गल्प समुच्चय/(३) दुखवा मैं कासे कहूँ मोरी सजनी

गल्प समुच्चय
प्रेमचंद, संपादक श्रीप्रेमचन्द जी
दुखवा मैं कासे कहूँ मोरी सजनी

काशी: सरस्वती-प्रेस, बनारस सिटी, पृष्ठ ८५ से – ९९ तक

 

दुखवा मैं कासे कहूँ मोरी सजनी
(१)

गर्मी के दिन थे। बादशाह ने उसी फागुन में सलीमा से नई शादी की थी। सल्तनत के सब झंझटों से दूर रहकर नई दुलहिन के साथ प्रेम और आनन्द की कलोल करने वह सलीमा को लेकर काश्मीर के दौलतखाने में चले आए थे। रात दूध में नहा रही थी। दूर के पहाड़ों की चोटियाँ बर्फ़ से सफेद होकर चाँदनी में बहार दिख रही थीं आरामबाग़ के महलों के नीचे पहाड़ी नदी, बल खाकर बह रही थी।

मोतीमहल के एक कमरे में शमादान जल रहा था, और उसकी खुली खिड़की के पास बैठी सलीमा रात का सौंदर्य निहार रही थी। खुले हुए बाल उसकी फीरोजी रंग की ओढ़नी पर खेल रहे थे। चिकन के काम से सजी और मोतियों से गुँथी हुई उस फ़रोजी रंग की ओढ़नी पर, कसी हुई कमख़ाब की कुरती और पन्नों की कमरपेटी पर, अंगूर के बराबर बड़े मोतियों की माला

झूम रही थी। सलीमा का रंग भी मोती के समान था। उसकी देह की गठन निराली थी। संगमर्मर के समान पैरों में ज़री के काम के जूते पड़े थे, जिन पर दो हीरे धक-धक् चमक रहे थे।

कमरे में एक क़ीमती ईरानी कालीन का फर्श बिछा हुआ था, जो पैर रखते ही हाथ-भर नीचे धंस जाता था। सुगन्धित मसालों से बने हुए शमादान जल रहे थे। कमरे में चार पूरे क़द के आईने लगे थे। संगमर्मर के आधारों पर, सोने-चाँदी के फूलदानों में, ताजे फूलों के गुलदस्ते रक्खे थे। दीवारों और दरवाजों पर चतुराई से गूथी हुई नागकेसर और चम्पे की मालायें झूम रही थीं, जिनकी सुगन्ध से कमरा महक रहा था। कमरे में अनगिनत बहुमूल्य कारीगरी की देश-विदेश की वस्तुएँ क़रीने से सजी हुई थीं।

बादशाह दो दिन से शिकार को गये थे। आज इतनी रात गई, अभी तक नहीं आये। सलीमा चाँदनी दूर तक आँखें बिछाये सवारों की गर्द देखती रही। आखिर उससे स्थिर न रहा गया। वह खिड़की से उठकर, अनमनी-सी होकर मसनद पर आ बैठी। उम्र और चिन्ता की गर्मी जब उससे सहन न हुई, तब उसने अपनी चिकन की ओढ़नी भी उतार फेंकी और आप-ही-आप झूँझलाकर बोली––"कुछ भी अच्छा नहीं लगता। अब क्या करूँ?" इसके बाद उसने पास रक्खी बीन उठा ली। दो-चार अँगुली चलाई; मगर स्वर न मिला! उसने भुनभुनाकर कहा––"मर्दों की तरह यह भी मेरे वश में नहीं है।" सलीमा ने उकताकर उसे रखकर दस्तक दी। एक बाँदी दस्तबस्ता आ हाज़िर हुई। बाँदी अत्यन्त सुन्दरी और कमसिन थी। उसके सौंदर्य में एक गहरे विषाद की रेखा और नेत्रों में नैराश्य की स्याही थी। उसे पास बैठने का हुक्म देकर सलीमा ने कहा––"साक़ी, तुझे बीन अच्छी लगती है या बाँसुरी?"

बाँदी ने नम्रता से कहा––"हुजूर जिसमें खुश हों।"

सलीमा ने कहा––"तू किस में खुश है?"

