प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ९५ से – १०४ तक

 
पाँचवाँ अध्याय
एक महान् वकील

भारतवर्ष में जनता की निजी संस्थाओं ने प्रारम्भिक तथा उच्च कोटि की और कला-कौशल-सम्बन्धी शिक्षाओं के लिए बड़ा उद्योग किया है और कर रही हैं। स्वर्गीय श्रीयुत जे॰ एन॰ टाटा ने उच्च कोटि की वैज्ञानिक शिक्षा के लिए अपने विपुल धन का एक ख़ासा भाग व्यय किया था। बंगलौर के वैज्ञानिक विद्यालय का अस्तित्व उन्हीं की बदौलत है। बोस बाबू की प्रयोग-शाला, कलकत्ते का प्रौद्योगिक विद्यालय (जिसके साथ प्रसिद्ध रसायन-वेत्ता डाक्टर पी॰ सी॰ राय का सम्बन्ध है) राष्ट्रीय चिकित्सा-विद्यालय पूर्णरूप से या विशेषरूप से भारतीयों के निजी परिश्रम के ही फल हैं। सरकारी विश्वविद्यालय भी सर गुरुदास बैनर्जी के समान भारतीयों के दान के बहुत कुछ कृतज्ञ हैं। काशी के हिन्दू-विश्वविद्यालय में उच्च कोटि की साहित्यिक शिक्षा की ही व्यवस्था नहीं है बल्कि उसमें एक इंजीनियरिंग कालिज भी है। परन्तु मिस मेयो यह सिद्ध करना चाहती है कि शिक्षा-विस्तार के लिए स्वयं भारतीय कुछ नहीं कर रहे हैं। वह भारतीय राष्ट्र-वादियों को ब्रिटिश सरकार की कल्पित असावधानी की समालोचना करने का अपराधी ठहराती है। शिक्षित भारतीयों के विरुद्ध उसका अपराध लगाना सर्वदा की भाँति, एक अज्ञात बङ्गाली वकील के साथ जिसने वकालत करके खूब द्रव्योपार्जन किया पर अपने गाँव की शिक्षा या स्वच्छता पर कोई ध्यान नहीं दिया, उसकी बात-चीत पर निर्भर है। मैंने अपनी 'भारत में राष्ट्रीय शिक्षा की समस्या' नामक पुस्तक के भूमिकाभाग में उस समय (१९१८) तक इस सम्बन्ध में व्यक्तिगत उद्योगों द्वारा जो कुछ किया गया था उसका संक्षिप्त विवरण दिया था। परन्तु जब सब कुछ कहा जा चुका है तब इस बात के अस्वीकार करने से कोई लाभ नहीं कि शिक्षा की व्यवस्था करना सर्वप्रथम और मुख्य रूप से सरकार का ही काम है। आधुनिक राष्ट्र की शिक्षा-सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति जनता के निजी उद्योगों से उनमें कितनी ही तत्परता क्यों न हो, कदापि सम्भव नहीं है। अपनी शिक्षा-विषयक पुस्तक के पांचवें अध्याय में मैंने उस समय के सरकारी शिक्षा-बोर्ड के सभापति माननीय एच॰ ए॰ एल फिशर के तात्कालिक व्याख्यानों के बड़े बड़े उद्धरण देकर इस बात पर बल देने का प्रयत्न किया था कि आज-कल समस्त सभ्य देशों में प्रत्येक प्रकार की शिक्षा देने का काम सरकार का ही समझा जाता है। सरकार का यह देखना अधिकार और कर्तव्य है कि नागरिक निरक्षर और अशिक्षित तो नहीं होते जा रहे हैं। शिक्षा-सम्बन्धी समस्यायों पर ब्रिटेन के प्रमाणस्वरूप नेता श्रीयुत फिशर ने अपने एक व्याख्यान में कहा था कि[]:—

