दुखी भारत/४ शिक्षा और द्रव्योपार्जन

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ८८ से – ९४ तक

 
चौथा अध्याय
शिक्षा और द्रव्योपार्जन

यह कहना तो सरल है कि शिक्षा के ही लिए शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। परन्तु एक अमरीकन के मुंह से ये शब्द शोभा नहीं पा सकते। इस सम्बन्ध में प्राचीन हिन्दू आदर्श वर्तमान योरपीय या अमरीकन आदर्श से कहीं अधिक उच्च और उदार था। पश्चिम में मुख्य मूल्य प्रायः धन का ही मूल्य समझा जाता है। मिस मेयो के संयुक्त राज्य में तो धन के अतिरिक्त लोग और कुछ जानते ही नहीं। विश्वविद्यालयों तक की महत्ता का अनुमान उन पर व्यय किये गये और उनमें लगे द्रव्य से किया जाता है। अपने ढङ्ग का अमरीकावासी द्रव्य का कीड़ा-मात्र है जो प्रत्येक वस्तु को उसके आर्थिक मूल्य के अनुसार देखता है। किसी कृत्ति का महत्व चाहे वह पुस्तक हो, चाहे चित्र, चाहे चित्र-नाटक, चाहे नाटक और चाहे विश्वविद्यालय ही क्यों न हो, केवल उस पर व्यय किये गये द्रव्य से समझा जाता है। ब्रोडवे, न्यूयार्क, शिकागो, फिलाडेलफिया, सेन-फ्रान्सिसको और समस्त दूसरे बड़े नगरों में चारों तरफ़ विद्युत् प्रकाश से अङ्कित "दस लाख डालर की कृतियों" की घोषणाएं देख पड़ती हैं। किसी करोड़पती दम्पती ने अपने मृतक पुत्र की स्मृति में उसके नाम पर एक विश्वविद्यालय स्थापित करने की बात सोची। उन्होंने अमरीका के संयुक्त राज्य भर में दौरा किया ताकि वे भिन्न भिन्न विश्वविद्यालयों का निरीक्षण करके अपने प्रस्तावित स्मारक के लिए एक आदर्श चुन लें। सब जगह उन्होंने यह प्रश्न करना अपना विषय बना लिया कि विश्वविद्यालय पर स्थायी और चलता दोनों मिलाकर कुल कितना व्यय लगा। 'मेसा चुसेट के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय के पुस्तकभवन में प्रवेश करते हुए उन्होंने उस व्यक्ति से भी जो उन्हें विश्वविद्यालय के भिन्न भिन्न विभाग दिखा रहा था वही प्रश्न किया। और पति-पत्नी से यह कहते हुए सुना गया कि—'प्रिये, हम यह कर सकते हैं।' अर्थात् उसी विश्वविद्यालय की लागत का एक विश्वविद्यालय बनवा सकते हैं। उन्होंने जिस विश्वविद्यालय की स्थापना की वह पश्चिम में एक बड़ी प्रसिद्ध संस्था है। परन्तु वह मानव समाज की कृज्ञता का जो दावा करती है वह उसकी आर्थिक लागत का दावा है। औसत दर्जे का अमरीकावासी केवल दव्योपार्जन्न में दिलचस्पी रखता है या उपार्जन के पश्चात् उसके व्यय करने में।