बाँदी ने कम्पित स्वर में कहा––"सरकार! बाँदियों की खुशी ही क्या?"

क्षण भर सलीमा ने बाँदी के मुँह की तरफ़ देखा––वैसा ही विषाद, निराशा और व्याकुलता का मिश्रण हो रहा था!

सलीमा ने कहा––मैं क्या तुझे बाँदी की नज़र से देखती हूँ?"

"नहीं, हज़रत की तो लौंडी पर खास मेहरबानी है।"

"तब तू इतनी उदास झिझकी हुई और एकान्त में क्यों रहती है? जब से तू नौकर हुई है, ऐसी ही देखती हूँ! अपनी तकलीफ़ मुझ से तो कह प्यारी साक़ी!"

इतना कहकर सलीमा ने उसके पास खिसककर उसका हाथ पकड़ लिया।

बाँदी काँप गई; पर बोली नहीं।

सलीमा ने कहा––“क़समिया! तू अपना दर्द मुझसे कह, तू इतनी उदास क्यों रहती है?"

बाँदी ने कम्पित स्वर से कहा––"हूजूर क्यों इतनी उदास रहती हैं?" सलीमा ने कहा––"इधर जहाँपनाह कुछ कम आने लगे हैं। इसी से तबीयत जरा उदास रहती है।"

बाँदी––"सरकार! प्यारी चीज़ न मिलने से इंसान को उदासी आ ही जाती है। अमीर और गरीब, सभी का दिल तो दिल ही है।"

सलीमा हँसी। उसने कहा––"समझी, तब तू किसी को चाहती है? मुझे उसका नाम बता, मैं उसके साथ तेरी शादी करा दूँगी"

साक़ी का सिर घूम गया। एकाएक उसने बेगम की आँखों से आँख मिलाकर कहा––"मैं आपको चाहती हूँ!"

सलीमा हँसते-हँसते लोट गई। उस मदमाती हँसी के वेग में उसने बाँदी का कम्पन नहीं देखा। बाँदी ने वंशी लेकर कहा––"क्या सुनाऊँ?"

बेगम ने कहा––"ठहर" कमरा बहुत गर्म मालूम देता है। इसके तमाम दरवाजे और खिड़कियाँ खोल दे। चिरागों को बुझा दे, चटखती चाँदनी का लुत्फ उठाने दे, और वे फूल मालाएँ मेरे पास रख दे।"

बाँदी उठी। सलीमा बोली––"सुन, पहले एक ग्लास शरबत दे, बहुत प्यासी हूँ।"

बाँदी ने सोने के ग्लास में ख़ुशबूदार शरबत बेगम के सामने ला धरा। बेगम ने कहा––"उफ् यह तो बहुत गर्म है। क्या इसमें गुलाब नहीं दिया?"

बाँदी ने नम्रता से कहा––"दिया तो है सरकार!" "अच्छा इसमें थोड़ा सा इस्तम्बोल और मिला।"

साक़ी ग्लास लेकर दूसरे कमरे में चली गई। इस्तम्बोल मिलाया, और भी एक चीज़ मिलाई। फिर वह सुवासित मदिरा का पात्र बेगम के सामने ला धरा।

एक ही साँस में उसे पीकर बेगम ने कहा––"अच्छा, अब सुना। तूने कहा था कि तू मुझे प्यार करती है; सुना, कोई प्यार का गाना सुना।"

इतना कह और ग्लास को ग़लीचे पर लुढ़काकर मदमाती सलीमा उस कोमल मख़मली मसनद पर खुद भी लुढ़क गई, और रस-भरे नेत्रों से साक़ी की ओर देखने लगी। साक़ी ने वंशी का सुर मिलाकर गाना शुरू किया––

"दुखवा मैं कासे कहूँ मोरी सजनी..."

