[ २४१ ]
मुस्कान

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( १ )

वह शुभ दिन धीरे-धीरे निकट आने लगा, जिस दिन सुशीला की गोद भरी-पुरी होने वाली थी! मातृत्व ही नारी-जीवन का परम सार है और उसी सार-वस्तु की सुशीला शीघ्र ही अधिकारिणी होनेवाली है—यह जानकर सुशीला के पति सत्येन्द्र भी परम प्रसन्न हुए। दाम्पत्य-जीवन-रूपी कल्पतरु में मधुर फल के आगमन की सूचना पाकर पति-पत्नी के आनन्द का पारावार नहीं रहा।

सुशीला के सास-ससुर कोई नहीं थे; इसलिए सुशीला को कभी-कभी अन्तर्वेदना हुआ करती थी; पर वह व्यथा पति के पवित्र शीतल-प्रेम मलिल से शीघ्र ही शान्त हो जाया करती थी। सुशीला अपने गृह की एकमात्र अधिश्वरी होने के साथ-ही-साथ अपने पति के अखण्ड प्रेम की भी एकमात्र अधिकारिणी थी। सत्येन्द्र सुशीला को अपनी आत्मा का ही दूसरा स्वरूप मानते थे और वे उसे अपने गले की मणिमाला के समान बड़े आदर और यत्न [ २४२ ]से रखते थे। जबसे सुशीला को गर्भ-स्थिति हुई, तब से तो उन्होंने उसकी सुश्रूषा और सेवा की और भी सुचारु व्यवस्था कर दी थी। पहले घर में केवल एक वृद्धा दासी थी, अब उन्होंने सुशीला की समवयस्का एक और परिचारिका का भी प्रबन्ध कर दिया। वे उसकी इच्छा की सदा पूर्ति किया करते थे! खाने-पीने में छोड़कर बाक़ी उसकी और किसी अभिलाषा का वह प्रतिवाद नहीं करते थे। सुशीला के मुख से निकलते-निकलते ही वे उसकी इच्छा को पूरी कर देते। प्रातःकाल ओर सायंकाल वे उसे अपने साथ लेकर गृह-संलग्न उद्यान में शीतल मधुर वायु का सेवन करते। रात्री में भोजन के उपरान्त वे उसे धार्मिक वीर पुरुषों की पवित्र गाथाएँ सुनाते और उनकी सदा यहो चेष्टा रहती कि सुशीला का मनोरञ्जन होता रहे। सुशीला के मन में दुःग्व अथवा ग्लानि की एक क्षीण रेखा भी अङ्कित न होने पावे—इस विषय में सत्येन्द्र सदा प्रयत्नशील रहते।

रात्रि का प्रथम प्रहर व्यतीत हो चुका है। सत्येन्द्र अपने कमरे में एक आराम कुर्सी पर लेटे-लेटे किसी ग्रन्थ का पारायण कर रहे हैं—पास ही एक दूध के फेन के समान कोमल शय्या पर सुशीला लेटी हुई है। सुशीला एक टक अपने प्राणाधार के प्रोज्ज्वल मुख की ओर देख रही है। थोड़ी देर तक इस प्रकार रूप-सुधा पी चुकने के उपरान्त सुन्दरी सुशीला ने मृदुल मन्द स्वर में कहा—नाथ! मेरी एक इच्छा है।

सत्येन्द्र—कहो प्रिये! निस्संकोच भाव से कह डालो। मैं [ २४३ ]तुम्हारी इच्छा की अवश्य ही यथा-शक्ति पूर्ति करूंगा। ऐसा करने से मुझे बड़ा आनन्द मिलता है।

सुशीला—सो जानती हूँ देव! यद्यपि आपने मेरी सुश्रूषा के लिये दो-दो परिचारिकायें नियुक्त कर दी हैं; पर तो भी मैं सोचती हूँ कि यदि इस समय कोई अपना आत्मीय स्वजन आ जाता, तो बड़ा अच्छा होता। दोनों परिचारिकायें मेरी बड़ी सेवा करती हैं; पर तो भी जो स्नेह, जो आदर अपने आत्मीय से मिल सकता है, वह इन परिचारिकाओं से प्राप्त नहीं हो सकता।

सत्येन्द्र—इसमें सन्देह नहीं। इस विषय में मैं भी सोचता था; पर कुछ समझ में नहीं आता। बहुत सोचने पर भी कोई ऐसा आत्मीय नहीं दिखाई पड़ता, जिमके आ जाने से तुम्हारी सेवा- सुश्रषा की मधुर व्यवस्था हो सके। मेरी चचेरी भाभी हैं—उनका स्वभाव तुम जानती ही हो—वह बड़ी कर्कशा हैं। और भी दो-एक निकट सम्बन्धिनी हैं; पर वे भी सब लगभग एक हीसी हैं। तुमने कुछ इस विषय में सोचा है प्रिये?

सुशीला—नाथ! यदि गुणसुन्दरी को बुला लिया जाये, तो कैसा हो?

सत्येन्द्र—बहुत उत्तम। तुमने बहुत ठीक सोचा। वास्तव में उसके आ जाने से सब ठीक हो जायगा।

गुणसुन्दरी सुशीला की छोटी बहिन है। उसका विशद परिचय हम अगले परिच्छेद में देंगे-सत्येन्द्र स्थानीय कॉलेज में साहित्य के प्रोफेसर थे। उन्होंने दूसरे दिन कॉलेज पहुँचते ही [ २४४ ]लखनऊ को, जहाँ सुशीला का मायका था, गुणसुन्दरी के बुलाने के लिये तार भेज दिया। तीसरे दिन ही गुणसुन्दरी अपने भाई के साथ आ गई।

पतिव्रता स्त्री की उपलब्धि जिस प्रकार पति के लिये परम सौभाग्य का विषय है, एकान्त अनुरक्त पति की प्राप्ति भी पत्नी के लिये पूर्वकृत पुण्य-पुञ्ज की उतनी ही मधुर भेंट है।

(२)

गुणसुन्दरी सुशीला की कनिष्टा सहोदरा है। वह उससे ३ वर्ष छोटी है अर्थात् इस समय उसकी अवस्था १७ वर्ष की है। गुणसुन्दरी ने आते ही घर की व्यवस्था के समस्त नियमों का ज्ञान प्राप्त कर लिया और उन्हीं के अनुसार वह सुचारुरूप से गृहस्थी का विधान करने लगी। उसने आते ही सुशीला को एकान्त विश्राम का अवसर दे दिया और गृहस्थी की सारी चिन्ता का भार अपने सिर पर ओढ़कर उसने अपनी प्यारी सहोदरा को पूर्ण रूप से निश्चिन्त कर दिया।