शिक्षा के ही लिए शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। यह उपदेश प्रायः हमें ऊँचे दर्जे के मनुष्यों से मिलता है। उन्हें यह जानना चाहिए कि यहाँ इस विषय पर विचार करना असङ्गतः न होगा। पर मैं इस पुस्तक पर इस विषय के अधिक उद्धरण लादने से डरता हूँ। मैं पाठकों के विनोद के लिए यहाँ अपनी ही पुस्तक[] 'भारत में राष्ट्रीय शिक्षा की समस्या' से एक उद्धरण दूंगा। मिस मेयो ने अपनी पुस्तक में भी इससे प्रायः उद्धरण दिये हैं। उसके बारहवें अध्याय में मैंने 'शिक्षा के आर्थिक मूल्य' पर विचार किया था। उसमें मैंने संयुक्त राज्य अमरीका की 'एज्युकेशन ब्यूरो' के १९१७ में प्रकाशित 'शिक्षा का आर्थिक मूल्य' नामक २२ नम्बर के पर्चे से बहुत उद्धरण दिये थे। उस पर्चे के अवतरणों का परिचय देते हुए मैंने अपनी पुस्तक में लिखा था:—

"सम्पन्न राष्ट्रीय शिक्षण-पद्धति की सबसे प्रथम आवश्यकता यह है कि वह प्रत्येक नागरिक को इस योग्य बना दे कि वह स्वयं भलीभांति जीवन व्यतीत करे तथा दूसरों को वैसाही जीवन व्यतीत करने में सहायता दे। भली भांति जीवन व्यतीत करने के लिए एक नियत मात्रा में भोजन, वस्त्र, निवास, छुट्टी, विनोद, और ऊँचे दर्जे की सुरुचि तथा महान् श्राकांक्षाओं की पूर्ति के साधनों की आवश्यकता पड़ती है। जो राष्ट्र अपने प्रत्येक सदस्य को भली भांति जीवन व्यतीत करने के पर्याप्त साधन नहीं जुटाता वह शेष संसार पर केवल भाररूप होता है। परन्तु जब ३१ करोड़ मानवों का राष्ट्र जो भारत के समान पूर्ण हो, भारत के समान उर्वरा भूमि का अधिकारी हो और जिसके पास सब प्रकार की प्राकृतिक उपजों का बाहुल्य हो, अपनी जन-संख्या के आधे भाग की साधारण आवश्यकताओं की पूर्ति भी नहीं कर सकता तब यह एक ऐसा दृश्य उपस्थित करता है जिसे देख कर देवता लोग भी रोने लगेंगे। भारतवर्ष की आश्चर्य्यजनक दीनता उसके जीवन की एक दुःखान्त घटना है और इसका मुख्य कारण शिक्षा-सम्बन्धी साधनों का अभाव है।"

"ऐसी परिस्थिति में समस्त सार्वजनिक शिक्षा का प्रथम उद्देश्य यह होना चाहिए कि नागरिकों की उत्पादक-शक्ति की वृद्धि हो। राष्ट्र की सर्व-प्रथम आवश्यकता शिक्षा है और समस्त राष्ट्रीय-कर पर उसका अधिकार होना चाहिए। राष्ट्रीय जीवन की इस प्रथम आवश्यकता को प्रत्येक बालक-बालिका की और प्रत्येक युवक की जो शिक्षा के योग्य हो, पहुँच में रखने के लिए राष्ट्र को समस्त सुख-सामग्री से ही नहीं अन्य दूसरी आवश्यकताओं से भी, प्रत्येक रोम से परिश्रम करके मुंह मोड़ लेना चाहिए। यह तभी सम्भव हो सकता है जब औद्योगिक शिक्षा का देशव्यापी प्रचार किया जाय और सम्पूर्ण देश को जीवन की साधारण आवश्यकताओं तथा औद्योगिक ज्ञान की उन्नति में सहायक होने योग्य व्यावहारिक विज्ञान से भर दिया जाय।

"इतनी व्यापक शिक्षण-पद्धति के लिए प्रचुर धन चाहिए। यह धन इन रीतियों से प्राप्त हो सकता है—(क) वर्तमान करों से (ख) नये करों से (ग) सार्वजनिक शासन के अन्य विभागों का व्यय कम कर देने से (घ) राष्ट्र अथवा प्रान्त से ऋण लेकर। शिक्षा के लिए धन की आवश्यकता और उसकी पूर्ति करने का भाव जनता में उत्पन्न करने के लिए यह आवश्यक है कि 'उसके सामने शिक्षा का पुरस्कार और सामग्री उपस्थित की जाय।'

