चन्द्रगुप्त मौर्य्य/चतुर्थ अंक/६
६
सिन्धु-तट—पर्णकुटीर। चाणक्य और कात्यायन
चाणक्य—कात्यायन, सो नहीं हो सकता! मैं अब मंत्रित्व नहीं ग्रहण करने का। तुम यदि किसी प्रकार मेरा रहस्य खोल दोगे, तो मगध का अनिष्ट ही करोगे।
कात्या॰—तब मैं क्या करूँ? चाणक्य, मुझे तो अब इस राज-काज में पड़ना अच्छा नहीं लगता।
चाणक्य—जब तक गांधारा का उपद्रव है, तब तक तुम्हें बाध्य होकर करना पड़ेगा। बताओ, नया समाचार क्या है?
कात्या॰—राक्षस सिल्यूकस की कन्या को पढ़ाने के लिये वहीं रहता है और यह सारा कुचक्र उसी का है! वह इन दिनों वाल्हीक की ओर गया है। मैं अपना वार्तिक पूरा कर चुका, इसीलिए मगध से अवकाश लेकर आया था। चाणक्य, अब मैं मगध जाना चाहता हूँ। यवन शिविर में अब मेरा जाना असम्भव है।
चाणक्य—जितना शीघ्र हो सके, मगध पहुँचो। मैं सिंहरण को ठीक रखता हूँ। तुम चन्द्रगुप्त को भेजो। सावधान, उसे न मालूम हो कि मैं यहाँ हूँ! अवसर पर मैं स्वयं उपस्थित हो जाऊँगा। देखो, शकटार और तुम्हारे भरोसे मगध रहा है! कात्यायन, यदि सुवासिनी को भेजते तो कार्य में आशातीत सफलता होती। समझे?
कात्या॰—(हँसकर)—यह जानकर मुझे प्रसन्नता हुई कि तुम...सुवासिनी अच्छा... विष्णुगुप्त! गार्हस्थ्य जीवन कितना सुन्दर है!
चाणक्य—मूर्ख हो, अब हम-तुम साथ ही ब्याह करेंगे।
कात्यायन—मैं? मुझे नहीं... मरी गृहिणी तो है।
चाणक्य—(हँसकर)—एक ब्याह और सही। अच्छा बताओ, कामकहाँ तक हुआ?
कात्यायन—(पत्र देता हुआ)—हाँ, यह लो, यवन शिविर का विवरण है। परन्तु, विष्णुगुप्त, एक बात कहे बिना न रह सकूँगा। यह यवन-बाला सिर से पैर तक आर्य्य-संस्कृति में पगी है। उसका अनिष्ट?
चाणक्य—(हँसकर)—कात्यायन, तुम सच्चे ब्राह्मण हो! यह करुणा और सौहार्द का उद्रेक ऐसे ही हृदयों में होता है। परन्तु मैं निष्ठुर! हृदयहीन! मुझे तो केवल अपने हाथों खड़ा किये हुए एक साम्राज्य का दृश्य देख लेना है।
कात्यायन—फिर भी चाणक्य, उसका सरस मुख-मण्डल! उस लक्ष्मी का अमंगल!
चाणक्य—(हँस कर)—तुम पागल तो नहीं हो गये हो?
कात्यायन—तुम हँसो मत चाणक्य! तुम्हारा हँसना तुम्हारे क्रोध से भी भयानक है। प्रतिज्ञा करो कि उसका अनिष्ट न करूँगा। बोलो।
चाणक्य—कात्यायन! अलक्षेन्द्र कितने विकट परिश्रम से भारतवर्ष के बाहर किया गया—यह तुम भूल गये? अभी है कितने दिनों की बात। अब इस सिल्यूकस को क्या हुआ जो चला आया! तुम नहीं जानते कात्यायन, इसी सिल्यूकस ने चन्द्रगुप्त की रक्षा की थी, नियति अब उन्हीं दोनों को एक-दूसरे के विपक्ष में खड्ग खींचे हुए खड़ा कर रही है!
कात्यायन—कैसे आश्चर्य की बात है!
