कोड स्वराज/सूचना का अधिकार, ज्ञान का अधिकारः कार्ल मालामुद की टिप्पणियां

कोड स्वराज
कार्ल मालामुद

पृष्ठ ८५ से – १०२ तक

 

सूचना का अधिकार, ज्ञान का अधिकारः कार्ल मालामुद की टिप्पणियां

हैज़ गिक गिकअप’ (अतिथि विचारक द्वारा सार्वजनिक व्याख्यान), न्युमा (NUMA) बेंगलुरु, 15 अक्टूबर, 2017

धन्यवाद, सैम क्या आप मुझे सुन सकते हैं? हाँ, यह एक बेहतरीन सुविधा है।

हमारी मेजबानी करने के लिए मैं न्यूमा को धन्यवाद देना चाहता हूँ और विशेष रूप से, इस समारोह का आयोजन करने के लिए 'हैज़ गिक' को धन्यवाद देता हूँ। खास कर संध्या रमेश ने, जिन्होंने, सभी चीजों को अच्छे तरीके से संयोजित किया है। हमारा परिचय इतना अच्छा देने के लिए प्रनेश आपको धन्यवाद, और इतनी अच्छी उपदेशात्मक प्रस्तुतिकरण के लिए श्रीनिवास और टी.जे आपको भी धन्यवाद। साथ ही मैं सैम को भी धन्यवाद देना चाहूँगा जिन्होंने पुनः मुझे भारत में आमंत्रित किया।

यहाँ आना मेरा सौभाग्य है।

मेरा पेशा अजीब है। मैं एक सार्वजनिक प्रिंटर हूं।

आपने निजी प्रिंटर के बारे में सुना होगा, है ना? वे हॉलीवुड में उपन्यास लिखते हैं, और इन चीजों को प्रकाशित करते हैं।

सार्वजनिक प्रिंटर की शुरूआत सालों पहले हुई है। उस समय एक सार्वजनिक प्रिंटर था, जिसका नाम अशोक था। जो सभी का प्रिय शासक था, जिन्होंने अनेक खम्भों पर अंकित कर सरकार के अध्यादेशों को जारी किया और उन्हें पूरे भारत में फैलाया था। उन्होंने ऐसा इसलिए किया ताकि लोग कानून और धर्म को जान सकें, और यह भी जान सकें कि जानवरों के साथ भी सही व्यवहार करना चाहिए।विभिन्न धर्मों के साथ सहिष्णुता बरतनी चाहिए।

कुछ सौ साल पहले रोम में, लोगों ने अपने शासकों के खिलाफ विद्रोह किया था और कहा था कि “आपको कानूनों को लिखना होगा। आप ऐसा कर नहीं सकते कि हम जब भी न्यायालय जाएँ आप एक कानून बना दें।” उन्होंने रोमन कानून की 12 तालिकाएँ ली और फिर उन्हें पीतल के धातु पर और लकड़ी के तख्ते पर अंकित कराया और उन्हें रोमन साम्राज्य के बाजार में रखवाया ताकि लोगों को उनके कानून का ज्ञान हो सके।

ऐसा इसलिए किया गया था क्योंकि सार्वजनिक मुद्रण ऐसी चीज है, जो हम सभी से संबंधित है। यह निजी मुद्रण से भिन्न है जहां पर आप, कुछ पैसा कमाने के लिए काम करते हैं, और फिर यह हो सकता है कि 70 सालों के बाद, या इस दिन और इस समय और 150 सालों के बाद, यह भी सार्वजनिक विषय में शामिल हो जाए। लेकिन सार्वजनिक मुद्रण ऐसी चीज है, जो हम सभी का अपना हैं। और मैं, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में, यह काम 37 सालों से कर रहा हूँ, सभी चीजें, सांस्कृतिक अभिलेखों से लेकर कानूनी दस्तावेजों तक। मैंने 6,000 सरकारी वीडियो लिया है, जिन्हें सरकार ने ऑनलाइन कर दिया था। मैंने उन्हें कॉपी किया और उन्हें यूट्यूब पर डाल दिया, जिन्हें 5 करोड़ से अधिक देखने वाले मिले। ये वीडियो अब भी वहां मौजूद हैं।

उदाहरण के लिए, “द सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज कमीशन' (Securities and Exchange Commission) से, किसी सार्वजनिक निगम की आई.पी.ओ. रिपोर्ट प्राप्त करने के लिए 30 डॉलर की कीमत अदा करनी होती है। हमने इसे नि:शुल्क रखा है। और अब, लाखों लोग इस जानकारी का उपयोग कर रहे हैं।

लगभग पांच साल पहले, मैंने भारतीय डेटा पर काम करना शुरू किया। मैंने संयुक्त अमेरिका में काम करना जारी रखा लेकिन भारत में ऐसी दो जगहें हैं, जहां पर अब मैं अपना काम करता हूँ और मै अब पांच संग्रह की देख रेख करता हूँ।

