चन्द्रगुप्त मौर्य्य/चतुर्थ अंक/५

चन्द्रगुप्त मौर्य्य
जयशंकर प्रसाद

इलाहाबाद: भारती भंडार, पृष्ठ १८७ से – १८९ तक

 

चन्द्रगुप्त--( अकेले टहलता हुआ )--चतुर सेवक के समान ससार को जगा कर अन्धकार हट गया। रजनी की निस्तब्धता काकली से चचल हो उठी है! नीला आकाश स्वच्छ होने लगा है, या निद्राक्लान्तः निशा उपा की शुभ्र चादर ओढ कर नीद की गोद में लेटने चली है। यह जागरण का अवसर है। जागरण का अर्थ है कर्म्मक्षेत्र में अवतीर्ण होना। और कर्मक्षेत्र क्या है? जीवन-सग्राम! किन्तु भीषण सघर्ष करके भी में कुछ नही हूँ। मेरी सत्ता एक कठपुतली-सी है। तो फिर... मेरे पिता, मेरी माता, इनका तो सम्मान आवश्यक था। वे चले गये, मै देखता हूँ कि नागरिक तो क्या, मेरे आत्मीय भी आनन्द मनाने से वचित किये गये। यह परतत्रता कब तक चलेगी? प्रतिहारी!

प्रतिहारी--( प्रवेश करके )--जय हो देव!

चन्द्र०––आर्य्य चाणक्य को शीघ्र लिव लाओ!

[ प्रतिहारी का प्रस्थान ]

चन्द्र०––( टहलते हुए )--प्रतिकार आवश्यक है।

[ चाणक्य का प्रवेश ]

चन्द्र०--आर्य्य, प्रणाम!

चाणक्य--कल्याण हो आयुष्मन्, आज तुम्हारा प्रणाम भारी-सा है!

चन्द्र०--मैं कुछ पूछना चाहता हूँ।

चाणक्य--यह तो मैं पहले ही से समझता था! तो तुम अपने स्वागत के लिए लड़को के सदृश रूठे हो?

चन्द्र०--नही आर्य्य, मेरे माता-पिता--में जानना चाहता हूँ कि उन्हें किसने निर्वासित किया?

चाणक्य--जान जाओगे तो उसका वव करोगे! क्यो?

[ हँसता है ]

चन्द्र॰—हँसिए मत! गुरुदेव! आपकी मर्यादा रखनी चाहिए, यह मैं जानता हूँ। परन्तु वे मेरे माता-पिता थे, यह आपको भी जानना चाहिए।

चाणक्य—तभी तो मैंने उन्हें उपयुक्त अवसर दिया। अब उन्हें आवश्यकता थी शान्ति की, उन्होंने वानप्रस्थाश्रम ग्रहण किया है। इसमें खेद करने की कौन बात है?

चन्द्र॰—यह अक्षुण्ण अधिकार आप कैसे भोग रहे हैं? केवल साम्राज्य का ही नहीं, देखता हूँ, आप मेरे कुटुम्ब का भी नियंत्रण अपने हाथों में रखना चाहते हैं।

चाणक्य—चन्द्रगुप्त! मैं ब्राह्मण हूँ! मेरा साम्राज्य करुणा का था, मेरा धर्म प्रेम का था। आनन्द-समुद्र में शान्ति-द्वीप का अधिवासी ब्राह्मण मैं, चन्द्र-सूर्य-नक्षत्र मेरे दीप थे, अनन्त आकाश वितान था, शस्यश्यामला कोमला विश्वम्भरा मेरी शय्या थी। बौद्धिक विनोद कर्म था, सन्तोष धन था। उस अपनी, ब्राह्मण की, जन्म-भूमि को छोड़कर कहाँ आ गया! सौहार्द के स्थान पर कुचक्र, फूलों के प्रतिनिधि काँटे, प्रेम के स्थान में भय। ज्ञानामृत के परिवर्तन में कुमंत्रणा। पतन और कहाँ तक हो सकता है! ले लो मौर्य्य चन्द्रगुप्त! अपना अधिकार, छीन लो। यह मेरा पुनर्जन्म होगा। मेरा जीवन राजनीतिक कुचक्रों से कुत्सित और कलंकित हो उठा है। किसी छायाचित्र, किसी काल्पनिक महत्व के पीछे भ्रमपूर्ण अनुसंधान करता दौड़ रहा हूँ! शान्ति खो गयी, स्वरूप विस्मृत हो गया? जान गया, मैं कहाँ और कितने नीचे हूँ। (प्रस्थान)

चन्द्र॰—जाने दो। (दीर्घ निश्वास लेकर)—तो क्या मैं असमर्थ हूँ? ऊँह, सब हो जायगा।

सिंहरण—(प्रवेश करके) सम्राट्‌ की जय हो! कुछ विद्रोही और षड्‌यन्त्रकारी पकड़े गये हैं। एक बड़ी दुखद घटना भी हो गयी है!

चन्द्रगुप्त—(चौंक कर)—क्या?

सिंह॰—मालविका की हत्या... (गद्‌गद्‌ कंठ से)—आपका परिच्छद पहन कर वह आप ही की शय्या पर लेटी थी।

चन्द्रगुप्त—तो क्या, उसने इसीलिए मेरे शयन का प्रबन्ध दूसरे प्रकोष्ठ में किया! आह! मालविका!

सिंह॰—आर्य्य चाणक्य की सूचना पाकर नायक पूरे गुल्म के साथ राज-मन्दिर की रक्षा के लिए प्रस्तुत था। एक छोटा-सा युद्ध होकर वे हत्यारे पकड़े गये। परन्तु उनका नेता राक्षस निकल भागा ।

चन्द्र॰—क्या! राक्षस उनका नेता था?

सिंह॰—हाँ सम्राट्‌! गुरुदेव बुलाये जायँ!

चन्द्र॰—वही तो नहीं हो सकता, वे चले गये। कदाचित्‌ न लौटेंगे।

सिंह॰—ऐसा क्यों? क्या आपने कुछ कह दिया?

चन्द्रगुप्त—हाँ सिंहरण! मैंने अपने माता-पिता के चले जाने का कारण पूछा था।

सिंह॰—(निःश्वास लेकर)—तो नियति कुछ अदृष्ट का सृजन कर रही है! सम्राट्‌, मैं गुरुदेव को खोजने जाता हूँ!

चन्द्रगुप्त—(विरक्ति से)—जाओ, ठीक है - अधिक हर्ष, अधिक उन्नति के बाद ही तो अधिक दुःख और पतन की बारी आती है!

[सिंहरण का प्रस्थान]

चन्द्र॰—पिता गये, माता गयी, गुरुदेव गये, कन्धे-से-कन्धा भिड़ाकर प्राण देने वाला चिर-सहचर सिंहरण गया! तो भी चन्द्रगुप्त को रहना पड़ेगा, और रहेगा, परन्तु मालविका! आह, वह स्वर्गीय कुसुम!

[चिन्तित भाव से प्रस्थान]