चाणक्य—परन्तु इससे क्या? वह तो होकर रहेगा, जिसे मैंने स्थिर कर लिया है! वर्तमान भारत की नियति मेरे हृदय पर जलद-पटल में बिजली के समान नाच उठती है! फिर मैं क्या करूँ?
कात्या॰—तुम निष्ठुर हो!
चाणक्य—अच्छा, तुम सदय होकर एक बात कर सकोगे? बोलो!चन्द्रगुप्त और उस यवन-बाला के परिणय में आचार्य बनोगे?
कात्या॰—क्या कह रहे हो? यह हँसी!
चाणक्य—यही है तुम्हारी दया की परीक्षा—देखूँ तुम क्या करते हो! क्या इसमें यवन-बाला का अमंगल है?
कात्या॰—(सोचकर)—मंगल है; मैं प्रस्तूत हूँ।
चाणक्य—(हँसकर)—तब तुम निश्चय ही एक सहृदय व्यक्ति हो।
कात्या॰—अच्छा तो मैं जाता हूँ।
चाणक्य—हाँ जाओ। स्मरम रखना, हम लोगों के जीवन में यह अन्तिम संघर्ष है। मुझे आज आम्भीक से मिलना है। यह लोलुप राजा, देखूँ, क्या करता है।
[कात्यायन का प्रस्थान - चर का प्रवेश]
चर—महामात्य की जय हो!
चाणक्य—इस समय जय की बड़ी आवश्यकता है। आम्भीक को यदि जय कर सका, तो सर्वत्र जय है। बोलो, आम्भीक ने क्या कहा?
चर—वे स्वयं आ रहे हैं।
चाणक्य—आने दो, तुम जाओ।
[चर का प्रस्थान—आम्भीक का प्रवेश]
आम्भीक—प्रणाम, ब्राह्मण देव!
चाणक्य—कल्याण हो। राजन्, तुम्हें भय तो नहीं लगता? में एकदुर्नाम मनुष्य हूँ!
आम्भीक—नहीं आर्य्य, आप कैसी बात कहते हैं!
चाणक्य—तो ठीक है, इसी तक्षशिला के मठ में एक दिन मैंने कहा था—'सो कैसे होगा अविश्वासी क्षत्रिय! तभी तो म्लेच्छ लोग साम्राज्य बना रहे हैं और आर्य्य-जाति पतन के कगार पर खड़ी एक धक्के की राह देख रही है!'
आम्भीक—स्मरण है।
चाणक्य—तुम्हारी भूल ने कितना कुत्सित दृश्य दिखाया—इसे भी सम्भवतः तुम न भूले होगे।
आम्भीक—नहीं।
चाणक्य—तुम जानते हो कि चन्द्रगुप्त ने दक्षिणापथ के स्वर्णगिरि से पंचनद तक, सौराष्ट्र से बंग तक एक महान् साम्राज्य स्थापित किया है। यह साम्राज्य मगध का नहीं है, यह आर्य्य-साम्राज्य है। उत्तरापथ के सब प्रमुख गणतंत्र मालव, क्षुद्रक और यौधेय आदि सिंहरण के नेतृत्व में इस साम्राज्य के अंग हैं। केवल तुम्हीं इससे अलग हो। इस द्वितीय यवन-आक्रमण से तुम भारत के द्वार की रक्षा कर लोगे, या पहले ही के समान उत्कोच लेकर, द्वार खोलकर, सब झंझटों से अलग हो जाना चाहते हो?
आम्भीक—आर्य्य, वही त्रुटि बार-बार न होगी।
चाणक्य—तब साम्राज्य झेलम-तट की रक्षा करेगा। सिन्धु घाटी का भार तुम्हारे ऊपर रहा।
आम्भीक—अकेले मैं यवनों का आक्रमण रोकने में असमर्थ हूँ।
चाणक्य—फिर उपाय क्या है?
[नेपथ्य से जयघोष। आम्भीक चकित होकर देखने लगता है।]
चाणक्य—क्या है, सुन रहे हो?