पहला फोटोग्राफ का: सूचना मंत्रालय के पास अनेक तस्वीरों का संग्रह है, जो ऑनलाइन है। लेकिन वे छिपी हुई हैं। आप उनका पता नहीं लगा सकते। आप इंडेक्स पेज को देख सकते हैं, जहां पर हजारों तस्वीरें हैं। आपको असली तस्वीर देखने के लिए वहां पर क्लिक करना होगा। इसलिए मैंने उनमें से 12,000 तस्वीरों को निकाल कर उसे ‘फ्लिकर' से जोड़ा दिया। ये अद्भुत तस्वीरें हैं। यह भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के वर्ष 1947, 1948 और 1949 के गणतंत्र दिवस समारोहों की तस्वीरें हैं। क्रिकेट खेलते हुए लोगों की, ओलंपिक की, जानवरों की, और भारत के मंदिरों की तस्वीरें हैं - ये सभी तस्वीरें बेहद ही खुबसूरत हैं। वहां पर, ऐसी और कई तस्वीरें होनी चाहिए और वह भी अच्छे रिजोल्युशन में होनी चाहिए।

दूसरा, भारतीय मानक ब्यूरो: ‘द बिल्डिंग कोड ऑफ इंडिया', मूल्य 14,000 रुपये। भारत मैं प्रत्येक वर्ष इंजीनियरिंग में 6,50,000 विद्यार्थी होते हैं, जिन्हें इस दस्तावेज को देखने की आवश्यकता है। और इसके लिये उन्हें पुस्तकालय जाना पड़ता है और एक खास CD-ROM लेना पड़ता है या उन्हें वहाँ से एक खास पुस्तक लेनी पड़ती है। हमने उन्हें ऑनलाइन कर दिया है और अब उन पर, प्रति माह लाखों की संख्या में लोग देखने (व्यूज़) आते हैं।

वास्तव में, भारत सरकार ने हम पर कोई मुकदमा नहीं चलाया है। हम पर संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, और यूरोप में विभिन्न संगठनों द्वारा मुकदमा चलाया गया है, लेकिन भारत मानक ब्यूरो ने हमें अगला कोई उत्पाद बेचने से मना कर दिया और इसी कारण मैंने उन्हें एक पत्र भेजा। मैंने उनसे मानक प्राप्त करने के लिए प्रतिवर्ष 5,000 डॉलर का भुगतान किया। उसे कुछ सालों तक चलाया और उन्होंने मुझे नवीनीकरण का नोटिस भेजा। मैंने कहा कि । “जरूर, मैं नवीनीकरण कराने के लिए तैयार हैं। लेकिन मेरे पास सारे मानक हैं, क्या यह बड़ी बात नहीं है। क्या मैं इनको एच.टी.एम.एल. (HTML) में आपको दें ?”

क्यों कि बहुत सारे मानकों को जो भारत का है, उन्हें एच.टी.एम.एल. में फिर से टाइप किया, चित्रों (डायग्राम) को एस.वी.जी. (SVG) में ड्रा किया, फॉर्मुलों को मैथएमएल (MathML) में कोड किया ताकि आप इसे अपने फोन पर देख सकें, इसका डायग्राम ले सकें, इसे बड़ा बना सकें, और इसे अपने दस्तावेजों पर चिपका सकें।
कार्ल मालामुद की टिप्पणियां

अब हम जन हित के लिए भारत सरकार पर मुकदमा कर रहे हैं। श्रीनिवास कोडाली मेरे सह-याचिकाकर्ता हैं। मेरे दोस्त, सशांत सिन्हा, जो यहां मौजद हैं. वो एक अदभत पत्रिका ‘इन्डियन कानून का प्रकाशन करते हैं, जो न्यायालय के सभी मामलों के बारे में सूचना देती है। वे मेरे सह-याचिकाकर्ता हैं। निशीथ देसाई और उनके सहयोगी, उच्च न्यायलय दिल्ली में, नि:शुल्क रूप से हमारा प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। सलमान खुर्शीद इस मामले में हमारे वरिष्ठ अधिवक्ता हैं।

पुनः हमें नवंबर महीने में अदालत में पेश होना है। इससे संबंधित कागजी कार्य समाप्त हो गए हैं और केंद्रीय सरकार चौथी बार भी अपनी प्रतिक्रिया देने में विफल रही है। हम मौखिक बहस कर इस केस को जीतने की उम्मीद कर रहे हैं। भारत में सरकारी सूचना का अधिकार, संविधान पर आधारित है। ये मानक सरकारी दस्तावेज हैं, जिन्हें कानून की शक्ति प्राप्त है।

तीसरा संग्रह, सरकारी राजपत्रों का है, जिसके बारे में श्रीनिवास ने अभी बात की है। हमने अभी इन पर काम करना शुरू किया है। हमने अभी भारत के राजपत्र' को प्रदर्शित किया है। अब मुझे कर्नाटक, गोवा, दिल्ली और अन्य कई प्रदेशों का राजपत्र मिल गया है। हम उन्हें अपलोड करने की तैयारी कर रहे हैं और यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि बाकी बचे राजपत्रों को कैसे प्राप्त किया जा सकता है।

चौथा संग्रह ‘हिंद स्वराज' है। मैं एक दिन सैम से मिलने गया और उन्होंने पूछा कि “ क्या आपके पास पेनड्राइव है?”