"यद्यपि सरकार नवयुवकों को मजदूरी करके द्रव्योपार्जन करने से रोक नहीं सकती [क्यों?] पर यह शिक्षा का भी उतना ही मूल्य नियत कर सकती है, और इसे अवश्य करना चाहिए जितना कि द्रव्योपार्जन के लिए मज़दूरी करने का है। [इस बात पर दृढ़ रहने का इसका अधिकार और कर्तव्य है कि यह सर्वसाधारण की शिक्षा में विश्वास रखती है] और लोगों के दिल में इसे यह भी विश्वास जमा देना चाहिए कि शिक्षा से इसका तात्पर्य्य शिक्षा का ढोंग रचना नहीं, पर एक ऐसी वस्तु उपस्थित करना है जो ठोस हो और जिसका लोगों के हृदय और चरित्र पर स्थायी प्रभाव पर पड़े और यह कि शिशु पर इस शिक्षा का दावा बहुत बड़ा है.....। व्यक्तिगत परिस्थितियों पर निर्भर कुछ व्यय के भय से सरकार को अपनी प्रजा में ज्ञान और बुद्धि के प्रचार करने के महान् उद्देश से विमुख नहीं होना चाहिए। पहले इसे आवश्यकता और प्राप्त साधनों के अनुसार सब प्रकार से योग्य और प्रभावशाली पाठ्य-क्रम नियत करने चाहिए और तब इसे ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि जिससे प्रत्येक नागरिक को आत्म-विकास का पूर्ण अवसर मिले और विशेष दशाओं में इसे विशेष सहायता करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए।" [कोष्टक के शब्द हमारे हैं]

सर्वसाधारण को उचित शिक्षा देना सरकार का अधिकार और कर्तव्य है। इसलिए केवल भारतीय राजनीतिज्ञ ही ऐसे नहीं हैं जो यह चाहते हैं कि 'सर्वसाधारण के लिए अनिवार्य्य शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए....।' ब्रिटिश राजनीतिज्ञ भी स्वयं अपने देश के सम्बन्ध में यही बात स्वीकार करते हैं।

आधुनिक राजनीतिज्ञों के सामने शिक्षा-सम्बन्धी क्या आदर्श है इसकी एक झलक हमें श्रीयुत फिशर के व्याख्यान के आगे के उद्धरणों से जो मैंने पहले अपनी शिक्षा-विषयक पुस्तक के लिए चुने थे, दिखाई पड़ जाती है:—

"प्रचलित शिक्षा का क्षेत्र यह है कि वह इस देश के पुरुषों और स्त्रियों को नागरिक के कार्य्यों के उपयुक्त बनावे। नागरिक लोग जिस समाज के अङ्ग होते हैं उसके लिए उनसे जीवन धारण करने को कहा जाता है, कुछ से मरने की भी प्रार्थना की जाती है। यह बात कि उन्हें अज्ञानता की गूँगी असमर्थता के चङ्गुल से छुड़ाना चाहिए, यदि अन्तरात्मा की आज्ञा न हो तो कम से कम उस राजनैतिक बुद्धिमत्ता का एक प्रारम्भिक अङ्ग अवश्य है जिसको कि करोड़ों नये मतदाताओं का भावी मताधिकार एक अद्वितीय महत्त्व दे रहा है। परन्तु केवल राजनैतिक दृष्टि से ही यह बात आवश्यक नहीं है। वास्तव में मनुष्य का यह जन्मसिद्ध अधिकार है कि जहाँ तक हमारी अपूर्ण सामाजिक व्यवस्थाएँ आज्ञा दें वहाँ तक हम ज्ञान, हृदयोद्गार; और आशा के संसार में जो कुछ भी सर्वोत्तम वस्तु जीवन हमें दें सके उसे समझे और उसका उपभोग करें।"

