चंद्रकांता संतति भाग 5  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री
[ १८४ ]

बीसवाँ भाग

1

भूतनाथ और देवीसिंह को कई आदमियों ने पीछे से पकड़ कर अपने काबू में कर लिया और उसी समय एक आदमी ने किसी विचित्र भाषा में पुकार कर कुछ कहा, जिसे सुनते ही वे दोनों औरतें अर्थात् चम्पा तथा भूतनाथ की स्त्री चिराग फेंक-फेंककर पीछे की ओर लौट गईं, अंधकार के कारण कुछ मालूम न हुआ कि वे दोनों कहाँ गईं, हाँ भूतनाथ और देवीसिंह को इतना मालूम हो गया कि उन्हें गिरफ्तार करने वाले भी सब नकाबपोश हैं। भूतनाथ की तरह देवीसिंह भी सूरत बदल कर अपने चेहरे पर नकाब डाले हुए थे।

गिरफ्तार हो जाने के बाद भूतनाथ और देवीसिंह दोनों एक साथ कर दिये गये और दोनों ही को लिए हुए वे सब बीच वाले बंगले की तरफ रवाना हुए। यद्यपि अंधकार के अतिरिक्त सूरत बदलने और नकाब डाले रहने के सबब एक का दूसरे को पहचानना कठिन था तथापि अन्दाज ही से एक को दूसरे ने जान लिया और शरमिन्दगी के साथ धीरे-धीरे उस बँगले की तरफ जाने लगे। जब बंगले के पास पहुँचे तो आगे वाले दालान में जहाँ दो चिरागों की रोशनी थी, तीन आदमियों को हाथ में नंगी तलवारें लिए पहरा देते देखा। वहाँ पहुँचने पर हमारे दोनों ऐयारों को मालूम हुआ कि उन्हें गिरफ्तार करने वाले गिनती में आठ से ज्यादा नहीं हैं। उस समय देवीसिंह और भूतनाथ के दिल में थोड़ी देर के लिए यह बात पैदा हुई कि केवल आठ आदमियों से हमें गिरफ्तार हो जाना उचित न था और अगर हम चाहते तो इन लोगों से अपने को बचा ही लेते, मगर उन दोनों का यह विचार तुरन्त ही जाता रहा, जब उन्होंने कुछ कमोबेश यह सोचा कि अगर हम इन लोगों से अपने को बचा लेते तो क्या होता क्योंकि यहाँ से निकल कर भाग जाना कठिन था और अगर भाग भी जाते तो जिस काम के लिए आये, उससे हाथ धो बैठते, अतः जो होगा देखा जायेगा।

इस दालान में अन्दर जाने के लिए दरवाजा था और उसके आगे लाल रंग का रेशमी पर्दा लटक रहा था। दीवार-छत इत्यादि सब रंगीन बने हुए थे और उन पर बनी [ १८५ ]हुई तरह-तरह की तस्वीरें अपनी खूबी और खूबसूरती के सबब देखने वालों का दिल खींच लेती थीं, परन्तु इस समय उन पर भरपूर और बारीक निगाह डालना हमारे ऐयारों के लिए कठिन था इसलिए हम भी उनका हाल बयान नहीं कर सकते।

जो लोग दोनों ऐयारों को गिरफ्तार कर लाये थे, बनमें से एक आदमी पर्दा उठा कर बँगले के अन्दर चला गया और चौथाई घड़ी के बाद लौट आकर अपने साथियों से बोला, "इन दोनों महाशयों को सरदार के सामने ले चलो और एक आदमी जाकर इनके लिए हथकड़ी-बेड़ी भी ले आओ, कदाचित हमारे सरदार इन दोनों के लिए कैदखाने का हुक्म दें।"

अतः एक आदमी हथकड़ी-बेड़ी लाने के लिए चला गया और वे सब देवीसिंह और भूतनाथ को लिए हुए बंगले की तरफ रवाना हुए।

यह बँगला बाहर से जैसा सादा और मामूली ढंग का मालूम होता था, वैसा अन्दर से नहीं था। जूता उतार कर चौखट के अन्दर पैर रखते ही हमारे दोनों ऐयार ताज्जुब के साथ चारों तरफ देखने लगे और फौरन ही समझ गये कि इसके अन्दर रहने वाला या इसका मालिक कोई साधारण आदमी नहीं है। देवीसिंह के लिए यह बात सबसे ज्यादा ताज्जुब की थी और इसीलिए उनके दिल में घड़ी-घड़ी यह बात पैदा होती थी कि यह स्थान हमारे इलाके में होने पर भी अफसोस और ताज्जुब की बात है कि इतने दिनों तक हम लोगों को इसका पता न लगा।