बहुत देर तक साक़ी की वंशी और कण्ठ-ध्वनि कमरे में घूम-घूमकर रोती रही। धीरे-धीरे साक़ी खुद रोने लगी। साकी मदिरा ओर यौवन के नशे में चूर होकर झूमने लगी।

गीत ख़तम करके साकी ने देखा, सलीमा बेसुध पड़ी है। शराब की तेजी से उसके गाल एकदम सुर्ख हो गये हैं, और ताम्बूल-राग-रञ्जित होंठ रह-रहकर फड़क रहे हैं। साँस की सुगन्ध से कमरा महक रहा है। जैसे मन्द-पवन से कोमल पत्ती काँपने लगती है, उसी प्रकार सलीमा का वक्षःस्थल धीरे-धीरे काँप रहा है। प्रस्वेद की बूंदे ललाट पर दीपक के उज्ज्वल प्रकाश में, मोतियों की तरह चमक रही हैं। वंशी रखकर साक़ी क्षण-भर बेगम के पास आकर खड़ी हुई। उसका शरीर काँपा, आँखें जलने लगी, कण्ठ सूख गया। वह घुटने के बल बैठकर बहुत धीरे-धीरे अपने आँचल से बेगम के मुख का पसीना पोंछने लगी। इसके बाद उसने झुककर बेगम का मुँह चूम लिया।

इसके बाद ज्योंही उसने अचानक आँख उठाकर देखा, खुद दीन-दुनिया के मालिक शाहज़हाँ खड़े उसकी यह करतूर अचरज और क्रोध से देख रहे हैं।

साक़ी को साँप डस गया। वह हत-बुद्धि की तरह बादशाह का मुँह ताकने लगी। बादशाह ने कहा––"तू कौन है? और यह क्या कर रही थी?"

साक़ी चुप खड़ी रही। बादशाह ने कहा––"जवाब दे!"

साक़ी ने धीमे स्वर में कहा-"जहाँपनाह! कनीज़ अगर कुछ जवाब न दे, तो?"

बादशाह सन्नाटे में आ गये। बाँदी की इतनी स्पर्धा!

उन्होंने कहा––"मेरी बात का जवाब नहीं? अच्छा तुझे नंगी करके कोड़े लगाए जाँयगे!"

साक़ी ने कम्पित स्वर में कहा––"मैं मर्द हूँ!"

बादशाह की आँखों में सरसों फूल उठी, उन्होंने अग्नि-मय नेत्रों से सलीमा की ओर देखा। वह बेसुध पड़ी सो रही थी। उसी तरह उसका भरा यौवन खुला पड़ा था। उनके मुँह से निकला–– "उफ फाहशा!" और तत्काल उनका हाथ तलवार की मूठ पर

गया। फिर नीचे को उन्होंने घूमकर कहा––"दोज़ख के कुत्ते! तेरी यह मजाल!"

फिर कठोर स्वर से पुकारा––"मादूम!"

क्षण-भर में एक भयंकर रूपवाली तातारी औरत बादशाह के सामने अदब से आ खड़ी हुई। बादशाह ने हुक्म दिया––"इस मर्दूद को तहखाने में डाल दे; ताकि बिना खाए-पिए मर जाय।"

मादूम ने अपने कर्कश हाथों में युवक का हाथ पकड़ा, और ले चली। थोड़ी देर में दोनों एक लोहे के मज़बूत दरवाज़े के पास आ खड़े हुए। तातारी बाँदी न चाभी निकाल दरवाजा खोला, और कैदी को भीतर ढकेल दिया। कोठरी की गच क़ैदी का बोझ ऊपर पड़ते ही काँपती हुई नीचे को धसकने लगी!

(२)

प्रभात हुआ। सलीमा को बेहोशी दूर हुई। चौंककर उठ बैठी। बाल सँवारे, ओढ़नी ठीक की, और चोली के बटन कसने को आईने के सामने जा खड़ी हुई। खिड़कियाँ बन्द थीं। सलीमा ने पुकारा––"साक़ी! प्यारी साक़ी! बड़ी गर्मी है, ज़रा खिड़की तो खोल दो। निगोड़ी नींद ने तो आज ग़ज़ब ढा दिया। शराब कुछ तेज़ थी।"

किसी ने सलीमा को बात न सुनी। सलीमा ने ज़रा ज़ोर से पुकारा––"साक़ी!"

जवाब न पाकर सलीमा हैरान हुई। वह खुद खिड़की खोलने

लगी। मगर खिड़कियाँ बाहर से बन्द थीं। सलीमा ने विस्मय से मन-ही-मन कहा––"क्या बात है? लौंड़ियाँ सब क्या हुईं?"