"क्या?” फिर मैंने उन्हें एक यू.एस.बी. ड्राइव दिया। उसे उन्होंने कंप्यूटर में लगाया और फिर लगभग 15 मिनट के बाद मुझे वह वापस कर दिया। मैंने पूछा कि “यह क्या है?”

उन्होंने उत्तर दिया कि “महात्मा गांधी के संकलित कार्य हैं, सभी 100 भाग, जो 50,000 पृष्ठ की हैं। मैंने पूछा, “आपने इसे कहाँ से प्राप्त किया?”

यह मुझे आश्रम ने दिया”

“अच्छा, अब वे इसका क्या करेंगे?”

सैम ने कहा कि वे उनको वेबसाइट पर डालेंगे।

पुनः मैंने पेनड्राइव को देखा और पूछा, “क्या मैं इसे वेबसाइट पर डाल सकता हूँ?”

सैम ने आत्मविश्वास से कहा “हाँ, जरूर!”

क्या वे नाराज नहीं होंगे?”

“नहीं, कोई इसकी परवाह नहीं करेगा” इसलिए मैंने उन्हें इंटरनेट पर डाल दिया। मैंने यह निर्णय उसी समय ले लिया था जब हम इस संग्रह के 100 भागों पर काम कर रहे थे। आप उन्हें सर्च कर सकते हैं और इसे ई-बक के रूप में डाउनलोड भी कर सकते हैं। मैं दूसरे सरकारी सर्वर पर भी गया। मुझे उनमें जवाहर लाल नेहरू द्वारा किए गए कुछ चयनित कार्य मिलें। लेकिन उनमें तीन खंड गायब थे। मैंने उन तीन खंडों की तलाश की। वे सभी इंटरनेट पर मौजूद थे।

अब हमारे पास नेहरू जी के काम का संपूर्ण संग्रह है। डॉ. भीमराव अंबेडकर का संपूर्ण कार्य महाराष्ट्र से संबंधित सर्वर पर मौजूद था। लेकिन उनमें से भी छह प्रचलित खंड गायब थे। मैंने सर्वर से दस्तावेज लिए और शेष खंडों को प्राप्त किया। अब हमारे पास अंबेडकर जी के कार्यों का पूर्ण संग्रह है जो हिंद स्वराज संग्रह में इंटरनेट आर्काइव' पर है।

उसमें महात्मा गांधी द्वारा आकाशवाणी पर दिए गए 129 भाषण भी मौजूद हैं। उनके जीवनकाल के अंतिम वर्ष, प्रत्येक दिन, वह प्रार्थना सभा के बाद भाषण देते थे। इस तरह आप गांधीजी के अद्भुत जीवन के अंतिम वर्षों में उनके द्वारा दिए गए भाषण सुन सकते हैं। आप उनके संग्रहित कार्य को देख सकते हैं। उनके भाषणों के अंग्रेजी संस्करणों को भी देख सकते हैं और फिर आप उनके अगले दिन पर जाएँ - अगले दिन उनके द्वारा लिखे गए पत्रों को देख सकते हैं। अगले दिन उनके द्वारा दिए गए भाषणों को सुन सकते हैं। यह उनके जीवन को, दिन प्रतिदिन लगातार देखने का शानदार तरीका है।

हमने दूरदर्शन आर्काइव को देखा। उसमें नेहरू जी द्वारा कही गई भारत एक खोज, द डिस्कवरी ऑफ इंडिया की 1980 के दशक की श्रृंखला को पोस्ट किया। अब वे सारे एपिसोड इंटरनेट पर मौजूद हैं। हमने उनमें से कुछ एपिसोडों के तेलुगू और उर्दू भाषा के उपशीर्षक भी तैयार किए। उसके उपशीर्षक हमारे पास पांच भाषाओं में उपलब्ध हैं। इन सभी कार्यों को हम इसी रूप में करना चाहेंगे।

लेकिन मैं ‘डिजिटल लाइब्रेरी ऑफ इंडिया' के बारे में बात करना चाहूँगा क्योंकि यह वर्तमान समय का सबसे अहम मुद्दा है। जिस पर हम काम कर रहे हैं। वहां पर ऐसा सरकारी सर्वर था जिसमें 5,50,000 पुस्तकें मौजूद थी। कम-से-कम उतनी तो थी ही जितना उन्होंने कहा था।

एक साल पहले की बात है। मैं सैम के साथ बैठा था। हमने साप्ताहिक दौरे पर भारत का भ्रमण कर लिया था और काफी थक चुके थे। मेरी तबीयत खराब थी। हम संयुक्त राष्ट्र अमेरिका वापस जाने के लिए अपनी देर रात की फ्लाइट का इंतजार कर रहे थे। सैम से मिलने बहुत लोग आ रहे थे। मैं चारो तरफ देख रहा था और मुझे डिजिटल लाइब्रेरी ऑफ इंडिया दिखी।