आम्भीक—समझ में नहीं आया। (नेपथ्य की ओर देखकर) वह एक स्त्री आगे-आगे कुछ गाती हुई आ रही है और उसके साथ बड़ी-सी भीड़—(कोलाहल समीप होता है)।
चाणक्य—आओ हम लोग हट कर देखें (दोनों अलग छिप जाते है)
[आर्य्य-पताका लिये अलका का गाते हुए, भीड़ के साथ प्रवेश]
अलका—तक्षशिला के वीर नागरिको! एक बार, अभी-अभी सम्राट् चन्द्रगुप्त ने इसका उद्धार किया था, आर्य्यवर्त्त-प्यारा देश-ग्रीकों की विजय-लालसा से पुनः पद-दलित होने जा रहा है। तब तुम्हारा शासक तटस्थ रहने का ढोंग करके पुण्यभूमि को परतंत्रता की श्रृंखला पहनाने का दृश्य राजमहल के झरोखों से देखेगा। तुम्हारा राजा कायर है, और तुम?
नागरिक—हम लोग उसका परिणाम देख चुके हैं माँ! हम लोग प्रस्तुत हैं।
अलका—यही तो—(समवेत स्वर से गायन)
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से
प्रबुद्ध शुद्ध भारती—
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला
स्वतन्त्रता पुकारती—
अमर्त्य वीरपुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञा सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है—बढ़े चलो बढ़े चलो।
असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ,
विकीर्ण दिव्य दाह-सी।
सपूत मातृभूमि के—
रुको न शूर साहसी!
अराति सैन्य सिन्धू में—सुवाड़वाग्नि—से जलो,
प्रवीर हो जयी बनो—बढ़े चलो, बढ़े चलो।
(सब का प्रस्थान)
आम्भीक—यह अलका है! तक्षशिला में उत्तेजना फैलाती हुई—यह अलका!
चाणक्य—हाँ आम्भीक! तुम उसे बन्दी बनाओ, मुँह बन्द करो।
आम्भीक—(कुछ सोचकर) असम्भव! मैं भी साम्राज्य में सम्मिलित होऊँगा।
चाणक्य—यह मैं कैसे कहूँ? मेरी लक्ष्मी-अलका ने आर्य्य गौरव के लिए क्या-क्या कष्ट नहीं उठाये। वह भी तो इसी वंश की बालिका है। फिर तुम तो पुरुष हो, तुम्हीं सोचकर देखो।
आम्भीक—व्यर्थ का अभिमान अब मुझे देश के कल्याण में बाधक न सिद्ध कर सकेगा। आर्य्य चाणक्य, मैं आर्य्य-साम्राज्य के बाहर नहीं हूँ।
चाणक्य—तब तक्षशिला-दुर्ग पर मगध-सेना अधिकार करेगी। यह तुम सहन करोगे?
[आम्भीक सिर निचा करके विचारता है]
चाणक्य—क्षत्रिय! कह देना और बात है, करना और।
आम्भीक—(आवेश में)—हार चुका ही हूँ, पराधीन हो ही चुका हूँ। अब स्वदेश के अधीन होने में उससे अधिक कलंक तो मुझे लगेगा नहीं, आर्य्य चाणक्य!
चाणक्य—तो इस गांधार और पंचनद का शासन-सूत्र होगा अलका के हाथ में और तक्षशिला होगी उसकी राजधानी, बोलो, स्वीकार है?
आम्भीक—अलका?
चाणक्य—हाँ, अलका। और सिंहरण इस महाप्रदेश के शासक होंगे।
आम्भीक—सब स्वीकार है, ब्राह्मण! मैं केवल एक बार यवनों के सम्मुख अपना कलंक धोने का अवसर चाहता हूँ। रण-क्षेत्र में एक सैनिक होना चाहता हूँ। और कुछ नहीं।
चाणक्य—तुम्हारा अभीष्ट पूर्ण हो!
[संकेत करता है—सिंहरण और अलका का प्रवेश]
अलका—भाई! आम्भीक!
आम्भीक—बहन! अलका! तू छोटी है, पर मेरी श्रद्धा का आधार है। मैं भूल करता था बहन! तक्षशिला के लिए अलका पर्याप्त है,आम्भीक की आवश्यकता न थी!