पर्दा उठा कर अन्दर जाने पर हमारे दोनों ऐयारों ने अपने को एक गोल कमरे में पाया जिसकी छत भी गोल और गुम्बददार थी और उसमें बहुत-सी बिल्लौरी हाँडियाँ, जिनमें इस समय मोमबत्तियाँ जल रही थीं, कायदे और मौके के साथ लटक रही थीं। दीवारों पर खूबसूरत जंगलों और पहाड़ों की तस्वीरें निहायत खूबी के साथ बनी थीं जो इस जगह की ज्यादा रोशनी के सबब साफ मालूम होती थीं और यही जान पड़ता था कि अभी ताजा बनकर तैयार हुई हैं। इन तस्वीरों में अकस्मात् देवीसिंह और भूतनाथ ने रोहतासगढ़ के पहाड़ और किले की भी तस्वीर देखी जिसके सबब से और तस्वीरों को भी गौर से देखने का शौक इन्हें हुआ मगर ठहरने की मोहलत न मिलने के सबब से लाचार थे। वहाँ की जमीन पर सुर्ख मखमली मुलायम गद्दा बिछा हुआ था और सदर दरवाजे के अतिरिक्त और भी तीन दरवाजे नजर आ रहे थे, जिन पर बेशकीमत किमखाब के पर्दे पड़े हुए थे और उनमें मोतियों की झालरें लटक रही थीं। हमारे दोनों ऐयारों को दाहिने तरफ वाले दरवाजे के अन्दर जाना पड़ा जहाँ गली के ढंग पर रास्ता घूमा हुआ था। इस रास्ते में भी मखमली गद्दा बिछा हुआ था। दोनों तरफ की दीवारें साफ और चिकनी थीं तथा छत के सहारे एक बिल्लौरी कन्दील लटक रही थी जिसकी रोशनी इस सात-आठ हाथ लम्बी गली के लिए काफी थी। इस गली को पार करके ये दोनों एक बहुत बड़े कमरे में पहुँचाए गए जिसकी सजावट और खूबी ने उन्हें ताज्जुब में डाल दिया और वे हैरत की निगाह से चारों तरफ देखने लगे।

जंगल, मैदान, पहाड़, खोह, दरे, झरने, शिकारगाह तथा शहरपनाह, किले, मोरचे आदि और लड़ाई इत्यादि की तस्वीरें चारों तरफ दीवार में इस खूबी और सफाई [ १८६ ]के साथ बनी हुई थीं कि देखने वाला यह कह सकता था कि बस इससे ज्यादा कारीगरी और सफाई का काम मुसौवर कर ही नहीं सकता। छत पर हर तरह की चिड़ियों और उनके पीछे झपटते हुए बाज-बहरी इत्यादि शिकारी परिन्दों की तस्वीरें बनी हुई थी जो दीवारगीरों और कन्दीलों की तेज रोशनी के सबब बहुत साफ दिखाई दे रही थीं। जमीन पर साफ-सुथरा फर्श बिछा हुआ था और सामने की तरफ हाथ-भर ऊँची गद्दो पर दो काबपोश तथा गद्दी के नीचे और कई आदमी अदब के साथ बैठे हुए थे, मगर उनमें से ऐसा कोई भी न था जिसके चेहरे पर नकाब न हो।

देवीसिंह और भूतनाथ को उम्मीद थी कि हम उन्हीं दोनों नकाबपोशों को उसी ढंग की पोशाक में देखेंगे जिन्हें कई दफा देख चुके हैं मगर यहाँ उसके विपरीत देखने में आया। इस बात का निश्चय तो नहीं हो सकता था कि इस नकाब के अन्दर वही सुरत छिपी हुई है या कोई और लेकिन पोशाक और आवाज यही प्रकट करती थी कि वे दोनों कोई दूसरे ही हैं, मगर इसमें भी कोई शक नहीं कि इन दोनों की पोशाक उन नकाबपोशों से कहीं बढ़-चढ़ के थी जिन्हें भूतनाथ और देवीसिंह देख चुके थे।

जब देवीसिंह और भूतनाथ उन दोनों नकाबपोशों के सामने खड़े हुए तो उन दोनों में से एक ने अपने आदमियों से पूछा, "ये दोनों कौन हैं, जिन्हें गिरफ्तार कर लाए हो?"

एक––जी, इनमें से एक (हाथ का इशारा करके) राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयार देवीसिंह हैं और यह वही मशहूर भूतनाथ है जिसका मुकदमा आज-कल राजा वीरेन्द्रसिंह के दरबार में पेश है।

नकाबपोश––(ताज्जुब से) हाँ! अच्छा, तो ये दोनों यहाँ क्यों आये हैं? अपनी मर्जी से आये हैं या तुम लोग जबर्दस्ती गिरफ्तार कर लाए हो?

