के काम को आगे बढ़ाया
और नये नये ऐतिहासिक तत्वों का उद्घाटन किया।
किनी ने उत्तरी भारत में काम किया। किसी ने पश्चिमी
में, किसी ने दक्षिणी में । फर्गुसन ने पुरातन-वास्तुविधा
(Ancient Architocture) का ज्ञान प्राप्त कर,
पुग्नफें लिखी। टामस ने पुराने सिक्कों की ज्ञन-प्राप्ति के
लिए परिश्रम किया। मेजर किट्टो ने पुरानी चित्र-विधा
उद्धार की चेष्टा की। टेलर ने मूर्ति-निर्माण-विधा पर
पुन्नर-प्रकाशन किया। जनरल कनिहाम ने ब्राह्मी, खरोष्ठी,
गुप्तकालीन-समी लिपियों का यथेष्ट ज्ञान प्राप्त कर
सैकड़ों-हज़ारों शिलालेखों और दानपत्रों को, विवरणपूर्वक,
प्रकाशित किया। इन लोगों की देखादेखी भारतीय विद्वान्
ज्ञान-सम्पादन पी एम आशा की और झुके और पहले
पहल बम्बाई के डाक्टर भाजदाजी ने पिराने ही नवीन
शिलालेखो का प्रकाशन करके उन पर गवेषणापूर्ण लेख
लिखे। साथ ही काठियावाड़ के निवासी पण्डित भगवान्-
लाल इन्द्रजी और बङ्गाली विद्वान् डाक्टर राजेन्द्रलाल मित्र
ने भी भारत के भूले हुए इतिहास के अनेक पृष्ठों पर
प्रकाश डाला। यह सब काम इन लोगों ने निज के तौर
पर, बिना किसी की आर्थिक सहायता के, किया।
१८४४ ईसवी में लन्दन की रायल एशियाटिक सोसायटी ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से सिफारिश की कि इस इतने महत्व के काम के लिए उसे मदद देनी चाहिए। इस बात को उसने मान तो लिया, पर कुछ किया कराया नहीं।
उस समय जनरल कनिंहाम संयुक्तप्रान्त के चीफ
इंजिनियर थे। पुरातत्व से उनको प्रेम पहले ही से था।
उनसे कम्पनी की यह शिथिलता नहीं देखी गई। उन्होने
एक योजना (स्कीम) तैयार करके गवर्नमेन्ट को भेजी
और लिखा कि यदि यह काम गवर्नमेन्ट न करेगी तो
फ्रेंच या जर्मन करेंगे। ऐसा होने से गवर्नमेन्ट की बड़ी
बदनामी होगी। तब कहीं गवर्नर जनरल की सुषुप्ति भङ्ग
हुई। उन्होने उस योजना को मंजूर किया और १८५२
ईसवी में पुरातत्त्व-विभाग(Archeological Survey)
की स्थापना हुई। कनिहाम हो उसके डाइरेक्टर नियस
हुए और इस काम के लिए उन्हें २५०) महीना अलौंस
मिलने लगा। यह बन्दोबस्त चन्दरोज़ा समझा गया
और ९ वर्ष तक जारी रहा। इस बीच में कनिहाम
साहब ने पुरातत्त्व-विषयक ९ रिपोर्टें लिखकर प्रकाशित
की। इन रिपोर्टों का सम्बन्ध केवल उत्तरी भारत से है।
गवर्नमेन्ट का ख़याल था कि यह काम थोड़े ही समय में
समाप्त हो जायगा। पर कनिहाम साहब की रिपोर्टें देख
कर उसकी आँखें खुल गई। उसे मालूम हो गया कि
यह काम तो बड़े महत्व का है और शीघ्र समाप्त होने
वाला नहीं। तब, १८७२ ईसवी में, गवर्नमेन्ट ने सारे
भारत में पुरातत्त्व विषयक-खोज कराने का निश्चय किया
और कनिहाम साहब ही को डाइरेक्टर जनरल बनाया।
उनकी मदद के लिए उसने और विद्वानों को भी नियत
किया। अतएव डाक्टर बर्जेस को भी यही काम दिया
गया और १८७४ ईसवी में वे दक्षिणी भारत में खोज
करने लगे।
१८८० ईसवी तक पुरातत्व-विभाग प्राचीन खोज,
तो करता रहा, पर प्राचीन इमारतो की रक्षा का भार
प्रान्तिक गवर्नमेन्टो ही पर था। उन्होंने इस काम में बड़ी
शिथिलता की। परिणाम यह हुआ कि पुरानी इमारतें नष्ट
होने लगीं। तब उनकी रक्षा के लिए एक क्यूरेटर नियत
हुआ। उसने (मेजर कोल ने) १८८१ से १८८३
तक "प्रिज़र्वेशन आफ नेशनल मान्यूमेंट्स' नाम की
तीन रिपोर्टें प्रकाशित की।