गुणसुन्दरी बाल-विधवा है। वह अपने पति के पर्य्यंक पर केवल एक बार ही पौढ़ी थी और उसके उपरान्त ही, आज ४ वर्ष हुए, उसका सौभाग्य-सिन्दूर दुर्भाग्य के कठोर विधान से पुँछ गया। तब से गुणसुन्दरी अपने पिता के ही घर पर रहती है। उसके पिता प्रकाण्ड विद्वान् हैं और उन्होंने भली-भाँति यह जान लिया था कि विधवा गुणसुन्दरी के तपोमय जीवन की मृदुल [ २४५ ]अवाधगति के लिये यह अनिवार्य रूप से आवश्यक है, कि उसे ज्ञान,विवेक और आत्मानुभूति का पवित्र साहचर्य प्राप्त हो जाये। इसीलिये उन्होने स्वयं गुणसुन्दरी को संस्कृत तथा अन्य देशी भाषाओं की ऊँची शिक्षा दी थी। वाल्मीकि रामायण और महाभारत के प्रसिद्ध श्लोक की वह दस-दस बार आवृति कर चुकी थी। कला-कौशल तथा गृह-प्रबन्ध की उसे पर्याप्त शिक्षा विवाह से पहले ही मिल चुकी थी; इसीलिये गुणसुन्दरी केवल अतुलनीया सुन्दरी ही नहीं थी, वह अद्वितीया गुणवती विदुषी भी थीं।

सत्येन्द्र के घर में आते ही उसने गृहस्थी का सुचारु प्रबन्ध करना प्रारम्भ कर दिया। माधुर्य्य और आनन्द की नदी-सी उस घर में प्रवाहित होने लगी। प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में उठकर वह नित्य कर्मादि से निवृत्त हो जाती और उसके उपरान्त वह गृह-संलग्न उद्यान से सुमन चयन करके लाती तथा चन्दन,नैवेद्य इत्यादि प्रस्तुत करके वह सत्येन्द्र के स्नानादि से निवृत्त होते-न-होते उनकी पूजा की मधुर व्यवस्था कर देती। अपने हाथ ही से वह सुस्वाद भोजन बनाती और बड़े प्रेम से अपनी बहिन और जीजाजी को जिमाती। सत्येन्द्र के कालिज चले जाने पर उनके पठन-कक्ष को साफ़ कर के वह उनकी पुस्तकों को सुंदर प्रकार से सजा देती। सायंकाल को अपने हाथ से सुगंधित फूलों के सुरम्य गुलदस्ते बनाकर वह उनके टेबुल पर लगा देती। इस प्रकार गुणवती गुणसुन्दरी ने सत्येन्द्र को सुशीला की प्रेममयी सेवा एवं श्रद्धा-मयी सुश्रूषा का अभाव कणभर भी अनुभव नहीं करने दिया। सुत्येन्द्र [ २४६ ]भी गुणसुन्दरी को स्नेहमयी श्रद्धा की दृष्टि से देखने लगे—उसके गुणों का ऐसा विकास देखकर वे बड़े सन्तुष्ट हुए।

परिजन ही के प्रति नहीं-परिचारिकाओं के प्रति भी गुणसुन्दरी का ऐसा स्नेहमय व्यवहार था, कि वे भी उसे पाकर बड़ी प्रसन्न हुई और उस पर बहन की भांति प्रेम करने लगी। ऐसी सुन्दरी गुणवती स्वामिनी की सेवा को वे अपना सौभाग्य समझने लगीं।

गुणसुन्दरी अपूर्व रूप-राशि की स्वामिनी थी अवश्य; पर उसने इस यौवन-वन को यों ही छोड़ दिया था। श्रृंगार के नाम से उसके कोमल शरीर पर एक भी आभूषण नहीं था। उसके हिमशुभ्र ललाट पर न तो कृष्ण बिन्दु सुशोभित होता था और न उसके सहज-अरुण अधर पर ताम्बूल-राग ही विलसित होता था। उसकी उस देह माधुरी को न तो चित्राम्बर ही आच्छादित करता था और न उसकी कुन्तल केश राशि पर पुष्पहार ही सुगन्ध का विस्तार करता था। वह पहनती थी केवल एक स्वच्छ शुभ्र सारी और उसके उन्नत पुण्य पीन-पयोधर आच्छादित होते थे एक खद्दर की जाकट द्वारा। बस यही उसकी वैराग्यमयी वेष-भूषा थी, यही उसकी संन्यासमयी शोभा थी और यही उसकी पवित्र तपोमयी माधुरी थी। वह निष्कलंक आत्म-प्रभा की भाँति, निर्विकार तपोमयी साधना की भाँति एवं तेजोमयी पुण्य-पवित्रता की भाँति प्रतीत होती थी। विधवा के संन्यास अर्थात् निष्काम कर्म योगमय जीवन का सम्पूर्ण रहस्य उसके आन्तरिक लोचनों के [ २४७ ]सम्मुख विवृत हो चुका था और उसने पिता की पुण्यमयी शिक्षा के पावन प्रभाव से यह जान लिया था कि इस वैधव्य के दुःखमय जीवन की पवित्र एवं अवाध मृदुल गति से व्यतीत करने का एक मात्र उपाय निःस्वार्थ सेवामयी साधना है। गुणसुन्दरी सदा, निर्विकार हृदय से, निस्वार्थ बुद्धि से एवं निष्काम कामना से इसी साधना के अनुष्टान में तन्मयी होकर रत रहती।

सेवा और साधना-दोनों सहोदरा हैं और उनकी जननी है पुण्य-प्रवृत्ति।

(३)