मैंने देखा तो मुझे ऐसा लगा कि वहाँ से चीजे निकाल ली जा सकती थीं। वहां पर बहुत सारी |पुस्तकें थीं। उन्हें देखना सुविधाजनक नहीं लग रहा था इसलिए मैंने एक छोटा-सा स्क्रिप्ट लिखा और वह काम कर गया। जब हम हवाईजहाज की यात्रा पूरी करके घर गए और अपने सर्वर को देखा। मैं इस बात को लेकर संतुष्ट हो गया कि हमने कुछ पुस्तकों को कार्ल मालामुद की टिप्पणियां

हथिया लिया है। अगले तीन महीनों तक, मैंने उनकी पुस्तकों को हथिया कर अपने सर्वर पर उतारना शुरू कर दिया।

इस काम में थोड़ा समय लगा। यह डाटा लगभग 30 टेराबाइट का था। मैंने उनके 4,63,000 पुस्तकों को प्राप्त करने में मैं सफल रहा। जिनमें से कुछ मुझे नहीं मिल पाए और कुछ पुस्तकों के URL अधूरे थे, लेकिन हमें 4,63,000 PDF फाइलें प्राप्त हुईं।

यह पिछले वर्ष (2016) का दिसबंर का महीना था और जनवरी महीने में मैंने इसे “इंटरनेट आर्काइव' पर अपलोड कर दिया। जब आप इतनी अधिक मात्रा में कार्य करते हैं और उन्हें अपलोड करते हैं, तब ऐसी चीजें को अपलोड होने में समय लगता हैं। अब मैंने इस संग्रह। को बारीकी से देखना शुरू किया है। मैं तब तक इसके बारे में वास्तविक रूप से कुछ नहीं बता सकता जब तक मुझे डाटा न मिल जाए।

यहां 50 विभिन्न भाषाओं की पुस्तकें उपलब्ध हैं। मेरा मानना है कि यहां 30,000 पुस्तकें संस्कत भाषा में हैं। जहां दस हजार पस्तकें गजराती, बंगाली, हिंदी, पंजाबी और तेलग आदि भाषाओं में उपलब्ध हैं। इस संग्रह में लगभग आधी पुस्तकें अंग्रेजी, फ्रेंच और जर्मन भाषाओं में उपलब्ध हैं, लेकिन फिर भी यह अद्भुत संग्रह है।

अभी, इसमें भी कई समस्याएं हैं। जब मैंने इनको ‘मिरर सर्वर पर कापी करना शुरू किया तो करीब 500 बार सिस्टम ने गलती (एरर) बताये। अनेक बार प्रोगाम रुका, अनेक बार मेरा स्क्रिप्ट भी। अगले दिन फिर मैं जाता और फिर मैं अपना स्क्रिप्ट चलाता। इस तरह मुझे बहुत से डाटा प्राप्त हुए। और फिर कई बार उनका DNS भी काम करना बंद कर देता। उनका DNS लगातार डाउन होता रहता था।

यदि आप DNS को नाम से खोजेगें तो यह बताएगा कि “होस्ट नहीं मिला,” और ऐसी समस्या बार-बार आएगी। मैंने आई.पी. एड्रेस को ‘हाई कोड' करना शुरू किया क्योंकि मेरे पास दस्तावेजों को प्राप्त करने का केवल यही तरीका बचा था। वहां पर, खराब हॉस्टिंग के अलावा अन्य मुद्दे भी हैं। मेटाडाटा एक अव्यवस्थित रूप में है। अधिकांश शीर्षक टूटे हुए हैं। कुछ स्कैनिंग, सही तरीके से हैं और कुछ ठीक तरीके से नहीं हैं।

यहां पर अनेक प्रतिलिपि दुबारा डाले हुए हैं लेकिन फिर भी यह अद्भुत संग्रह है। मैंने यह भी देखा कि वहां पर ऐसी कुछ पुस्तकें थी, जो कॉपीराइट के आधार पर बहुत रोचक लग रही थी। मैंने उन्हें देखा और कहा कि इनमें से कुछ पुस्तके हाल के ही छपे हुए हैं। लेकिन मैंने नीचे कॉपीराइट वाले स्थान पर “इस पर कॉपीराइट नहीं है” लिखा हुआ देखा। इसलिए मैंने सोंचा “उन्हें जरुर ही पता होगा कि वे क्या कर रहे हैं।"

मैं आर्काइव पर कुछ ऐसा करता हूँ कि मैं उन्हें इंटरनेट पर डालता हूँ। यदि लोग इसकी शिकायत करना शुरू करते हैं तो हम कहते हैं “ठीक है, मैं इसे हटा देता हूँ।” इसलिए मैंने इसे इंटरनेट पर डाल दिया है और वह इस वर्ष के फरवरी महीने से ऑनलाइन हो गया है। हमें अब तक, इस संग्रह पर पचास लाख लोग देखने आ चुके हैं।
यह संग्रह ऑनलाइन है। गूगल ने इसे देखना शुरू कर दिया है। लोग भी इसे देखते हैं। लगभग आधे दर्जन लोगों ने हमें पत्र लिखा है और कहा है कि “अहा! आपके पास मेरी पुस्तक है।” यदि किसी ने संयुक्त राज्य अमेरिका के डी.एम.सी.ए. (DMCA) मानक के बारे में एतराज किया तो हमारा उत्तर है “कोई समस्या नहीं। ठीक है, हम इन सभी पुस्तकों को हटा देंगे।"