वह द्वार की तरफ चली! देखा, एक तातारी बाँदी नंगी तलवार लिए पहरे पर मुस्तैद खड़ी है। बेगम को देखते ही उसने सिर झुका लिया।

सलीमा ने क्रोध से कहा––"तुम लोग यहाँ क्यों हो?"

"बादशाह के हुक्म से।"

"क्या बादशाह आ गये?"

"जी हाँ।"

"मुझे इत्तिला क्यों नहीं की?"

"हुक्म नहीं था।"

"बादशाह कहाँ हैं?"

"ज़ीनतमहल के दौलतख़ाने में।"

सलीमा के मन में अभिमान हुआ। उसने कहा––

"ठीक है, खुबसूरती की हाट में जिनका कारबार है, वे मुहब्बत को क्या समझेंगे? तो अब ज़ीनतमहल की किस्मत खुली?"

तातारी स्त्री चुपचाप खड़ी रही। सलीमा फिर बोली––"मेरी साकी कहाँ है?"

"कैद में!"

"क्यों?"

"जहाँपनाह का हुक्म।"

"उसका कुसूर क्या था!" "मैं अर्ज नहीं कर सकती।"

"कैदखाने की चाभी मुझे दे, मैं अभी उसे छुड़ाती हूँ।"

"आपको अपने कमरे से बाहर जाने का हुक्म नहीं है।"

"तब क्या मैं भी कैद हूँ?"

"जी हाँ।"

सलीमा की आँखों में आँसू भर आए। वह लौटकर मसनद पर पड़ गई, और फूट-फूट कर रोने लगी, कुछ ठहरकर उसने एक खत लिखा––

"हुजूर! मेरा कुसूर माफ़ फ़र्मावें। दिन भर की थकी होने से ऐसी बेसुध सो गई कि हुजूर के इस्तक़बाल में हाज़िर न रह सकी। और, मेरी उस प्यारी लौंड़ी की भी जाँ-बख्शी की जाय। उसने हुजूर के दौलतखाने में लौट आने की इत्तिला मुझे वाजिबी तौर पर न देकर बेशक भारी कुसूर किया है; मगर वह नई, कमसिन, ग़रीब और दुखिया है।

कनीज़

सलीमा"

चिट्ठी बादशाह के पास भेज दी गई। बादशाह की तबीयत बहुत ही नासाज़ थी। तमाम हिन्दुस्तान के बादशाह की औरत फ़ाहशा निकले! बादशाह अपनी आँखों से परपुरुष को उसका मुँह चूमते देख चुके थे! वह गुस्से से तलमला रहे थे, और ग़म गलत करने को अन्धाधुन्ध शराब पी रहे थे। ज़ीनतमहल मौक़ा

देखकर सौतिया डाह का बुखार निकाल रही थी। तातारी बाँदी को देखकर बादशाह ने आग होकर कहा––"क्या लाई है?"

बाँदी ने दस्तबस्ता अर्ज की––"खुदाबंद! सलीमा बीबी की अर्ज़ी है।"

इतना कहकर उसने सामने ख़ता रख दिया।

बादशाह ने गुस्से से होंठ चबाकर कहा––"उससे कह दे कि मरजाय।" इसके बाद ख़त में एक ठोकर मारकर उन्होंने उधर से मुँह फेर लिया।

बाँदी लौट आई। बादशाह का जवाब सुनकर सलीमा धरती पर बैठ गई। उसने बाँदी को बाहर जाने का हुक्म दिया, और दरवाज़ा बन्द करके फूट-फूट कर रोई घंटों बीत गए, दिन छिपने लगा। सलीमा ने कहा––"हाय! बादशाहों की बेगम होना भी क्या बदनसीबी है! इन्तज़ारी करते-करते आँख फूट जाये, मिन्नतें करते-करते ज़बान घिस जाय, अदब करते-करते जिस्म टुकड़े-टुकड़े हो जाय, फिर भी इतनी-सी बात पर कि मैं जरा सो गई, उनके आने पर जाग न सकी, इतनी सजा? इतनी बेइज्ज़ती?

