कुरल-काव्य/परिच्छेद ९७ प्रतिष्ठा

कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

पृष्ठ ३०२ से – ३०३ तक

 

 

परिच्छेद ९७
प्रतिष्ठा

आत्मा का जिससे पतन, करो न वह तुम कार्य।
प्राणों की रक्षार्थ भी, चाहे हो अनिवार्य॥१॥
पीछे भी जो चाहते, कीर्ति सहित निज नाम।
गौरव के भी अर्थ वे, करें न अनुचित काम॥२॥
करो ऋद्धि में भव्य वर, विनयश्री की वृष्टि।
क्षीणदशा में मान की, रखो सदा पर दृष्टि॥३॥
दूषित गौरव से मनुज, त्यों ही लगता हीन।
बालों की कटकर लटे ज्यों हों मानविहीन॥४॥
रत्ती सा भी स्वल्प यदि, करे मनुज दुष्कर्म।
गिरि सम उच्च प्रभाव का क्षुद्र बने वेशर्म॥५॥
स्वर्ग कीर्ति के स्थान में, जो दे वृमा विरक्ति।
जीना फिर क्यों चाहते करके उसकी भक्ति॥६॥
मृतरुचि की पदभक्ति से उत्तम यह ही एक।
निर्विकल्प, निजभाग्य को भोगे नर रख टेक॥७॥
ऐसी कौन अमूल्म निधि, रे नर! यह है खाल।
गौरव को भी बेच जो, रखता इसे संभाल॥८॥
केशों की रक्षार्थ ज्यों, तजती चमरी प्राण।
करे मनस्वी मानहित, त्यों ही महा प्रयाण॥९॥
देख मिटा निज रूप जो, जीवित रहे न तात।
बेदी पर उसकी पढ़ें, भक्ति-पुष्प दिनरात॥१०॥

 

परिच्छेद ९७
प्रतिष्ठा

१—उन बातों से सदा दूर रहो कि जो तुम्हे नीचे गिरा देगी, चाहे वे प्राण-रक्षा के लिए अनिवार्य रूप से ही आवश्यक क्यों न हों।

२—जो लोग अपने पीछे यशस्वी नाम छोड़ जाना चाहते है, वे अपने गौरव बढ़ाने के लिए भी वह काम न करे कि जो उचित नहीं है।

३—समृद्धि की अवस्था में तो नम्रता और विनय की विस्फूर्ति करो, लेकिन हीन स्थिति के समय मान-मर्यादा का पूरा ध्यान रक्खो।

४—जिन लोगों ने अपने प्रतिष्ठित नाम को दूषित बना डाला है, वे बालो की उन लटो के समान है कि जो काटकर फेक दी गयी है।

५—पर्वत के सम न उच्च प्रभावशाली लोग भी बहुत ही क्षुद्र दिखाई पड़ने लगेगे यदि वे कोई दुष्कर्म करेंगे, फिर चाहे वह कर्म घुँ घची केवल समान ही छोटा क्यों न हो।

६—न तो जिससे यशोवृद्धि ही होती है और न स्वर्ग प्राप्ति, फिर मनुष्य ऐसे आदमी की शुश्रूषा करके क्यो जीना चाहता है कि जो उससे घृणा करता है।

७—अपने तिरस्कार करने वाले के सहारे रहकर उदरपूर्ति करने की अपेक्षा तो यही अच्छा है कि मनुष्य बिना हीला हवाला किये अपने भाग्य में लिखे हुए को भोगने के लिए पूरा तैयार हो जाय।

८—अरे! यह खाल क्या ऐसी अमूल्य वस्तु है कि जो अपनी प्रतिष्ठा बेच कर भी इसे बचाये रखना चाहते है?

९—चमरी गौ अपने प्राण त्याग देती है जबकि उसके बाल काट लिये जाते है कुछ मनुष्य भी ऐसे ही मानी होते है कि जब वे अपनी मानमर्यादा नहीं रख सकते तो अपनी जीवन लीला का अन्त कर डालते हैं।

१०—जो मनस्वी अपने शुभनाम के नष्ट हो जाने पर जीवित नहीं रहता सारा संसार हाथ जोड़ कर उसकी सुयशमयी वेदी पर भक्ति की भेंट चढ़ाता है।