श्रावण-शुक्ला-त्रयोदशी के प्रातःकाल शुभ ब्राह्म-मुहूर्त में सुशीला ने पुत्र-रत्न प्रसव किया। सत्येन्द्र एवं सुशीला के आनन्द की बात जाने दीजिये, उनके सारा घर-का-घर आनन्द की मन्दाकिनी से साबित होने लगा। गुणसुन्दरी अपनी माता के घर ही से एक सुवर्ण की कण्ठमाला बनवा लाई थी जिसमें मध्यमणि के स्थान पर एक सुवर्ण मण्डित रुद्राक्ष था। उसने अपने पवित्र आशीर्वाद के साथ उसे नवजात शिशु के गले में रक्षा कवच के रूप में पहना दिया। उस दिन सत्येन्द्र और सुशीला ने देखा कि गुणसुन्दरी के मुख पर एक अपूर्व उल्लास है, एक परम पवित्र तेज है। उस दिन गुणसुन्दरी का गम्भीर प्रशान्त हृदय-सागर भी चन्द्र-दर्शन को पाकर आनन्दातिरेक से उद्वेलित होने लगा।

गुणसुन्दरी स्वभावतः ही गम्भीर प्रकृति की थी। रस-रंग, हास, परिहास पर उसका विशेष अनुराग नहीं था; पर सुशीला के [ २४८ ]उस परम आनन्द में योग देने के कारण उसका वह गम्भीर भाव अनेकांश में तिरोहित हो गया था और उसके मुख-मण्डल की शोभा आन्तरिक आनन्द की श्री से और भी मनोहर एवं प्रभामयी हो गई थी। सत्येन्द्र गुणसुन्दरी के गुणों पर मुग्ध थे ही और जैसा हमने पहले कहा है, वे उस पर विशेष रूप से स्नेहमयी श्रद्धा रखते थे! पर उस आनन्द से प्रफुल्ल वदन-कमल की जो अपूर्व शोभा उन्होंने उस आनन्द-अवसर पर देखो वह कुछ ओर ही प्रकार की थी, उसमें कोई ओर ही प्रकार का निरालापन था। उसे देखते ही उनके हृदय में एक ओर ही प्रकार को प्रवृत्ति जागृत हो उठी। अभी तक उनका जो स्नेह श्रद्धा के पवित्र शीतल सलिल से सिंचित होता था, वह अब दूसरी ही प्रकार के प्रवृत्ति प्रवाह में अवगाहन करने लगा। वात्सल्य शृङ्गार में परिणत हो गया।

तब तो सत्येन्द्र एक प्रकार से व्याकुल हो उठे। वे विद्वान थे, पण्डित थे और अब तक उनका जीवन सदाचार ही के साहचर्य में व्यतीत हुआ था। उन्होंने इस प्रवृत्ति को दबाने की चेष्टा की; पर वह उनमें दबी नहीं। वे गुणसुन्दरी को बार-बार देखने के लिये व्याकुल हो उठते और निरर्थक ही उसे अपने कमरे में किन्हीं कामों के बहाने बुलाकर रात-दिन में वे उसका दस-पाँच बार दर्शन कर लेते; पर इससे उन्हें शांति मिलना तो दूर, उनकी लालसा और भी तीव्र होती जाती। इधर सुशीला प्रसूतिकागार में थी और इसलिये गुणसुन्दरी को उनके कमरे में किसी-न-किसी काम के [ २४९ ]लिये कई-कई बार आना ही पड़ता था। सुशीला की निरन्तर अनुपस्थिति से अनुचित लाभ उठाकर सत्येन्द्र की मोहमयी प्रकृति और भी प्रबल वेग से प्रधावमान होने लगी।

आज नवजात-शिशु के शुभ नामकरण-संस्कार का आनन्द-दिन है। दिन-भर गुणसुन्दरी अभ्यागतों की अभ्यर्थना में लगी रही और उसने स्वयं दिन-भर बिना खाये-पीये सबको खिलाया पिलाया। गुणसुन्दरी उस उत्सव में अपने अस्तित्व तक को भूल गई।

रात्रि के लगभग आठ बजे गुणसुन्दरी अपने जीजा सत्येन्द्र के लिये भोजन लेकर उनके कमरे में गई। सत्येन्द्र उस समय कोई साहित्य की पुस्तक पढ़ रहे थे और उसमें वर्णित नायिका के सुन्दर स्वरूप की कल्पना को गुणसुन्दरी में आरोपित करने की धुन में लगे हुए थे। ऐसे ही समय गुणसुन्दरी ने भोजन की थाली लिये हुए उनके कमरे में प्रवेश किया। सत्येन्द्र एकटक गुणसुन्दरी के मुख-चन्द्र की ओर देखने लगे। उस समय सहसा उनके मुख की आकृति कुछ बड़ी विलक्षण-सी हो गई। उनकी आँखें फैल गई; मुख-विवर खुल गया, दन्त-पंक्ति कुछ बाहर निकल आई और उनकी चेष्टा ठीक वैसी ही हो गई, जैसी किसी मूर्ख की उस समय हो जाती है, जब वह अपनी दृष्टि में कोई बड़ी विलक्षण वस्तु देखता है। गुणसुन्दरी को जीजा का यह आश्चर्य-भाव कुछ ऐसी कुतूहलता से भरा हुआ प्रतीत हुआ, कि सहसा उसके स्निग्ध मृदुल अधर पर मन्द मुस्कान आ गई। उसने नीची दृष्टि कर ली [ २५० ]भोजन की थाली टेबुल पर रखकर वह बिना कुछ कहे-सुने शीघ्र ही कमरे से बाहर चली गई।

सत्येन्द्र को उस रात में क्षणभर के लिये भी नींद नहीं आई। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ, कि मानो उनके हृदय में, उनकी बुद्धि में, उनकी आँखों में, उनकी विवेक-दृष्टि में, वह मधुर मन्द मुस्कान सजीव स्थिर दामिनी की भाँति प्रवेश कर गई।

यह एकान्त सत्य है, कि रूपवती रमणी की मधुर मन्द मुस्कान बड़े-बड़े ज्ञानी और पण्डितों को भी परम मूर्खों की भांति उद्भ्रान्ति की गम्भीर अन्धकारमयी गुफा में गिरा देती है।

(४)

धीरे-धीरे ब्राह्म-मुहूर्त आ पहुँचा। मन्द-मन्द शीतल समीर प्रवाहित होने लगी। नक्षत्रावली रात्रि-भर के विहार के उपरान्त परिश्रान्त होकर अपने-अपने प्रासाद में प्रवेश करने लगी। सत्येन्द्र भी अपने कमरे से निकलकर गृह-संलग्न उद्यान में जाकर घूमने लगे। उस समय उद्यान में अनेक प्रकार के प्रस्फुटित पुष्पों की सुगन्ध परिव्याप्त हो रही थी और शीतल समीर का संयोग पाक वह इधर-उधर इठलाती फिरती थी। उसके अञ्चल के सुशी- तल स्पर्श से सत्येन्द्र का उत्तम मस्तिष्क कुछ-न-कुछ शान्त हो गया।