१८८५ ईसवी में जनरल कनिहाम ने पेंशन ले ली। तब तक वे पुरातत्व-सम्बन्धिनी २४ रिपोर्ट निकाल चुके थे। ये रिपोर्ट बड़ी बड़ी जिल्दो मे हैं। इनको पुरातत्व- विषयक ज्ञान की बहुत बड़ी निधि समझना चाहिए। ये कनिहाम साहब के अलौकिक परिश्रम, उद्योग और योग्यता का अपूर्व साक्ष्य दे रही है। बिना इनका साधन्त पाठ किये कोई भी साक्षर मनुष्य भारतीय पुरातत्त्व के इतिहास का पूरा पूरा ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता।
कनिहाम साहब के बाद उनकी जगह डाक्टर बर्जेस को मिली। तब खोज के साथ ही संरक्षण का भी काम इसी महकमे को दिया गया। उसका विस्तार बढ़ाया गया, सारा भारत पाँच भागो या सरकिलों में बाँटा गया। प्रत्येक भाग के लिए एक एक सर्वेयर की योजना की गई। प्राचीन लेख पढ़ने के लिए एक विलायती पण्डित रक्खा गया और उसकी सहायता के लिए देशी विद्वानो की भी योजना हुई।
१८८९ ईसवी में बर्जेस साहब अपने घर गये।
तब इस महकमे की कला उतरने लगी। इसके ख़र्च की
जाँच पड़ताल करने के लिए एक कमिटी बनाई गई। उसने
खर्च में बहुत कुछ कतर-व्योत करने की सिफारिश की।
वह स्वीकार हुई। कुछ सर्वेयर निकाले गये। डाइरेक्टर
जनरल का पद तोड़ दिया गया। सरकार ने कहा--बस
५ वर्षों में इसका काम ख़तम कर दिया जाय। परन्तु काम
कुछ हुक्म के अधीन थोड़े ही रहता है। वह खतम न
हुआ; उलटा बढ़ता दिखाई दिया। तब गवर्नमेन्ट ने हुक्म
निकाला कि खोज का काम बन्द किया जाय: केवल
संरक्षण का काम जारी रहे। तदनुकूल ही कारवाई होने
लगी। यह उतरती कला १९०० ईसवी तक रही।
इसी बीच में लार्ड कर्जन गवर्नर जनरल होकर भारत आये। उन्होंने पुरातत्त्व के काम में बड़ी दिलचस्पी दिखाई और एक लाख रुपया वार्षिक ख़र्च मंजूर किया। १९०२ में मार्शल साहब विलायत से बुलाये गये और डाइरेक्टर जनरल नियत हुए। वही अब तक इस पद पर हैं। तब से इस महकमे का काम बहुत सपाटे से हो रहा है।
गवर्नमेन्ट की देखा देखी कई देशी रियासतो ने भी
अपने यहाँ पुरातत्त्व-विभाग खोल दिये हैं और अजायवघरों
की भी स्थापना की है। भावनगर, माइसोर, हैदराबाद,
ट्रावनकोर आदि राज्य इस विषय में सबसे आगे हैं।
सारनाथ, मथुरा, नागपुर, कलकत्ता, बम्बई, मदरास, लाहौर,
लखनऊ, अजमेर आदि में जो अजायवघर हैं उनमें पुराने
सिक्कों, चित्रों, शिलालेखो, ताम्रपत्रों और अन्य प्राचीन
वस्तुओ के संग्रह को देखकर प्राचीन भारत की अनन्त ऐतिहासिक घटनाओं का दृश्य नेत्रों के सन्मुख आजाता है।
लन्दन में भी एक बहुत बड़ा प्राचीन पदार्थ-संग्रहालय है।
भारत के पुरातत्त्व की खोज करने के लिए अब तो फ्रांस, जर्मनी, आस्ट्रिया, इटली, रूस आदि में भी बड़ी बड़ी संस्थायें खुल गई हैं और अनेक सामयिक पुस्तकें निकल रही है। उनमें बड़े ही गवेपणापूर्ण लेख प्रकाशित होते हैं। ये संस्थायें सैकड़ों प्राचीन ग्रन्थों का भी उद्धार कर रही हैं। इस विषय में जर्मनी के विद्वानों ने सबसे अधिक काम किया है और बराबर कर रहे है।
इस समय पुरातत्व से सम्बन्ध रखनेवाली अनेक सामयिक पुस्तकें निकलती हैं। प्राचीन शिलालेखों और ताम्रपत्रो आदि के प्रकाशन के लिए भी--इण्डियन ऐण्टिक्वेरी, इपीग्राफिया इण्डिका, इपीग्राफिया कर्नाटिका आदि--कई सामयिक पुस्तकें हैं। एक पुस्तक ब्रह्मदेश के प्राचीन लेख प्रकाशित करने के लिए अलग ही है।
इस महकमे ने भारत की प्राचीन कीर्ति की जितनी रक्षा की है उतनी और किसी ने नहीं की। इसी की बदौलत अनन्त स्तूपों, मन्दिरो, मसजिदों और ऐतिहासिक इमारतों की रक्षा हुई है। यदि यह महकमा अस्तित्व में न भाता तो सहस्रशः प्राचीन नरेशों का नाम तक सुनने को न मिलता और अनेक प्राचीन राजवंशो के अस्तित्व तक का पता न लगता।
[जनवरी १९२३
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