यूनिवर्सिटी ऑफ नोर्थ कैरोलिना प्रेस ने हमें एक पत्र भेजा। उनके पास 35 पुस्तकों की एक सूची थी। यह एक बेहतरीन पत्र था जिसमें उन्होंने कहा कि “हमें इस बात से आपत्ति नहीं है कि आपके पास हमारी पुस्तकें ऑनलाइन हैं। लेकिन अब हमलोग अपने पुराने फाइल को ऑनलाइन कर रहे हैं और इसे बेचने जा रहे हैं। इसलिए आपके पास वह नहीं होनी चाहिए।”


हमने उनकी सूची देखी और फिर अपना डाटाबेस सर्च किया। यह पाया कि हमारे पास उनकी कुछ और पुस्तकें भी हैं जो उन्होने नहीं देखा हैं। उन्हें एक पत्र लिखकर यह बताया और कहा कि “ये आपकी पुस्तकें हैं। यदि आपको कोई और समस्या है तो हमें सूचित । करें।” कुल मिलाकर हमने उनकी लगभग 127 पुस्तको, अब हटा दिया है, जो कोई बड़ी बात नहीं है।


रूस में एक आदमी था, जिसे ‘इंटरनेट आर्काइव' पर उसके पिता की पुस्तक मिली। वह ऐसे प्रोफेसर को जानता था जो ‘डिजिटल लाइब्रेरी ऑफ इंडिया में शामिल था। वह उनपर मुकदमा करने वाला था। उसे बहुत गुस्सा आया हुआ था। उसके चलते जिन वरिष्ठ लोगों ने इस परियोजना की शुरूआत की थी, वे डर गए और सरकार के पास गए। सरकार भी। परेशान हो गई। मुझे ऐसे पत्र मिलने लगे जिनमें लिखा था कि “आपको इन सभी पुस्तकों को हटाना होगा। आपको यहाँ से हटाना ही होगा।


मैंने सोंचा “नहीं, मैं ऐसा नहीं करूंगा।" और तब वास्तव में उन्होंने अपने सर्वर को डाउन कर दिया। इसलिए अब हमारे पास इंटरनेट पर, ‘डिजिटल लाइब्रेरी ऑफ इंडिया' की। एकमात्र प्रतिलिपि है। मैंने पुनः इसका नामकरण किया क्योंकि वे चिंतित थे कि हम उनसे किसी न किसी रूप में उनसे जुड़े हुए हैं। मैंने कहा “ठीक है, ये पब्लिक लाइब्रेरी ऑफ इंडिया है।” इसलिए उन्होंने पहले सभी पुस्तकों को हटा दिया, उसपर आप मेटाडाटा को सर्च कर सकते हैं लेकिन आप पुस्तक नहीं प्राप्त कर सकते हैं।


फिर उन्होंने नीचे देखा। वहां एक नोटिस था। उसमें लिखा था कि “कॉपीराइट अतिक्रमण की वजह से यह अभी उपलब्ध नहीं है। जल्दी ही फिर उपलब्ध होगी।” और मेटाडाटा फिर से उपलब्ध हो गया, पर सवेर एकदम गायब हो गया और कॉपीराइट नोटिस फिर से आ गया। और अभी यह फिर से गायब है। नेट से यह पूर्णतः गायब है।


मैंने जो समझा वह यह है कि सरकारी अधिकारियों का एक समूह इन 10 विभिन्न पुस्तकालयों और इन स्कैनिंग केंद्रों में फैल गए, जहां पर वे पुस्तकें प्राप्त कर सकते थे। वे इस सूची को ध्यान से देखते थे और निर्णय लेते थे कि इन में से कौन-सी पुस्तक उपलब्ध
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होगी और कौन-सी उपलब्ध नहीं होगी। उन्होंने हमें बताया था कि वे हमें इसकी जानकारी दे देंगे कि कौन सी पुस्तक उपलब्ध होनी चाहिए।

जब वे घबरा गए तो मैं गया और सिस्टम पर नज़र डाली। मेरी आंतरिक भावना यह थी कि हम कुछ भी हटा नहीं सकते हैं। मैंने कहा कि “नहीं, हमलोग प्रति माह के एक मिलियन व्यूज और 5,00,000 पुस्तकों को नहीं हटा सकते हैं। हमलोग ऐसा नहीं करेंगे।”