वे इधर-उधर गूमने लगे। वे अपनी उद्भ्रान्त विचारमाला में तल्लीन थे। गुणसुन्दरी की उसमधुर मन्द मुस्कान की मूक कविता का अर्थ तथा भाष्य करने में वे ध्यानावस्थित से हो रहे थे। कभी वे सोचते थे, कि वह मुस्कान क्रमशः परिवर्द्धित होनेवाली प्रेम[ २५१ ]प्रवृत्ति की प्रथम झलक थी और कभी उनका यह विचार स्थिर होता, कि वह मुस्कान उनकी प्रेम-भिक्षा के प्रति उपहासमयी उपेक्षा की प्रथम किरण थी। कभी वे सोचते, कि गुणसुन्दरी ने उस मधुर मुस्कान के द्वारा उनके प्रेम का अभिनन्दन किया था और कभी उनकी यह धारणा होती, कि उस अपूर्व संयमशीला रमणी ने उस मुस्कान के द्वारा उनके इस अनुचित साहस का तिरस्कार किया था। सत्येन्द्र निश्चित् रूप से उस रहस्यमयी मुस्कान का अर्थ समझने में कृतकार्य नहीं हो रहे थे। उनकी बुद्धि उद्भ्रान्त हो गई थी और उस उद्भ्रान्ति की संशय-स्वरूपा अग्नि को हृदय में धारण करके वे उस उद्यान में घूम रहे थे।

सहसा उन्हें एक ओर से गाने की ध्वनि सुनाई दी। उन्होंने कण्ठ-स्वर से जान लिया, कि गुणसुन्दरी ही गुनगुना रही है। सत्येन्द्र को यह जानकर और भी हर्ष हुआ, कि गुणसुन्दरी गान-विद्या में भी अधिकार रखती है। हृदय की प्रबल प्रेरणा से परिचालित होकर वे उसी ओर को, धीरे-धीरे उस मधुर गान को सुनते-सुनते अग्रसर होने लगे, ठीक उसी तरह जैसे मृगी वीणास्वर में आकृष्ट होकर उसी ओर को, चलने लगती है। गुणसुन्दरी का स्वर ही अभी तक सत्येन्द्र को सुनाई पड़ता था—अब स्पष्ट‌ रूप से गान भी सुनाई पड़ने लगा। गुणसुन्दरी गा रही

रे मन! भूल्यो फिरै जग बीच।
कुसुम कुसुम पै अटकत डौले
नीचे लखै नहिं मीच। रे मन०

[ २५२ ]

एक बार फँस निकस न पैहै,
जैसे फँस्यो काई कीच। रे मन०
त्यों 'हृदयेश' सुमिर प्रभु-पद को,
छाँड़ि मदन मद नीच। रे मन०

उषा देवी प्राची दिशा में स्थित होकर इस गान को तन्मयी बनी हुई सुन रही थीं, उन मधुर स्वरों के स्पर्श से कोमल कुसुम रोमाञ्चित हो रहे थे। सत्येन्द्र ने प्रभात काल के उस स्निग्ध प्रकाश में देखा, कि गुणसुन्दरी एक हाथ से डाल पकड़े है और एक हाथ से जुही के कोमल फूल तोड़-तोड़कर नीचे रखी हुई टोकरी में डालती जाती है। वह अपने इस कृत्य में तन्मयी होकर आन्तरिक आनन्द के आवेश में गुनगुना रही है। सत्येन्द्र एकटक से इस छवि-माधुरी को देखने लगे। थोड़ी देर तक इस स्वरूप-सुधा को पान करने के उपरान्त सत्येन्द्र ने मन्द मधुर स्वर में पुकारा—गुणसुन्दरी!

गुणसुन्दरी ने चकित हरिणी की भाँति पीछे फिरकर देखा। उसके हाथ से डाल छुट गई। उसने सलज्ज भाव से प्रत्युत्तर दिया—जीजाजी?

सत्येन्द्र—हाँ! क्या फूल तोड़ रही हो?

गुणसुन्दरी—हाँ! पूजन के लिये फूल चुन रही हूँ।

सत्येन्द्र ने हृदय में साहस भरकर कहा—गुणसुन्दरी! मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ।

गुणसुन्दरी ने चकित भाव से कहा—कहिये! [ २५३ ]सत्येन्द्र क्षण-भर के लिए चुप हो गये। फिर बोले—मुख से कहने का साहस नहीं है, मैं लिखकर दूंगा। क्या तुम उसका उत्तर देने की कृपा करोगी?

गुणसुन्दरी ने स्थिर भाव से कहा—जीजाजी! मेरा विश्वास है कि हृदय के जिन भावों को एक दूसरे की समुपस्थिति में मुख की भाषा-द्वारा व्यक्त करने में लज्जा या संकोच मालूम हो, तो उनको लिखकर व्यक्त करना भी अनुचित ही है। उनका हृदय में घुट-घुटकर मरजाना ही मेरी तुच्छ बुद्धि में बहुत अच्छा है।

सत्येन्द्र—ऐसा भी हो सकता है; पर मेरे प्रश्न का क्या उत्तर है?

गुणसुन्दरी—वही, जो मैंने अभी कहा है। वह स्पष्ट है।

इतना कहकर गुणसुन्दरी शीघ्रता-पूर्वक वहाँ से चली गई। सत्येन्द्र और भी उलझन में पड़ गये। गये मुस्कान की परिभाषा करने और रास्ते में दूसरी ही शंका उठ खड़ी हुई।

मानसिक ग्रन्थि का तारतम्य कुछ ऐसा विलक्षण होता है कि उसको जितना ही सुलझाया जाय, वह उतना ही और उलझता जाता है। इसका सबसे उत्तम उपाय है—अग्नि-संस्कार। पर उसका अनुष्टान उतना ही कठिन है, जितनी की सायुज्य मुक्ति की साधना।

(५)