ब्रैडफोर्ड में व्याख्यान देते हुए श्रीयुत फिशर ने कहा था:—

"जब मैंने राष्ट्रीय शिक्षा-सम्बन्धी अपना निरीक्षण प्रारम्भ किया तो यह बात जानकर मैं आश्चर्यचकित रह गया—मैं अनुमान करता हूँ कि यह सुनकर प्रत्येक व्यक्ति की यही दशा होगी—कि इस देश में (ग्रेट ब्रिटेन में) लाखों नरनारी ऐसे हैं जो जीवन का समुचित सद्व्यय नहीं कर रहे हैं। लाखों नरनारी ऐसे हैं जो पुस्तकों से कोई लाभ नहीं उठाते, सङ्गीत या चित्र-दर्शन में कोई सुख नहीं अनुभव करते, और प्रकृति के सरल सौन्दयों में कोई विशेष आनन्द नहीं पाते। वे कल-पुर्जों के उदास कामों से बंधा जीवन व्यतीत करते हैं, लोहे और फौलाद में जकड़े हैं। न उनमें कविता की कोई झलक है, न कल्पना का कोई स्पर्श। जिस संसार में हम रहते हैं उसके वैभव और सौन्दर्य्य का उन्हें अत्यन्त क्षीण ज्ञान है। वे अपने साधारण उदास कामों में वह दिलचस्पी लेने में भी असमर्थ हैं जिसका सम्बन्ध उन सिद्धान्तों की वैज्ञानिक प्रशंसा से है जिन पर कि उन कामों की व्यवस्थापना हुई है। अपने छुट्टी के समय को भी वे किसी बुद्धिमानी या सभ्यता के काम में नहीं लगा सकते। यह सब देखकर मैं अपने आप पूछता हूँ कि क्या हमें ऐसी सभ्यता से सन्तुष्ट हो जाना चाहिए जिसमें ये सब बाते सम्भव हैं। और क्या यह हमारे कर्तव्य का एक अङ्ग न होना चाहिए कि हम अपनी सन्तति के लिए ऐसी व्यवस्था कर जाय जिससे उन्हें अपनी पहुँच में अधिक सुखमय, अधिक संस्कृत और अधिक विस्तृत जीवन प्राप्त हो सके?"

जब उन्होंने 'हाउस आफ कामन्स' में व्याख्यान दिया था तब फिर यही इच्छा प्रकट की थी कि:— "वह क्या गुण है जो हम मोटे तौर पर अपने मनुष्यों में चाहते हैं? यही कि वे भले नागरिक हों, कर्तव्यपरायण और सम्माननीय हों, मस्तिष्क और शरीर से स्वस्थ हों, अपने व्यवसायों में सिद्धहस्त हों और अपने अवकाश का सदुपयोग करना जानते हो।"

इंगलैंड के शिक्षा-सम्बन्धी व्यय के अङ्कों का हवाला देने के बाद—जो १६,०००,००० पौंड राज्य-कर से, १७,०००,००० पौंड स्थानिक करों से और कदाचित् ७,०००,००० पौंड फीस और व्यक्तिगत दानादि से सब मिलाकर ४०,०००,००० पौंड या भारतीय सिक्के में ६० करोड़ रुपया प्राप्त हुआ था—शिक्षा के लिए और भी धन माँगते हुए माननीय मिस्टर फिशर ने ठीक ही कहा था कि 'जब हम एक प्रकार के उत्पादक व्यय पर विचार कर रहे हैं जो कि एक लाभ के काम में रुपया ही लगाना नहीं है वरन उसका बीमा भी करा लेने के समान है तब हमारे पास केवल व्यय का ही प्रश्न नहीं रह सकता। उस दशा में हमें एक पूरक प्रश्न भी पूछना चाहिए। हमें केवल यही न पूछना चाहिए कि हम क्या व्यय कर सकते हैं? और वे 'पूरक प्रश्न' को अधिक महत्व-पूर्ण और अधिक विचारणीय बतलाते हैं। चारों तरफ से 'किफ़ायत' की आवाज़ें उठने पर भी फिशर महाशय अपनी बात पर दृढ़ रहे और बोले कि 'हमें अपने देश की "मनुष्यतारूपी" सम्पत्ति में किफ़ायत करनी चाहिए। क्योंकि वही हमारी वह मूल्यवान् सम्पत्ति है जिसके व्यर्थ व्यय से हमने बहुत काल तक दुःख भोगा है।' जो लोग यह जानने का प्रयत्न कर रहे हैं कि वर्तमान समय में राष्ट्रीय पूर्णता सर्वसाधारण की शिक्षा की कितनी आश्रित है उन्हें श्रीयुत फिशर के कुछ अंश कानूनी दलील के समान प्रतीत होंगे। १० अगस्त १९१७ ई॰ को जब इँगलेंड विश्वव्यापी भयङ्कर युद्ध में फंसा हुआ था, श्रीयुत फिशर ने शिक्षा-विषयक एक नया बिल उपस्थित करते हुए इस प्रश्न की कुछ दशाओं पर इस प्रकार विचार किया था:—