वही आदमी––इस हाते के अन्दर तो ये दोनों आदमी अपनी मर्जी से आये थे, मगर यहाँ हम लोग गिरफ्तार करके लाये हैं।

नकाबपोश––(कुछ कड़ी आवाज में) गिरफ्तार करने की जरूरत क्यों पड़ी? किस तरह मालूम हुआ कि ये दोनों यहाँ बदनीयती के साथ आये हैं? क्या इन दोनों ने तुम लोगों से कुछ हुज्जत की थी?

वही आदमी––जी, हुज्जत तो किसी से न की मगर छिप-छिपकर आने और पेड़ की आड़ में खड़े होकर ताक-झाँक करने से मालूम हुआ कि इन दोनों की नीयत अच्छी नहीं है, इसीलिए गिरफ्तार कर लिए गये।

नकाबपोश––इतने बड़े प्रतापी राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐसे नामी ऐयार के साथ केवल इतनी बात पर इस तरह का बर्ताव करना तुम लोगों को उचित न था, कदाचित् ये हम लोगों से मिलने के लिए आए हों। हाँ, अगर केवल भूतनाथ के साथ ऐसा बर्ताव होता तो ज्यादा रंज की बात न थी।

यद्यपि नकाबपोश की आखिरी बात भूतनाथ को कुछ बुरी मालूम हुई, मगर कर ही क्या सकता था? साथ ही इसके यह भी देख रहा था कि नकाबपोश भलमनसी और सभ्यता के साथ बातें कर रहा है, जिसकी उम्मीद यहाँ आने के पहले कदापि न थी। [ १८७ ]अतः जब नकाबपोश अपनी बात पूरी कर चुका तो इसके पहले कि उसका नौकर कुछ जवाब दे, भूतनाथ बोल उठा––

भूतनाथ––कृपानिधान, हम लोग यहाँ किसी बुरी नीयत से नहीं आये हैं, न तो चोरी करने का इरादा है न किसी को तकलीफ देने का, मैं केवल अपनी स्त्री का पता लगाने के लिए यहाँ आया हूँ, क्योंकि मेरे जासूसों ने मेरी स्त्री के यहाँ होने की मुझे इत्तिला दी थी।

नकाबपोश––(मुस्कुरा कर) शायद ऐसा ही हो, मगर मेरा खयाल कुछ दूसरा ही है। मेरा दिल कह रहा है कि तुम लोग उन दोनों नकाबपोशों का असल हाल जानने के लिए यहाँ आये हो जो राजा साहब के दरबार में जाकर अपने विचित्र कामों से लोगों को ताज्जुब में डाल रहे हैं, मगर साथ ही इसके इस बात को भी समझ लो कि यह मकान उन दोनों नकाबपोशों का नहीं है बल्कि हमारा है। उनके मकान में जाने का रास्ता तुम उस सुरंग के अन्दर ही छोड़ आये जिसे तै करके यहाँ आये हो, अर्थात् हमारे और उनके मकान का रास्ता बाहर से तो एक ही है मगर सुरंग के अन्दर आकर दो हो गया है। खैर, जो कुछ हो हम इस वारे में ज्यादा बातचीत करना उचित नहीं समझते और न तुम लोगों को कुछ तकलीफ ही देना चाहते हैं बल्कि अपना मेहमान समझ कर कहते हैं कि अब आ गये हो तो रात भर कुटिया में आराम करो; सवेरा होने पर जहाँ इच्छा हो चले जाना। (गद्दी के नीचे बैठे हुए एक नकाबपोश की तरफ देख के) यह काम तुम्हारे सुपुर्द किया जाता है, इन्हें खिला-पिलाकर ऊपर वाली मंजिल में सोने की जगह दो और सुबह को इन्हें खोह के बाहर पहुँचा दो।

इतना कहकर वह नकाबपोश उठ खड़ा हुआ और उसका साथी दूसरा नकाबपोश भी जाने के लिए तैयार हो गया। जिस जगह इन नकाबपोशों की गद्दी लगी हुई थी उस (गद्दी) के पीछे दीवार में एक दरवाजा था जिस पर पर्दा लटक रहा था। दोनों नकाबपोश पर्दा उठा कर अन्दर चले गये और यह छोटा-सा दरबार बर्खास्त हुआ। गद्दी के नीचे बैठने वाले मुसाहिब, दरबारी या नौकर जो भी कोई हों उठ खड़े हुए और उस आदमी ने जिसे दोनों ऐयारों की मेहमानी का हुक्म हुआ था देवीसिंह और भूतनाथ की तरफ देख कर कहा––"आप लोग मेहरबानी करके मेरे साथ आइये और ऊपर की मंजिल में चलिए।" भूतनाथ और देवीसिंह भी कुछ उज्र न करके पीछे-पीछे चलने के लिए तैयार हो गये।