इस घटना को घटित हुए लगभग एक सप्ताह व्यतीत नहीं होने पाया था कि सुशीला के भाई हेमचन्द्रजी गुणसुन्दरी को बुला ले जाने के लिए आ गये। गुणसुन्दरी विधवा हो जाने के [ २५४ ]कारण अपनी वृद्धा माता की और भी स्नेहपात्री हो गई थी। उस वृद्ध वयस में उन्होंने गृहस्थी का सारा भार अपने कन्धों से उतारकर गुणसुन्दरी के सिर पर डाल दिया था। गुणसुन्दरी अपने पिता की गृहस्थी की परिचालिका थी—छोटे-से-छोटे काम से लेकर बड़े-से-बड़े काम का भार उसी पर था। उसका व्यथा-मय जीवन निरन्तर कर्म के अनुष्ठान से बड़ी सरलता से व्यतीत होता जाता था—घर की एकमात्र अधीश्वरी होने के कारण ग्लानि की क्षीण रेखा तक उसके हृदय में उप्तन्न नहीं होने पाती थी। उसकी माता तो एक ओर बैठी भगवती का भजन करती थी। भौजाई इत्यादि गुणसुन्दरी की अधीनता में सुखी ही रहती थीं—उनकी भी चिन्ता कम हो जाती थी। यद्यपि सत्येन्द्र ने बहुत कुछ कहा सुना; पर हेमचन्द्र, गुणसुन्दरी को और थोड़े दिनों के लिए छोड़ जाने पर किसी भाँति भी राजी न हुए। सत्येन्द्र कुछ अप्रसन्न भी हो गये; पर हेमचन्द्र ने बड़ी विनम्र भाषा में उनसे क्षमा माँग ली। उन्होंने कहा कि माताजी की अवस्था वृद्ध है, उनका शरीर बड़ा दुर्बल हो रहा है, गृहस्थी के झंझट उनसे सँभाले सँभलते नहीं, इधर उनकी आँखों में परवाल हो गये हैं, मेरी स्त्री भी वहाँ नहीं है, मैके में है, उसकी भौजाई के लड़का इत्यादि होने वाला है; अतः वह भी नहीं आ सकती; इसीलिये माता ने आपसे अनुरोध किया है कि आप गुणसुन्दरी को और अधिक न रोकें। तब क्या करें? सत्येन्द्र विवश थे। उनके हृदय में एक तुमुल संग्राम हो रहा था—उनके मस्तिष्क में एक प्रबल अग्नि हाहाकर कर रही [ २५५ ]थी। वे रोक नहीं सकते थे—उनके देखते-देखते ही उनकी हृहय-रत्न-राशि को दूसरा लिये जा रहा था। सत्येन्द्र बड़े आकुल हो गये; पर उपायान्तर था ही नहीं—क्या करते?

दूसरे दिन ५ बजे सायंकाल की गाड़ी से गुणसुन्दरी का जाना निश्चित हो गया। सुशीला भी क्या करती? उसने भी एकाध बार गुणसुन्दरी को छोड़ जाने के लिये हेमचन्द्र से अनुरोध किया; पर हेमचन्द्र की उक्ति के सन्मुख उसे भी विवश होकर अन्ततः स्वीकृति देनी ही पड़ी।

इन २४ घण्टों के भीतर सत्येन्द्र ने सहस्रों बार यह चेष्टा की कि गुणसुन्दरी से एकान्त में मिलने का अवसर प्राप्त करें; पर वे बार-बार विफल-प्रयास हुए। गुणसुन्दरी उनकी दृष्टि के सम्मुख कई बार पड़ी, कई बार उन्होंने आँखों-आँखों में उससे अपने कमरे में आने के लिए आकुल अनुरोध किया; पर गुणसुन्दरी ने देखकर भी नहीं देखा। उस दिन उसने हेमचन्द्र और सत्येन्द्र को भोजन भी साथ ही साथ कराया। सत्येन्द्र को एकान्त-मिलन का अवसर दिया ही नहीं। अन्त में वह समय आ पहुँचा, जब उनकी प्राण-प्रतिमा उनके घर और हृदय को अन्धकार-मय बनाकर जाने के लिए प्रस्तुत हुई। और चलते समय भी उसका इतना निष्ठुर भाव था कि उसने एक बार भी उनकी ओर आँख उठाकर नहीं देखा। सत्येन्द्र बड़े ही दुखित, आकुल और क्षुभित हो गये। अश्रु-विसर्जन के साथ सुशीला ने गुणसुन्दरी और हेमचन्द्र को विदा किया; गुणसुन्दरी ने चलते समय शिशु का मुख चूमा [ २५६ ]और आँखों में आँसू भरकर उसने बड़ी बहन को प्रणाम किया। सत्येन्द्र उन दोनों को पहुँचाने के लिए साथ-साथ स्टेशन तक गये। स्टेशन पर पहुँचते-पहुँचते गाड़ी आ गाई और एक सेकण्ड क्लास में हेमचन्द्र गुणसुन्दरी के साथ बैठ गये। सत्येन्द्र प्लेटफार्म पर खड़े-खड़े उस रूप-राशि को देखने लगे। गुणमुन्दरी के उस निष्ठुर आचरण ने उनके हृदय में बड़ी वेदना उत्पन्न कर दी थी। उसी समय जब ट्रेन चलने में ३-४ मिनट शेष थे, गुणसुन्दरी ने अपने मुखावरण को हटाकर कोमल स्वर में पुकारा—जीजाजी!

सत्येन्द्र ने कम्पित कण्ठ से कहा—हाँ।

गुणसुन्दरी—कृपा करके बहन के साथ दुर्गापूजा की छुट्टी में अवश्य पधारियेगा। जब मैं आई थी, तब माताजी ने मुझसे कह दिया था कि मैं आप से इस विषय में अनुरोध-पूर्वक उनकी आज्ञा कह दूँ। नवजात शिशु और बहन को देखने के लिए उनका बहुत मन है।

सत्येन्द्र ने दर्द-भरी हँसी के साथ व्यंग्य-पूर्वक कहा—पर तुम्हें इस अनुरोध का स्मरण बड़े बिलम्ब से हुआ।

गुणसुन्दरी—हाँ! काम में लगी रहने से मैं भूल-सी गई थी। मुझे आशा है कि आप अपनी छोटी समझ कर मेरे इस अपराध को क्षमा करेंगे।

सत्येन्द्र—कह नहीं सकता, हो सका तो आऊँगा।

गुणसुन्दरी—हो सका नहीं, आपको आना ही पड़ेगा।

सत्येन्द्र—क्यों? [ २५७ ]गुणसुन्दरी—आपको मेरे अनुरोध की रक्षा करनी चाहिये। आप अवश्य आइयेगा। आपको मेरी शपथ है!