"शिक्षा और स्वास्थ्य में कितना घनिष्ठ सम्बन्ध है, इस बात की और दिन दिन अधिकाधिक ध्यान दिया जा रहा है। हमारे सामाजिक इतिहास की एक महान् तिथि वह है जिस दिन १९०७ ई॰ में बालकों का स्वास्थ्य देखने के लिए स्कूल मेडिकल सरविस की स्थापना हुई थी। अब हम जानते हैं, जो कि अन्य उपाय से हम कदापि नहीं जान सकते थे, कि बालकों की एक बहुत बड़ी संख्या की स्वास्थ्य सम्बन्धी दशा बहुत गिरी होने से, हमारी शिक्षण-पद्धति का मूल्य किस प्रकार घट रहा है और गरीबों के बच्चों का शारीरिक स्वास्थ्य कितना ऊँचा उठाने की आवश्यकता है; यदि हम चाहते हैं कि हमारी शिक्षण-पद्धति पर व्यय किया गया अधिकांश धन व्यर्थ न जाय।"

श्रीयुत फिशर को युद्ध से जो शिक्षायें मिली उनमें से एक स्पष्ट शिक्षा यह भी थी कि शिक्षा से राष्ट्रीय योग्यता की कैसी उन्नति होती है। ब्रैडफोर्ड में व्याख्यान देते हुए उन्होंने कहा था:—

"भाइयो और बहिनो, क्या कभी आपने विचार किया है कि इस महाभयङ्कर युद्ध की गति पर शिक्षा का क्या आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ा है। वे देश कितनी अच्छी तरह सफल हुए हैं जिनके पास आधुनिक शिक्षा की यथेष्ट सामग्री थी। और वे देश कितना कम सफल हुए हैं जो प्रचलित शिक्षा में औरों की अपेक्षा बहुत पीछे थे। मैं सोचता हूँ कि ऐसा युद्ध पहले कभी नहीं हुआ जिसमें लड़नेवाली सेना इतनी अच्छी तरह शिक्षित रही हों या जिसमें लड़नेवाली सेनाएँ विज्ञान और शिक्षा की इतनी कृतज्ञ हुई हों। चाहे आप आगे के अफ़सरों से जाकर पूछिए—जो आपसे बतलायेंगे कि वे सुशिक्षित प्राइवेट व्यक्तियों को भी कितना महत्त्व देते हैं—चाहे प्रधान कार्य्यालय में जाकर पूछिए, चाहे गोला-बारूद के कारखानों से और रसद के प्रबन्धकों से पूछिए आपको सर्वत्र अपने प्रश्न का एक ही उत्तर मिलेगा। सदैव आपको बतलाया जायगा कि (शिक्षा ही सब योग्यताओं की कुञ्जी है) (कोष्ठक के शब्द हमारे हैं)

मिस मेयो ने शिक्षा और द्रव्योपार्जन पर कुछ विचार प्रकट करने की चेष्टा की है। अपनी पुस्तक के 'मुझे नौकरी दो या मृत्यु' नामक अध्याय में उसने भारतवासियों के प्रति अपनी घृणा को केन्द्रीभूत करने का प्रयत्न किया है। इस सम्बन्ध में श्रीयुत फिशर के मैनचेस्टर में दिये गये व्याख्यान का यह अंश बहुत ही सुन्दर है:—