तब मैं बेगम क्या हुई? जीनत और बाँदियाँ सुनेंगी, तो क्या कहेंगी? इस बेइज्ज़ती के बाद मुँह दिखाने लायक कहाँ रही? अब तो मरना ही ठीक है। अफसोस! मैं किसी ग़रीब किसान की औरत क्यों न हुई!"

धीरे-धीरे स्त्रीत्व का तेज उसकी आत्मा में उदय हुआ। गर्व

और दृढ़ प्रतिज्ञा के चिह्न उसके नेत्रों में छा गए। वह साँपिन की तरह चपेट खाकर उठ खड़ी हुई। उसने एक और ख़त लिखा--

"दुनिया के मालिक! आपकी बीबी और कनीज़ होने की वजह से मैं आपके हुक्म को मानकर मरती हूँ। इतनी बेइज्ज़ती पाकर एक मलिका का मरना ही मुनासिब भी है। मगर इतने बड़े बादशाह को औरतों को इस क़दर नाचीज़ तो न समझना चाहिए कि एक अदना सी बेवकूफ़ी की इतनी बड़ी सजा दी जाय। मेरा कुसुर सिर्फ इतना ही था कि मैं बेख़बर सो गई थी। खैर, सिर्फ़ एक बार हुजूर को देखने की ख्वाहिश लेकर मरती हूँ। मैं उस पाक परवरदिगार के पास जाकर अर्ज़ करूँगी कि वह मेरे शौहर को सलामत रक्खे।

सलीमा"

खत को इत्र से सुवासित करके ताजे फूलों के एक गुलदस्ते में इस तरह रख दिया कि जिससे किसी की उस पर फ़ौरन ही नज़र पड़ जाय। इसके बाद उसने जवाहरात की पेटी से एक बहुमूल्य अँगूठी निकाली, और कुछ देर तक आँख गड़ा-गड़ाकर उसे देखती रही। फिर उसे चाट गई!

(३)

बादशाह शाम की हवाख़ोरी को नज़र-बाग में टहल रहे थे। दो-तीन खोजे घबराए हुए आए, और चिट्ठी पेश करके अर्ज की––“हुजूर, ग़ज़ब हो गया! सलीमा बीबी ने ज़हर खा लिया है, और वह मर रही हैं।" क्षण-भर में बादशाह ने खत पढ़ लिया। झपटे हुए सलीमा के महल में पहुँचे। प्यारी दुलहिन सलीमा ज़मीन में पड़ी है। आँखें ललाट पर चढ़ गई हैं। रंग कोयले के समान हो गया है। बादशाह से रहा न गया। उन्होंने घबराकर कहा––'हकीम' हकीम को बुलाओ! कई आदमी दौड़े।"

बादशाह का शब्द सुनकर सलीमा ने उनकी तरफ देखा, और धीमें स्वर में कहा––"ज़हे किस्मत!"

बादशाह ने नज़दीक बैठकर कहा––"सलीमा! बादशाह की बेगम होकर क्या तुम्हें यही लाज़िम था?"

सलीमा ने कष्ट से कहा––हुजूर मेरा कुसूर बहुत मामूली था"

बादशाह ने कड़े स्वर में कहा––"बदनसीब! शाही ज़नानख़ाने में मर्द को भेष बदलकर रखना मामूली कुसूर समझती है? कानों पर यक़ीन कभी न करता; मगर आँखों देखी को भी झूठ मान लूँ?"

जैसे हज़ारों बिच्छुओं के एक साथ डंक मारने से आदमी तड़पता है, उसी तरह तड़पकर सलीमा ने कहा––"क्या?"

बादशाह डरकर पीछे हट गए। उन्होंने कहा––"सच कहो, इस वक्त तुम खुदा की राह पर हो, यह जवान कौन था?"

सलीमा ने अकचकाकर पूछा––"कौन जवान?"

बादशाह ने गुस्से से कहा––"जिसे तुमने साक़ी बनाकर पास रक्खा था?"

सलीमा ने घबराकर कहा––"हैं! हैं क्या वह मर्द है?"
बादशाह––"तो क्या तुम सचमुच यह बात नहीं जानती?"

सलीमा के मुँह से निकला––“या खुदा!"