उक्ति चिह्नों के भीतर के अन्तिम शब्द अमरीका के पहले उल्लेख किये पर्चे से लिये गये हैं। अब टेक्साज़ विश्वविद्यालय के शिक्षा-शास्त्र के अध्यापक डाक्टर ए॰ केसवेल एलिस की इस सम्बन्ध में अखिल विश्व की विशेषतया जर्मनी, जापान, रूस, अमरीका और दूसरे देशों की जाँच-पड़ताल के परिणामों पर विचार कीजिए। जर्मनी के सम्बन्ध में वे लिखते हैं:—

"चाहे राष्ट्रीय दृष्टिकोण से देखिए, चाहे व्यक्तिगत नागरिक के दृष्टिकोण से, दोनों दशाओं में औद्योगिक योग्यता की वृद्धि करने में शिक्षा का प्रभाव बहुत ही अधिक प्रतीत होगा। उदाहरण के लिए इस बात का और क्या कारण खोजें कि जर्मनी के समान राष्ट्र, जिसकी प्राकृतिक उपज अत्यन्त परिमित है, पर सार्वजनिक स्कूल बड़े ही उत्तम हैं, अपने पड़ोसी रूस से जिसके निवासी स्वस्थ और बुद्धिमान् हैं और जिसकी प्राकृतिक उपज का ठिकाना नहीं है पर सार्वजनिक स्कूल अत्यन्त न्यून और अपूर्ण हैं, धन और बल में इतनी शीघ्रता के साथ आगे निकल गया। यह बात प्रायः सभी मानते हैं कि जर्मनी की यह आश्चर्यजनक सफलता उसकी उत्तम शिक्षण-पद्धति का प्रत्यक्ष फल है।"

अमरीका के सम्बन्ध में वे बतलाते हैं:—

"शिक्षा का उत्पादनशक्ति के साथ क्या सम्बन्ध है इसका पता इस बात से चल जाता है कि जब से संयुक्तराष्ट्र में शिक्षा का प्रचार हुश्रा है तब से उसकी उत्पादन-शक्ति में भी सर्वत्र बहुत बड़ी वृद्धि हो गई है। अमरीका में १४९२ से १८६० तक अर्थात् ३६४ वर्षों में जो सम्पत्ति एकत्रित की गई थी उसका औसत ५१४ शिलिङ्ग प्रति मनुष्य था। तब से १९०४ तक में अर्थात् केवल ४४ वर्षों में ही यह औसत बढ़कर १,३१८ शिलिङ्ग प्रति मनुष्य हो गया। या यह कि ४४ वर्षों में ८०४ शिलिङ्ग प्रति मनुष्य के हिसाब से वृद्धि हुई....।

"उसके बाद से यह वृद्धि और भी अधिक आश्चर्य-जनक हुई है। यह वृद्धि कुछ तो वस्तुओं का मूल्य बढ़ जाने से, या डालर की क्रय-शक्ति घट जाने से, और कुछ एकत्रित धन के प्रयोग तथा कतिपय अन्य कारणों से हुई है। पर इन सब बातों का समुचित ध्यान रखने पर भी इस परिणाम पर आना ही पड़ता है कि राष्ट्र की शिक्षण-पद्धति नागरिकों की उत्पादन-शक्ति की इस महान् वृद्धि का एक बहुत बड़ा कारण है। अशिक्षित देशों की उत्पादन-शक्ति इस प्रकार नहीं बढ़ रही है।"

डाक्टर केसवेल एलिस का यह विचार सर्वथा सत्य है कि शिक्षा के बिना प्राकृतिक साधन किसी काम के नहीं होते। इस बात से केवल भारत-सरकार सहमत नहीं है कि भारतवासियों की भयङ्कर दीनता अधिकांश में उनकी अज्ञानता और निरक्षरता के कारण है। और शोचनीय अज्ञानता और निरक्षरता का उत्तरदायित्व एक-मात्र ब्रिटिश सरकार पर है। भारत-सरकार ने यह कभी नहीं सोचा कि—