"मैं समाज की एक ऐसी स्थिति के लिए तर्क करने की चेष्टा करूँगा जिसमें युवक के कर्त्तव्यों में शिक्षा को पहला स्थान दिया जाय और द्रव्योपार्जन को दूसरा। यह नियम केवल एक जाति के लिए न हो पर युवक-मात्र के लिए हो। अभी तो धनी लोग शिक्षा लाभ करते हैं और ग़रीब लोग द्रव्योपार्जन करते हैं।

"शिक्षा एक स्वर्गीय ऋण है जिसके लिए आयु की परिपक्वता युवक की ऋणी होती है। अब हमें इस बात की परवाह न करनी चाहिए कि युवक धनी है या गरीब। हमारे ऊपर उसे शिक्षा देने का ऋण है—समस्त शिक्षा जो वह प्राप्त कर सकने के योग्य हो और समस्त शिक्षा जो हम दे सकें।"

जहाँ ब्रिटिश सरकार की देख-रेख में अर्थात् भारतवर्ष में शिक्षा का स्वर्गीय ऋण इतनी अयोग्यता से अदा किया जाता है वहाँ युवकों से शिक्षा को द्रव्योपार्जन से पहले रखने की आशा करने से कोई लाभ नहीं।

कोई व्यक्ति यह आशा कर सकता था कि मिस मेयो जो अमरीका से आ रही है भारतवर्ष की शिक्षा-सम्बन्धी समस्या को प्रभावित करने के लिए अपने साथ कुछ उदार और व्यापक विचार ले आई होगी। परन्तु उसका एकमात्र उद्देश था ब्रिटिश-शासन पर चूनाकारी करना और भारतवासियों के मुंह पर कोयला पोतना। इस बात की उसने खूब खाल निकाली है कि १९१९ में बने सुधार कानूनों के अनुसार शिक्षा का कार्य्य भारतवासियों को सौंप दिया गया है और अब इसका सम्पूर्ण उत्तरदायित्व भारतीय मंत्रियों पर है। यहाँ भी उसने वास्तविक समस्या समझने की पूर्ण अयोग्यता दिखलाई है। वह यह समझने में असफल रही कि इस सम्बन्ध में भारतीय मंत्री बिलकुल स्वतंत्र नहीं हैं। राष्ट्रीय भारत दत्त और अदत्त विभागों के लिए कर के अनुचित बटवारे पर बराबर घोर असन्तोष प्रकट करता रहा है। दत्त विभागों के सञ्चालक शीघ्रता के साथ कोई सुधार करने में असमर्थ हैं क्योंकि करों के बटवारे में न जनता के प्रतिनिधियों को स्वतंत्रता है न मंत्रियों को। यह पूर्णतया एकाधिपत्या कार्य्यकारिणी समिति पर निर्भर है। यह ऊपर से भारी शासन प्रणाली जो इम्पीरियल सर्विसों के लिए जिनका कि व्यय वैसे ही बहुत बढ़ा हुआ है, एक करोड़ से भी अधिक, विशेषव्यय बड़ी प्रसन्नता से स्वीकार कर लेती है और जो सेना-विभाग पर प्रतिवर्ष करीब ८० करोड़ रुपया व्यय करती है, मंत्रियों को सौंपे गये राष्ट्र के निर्माण करनेवाले विभागों पर कभी भी पर्य्याप्त धन व्यय नहीं करती।' भारत-सरकार के शिक्षा मंत्री श्रीयुत ऋची महोदय कहते हैं[]:—

"वर्तमान समय में भारत की केन्द्रीय और प्रान्तीय सरकारों की जो खूब मुट्ठी बांध कर आर्थिक सहायता देने की अवस्था है उससे निकट भविष्य में शिक्षा सम्बन्धी कोई उल्लेखनीय उन्नति होने की आशा नहीं है। शिक्षा के नवीन प्रान्तीय मंत्रीगण अपने स्कूलों पर किये गये हमलों को सफलता के साथ रोकने के पश्चात् अब इस विचार से अपनी शिक्षा सम्बन्धी स्थितियों का सङ्गठन कर रहे हैं कि आवश्यक आर्थिक सहायता के प्राप्त होते ही क्रमबद्ध उन्नति के कार्य प्रारम्भ कर दें। इस प्रकार की उन्नति में, नई कौंसिलों ने जो उत्साह प्रदर्शित किया है उससे जान पड़ता है कि लोकमत उनका समर्थन करेगा.....।"