फिर उसके नेत्रों से आँसू बहने लगे। वह सब मामला समझ गई। कुछ देर बाद बोली––"खाविन्द! तब तो कुछ शिकायत ही नहीं; इस कुसूर की तो यही सज़ा मुनासिब थी। मेरी बदगुमानी माफ़ फरमाई जाय। मैं अल्लाह के नाम पर पड़ी कहती हूँ, मुझे इस बात का कुछ भी पता नहीं है।"

बादशाह का गला भर आया। उन्होंने कहा––"तो प्यारी सलीमा! तुम बेकुसूर ही चलीं?" बादशाह रोने लगे।

सलीमा ने उनका हाथ पकड़कर अपनी छाती पर रखकर कहा––"मालिक मेरे! जिसकी उम्मीद न थी, मरते वक्त वह मज़ा मिल गया। कहा-सुना माफ हो, और एक अर्ज लौंडी की मंजूर हो।"

बादशाह ने कहा––"जल्दी कहो सलीमा!"

सलीमा ने साहस से कहा––"उस जवान को माफ़ कर देना।"

इसके बाद सलीमा की आँखों से आँसू बह चले, और थोड़ी ही देर में वह ठंडी हो गई!

बादशाह ने घुटनों के बल बैठकर उसका ललाट चूमा, और फिर बालक की तरह रोने लगे।

(४)

ग़ज़ब के अँधेरे और सर्दी में युवक भूखा-प्यासा पड़ा था। एकाएक घोर चीत्कार करके किवाड़े खुले । प्रकाश के साथ ही

एक गम्भीर शब्द तहखाने में भर गया––"बदनसीब नौजवान! क्या होश-हवास में है?"

युवक ने तीव्र स्वर में पूछा––"कौन?"

जवाब मिला––"बादशाह"

युवक ने कुछ भी अदब किये बिना कहा––"यह जगह बादशाहों के लायक़ नहीं है––क्यों तशरीफ़ लाये हैं?"

"तुम्हारी कैफियत नहीं सुनी थी, उसे सुनने आया हूँ।"

कुछ देर चुप रहकर युवक ने कहा––"सिर्फ सलीमा को झूठी बदनामी से बचाने के लिये कैफीय देता हूँ, सुनिए––सलीमा जब बच्ची थी, मैं उसके बाप का नौकर था। तभी से मैं उसे प्यार करता था। सलीमा भी प्यार करती थी; पर वह बचपन का प्यार था। उम्र होने पर सलीमा परदे में रहने लगी, और फिर वह शाहंशाह की बेगम हुई। मगर मैं उसे भूल न सका। पाँच साल तक पागल की तरह भटकता रहा। अन्त में भेष बदलकर बाँदी की नौकरी कर ली। सिर्फ उसे देखते रहने और खिदमत करके दिन गुज़ार देने का इरादा था। उस दिन उज्ज्वल चाँदनी, सुगन्धित पुष्पराशि, शराब की उत्तेजना और एकान्त ने मुझे बेबस कर दिया। उसके बाद मैंने आंचल से उसके मुख का पसीना पोंछा, और मुँह चूम लिया। मैं इतना ही ख़तावार हूँ। सलीमा इसकी बाबत कुछ नहीं जानती।"

बादशाह कुछ देर चुप-चाप खड़े रहे। इसके बाद वह बिना ही दरवाज़ा बन्द किए धीरे-धीरे चले गए!

(५)

सलीमा की मृत्यु को दस दिन बीत गए । बादशाह सलीमा के कमरे में ही दिन-रात रहते हैं। सामने नदी के उस पार, पेड़ों के झुरमुट में सलीमा की सफेद कब्र बनी है। जिस खिड़की के पास सलीमा बैठी उस रात को बादशाह की प्रतीक्षा कर रही थी, उसी खिड़की में, उसी चौकी पर बैठे हुए बादशाह उसी तरह सलीमा की क़ब्र दिन-रात देखा करते हैं। किसी को पास आने का हुक्म नहीं। जब आधी रात हो जाती है, तो उस गम्भीर रात्रि के सन्नाटे में एक मर्म-भेदिनी गीत-ध्वनि उठ खड़ी होती है। बादशाह साफ़-साफ़ सुनते हैं, कोई करुण-कोमल स्वर में गा रहा है––

"दुख वा मैं कासे कहूँ मोरी सजनी?"