"एक निरक्षर जाति की योग्यता एक शिक्षित राष्ट्र की प्रतिद्वन्द्विता में वैसी ही है जैसा पहियेदार हल के विरुद्ध टेढ़ा पुराने ढङ्ग की लकड़ी का हल, फसल काटने की मशीन के विरुद्ध हँसिया; एक्सप्रेस ट्रेन, जहाज़ या वायुयान के विरुद्ध बैलगाड़ी; तार, टेलीफ़ोन और बेतार के तार के विरुद्ध हरकारा; छापाखाना, समाचार-पत्र और पुस्तकालय के विरुद्ध एक अकेले व्यक्ति की आवाज; विद्युत् प्रकाश के विरुद्ध, जलती हुई पतली लकड़ी; बैङ्क, चेक-बुक, रेल की सड़के और सरकारी विभागों के भाण्डार के विरुद्ध बैलगाड़ी पर लादकर चमड़ा और घास बेचना; फौलादी अट्टालिका के विरुद्ध लट्ठों की झोपड़ी, सूक्ष्मदर्शक यंत्र और दूरबीन के विरुद्ध असहाय आँखें, रसायन, अस्पताल, और आधुनिक चिकित्सक तथा जर्राह के विरुद्ध झाड़-फूक और जादू। एक पूरी पीड़ी को समस्त शिक्षाओं से वञ्चित कर दीजिए बस वह फिर मामूली लकड़ी के हल, बैलगाड़ी और ऐसे ही प्रारम्भिक साधनों की ओर लौट जायगी क्योंकि फौलाद के हथियार, वाष्प-यन्त्र के जहाज़, बिजली, टेलीफोन, तार, पानी के नल, लोहे की इमारतें, खान खोदना, रसायन, कारखाने, आधुनिक नगर-स्वच्छता, स्वास्थ्य-विज्ञान और चिकित्सा, पुस्तकें, समाचार-पत्र, कचहरियाँ, और कानून जो सम्पत्ति की रक्षा करते हैं और निर्बलों के अधिकार सुरक्षित रखते हैं, आदि सब बातें शिक्षा के बिना असम्भव हैं और केवल उतनी ही मात्रा में सफल हो सकती हैं जितनी मात्रा में उनमें शिक्षित बुद्धि का प्रयोग होगा।[]"

अमरीकन राष्ट्र की भांति अपनी शिक्षण-पद्धति का आर्थिक मूल्य प्रदर्शित करने के बजाय भारत-सरकार के उच्च पदाधिकारी लोग भारतीयों की, शिक्षा को आर्थिक दृष्टि से देखने की, प्रवृत्ति पर खेद प्रकट करते हैं। अहा, एक राष्ट्रीय शासन-प्रणाली और बाहर से आये स्वार्थसाधकों के विदेशी शासन में कितना अन्तर है!

मिस मेयो अपनी पुस्तक के १८४ पृष्ठ पर मेरी 'राष्ट्रीय शिक्षा की समस्या' नामक पुस्तक के एक उद्धरण की समालोचना करती हुई लिखती है:—

"१९२३-२४ में शिक्षा पर भारत के सार्वजनिक चन्दे का कुल व्यय जिसमें म्युनिसिपल बोर्ड, डिस्ट्रिक्ट बोर्ड, प्रान्तीय सरकार, और केन्द्रीय सरकार की सहायता भी सम्मिलित है, १९.९ करोड़ रुपया या १,३८,२०,००० पौंड तक पहुँच गया था। जो कार्य्य करना है उसके लिए यह धन अत्यन्त न्यून है। फिर भी यदि इस व्यय का ब्रिटिश-भारत के कुल कर के साथ मिलान किया जाय तो ज्ञात होगा कि अन्य देशों में कुल कर का जो भाग शिक्षा पर व्यय होता है उससे यह न्यून नहीं है।"