इँगलैंड में कोई फिशर युद्ध के समय में भी अपनी जनता से कह सकता है कि शिक्षा पर व्यय करना लाभ के व्यापार में रुपया लगाना है। किफ़ायत की देशव्यापी आवाज़ उसे सर्वसाधारण की शिक्षा के लिए महान् आयोजना करने से नहीं डिगाती। पर यदि फिशर महाशय भारतीय मंत्री होते तो उनसे मिस्टर ऋची कहते कि 'भारत में शिक्षा सम्बन्धी सुधार का कोई छोटा मार्ग नहीं है।' मंत्रियों के लिए सबसे बड़ी असुविधा द्रव्य प्राप्त करना है। यह बात फिर स्पष्ट हो जाती है जब श्रीयुत ऋची कहते हैं कि[]

"आर्थिक सहायता की असमानता का प्रान्तों की शिक्षण-नीति पर बड़ा घोर प्रभाव पड़ता है। बम्बई-प्रान्त अपनी विशाल और बढ़ती हुई करों की आय से आरम्भिक शिक्षा को शीघ्र और सर्वत्र अनिवार्य कर सकता है पर बङ्गाल के लिए अपनी परिमित और असमर्थ साधनों के कारण ऐसी किसी आयोजना पर विचार करना बूते से बाहर की बात है। सुसङ्गठित शिक्षण-पद्धति का आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक उन्नति पर इतना अधिक प्रभाव पड़ता है कि इस प्रकार की प्रान्तीय असमानताओं का अन्तिम प्रभाव कठिनता से अनुमान किया जा सकता है।"

मिस्टर फिशर के व्याख्यानों से लिये गये उद्धरणों पर विचार करते हुए मैंने अपनी पुस्तक में लिखा था[]:—

इँगलेंड के साथ हमारा राजनैतिक सम्बन्ध होने के कारण मिस्टर फिशर के शब्दों का जो महत्त्व हमारे लिए हो सकता है वह उतने ही बड़े दूसरे देश के विद्वानों के शब्दों का नहीं हो सकता। यहाँ साम्राज्य के शिक्षा-विभाग के सर्वोच्च अधिकारी ने ऐसे सिद्धान्तों और सच्ची बातों को खोल कर रख दिया है जो उनकी समझ में समस्त आत्म-सम्मान चाहनेवाली और उन्नति की आकांक्षा रखनेवाली जातियों के लिए लागू हो सकते हैं। भारतवर्ष में हम भारतीय अपनी शिक्षण-नीति को निश्चित करने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं। प्रान्तों को शिक्षा-सम्बन्धी स्वतंत्रता का वादा किये जाने पर भी अन्तिम शब्द तो केन्द्रीय सरकार के ही हाथ में रहेगा। भारतवर्ष में सार्वजनिक शिक्षा की उन्नति अभी बहुत समय तक ब्रिटिश कर्मचारियों की सहानुभूति की आश्रित रहेगी, क्योंकि नीति-सञ्चालन का और राज्य कोष से व्यय करने का अधिकार उन्हीं को है।"

ये शब्द आज भी उतने ही सत्य हैं जितने १९१८ में थे। संसार की भिन्न भिन्न सभ्य जातियों की शिक्षण-पद्धति का अध्ययन करके मैंने अपनी शिक्षा-विषयक पुस्तक में कतिपय साधारण सिद्धान्तों का वर्णन किया था। उनको मैं यहाँ संक्षेप में दे देना चाहता हूँ।

