कुरल-काव्य/परिच्छेद ९८ महत्त्व

कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

पृष्ठ ३०४ से – ३०५ तक

 

 

परिच्छेद ९८
महत्व

उच्चकार्य की चाह को, कहते विबुध महत्त्व।
और क्षुद्रता है वही, जहाँ नहीं यह तत्त्व॥१॥
सब ही मानव एक से, नहीं जन्म में भेद।
कीर्ति नहीं पर एकसी, कारण, कृति में भेद॥२॥
नहीं वंश से उच्च नर, यदि हो भ्रष्टचरित्र।
और न नीचा जन्म से, यदि हो शुद्धचरित्र॥३॥
आत्मशुद्धि के साथ में, जब हो सद्व्यवहार
सतीशील सम उच्चता, तब रक्षित विधिबार॥४॥
साधन के व्यवहार में, हैं जो बड़े धुरीण।
वे अशक्य भी कार्य में, होते सहज प्रवीण॥५॥
मुद्रों में ऐसी अहो, होती एक कुटेव।
आर्य-विनय उनकी कृपा, नहीं रुवे स्वयमेव॥६॥
ओछों को यदि दैव बस, मिलजावे कुछ द्रव्य।
इतराते निस्सीम तो, बनकर पूर्ण अभव्य॥७॥
बिना दिखावट उच्चनर, सहज विनय के कोष।
क्षुद्र मनुज पर विश्व में, करते निजगुण घोष॥८॥
लघुजन से भी उच्चनर, करें सदय व्यवहार।
क्षुद्र दिखें, पर गर्व के, मूर्तमान अवतार॥९॥
हाँके पर के दोष को, सज्जन दिया-निधान।
छिद्रों को पर दृढ़ता, दुर्जन ही अज्ञान॥१०॥

 

परिच्छेद ९०
महत्त्व

१—महान कार्यों के सम्पादन करने की आकांक्षा को ही लोग महत्त्व के नाम से पुकारते है और ओछापन उस भावना का नाम है जो कहती है कि मैं उसके बिना ही रहूँगी।

२—उत्पत्ति तो सब लोगों की एक ही प्रकार की होती है परन्तु उनकी प्रसिद्धि में विभिन्नता होती है, क्योकि उनके जीवन में महान्अ न्तर होता है।

३—उत्तम कुल में उत्पन्न होने पर भी यदि कोई सच्चरित्र नहीं है तो वह उच्च नहीं हो सकता और हीनवंश में जन्म लेने मात्र से कोई पवित्र आचार वाला नीच नहीं हो सकता।

४—रमणो के सतीत्व की तरह महत्त्व की रक्षा भी केवल अन्तरात्मा की शुद्धि से ही की जा सकती है।

५—महान् पुरुषों में समुचित साधनो को उपयोग में लाने और ऐसे कार्यों के सम्पादन करने की शक्ति होती है कि जो दूसरो के लिए असाध्य होते है।

६—छोटे आदमियों के बीज का ही यह विशेष दोष है कि जो वे महान् पुरुषों की प्रतिष्ठा, उनकी कृपादृष्टि और अनुग्रह को प्राप्त करने की चेष्टा नही करते।

७—ओछी प्रकृति के आदमियों के हाथ यदि कही कोई सम्पत्ति लग जाय तो फिर उनके इतराने की कोई सीमा ही न रहेगी।

८—महत्ता सर्वथा ही विनयशील और आडम्बर रहित होती है, परन्तु क्षुद्रता सारे संसार में अपने गुणों का ढिंढोरा पीटती फिरती है।

९—महत्ता सदैव अपने से छोटों के प्रति भी सदय और नम्न व्यवहार ही करती है, परन्तु क्षुद्रता को तो घमण्ड की मूर्ति ही समझो।

१८—बडापन सदैव ही दूसरों के दोषों को ढँकने के यत्न में रहता है, पर ओछापन दूसरों के दोषों को खोजने के सिवाय और कुछ करना ही नही जानता।