मिस मेयो का अङ्करें पर विचार करने का यह निराला ही ढङ्ग है। वह म्युनिसिपैलिटी और डिस्ट्रिक्ट बोर्डों की सहायता ही नहीं सम्मिलित करती किन्तु फ़ीस और जनता का दान भी इसी में जोड़ देती है। १९२३-२४ में सरकार की कुल सहायता, प्रान्तीय और केन्द्रीय मिलाकर केवल ९,७४,७६,००० रु॰ की अर्थात् शिक्षा पर जो कुल व्यय हुआ उसके आधे से भी कम थी।

१९२४-२५ में—इसके आगे के अङ्क अभी प्राप्त नहीं हैं—सरकारी सहायता, समस्त साधनों से प्राप्त २०,८७,४८,००० रुपयों में से केवल ९,९८,००,००० रुपये थी। १९२४-२५ की सरकारी रिपोर्ट में ४ थे पृष्ठ पर लिखा है कि 'भारत में शिक्षा पर सरकार का कुल खर्च ९,९८,०१,५९४ रुपया हुआ है जिसका औसत प्रति व्यक्ति केवल चार आना है। [इसे ब्रिटिश करेन्सी का करीब ४ पेन्स और अमरीकन करेन्सी का करीब ८ पेन्स समझना चाहिए] इसी बीच में सरकार द्वारा शिक्षा पर व्यय किये गये कुल धन में ४८.९ से ४७.९ प्रतिशत तक कमी हो गई है पर फीस से प्राप्त धन में २१.८ से २२.४ प्रति शत तक वृद्धि हुई है।' भारतीय शिक्षा के सब विभागों में मिला कर ५०,००० से भी कम योरपीय विद्यार्थियों के लिए सरकारी कोष से प्रति वर्ष लगभग ५० लाख रुपया व्यय किया जाता है। यह प्रतिवर्ष प्रति विद्यार्थी १०० रुपया पड़ता है। समस्त भारत में बँटी योरपीयन जनसंख्या पर जो २ लाख से भी कम है, यह प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति २५ रु॰ से भी अधिक पड़ता है। अब इसकी तुलना प्रति भारतीय की शिक्षा के लिए व्यय की गई तुच्छ चवन्नी से कीजिए। कोई राष्ट्रीय शासन कभी शिक्षा को इतनी तुच्छ वस्तु समझ सकता है जितना कि वर्तमान सरकार भारत के लिए समझ रही है, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। अमरीका, ब्रिटेन और फ्रांस के धनी और साधन-सम्पन्न शासन की बातें जाने दें। तब भी यह सबको मालूम है कि उदार काल्मीज़ सरकार मेक्सिको जैसे दीन देश की शिक्षा के लिए क्या कर रही है? क्या भारत-सरकार के उद्योगों की तुलना गरीब मेक्सिको की सरकार के साथ भी हो सकती है?[]


  1. भारत में राष्ट्रीय शिक्षा की समस्या। जार्ज एलेन एण्ड यूनियन, लन्दन, १९२०
  2. डाक्टर ए॰ केसवेल एलिस। उसी पुस्तक से।
  3. श्रीयुत जे॰ डब्ल्यू ब्राउन अपनी हाल ही की प्रकाशित 'आधुनिक मेक्सिको' नामक पुस्तक में (जो लेबर पब्लिशिंग कंपनी से १९२७ में प्रकाशित हुई है) कहते हैं कि 'मेक्सिको की २८ रियासतें इस समय शिक्षा पर अपने बजट का ४० प्रतिशत व्यय कर रही हैं। सामूहिक सरकार जो व्यय करती है वह अलग ही है।