१—राष्ट्रीय शिक्षा का प्रचार अत्यन्त निश्चयपूर्ण और लाभदायक व्यापार है। राष्ट्र की रक्षा के लिए इसकी उतनी ही आवश्यकता है जितनी देश की रक्षा के लिए फ़ौज की। सरकार की ओर से सार्वजनिक शिक्षा की पूर्ण रूप से व्यवस्था होनी चाहिए और सरकारी कोष पर सबसे प्रथम इसी का अधिकार होना चाहिए। जनता के निजी कोषों और संस्थाओं द्वारा सारे राष्ट्र के लिए शिक्षा की व्यवस्था करना व्यर्थ है। इसके लिए उद्योग करना असम्भव के लिए उद्योग करना है। इसके अतिरिक्त यह सरकार के कर्तव्यों से जनता का ध्यान हटा देता है। राष्ट्रीय शिक्षण-पद्धति का प्रचार, प्रयोग, उसकी सहायता और शासन सब राष्ट्र को ही करना चाहिए। और इस कार्य्य-सञ्चालन में सरकार को राष्ट्र का प्रतिनिधि-स्वरूप होना चाहिए।

२—अब तो यह पुराना ख़याल भी जाता रहा कि सरकार का काम केवल आरम्भिक शिक्षा के लिए व्यवस्था करना है। समस्त संसार ने यह बात स्वीकार कर ली है कि सरकार का काम आरम्भिक शिक्षा से ही समाप्त नहीं हो जाता। राष्ट्र की आर्थिक और औद्योगिक योग्यता कला-कौशल-सम्बन्धी और औद्योगिक शिक्षा पर निर्भर है। और उसकी व्यवस्था भी सरकार को ही करनी चाहिए। सरकार उच्च कोटि की शिक्षा की भी उपेक्षा नहीं कर सकती क्योंकि उसी पर बुद्धिमत्ता और योग्यतापूर्ण नेतृत्व निर्भर है।[]

३—कुछ पुस्तकें पढ़ा देना या पढ़ना-लिखना और गिनती सिखा देना ही शिक्षा नहीं है। इसमें बालकों की शारीरिक उन्नति की व्यवस्था करना भी सम्मिलित है। इसे बालकों की स्वास्थ्य-रक्षा की व्यवस्था करनी होती है और आवश्यकता पढ़ने पर उनके भोजन का भी इतना प्रबन्ध करना पड़ता है कि सरकार ने उसकी शिक्षा की जो व्यवस्था की है उससे वे संतोसजनक लाभ उठा सके।

४—संक्षेप में बालकों को योग्य चतुर और सावधान नागरिक बनने में सहायता देने के विचार से उनके पालन-पोषण करने और उन्हें शिक्षा देने का कर्तव्य सरकार का है। और उसे इन कामों को पूरा करने के लिए मजबूर करना चाहिए। ये बातें अब माता-पिता की स्थिति या इच्छा पर निर्भर नहीं हैं।


  1. फिशर के व्याख्यानों का उद्धरण देने में मैं अपनी राष्ट्रीय शिक्षा समस्या नामक पुस्तक के पांचवें अध्याय की सामग्री काम में ला रहा हूँ।
  2. भारत में शिक्षा-वृद्धि-सम्बन्धी प्रति पांच वर्ष में प्रकाशित होनेवाली पत्रिका, भाग १ संख्या ८ पैराग्राफ ३९
  3. भारत में शिक्षावृद्धि-सम्बन्धी प्रति पाँच वर्ष में प्रकाशित होने वाली पत्रिका, भाग १, संख्या ८, पैराग्राफ़ २०
  4. भारत में राष्ट्रीय शिक्षा, पृष्ठ १०४ और आगे।
  5. संयुक्त राज्य अमरीका की फेडरल सरकार ने १९२३-२४ में केवल उच्च कोटि की शिक्षा पर १,८०,८३,२१,४२० स्टर्लिंग व्यय किया था। १९१३ ई॰ में ५५,५०,७७,१४६ स्टर्लिंग व्यय किया था। और १९१८ से १९२६ तक में केवल फेडरल सरकार ने ३८ करोड़ डालर औद्योगिक शिक्षा पर व्यय किया था। और अब ७ करोड़ से ऊपर डालर प्रति वर्ष खर्च करती है। अमरीकन इयर बुक, पृष्ठ १०७२ और १११०