उन्होंने कहा कि “ठीक है, सन् 1900 के बाद की सभी चीजें हटा दो।” और फिर उन्होंने हमारे लिए 60,000 पुस्तकें छोड़ी। मैंने कहा “सन् 1900 ही क्यों?” उन्होंने शायद ऐसे ही एक अंतिम तारीख तय कर ली थी। और इसलिए मैंने कहा, “ठीक है, मैं सन् 1923 के बाद की सभी चीजें हटा दूंगा।” और उन्होंने मेरे लिए 2,00,000 पुस्तकें छोड़ी हैं।

मैंने फिर बाकी बची 2,50,000 पुस्तकों को देखा और उस सूची को ध्यान से देखा। उनमें से बहुत सारे अधिकारिक राजपत्र थे। या फिर वे महात्मा गांधी के कार्य थे, जिनके बारे में हमें पता था कि उनका कॉपीराइट नहीं है। या फिर वे अन्य चीजें हैं।

और फिर इस सूची को ध्यान से देखने के बाद, मुझे कुल 3,14,000 पुस्तकें मिलीं। जिन्हें अब आप देख सकते हैं। वे अब भी हमसे कहना चाहते हैं कि हमें सभी चीजों को ऑफलाइन रखना चाहिए। मुझे ऐसा लगता है कि यह सरकारी काम नहीं है कि वे आपको यह बताएँ कि आपको क्या पढ़ना चाहिए और क्या नहीं पढ़ना चाहिए।

यहां पर कुछ और अधिक महत्वपूर्ण चीजे हैं: कॉपीराइट कोई बायनरी चीज नहीं है। उदाहरण के लिए, मैं उन सभी पुस्तकों को दृष्टिहीन व्यक्ति के लिए उपलब्ध करा सकता हूँ। क्योंकि ऐसा अंतरराष्ट्रीय अनबंध हैं, जो यह कहता है कि जब आप दुष्टिहीन व्यक्ति के । लिए पुस्तक का निर्माण करते हैं तो उस पर कॉपीराइट लागू नहीं होता है। यह कॉपीराइट के कानून में प्रगतिशील चीज है। उसमें कुछ बिंदु पर कोई कॉपीराइट नहीं होगा। क्योंकि उस समय तक कॉपीराइट की अवधि खत्म हो जाएगी। मुझे इस बारे में कुछ नहीं पता है कि यह सब कब होगा। इसलिए हम लोग इन्हें हटा नहीं रहे हैं क्योंकि अतंतः हमने उन्हें उपलब्ध कराया है।

आप दिल्ली विश्वविद्यालय में हुए मामले से तो परिचित ही होंगे। दिल्ली विश्वविद्यालय का मामला कॉपीराइट अधिनियम से संबंधित है जो यह कहता है कि आप पुस्तक को शिक्षण के लिए, शिक्षक और विद्यार्थी के बीच शैक्षिक व्यवस्था के लिए तैयार कर सकते हैं। इसलिए हम इन सभी पुस्तकों को विश्वविद्यालय परिसर के भीतर उपलब्ध करा सकते हैं।

पुस्तकों को हटाना सही उत्तर नहीं है। मेटाडाटा को व्यवस्थित करके इसे बेहतर बनाना है। हम अनुवाद पर काम कर रहे हैं। बेहतर ओ.सी.आर. (OCR) तैयार कर रहे हैं क्योंकि हम कुछ भाषाओं का ओ.सी.आर. कर सकते हैं लेकिन कुछ को नहीं कर सकते हैं। इसे बेहतर बनाना है। कॉपीराइट मामलों की प्रतिक्रिया देनी है। जब डिजिटल लाइब्रेरी ऑफ इन्डिया (DLI) का सर्वर ऑनलाइन था और मैं उनकी प्रतिलिपि ले रहा था उस वक्त मैंने उन्हें लिखने की कोशिश की। मुझे कोई उत्तर नहीं मिला। अंत में एक विख्यात प्रोफेसर मेरे पास आए और उन्होंने कहा कि, “तुमने इसे हमलोगों से सलाह किए बिना ही यह कर डाला” तो मैंने कहा, “यह डेटा वर्ष 2015 से रक्खी है।"

हमने अंदाजा लगाया कि वहाँ कोई देखने वाला नहीं था। हम किसी से बात करना चाहते थे पर किसी ने बात नहीं की। इसलिए मैंने आगे बढ़कर इसे हासिल कर लिया।”

इतना ही नहीं, ये पुस्तकें हैं। जब ये इंटरनेट पर है मैं आपके सर्वर को हैक नहीं कर सकता। परंतु यदि यह सार्वजनिक डाटा है - जिसका संचालन सरकार द्वारा किया जाता है। तो मझे उसे प्राप्त करने और देखने का अधिकार है। यदि कॉपीराइट का कोई मामला सामने आता है तो मैं इसकी जिम्मेदारी संभाल सकता हूँ। हम लोग ऐसी समस्याओं से निपटने के लिए तैयार हैं। इसलिए इस पुस्तकालय को ऑनलाइन कर दिया गया है।