अलका—भाई, क्या कहते हो!
आम्भीक—मैं देशद्रोही हूँ। नीच हूँ। अधम हूँ! तूने गांधार के राजवंश का मुख उज्ज्वल किया है। राज्यासन के योग्य तू ही है।
अलका—भाई! अब भी तुम्हारा भ्रम नहीं गया! राज्य किसी का नहीं है, सुशासन का है! जन्मभूमि के भक्तों में आज जागरण है। देखते नहीं, प्राच्य में सूर्योदय हुआ है! स्वयं सम्राट् चन्द्रगुप्त तक इस महान आर्य्य-साम्राज्य के सेवक हैं। स्वतंत्रता के युद्ध में सैनिक और सेनापति का भेद नहीं। जिसकी खड्ग-प्रभा में विजय का आलोक चमकेगा, वही वरेण्य है। उसी की पूजा होगी। भाई! तक्षशिला मेरी नहीं और तुम्हारी भी नहीं, तक्षशिला आर्य्यवर्त्त का एक भू-भाग है; वह आर्य्यवर्त्त की होकर ही रहे, इसके लिए मर मिटो। फिर उसके कणों में तुम्हारा ही नाम अंकित होगा। मेरे पिता स्वर्ग में इन्द्र से प्रतिस्पर्धा करेंगे। वहाँ की अप्सराएँ विजयमाला लेकर खड़ी होंगी, सूर्यमण्डल मार्ग बनेगा और उज्ज्वल आलोक से मण्डित होकर गांधार राजकुल अमर हो जायगा!
चाणक्य—साधु! अलके, साधु!
आम्भीक—(खड्ग खींचकर)—खड्ग की शपथ—मैं कर्तव्य से च्युत न होऊँगा!
सिंहरण—(उसे आलिंगन करके)—मित्र आम्भीक! मनुष्य साधारण धर्मा पशु है, विचारशील होने से मनुष्य होता है और निःस्वार्थ कर्म करने से वही देवता भी हो सकता है।
[आम्भीक का प्रस्थान]
सिंह॰—अलका, सम्राट् किस मानसिक वेदना में दिन बिताते होंगे?
अलका—वे वीर हैं मालव, उन्हें विश्वास है कि मेरा कुछ कार्य है, उसकी साधना के लिए प्रकृति, अदृष्ट, दैव या ईश्वर, कुछ-न-कुछ अवलम्बन जुटा ही देगा! सहायक चाहे आर्य्य चाणक्य हों या मालव!
सिंह॰—अलका, उस प्रचण्ड पराक्रम को मैं जानता हूँ। परन्तु मैं यह भी जानता हूँ कि सम्राट् मनुष्य हैं। अपने से बार-बार सहायता करने के लिए कहने में, मानव-स्वभाव विद्रोह करने लगता है। यह सौहार्द और विश्वास का सुन्दर अभिमान है। उस समय मन चाहे अभिनय करता हो संघर्ष से बचने का, किन्तु जीवन अपना संग्राम अन्ध होकर लड़ताहै । कहता है—अपने को बचाऊँगा नहीं, जो मेरे मित्र हों, आवें और अपना प्रमाण दें।
(दोनों का प्रस्थान)
[सुवासिनी का प्रवेश]
चाणक्य—सुवासिनी, तुम यहाँ कैसे?
सुवा॰—सम्राट् को अभी तक आपका पता नहीं, पिताजी ने इसीलिए मुझे भेजा है। उन्होंने कहा—जिस खेल को आरम्भ किया है, उसका पूर्ण और सफल अन्त करना चाहिए।
चाणक्य—क्यों करें सुवासिनी, तुम राक्षस के साथ सुखी जीवन बिताओगी, यदि इतनी भी मुझे आशा होती... वह तो यवन-सेनानी है, और तुम मगध की मन्त्रि-कन्या! क्या उससे परिणय कर सकोगी?
सुवा॰—(निःश्वास लेकर)—राक्षस से! नहीं, असम्भव! चाणक्य तुम इतने निर्दय हो!