सत्येन्द्र—अच्छा आऊँगा।

गाड़ी चल दी। हृदय थामकर सत्येन्द्र घर लौट आये।

सत्येन्द्र ने देखा कि घर जैसे प्राण-शून्य हो गया है। सबके होते हुए भी वह माधुर्य अन्तर्हित हो गया।

इसीलिये यह सम्पूर्ण सत्य है कि आलम्बन के बिना उद्दीपन केवल शव का मण्डन-मात्र है।

( ६ )

बड़े दुःखित एवं व्यथित होकर सत्येन्द्र घर लौटे थे। यद्यपि गुणसुन्दरी के उस निष्ठुर भाव ने उनके हृदय को बड़ी ही वेदना पहुँचाई थी; पर उसकी चलते समय की शपथ ने उनके उस काल्पनिक तिरस्कार की मात्रा को अधिकांश में दूर कर दिया था। सत्येन्द्र सुशीला से बिना मिले ही अपने कमरे में चले गये और जल्दी-जल्दी कपड़े उतारकर वह बड़े अन्यमनस्क भाव से एक आराम-कुर्सी पर लेट गये। उनके हृदय-श्मशान में, उनकी अभिलाषा की चिंता के आलोक में, प्रेतात्माओं की भाँति प्रवृत्ति-पुञ्ज हाहाकार कर रहा था और उनके मस्तिष्क में विरोधी भावों की सेना तुमुल-संग्राम में प्रवृत्त हो रही थी। सत्येन्द्र बड़े आकुल,बड़े उद्विग्न, एवं बड़े संतप्त हो रहे थे।

रात्रि का अन्धकार क्रमशः प्रगाढ़ हो रहा था। उसी समय उनकी परिचारिका ने उनके कमरे में प्रवेश किया और उसने आते [ २५८ ]ही उनके हाथ में एक बन्द लिफ़ाफ़ा दे दिया। वह बिना कुछ कहे-सुने चली गई—सत्येन्द्र ने भी उससे कुछ नहीं पूछा।

सत्येन्द्र ने काँपते हुए हाथों से पत्र खोला। बड़े उत्सुक भाव से वे उसे पढ़ने लगे। पत्र की प्रतिलिपि इस भाँति है—

'पूज्य जीजाजी—श्री चरणों में प्रणाम!

न माना आपने। पत्र लिख ही तो डाला। ज्यों ही इसी नौकरानी ने मुझे आपका पत्र दिया,त्योंही क्रोध, क्षोभ एवं ग्लानि से मेरी बुरी दशा हो गई। पत्र खोलने से पहले ही मैंने भाई हेमचन्द्र को, मुझे बुला ले जाने के लिये पत्र लिख दिया।

एक बार मेरे मन में आया कि मैं आपका पत्र बिना खोले ही सुशीला बदन को दे दूं और इस प्रकार मैं दाम्पत्य-दण्ड-विधि के अनुसार आपको गार्हस्थ-न्यायालय से विश्वास-घात का समुचित दण्ड दिलाऊँ; पर मेरी आत्मा ने मुझे ऐसा करने की आज्ञा नहीं दी। मैंने सोचा कि सम्भव है, इसके कारण आप में और मेरी बहन में मन-मुटाव हो जाय और उसका दुःखमय परिणाम उस निर्दोष सरल बहन को भुगतना पड़े; पर मुझे दु:ख है कि आप पण्डित, विद्वान् एवं आचार्य होकर भी इस घृणित कृत्य की ओर प्रवृत्त होने में कण-मात्र भी कुण्ठित एवं लज्जित न हुए। छिः!

कदाचित् आपने यह सोचा होगा, कि एक तो वह मेरी साली है और उस पर भी है—बाल-विधवा। उसे भ्रष्ट करने का मेरा अधिकार है और उसमें सफल होना भी बड़ा सरल है; पर आपने इतने बड़े विद्वान होकर भी यह नहीं सोचा कि संसार-भर की [ २५९ ]साली और बाल-विधवाएँ सभी मदन-देव की उपासिका नहीं होती हैं और न काम-प्रवृत्ति का उन पर इतना प्रबल अधिकार ही होता है कि वह प्रत्येक भगिनी-पति एवं परपुरुष को आलिङ्गन करने के लिये इतनी उद्विग्न हो उठे कि वे उस प्रबल प्रवाह में अपने धर्म, विवेक एवं सर्वश्रेष्ठ सतीत्व को नगण्य वस्तु की भाँति बह जाने दें। जीजाजी! हम बाल-विधवा हैं—हमारा जीवन कर्म-संन्यास का प्रोज्ज्वल उदाहरण है—सबकी बात जाने दीजिये अपवाद कौन से नियम में नहीं है—पर अब भी हमारी जाति पुण्यशीलाओं से एकान्त रूप में खाली नहीं हो गई है—अब भी हम गर्व करती हैं कि हम उन्हीं आदि सती की प्रतिनिधि हैं। हम वैधव्य के कठोर कारागार में साधना की कठोर शृङ्खला से सर्व-विजयी मदन-देव को जकड़कर हृदय के एक अन्धकारमय निभृत कोण में डाल देती हैं। जीजाजी! आप चाहे कुछ हो—चाहे बृहस्पति के साक्षात् अवतार ही क्यों न हों; पर रमणी-हृदय का रहस्य आप नहीं जान सकेंगे। छिः, आप बड़े निर्लज्ज हैं!