अब, आप पूछ सकते हैं कि “ये चीजें क्या महत्व रखती हैं? हमें पब्लिक प्रिंटिंग की जरूरत क्यों है?” आज दुनिया की स्थिति खराब है। इसके बारे में आप क्या सोचते हैं यह मैं नहीं जानता। परंतु, आय की असमानता से गरीबी, बीमारी, भूख की समस्या में वृद्धि हुई है। भारत में खाद्य पदार्थ का उत्पादन जरूरत से ज्यादे है फिर भी यहाँ 20 करोड़ लोगों के पास खाने के लिए भोजन नहीं है।

हम इन समस्याओं का समाधान कर सकते हैं। जलवाय परिवर्तन जैसी चीजें हमारे ग्रह के प्रति अपराध करने जैसा है। आप ग्लोबल वार्मिंग को देख सकते हैं, यह असंभव बात नहीं है, यह सत्य है। यह विज्ञान है।

असहिष्णुता को ही लें। दूसरे जाति और धर्म के लोगों के प्रति हिंसा करना। महिलाओं और बच्चों के खिलाफ हिंसा करना। असहिष्णुता की भावना रखना। विचारों के प्रति असहिष्णुता। बैंगलोर में गौरी लंकेश की हत्या जैसे भयानक कांड।

मिथ्या समाचार? फेसबुक पर जातिवाद फैल रहा है? मिथ्या विचारों को लोग साझा करते हैं, संयुक्त राज्य अमेरिका में हमारे राष्ट्रपति को चुनाव में जीतने में मदद करते हैं? प्रश्न यह उठता है कि ऐसी स्थिति में आप क्या कर सकते हैं?

मेरा यह मानना है कि प्रत्येक पीढ़ी को किसी-न-किसी रूप में अवसर प्राप्त होते हैं। यदि आप तकनीक से संबंधित व्यक्ति हैं और 1960 के दशक के प्रारंभिक समय के हैं तो आप सैम की उम्र के हैं। आपने डिजिटल फोन की स्विच, या कंप्यूटर का आविष्कार करने में योगदान दिया होगा। यदि आप 1950 के दशक के व्यक्ति हैं तो आप शायद एरोस्पेस में काम कर रहे होंगे। कुछ चीजें समाजिक मुद्दों से संबंधित होते हैं। ऐसी कई चीजें है जो हम कर सकते हैं। यदि आप 1880 के दशक के हैं तो आप अनैच्छिक दासता के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे होंगे। आप गांधीजी के अनुयायी बने होंगे।
कार्ल मालामुद की टिप्पणियां

मेरा यह मानना है कि हमारे समय में प्राप्त अवसर हैं, ज्ञान तक हमारी पहुंच को सार्वजनिक बनाना, यही वह नायाब संकल्प है जिसे पूरा करना है। यह ऐसी चीजें हैं जिसे हम कर सकते हैं। हम इसे अंजाम दे सकते हैं। इसका महत्वपूर्ण कारण यह है कि लोकतंत्र का संचालन जनता द्वारा होता है।

नागरिकों को सभी चीजों से अवगत कराना लोकतंत्र की कुंजी होती है। मैं परिवर्तन में विश्वास करता हूँ। आज हम ग्लोबल वार्मिंग का समाधान नहीं कर पा रहे हैं। परंतु यदि हम यह समझ जाएं कि हमारे पर्यावरण के साथ क्या हो रहा है तो मेरा विश्वास है कि हम इसके लिए कार्य करना शुरू कर देंगे। मैं मानता हूँ कि परिवर्तन के लिए दो चीजें होनी चाहिए। गांधीजी ने हमसे कहा था कि परिवर्तन की एक कुंजी प्रेम है। जब आप नाज़ी (Nazis) को । देखें तो उन पर हाथ नहीं उठाएं। इस संदर्भ में, वर्तमान समय में, संयुक्त राज्य अमेरिका में हो रहे वाद-विवाद जो मुझे पसंद नहीं है वह है अति-दक्षिणपंथ, है ना? फिर दूसरी तरफ लोग हैं। जो बोलते हैं कि “नाजियों को खत्म करो।”

समाधान यह नहीं है। गांधी और किंग दोनों ने हमें बताया था कि इस समस्या का समाधान प्यार है। उन्होंने हमें कुछ और भी बताया था। यहाँ हम जस्टिस रानाडे के विचार को याद करते हैं, 'यदि हमें विश्व को बदलना है तो हमें स्वयं को शिक्षित करना होगा, और हमारे शासकों को भी शिक्षित करना होगा।

किंग और गांधी दोनों ने यह बात स्वीकार की थी कि सत्याग्रह से पहले उन्होंने स्वयं को शिक्षित करने में काफी समय लगाया था और उसके बाद अपने शासकों को शिक्षित किया। गांधीजी के दांडी जाने से पहले उन्होंने उस आश्रम में काफी समय बिताया था, स्वयं को और अपने साथ चल रहे साथियों को प्रशिक्षित किया था। उन्होंने सरकार को याचिका भेजी थी और उसमें कहा था, 'मैं यह करने जा रहा हूँ। इसलिए मेरा भी यह मानना है कि शिक्षा और प्रेम, प्रमुख चीजें है। रविंद्रनाथ टैगोर भी यही महसूस करते थे। गांधी जी मूल शिक्षा को हटाने का प्रयास कर रहे थे क्योंकि वे ब्रिटिश विद्यालयों को पसंद नहीं करते थे। टैगोर ने उनके ‘सत्य का आवाहण' का प्रकाशन किया और उन्होंने कहा कि “हमारे मस्तिक को ज्ञान के सत्य को स्वीकार करना चाहिए। उसी तरह हमारे हृदय को, प्रेम के सत्य को सीखना चाहिए।” आपको यह दोनों कार्य करना होगा।