नकाबपोश की बातों ने भूतनाथ और देवीसिंह दोनों ही को ताज्जुब में डाल दिया। भूतनाथ ने नकाबपोश से कहा था कि मैं अपनी स्त्री की खोज में यहाँ आया हूँ, मगर बहुत-कुछ कह जाने पर भी नकाबपोश ने भूतनाथ की इस बात का कोई जवाब न दिया और ऐसा करना भूतनाथ के दिल में खुटका पैदा करने के लिए कम नहीं था। भूतनाथ को निश्चय हो गया कि उसकी स्त्री यहाँ है और अवश्य है। उसने सोचा कि जो नकाबपोश राजा वीरेन्द्रसिंह के दरबार में पहुँच कर बड़ी-बड़ी गुप्त बातें इस अनूठे ढंग से खोलते हैं उनके घर में यदि मैं अपनी स्त्री को देखू तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। हमारे देवीसिंह ने तो एक शब्द भी मुंह से निकालना पसन्द न किया, मालूम [ १८८ ]इसका सबब क्या था और वे क्या सोच रहे थे, मगर कम-से-कम इस बात की शर्म तो उनको जरूर ही थी कि वे यहाँ आने के साथ गिरफ्तार हो गये। यह तो नकाबपोशों की मेहरबानी थी कि हथकड़ी और बेड़ी से उनकी खातिर न की गई।

वह नकाबपोश कई रास्तों से घुमाता-फिराता भूतनाथ और देवीसिंह को ऊपर वाली मंजिल में ले गया। जो लोग इन दोनों को गिरफ्तार कर लाए थे, वे भी उनके साथ गये।

जिस कमरे में भूतनाथ और देवीसिंह पहुँचाये गये, वह यद्यपि बहुत बड़ा न था मगर जरूरी और मामूली ढंग के सामान से सजाया हुआ था। कन्दील की रोशनी हो रही थी, जमीन पर साफ-सुथरा फर्श बिछा था और कई तकिए भी रक्खे हुए थे, एक संगमरमर की छोटी चौकी बीच में रक्खी हुई थी और किनारे दो सुन्दर पलंग आराम के लिए बिछे हुए थे।

भूतनाथ और देवी सिंह को खाने-पीने के लिए कई दफा कहा गया, मगर उन दोनों ने इनकार किया अत: लाचार होकर नकाबपोशों ने उन दोनों को आराम करने के लिए उसी जगह छोड़ा और स्वयं उन आदमियों को जो दोनों ऐयारों को गिरफ्तार कर लाये थे, साथ लिए हुए वहाँ से चला गया। जाते समय ये लोग बाहर से दरवाजे की जंजीर बन्द करते गये और इस कमरे में भूतनाथ और देवीसिंह अकेले रह गये।


2

जब दोनों ऐयार उस कमरे में अकेले रह गये, तब थोड़ी देर तक अपनी अवस्था और भूल पर गौर करने के बाद आपस में यों बातें करने लगे––

देवीसिंह––यद्यपि तुम मुझसे और मैं तुमसे छिपकर यहाँ आया मगर यहाँ आने पर वह छिपना बिल्कुल व्यर्थ गया। तुम्हारे गिरफ्तार हो जाने का तो ज्यादा रंज न होना चाहिए क्योंकि तुम्हें अपनी जान की फिक्र पड़ी थी, अतएव अपनी भलाई के लिए तुम यहाँ आये थे और जो कोई किसी तरह का फायदा उठाना चाहता है उसे कुछ-न-कुछ तकलीफ भी जरूर ही भोगनी पड़ती है, मगर मैं तो दिल्लगी ही दिल्लगी में बेवकूफ बन गया। न तो मुझे इन लोगों से कोई मतलब ही था और न यहाँ आए बिना मेरा कुछ हर्ज ही होता था।

भूतनाथ––(मुस्कुरा कर) मगर आने पर आपका भी एक काम निकल आया, क्योंकि यहाँ अपनी स्त्री को देखकर अब किसी तरह भी जाँच किए बिना आप नहीं रह सकते।

देवीसिंह––ठीक है! मगर भूतनाथ, तुम बड़े ही निडर और हौसले के ऐयार हो जो ऐसी अवस्था में भी हँसने और मुस्कुराने से बाज नहीं आते!

भूतनाथ––तो क्या आप ऐसा नहीं कर सकते?