मुझे जहां तक स्मरण है, मैने आपके सम्मुख ऐसा कोई आचरण नहीं किया, जिससे आपको ऐसा घृणित पत्र लिखने का साहस हुआ हो। हाँ! एक बार अवश्य आपको देखकर मुझे मुस्कराहट आ गई थी। उससे आपने कदाचित् यही अभिप्राय निकाला (सुना है आप तर्क-शास्त्र के भी पण्डित हैं) कि गुणसुन्दरी मेरे इस जवाकुसुम-सुगन्धित चारु केश-विन्यास पर,मेरी इस सुन्दर मुख-श्री पर, एवं मेरे इस सिल्क-सूट-शोभित [ २६० ]शरीर पर मुग्ध होकर, आनन्द से, कामासक्त होकर मुस्करा रही है। पर आपकी यह भूल थी। वास्तव में उस दिन आपने मेरी ओर कुछ ऐसे विलक्षण भाव से देखा था-आपके नेत्र विस्फारित, आपका मुख विवृत, आपकी आकृति विकृत एवं आपकी चेष्टा कुतूहलमयी थी—मुझे सहसा मुस्कराहट आ गई। सच मानिये, मैंने उस दिन आपके मुख पर मूर्खत्व का प्रोज्ज्वल नृत्य देखा था—बस इसीलिए मैं मुस्करा पड़ी और पण्डित-प्रवर साहित्याचार्य श्रीमान् प्रोफेसर सत्येन्द्र एम० ए०, पी० एच० डी० महाशय ने उसका जो अर्थ लगाया उससे उनको मिट्टी पलीत हुई सो तो हुई, मुझ निरपराधिनी को भी व्यर्थ में आत्मग्लानि सहनी पड़ी।

जीजाजी! आपने अपनी सरल सती स्त्री के प्रति विश्वासघात किया है। आपको इसका प्रायश्चित्त करना चाहिये और अपने इस महा कुत्सित आचरण के लिये उस पुण्यमयी देवी से क्षमा माँगनी चाहिए। इसी में आपका कल्याण है।

जीजाजी! रमणी पुष्प की भाँति मधुर, रत्न की भाँति प्रभामयी, प्रभात-तुषार-कण की भाँति पवित्र, आत्मा की भाँति प्रकाशमयी, साधना की भाँति तपोमयी एवं भगवती शक्ति की भाँति पुण्यमयी है; अत: आपको अपने कल्याण के लिये इस बात का ध्यान रखना परम आवश्यक है कि आप उसके हृदय-सागर को अपने घृणित आचरण से उद्वेलित न करें; क्योकि उसके।अन्तर में ऐसी वड़वाग्नि निहित है, जिसमें अपनी समस्त सृष्टि के समेत स्वयं भगवान तक भस्मावशेष हो सकते हैं। [ २६१ ]जीजाजी, मैं आपकी छोटी हूँ। यदि आपके प्रति मैंने कुछ अनुचिंत व्यवहार कर दिया हो, या मुझसे प्रमाद-वश कोई अपराध बन पड़ा हो, तो उसे आप अपने उदार हृदय से क्षमा करने की कृपा करें। साथ-साथ मेरी यह भी विनय है कि इस घटना से उत्पन्न होनेवाली ग्लानि और वेदना को सतत साधना की सुर-सरिता में प्रवाहित कर देने की सदा चेष्टा कीजियेगा।

दुर्गा-पूजा के अवसर पर प्यारी बहन के साथ अवश्य ही दर्शन देने की कृपा कीजियेगा।

आपकी वात्सल्य-पात्री—

गुणसुन्दरी'

'पुनश्च—इस पत्र के सार आपका पत्र भी लौटा रही हूँ। सच मानियेगा, मैंने आपका पत्र अच्छी तरह पढ़ा भी नहीं है। ऊपर ही की दो-चार लाइनें पढ़कर समझ गई कि उसमें कैसे-कैसे भ्रष्ट विचार ग्रथित किये गये होंगे।'

पत्र को समाप्त करते ही सत्येन्द्र का वह मोहावरण, जो लालसा ने उनकी विशुद्ध विश्व-दृष्टि के सम्मुख डाल दिया था, हट गया। उन्होंने आत्म-प्रकाश में देखा कि वह उनका आचरण कितना नीच, कितना हेय एवं कितना कुत्सित है। आत्मग्लानि की प्रबल अग्नि धधक उठी और उनका सारा हृदय उसमें धक-धक करके जलने लगा।

आध्यात्मिक मूर्छा का नाम मोह है।

[ २६२ ]लगभग २० मिनट के उपरान्त सुशीला ने अपने नव-जात शिशु को गोद में लिये प्रवेश किया। आते ही उसने शिशु को सत्येन्द्र की गोद में दिया और आप पास ही पड़ी हुई कुर्सी पर बैठ गई। सत्येन्द्र ने शिशु को गोद में ले तो लिया; पर उनके मुख पर नित्य की-सी प्रफुल्लिता नहीं दिखाई दी। उनके हृदय में ग्लानि, पश्चात्ताप और वेदना की भीषण अग्नित्रयी धाँय-धाँय करके जल रही थी और उसकी व्यथा के लक्षण उनके शुष्क मुख-कमल पर सुस्पष्ट रूप से दिखाई पड़ रहे थे। सुशीला के स्नेहमय सरस लोचनों से यह भाव छिपा नहीं रह सका और उसने बड़े आकुल भाव से सत्येन्द्र का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा—नाथ! आज आप इतने व्यथित क्यों है?

सत्येन्द्र—प्यारी मैंने एक घोर पाप किया है और उसीकी वेदना से मेरा हृदय जल रहा है।

सुशीला—पाप! आप और पाप? असम्भव! मैं इस बात पर विश्वास करने को प्रस्तुत नहीं हूँ।

सत्येन्द्र—तुम सरल एवं एकान्त पवित्र हो; इसीलिये तुम ऐसा समझती हो। मैंने तुम्हारे प्रति विश्वासघात किया है और मैं तुम्हारी क्षमा का भिखारी हूँ।

सुशीलायह उल्टी बात कैसे देव? प्रभु होकर दासी से क्षमा-याचना? मुझे आपको क्षमा करने का क्या अधिकार है? मेरे प्रति यदि आप कोई अपराध भी करें, तो भी वह पाप नहीं, आपका अधिकार है। [ २६३ ]सत्येन्द्र—सो बात नहीं है प्रिये! पाप सदा पाप है। पाप करने का किसी को भी अधिकार नहीं है। मैं सच कहता हूँ—स्वयं भगवती राजराजेश्वरी कल्याणसुन्दरी साक्षी हैं—कि जब तक तुम मुझे अपने हृदय से क्षमा नहीं कर दोगी, तब तक मुझे शान्ति नहीं मिलेगी; क्योंकि तब तक मुँह खोलकर मैं अपने पाप को कहने का साहस ही नहीं कर सकूँगा। क्षमा! प्यारी क्षमा!