मेरा यह मानना है कि मिथ्या समाचारों की समस्या का समाधान ज्ञान से होता है। आप गलत खबरों को रोक कर उनका समाधान नहीं कर सकते। लेकिन आप बेहतर समाचार प्राप्त कर, कर सकते हैं। आप सच्ची खबरें पढ़ कर, कर सकते हैं। यदि आप आर्थिक अवसर की समस्या का समाधान करना चाहते हैं, तो इसमें हमें मदद करनी होगी, क्योंकि इसे केवल एक व्यक्ति नहीं कर सकता है।

गांधीजी “ब्रेड लेबर” के बड़े प्रशंसक थे। जिसे बाईबल से लिया गया था और उनके अनुसार, उनका ब्रेड लैबर, उनका प्रिटिंग का काम था।

जब वे फिनिक्स आश्रम गए तो सभी को उनकी प्रिंटिंग प्रेस का प्रयोग करना पड़ता था। प्रति दिन, सभी लोग प्रिटिंग प्रेस पर काम करते थे। इसके बाद उन्होंने चर्खे का प्रयोग शुरु किया। यदि आज गांधीजी जिंदा होते तो वे कह सकते थे कि प्रतिदिन ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर की कोडिंग करना, ब्रेड लैबर की तरह है। वास्तव में ऐसा ही है। यह मानवीय श्रम है और यह आपकी दुनिया को बेहतर बना सकता है। इससे आप वास्तविकता में कुछ कर रहे होंगे।

गांधी ने जो दूसरी चीज हमें बताई है वह सार्वजनिक कार्य से संबंधित है। जिसपर हमें अपना कुछ समय जरुर बिताना चाहिए - किसी व्यवसाय में होना अच्छा होता है, पैसे कमाना अच्छा है। लेकिन यदि हम अपनी सरकार चाहते हैं जैसा हम लोकतंत्र में करते हैं - तो हमें उसका महत्वपूर्ण हिस्सा बनना होगा।

जो भी मानक मैंने प्रकाशित किया है उन पर एक कवर शीट थी। उस पर हाथियों के चित्र थे और उस पर ‘लोगो’ भी था, और अन्य आभूषण थे। लेकिन उसके नीचे नीति शतकम् का उद्धरण था और जिस पर लिखा था कि “ज्ञान एक ऐसा खजाना है जिसे कोई चुरा नहीं सकता।” मैं इससे पूरी तरह से सहमत हूँ। ज्ञान को साझा करना चाहिए और मुझे ऐसा लगता है कि यही हमारा मौका है। इसलिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद। अब यदि आप लोगों के कुछ सवाल हैं तो बताएं, मैं और सैम उसका जवाब देने की कोशिश करेंगे।

सी डब्लु एम जी भाग 87 (1947), पृ. 193, सुबह में अब्दुल गफ्फार खाँ के साथ टहलते हुए.
सी डब्लु एम जी भाग 90 (1947-1943), पृ. 449, प्रार्थना सभा में सभा में पहुंचते हुए
सी डब्लु एम जी भाग 88 (1947), फ्रंटिसपीस, लाहौर स्टेशन पर, कश्मीर जाने के रास्ते पर.
सी डब्लु एम जी भाग 13 (1915-1917), फ्रेंटिसपीस, भारत पहुँचने पर, 1915.
श्रीमती. एलेनोर रूज़वेल्ट को, एलोरा की गुफाओं के चारों तरफ से घुमाया गया, जहां वे 9 मार्च, 1952 को गई थी।
मैसूर हवाईअड्डे पर श्रीमती. एलेनोर रूज़वेल्ट का स्वागत, श्री. एच.सी दसप्पा, मैसूर के वित्त और उद्योग मंत्री के द्वारा किया गया।
श्री. एलेनोर रूज़वेल्ट, महारानी गल्र्स स्कूल, जयपुर में घूमती हुईं, जहां वे 13 मार्च, 1952 को गई थी।
श्री. एलेनोर रूज़वेल्ट, केन्द्रीय खाद्य प्रौद्योगिक अनुसंधान संस्थान, मैसूर की एक प्रयोगशाला में, जहां वह 7 मार्च, 1952 को गई थी।
सी डब्लु एम जी भाग 61 (1935), फ्रंटिसपीस, प्लेग प्रभावित गाँव का भ्रमण, गाँव बोरसाड.
सी डब्लु एम जी भाग 57 (1934), फ्रंटिसपीस
सी डब्लु एम जी भाग 24 (1924), फ्रंटिसपीस, गांधी जी 1924 में.

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।