चाणक्य—(हँसकर)—सुवासिनी! वह स्वप्न टूट गया—इस विजन बालुका-सिन्धु मं एक सुधा की लहर दौड़ पड़ी थी, किन्तु तुम्हारे एक भू-भंग ने उसे लौटा दिया! मैं कंगाल हूँ (ठहरकर)—सुवासिनी! मैं तुम्हें दण्ड दूँगा। चाणक्य की नीति में अपराधों के दण्ड से कोई मुक्त नहीं।
सुवा॰—क्षमा करो विष्णुगुप्त।
चाणक्य—असम्भव है। तुम्हें राक्षस से ब्याह करना ही होगा, इसी में हमारा-तुम्हारा और मगध का कल्याण है।
सुवा॰—निष्ठुर! निर्दय!!
चाणक्य—(हँसकर)—तुम्हें अभिनय भी करना पड़ेगा। उसमें समस्त सञ्चित कौशल का प्रदर्शन करना होगा। सुवासिनी, तुम्हें बन्दिनी बन कर ग्रीक-शिविर में राक्षस और राजकुमारी के पास पहुँचना होगा—राक्षस को देशभक्त बनाने के लिए और राजकुामरी की पूर्वस्मृति में आहुति देने के लिए। कार्नेलिया चन्द्रगुप्त से परिणीता होकर सुखी हो सकेगी कि नहीं, इसकी परीक्षा करनी होगी।
[सुवासिनी सिर पकड़ कर बैठ जाती है]
चाणक्य—(उसके सिर पर हाथ रखकर)—सुवासिनी! तुम्हारा प्रणय, स्त्री और पुरुष के रूप में केवल राक्षस से अंकुरित हुआ, और शैशव का वह सब, केवल हृदय की स्निग्धता थी। आज किसी कारण से राक्षस का प्रणय द्वेष में बदल रहा है, परन्तु काल पाकर वह अंकुर हरा-भरा और सफल हो सकता है! चाणक्य यह नहीं मानता कि कुछ असम्भव है। तुम राक्षस से प्रेम करके सुखी हो सकती हो, क्रमशः उस प्रेम का सच्चा विकास हो सकता है। और मैं, अभ्यास करके तुमसे उदासीन हो सकता हूँ, यही मेरे लिए अच्छा होगा। मानव हृदय में यह भाव-सृष्टि तो हुआ ही करती है। यही हृदय का रहस्य है, तब हम लोग जिस सृष्टि में स्वतंत्र हों, उसमें परवशता क्यों मानें? मैं क्रूर हूँ, केवल वर्तमान के लिए, भविष्य के सुख और शान्ति के लिए, परिणाम के लिए नहीं। श्रेय के लिए, मनुष्य को सब त्याग करना चाहिए, सुवासिनी! जाओ!
सुवा॰—(दीनता से चाणक्य का मुँह देखती है)—तो विष्णुगुप्त, तुम इतना बड़ा त्याग करोगे। अपने हाथों बनाया हुआ, इतने बड़े साम्राज्य का शासन हृदय की आकांक्षा के साथ अपने प्रतिद्वन्द्वी को सौंप दोगे! और सो भी मेरे लिए!
चाणक्य—(घबड़ाकर)—मैं बड़ा विलम्ब कर रहा हूँ। सुवासिनी, आर्य्य दाण्डयायन के आश्रम में पहुँचने के लिए मैं पथ भूल गया हूँ। मेघ के समान मुक्त वर्षा-सा जीवन-दान, सूर्य के समान अबाध आलोक विकीर्ण करना, सागर के समान कामना, नदियों को पचाते हुए सीमा के बाहर न जाना, यही तो ब्राह्मण का आदर्श है। मुझे चन्द्रगुप्त को मेघमुक्त चन्द्र देख कर, इस रंग-मंच से हट जाना है।
सुवा॰—महापुरुष! मैं नमस्कार करती हूँ। विष्णुगुप्त, तुम्हारी बहन तुमसे आशीर्वाद की भिखारिन है। (चरण पकड़ती है)
चाणक्य—(सजल नेत्र से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए)—सुखी रहो।
(प्रस्थान)