सुशीला ने साश्रुलोचना होकर कहा—नाथ! यदि मेरे ऐसा कहने ही से आपके हृदय को शान्ति मिल सकती है, तो मैं आपको क्षमा करती हूँ; पर मैं यह शब्द केवल आपके एकान्त अनुरोध से कह रही हूँ, नहीं तो मेरा निज का विचार है कि आप मेरे लिये सदा निष्पाप हैं। पाप आपके स्पर्शमात्र से पुण्य में परिणत हो सकता है, आप मेरे ईश्वर हैं।

सत्येन्द्र ने सजल नेत्र हो कर दोनों पत्र सुशीला के हाथ में दे दिये। सुशीला उन्हें बड़े मनोयोग-पूर्वक पढ़ने लगी। साद्यान्त पढ़ चुकने पर उसके मुख पर मन्द, मधुर मुस्कान दिखाई दी। सत्येन्द्र के गले में बड़े प्रेम से हाथ डालकर उसने कहा—बस इतनी ही‌ सी बात के लिए आपने आकाश-पाताल एक कर दिया था? सत्येन्द्र के लोचन-युगल से अश्रुधारा पतित होने लगी। सुशीला ने अपने अञ्चल से उनके आँसू पोंछ डाले और फिर उसने हार्मोनियम उठाकर इस चरण को बार-बार मधुर स्वर में गाना प्रारम्भ कर दिया— [ २६४ ]

सूरदास प्रभु वे अति खोटे, वह उनहू ते अति ही खोटी।
तुम जानत राधा है छोटी।'

सत्येन्द्र भी इस बार मुस्करा दिये।

सती का सहज-सुन्दर स्नेह सुर-सरिता की स्वच्छ धारा से भी अधिक विमल, शीतल एवं पवित्र है।

(७)

सुशीला की विमल आमोद-लहरी के शीतल प्रवाह ने सत्येन्द्र के हृदय की वेदना एवं ग्लानि को अधिकांश में प्रशमित कर दिया था; पर अब भी कभी-कभी उनकी भस्म में से एकाध स्फुलिङ्ग चमक उठती है। उसे भी शान्ति करने के लिए सत्येन्द्र सुशीला के समेत दुर्गापूजा की छुट्टी में उनके मायके को गये। बड़े आदर-सत्कार से गुणसुन्दरी तथा उसके माता-पिता और भाई ने उनका स्वागत किया। गुणसुन्दरी शिशु को पाकर हर्ष से खिल उठी।

उसके दूसरे दिन की बात है। प्रभात-काल का मनोरम प्रकाश धीरे-धीरे फैल रहा था—रजनी का अन्धकार क्रमशः पुष्पाभरण-भूषिता उषा देवी के पद-नख को आभा में विलीन होता जा रहा था। गुणसुन्दरी उस समय घर से सटे हुए बाग में पूजा के लिये फूल चुन रही थी। इसी समय, इसी भाव में, इसी दशा में, एक दिन और सत्येन्द्र ने गुणसुन्दरी को देखा था। सत्येन्द्र ने पीछे से बड़े मृदुल स्वर में पुकारा—गुणसुन्दरी!

गुणसुन्दरी ने भी उसी प्रकार चकित भाव से पीछे मुड़कर देखा और कहा—जीजाजी! कहिये चित्त तो प्रसन्न है? [ २६५ ]सत्येन्द्र—दया है जगज्जननी की, मैं आज तुमसे क्षमा माँगने आया हूँ। तुम्हारे पत्र को पढ़कर मेरा मोह अन्तर्हित हो गया था और उस समय मुझे अपना वह व्यवहार बड़ा कुत्सित प्रतीत हुआ। मैंने उसके लिये प्रायश्चित किया है—अब मैं पवित्र होकर आया हूँ। देवि! मुझे क्षमा करो।

गुणसुन्दरी—जीजाजी! आपको मुझसे नहीं, मेरी बहन से क्षमा माँगनी चाहिये। मेरी तो आप कुछ हानि कर ही नहीं सके—हाँ! अपनी स्त्री के प्रति आपने अवश्य विश्वास-घात किया है।

सत्येन्द्र—उस सती ने मुझे क्षमा कर दिया है। गुणसुन्दरी! वास्तव में हम लोग बड़े मूर्ख हैं। रमणी के भावों का, रमणी की चेष्टाओं का रहस्य जानना सहज नहीं, बड़ा दुष्कर है। कारण कि उसमें उद्भ्रान्त कर देने की सामर्थ्य है; नहीं तो अधिकांश में रमणी का हृदय और मुख सरल भाव से ही उद्दीप्त रहता है। तुम्हारी उस मन्द मुस्कान ने मुझे उद्भ्रान्त कर दिया था—उसके रहस्य-भेद से असमर्थ होकर ही मैंने कैसा पाप करने का साहस किया था। देवि! अब मैं अपने अपराध के लिये तुमसे क्षमा माँगता हूँ।

गुणसुन्दरी—जीजाजी! आप कैसी बातें कह रहे हैं। मैं आपकी छोटी हूँ—आप मेरे बड़े हैं। मैं क्या आपको क्षमा करने के योग्य हूँ।

सत्येन्द्र ने हाथ जोड़कर घुटने टेक दिये, वे बड़े भक्ति-भरित स्वर में बोले—बयस से कुल्ल नहीं होता है। तुम महामाया की [ २६६ ]प्रतिनिधि हो। जब तक तुम मुझे क्षमा नहीं करोगी, तब तक मैं यहाँ से नहीं उठूँगा।

गुणसुन्दरी के सहज-अरुण कपोल लज्जा से और भी गुलाबी हो गये। उसके अधर पर लज्जामयी मन्द मुस्कान नृत्य करने लगी—उसके ललाट पर प्रस्वेद के दो बिन्दु चमकने लगे—उसने सलज्ज भाव से कहा—उठिये जीजाजी! मुझे बड़ी लज्जा मालूम हो रही है। मैं नहीं जानती थी, कि आप नाट्य-कला में भी इतने प्रवीण हैं। यदि आपको इसी में सन्तोष है, तो उठिये, मैं आपको क्षमा करती हूँ। उठिये! जल्द उठिये जीजाजी! मुझे बड़ी लज्जा मालूम हो रही है। दया करके शीघ्र उठिये।

ठीक उसी समय सुशीला ने एक और बड़े कोमल, मधुर, स्वर में यह पद गाते हुए प्रवेश किया——

'देख्यो सखी वह कुञ्ज कुटी तट;
बैठ्यो पलोटत राधिका पाँयन।'

सुशीला का मुख-मण्डल जिस प्रफुल्ल मन्द मुस्कान से विलसित हो रहा था, वह और भी मधुर रहस्यमयी एवं पवित्र अर्थमयी थी।