किसान सभा के संस्मरण/भारत में किसान-आन्दोलन
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बहुत लोगों का खयाल है कि हमारे देश में किसानों का आन्दोलन बिल्कुल नया और कुछ खुराफाती दिमागों की उपज मात्र है। वे मानते हैं कि यह मुट्ठी भर पढ़े-लिखे बदमाशों का पेशा और उनकी लीडरी का साधन मात्र है। उनके जानते भोलेभाले किसानों को बरगला-बहकाकर थोड़े से सफेदपोश और फटेहाल बाबू अपना उल्लू सीधा करने पर तुले बैठे हैं। इसीलिये यह किसान-सभाओं एवं किसान-आन्दोलन का तूफाने बदतमीजी बरपा है, यह उनकी हरकतें बेजा जारी हैं। यह भी नहीं कि केवल स्वार्थी और नादान जमींदार-मालगुजार या उनके पृष्ठ-पोषक ऐसी बातें करते हों। कांग्रेस के कुछ चोटी के नेता और देश के रहनुमा भी ऐसा ही मानते हैं। उन्हें किसान-सभा की जरूरत ही महसूस नहीं होती। वे किसान-आन्दोलन को राष्ट्रीय स्वातन्त्र्य के संग्राम में रोड़ा समझते हैं। फलतः इनका विरोध भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से करते हैं।
परन्तु ऐसी धारणा भ्रान्त तथा निर्मूल है। भारतीय किसानों का आन्दोलन प्राचीन है, बहुत पुराना है। दरअसल इस आन्दोलन के बारे में लिपि-बद्ध वर्णन का अभाव एक बड़ी त्रुटि है। यदि सौ-सवासौ साल से पहले की बात देखें तो हमारे यहाँ मुश्किल से इस आन्दोलन की बात कहीं लिखी-लिखाई मिलेगी। इसकी वजहें अनेक हैं, जिन पर विचार करने का मौका यहाँ नहीं है। जब यूरोपीय देशों में किसान-आन्दोलन पुराना है, तो कोई वजह नहीं है कि यहाँ भी वैसा ही न हो। किसानों की दशा सर्वत्र एक सी ही रही है आज से पचास सौ साल पहले। जमींदारों और सूदखोरों ने उन्हें सर्वत्र बुरी तरह सताया है और सरकार भी इन उत्पीड़कों का ही साथ देती रही है। फलतः किसानों के विद्रोह सर्वत्र होते रहे हैं। उन्नीसवीं सदी के मध्य में––१८५० में––शोषितों क़े मसीहा फ्रेड्रिक एंगेल्स ने "जर्मनी में किसानों का जंग" (दी पीज़ेन्ट वार इन जर्मनी) पुस्तक लिखकर उसमें न सिर्फ जर्मनी में होने वाले पन्द्रहवीं तथा सोलहवीं सदियों के सन्धि-काल के किसान-विद्रोहों का वर्णन किया है, वरन् आस्ट्रिया, हंगरी, इटली तथा अन्याय देशों के भी ऐसे विद्रोहों का उल्लेख किया है। उससे पूर्व जर्मन विद्वान् विल्हेल्म जिमरमान की भी एक पुस्तक "महान किसान-विद्रोह का इतिहास" (दी हिस्ट्री औफ दी ग्रेट पीज़ेंट वार) इसी बात का वर्णन करती है। यह १८४१ में लिखी गयी थी। फ्रांस में १२-१३ वीं सदियों में फ्रांस के दक्षिण भाग में किसानों की बगावतें प्रसिद्ध हैं। इंगलैंड की १३८१ वाली किसानों की बगावतें भी प्रसिद्ध है, जिसका नेता जौन बोल था। इसी प्रकार हंगरी में भी १६ वीं शताब्दी में किसानों ने विद्रोह किया।
इस तरह के सभी संघर्ष एवं विस्फोट सामन्तों एवं जमींदारों के जुल्म ,असह्य कर-भार तथा गुलामों के विरुद्ध होते रहे, और ये चीजें भारत में भी थीं। यह देश तो दूसरे मुल्कों की अपेक्षा पिछड़ा था ही। तब यहाँ भी ये उत्तीड़न क्यों न होते और उनके विरुद्ध किसान-संघर्ष क्यों न छिड़ते? यहाँ तो साधारणतः ब्रिटिश भारत में और विशेषतः रजवाड़ों में आज भी ये यंत्रणायें किसान भोग ही रहे हैं।
तो क्या भारतीय किसान यों ही आँख मूँद कर सारे कष्टों को गधे-बैलों की तरह चुपचाप बर्दास्त कर लेते रहे हैं और उनके विरोध में उसने सर नहीं उठाया है? यह बात समझ के बाहर है। माना कि आज के जमीदार डेढ़ सौ साल से पहले न थे। मगर सरकार तो थी। सूदखोर बनिये महाजन तो थे। जागीरदार तथा सामन्त तो थे। फिर तो कर भार, गुलामी और भीषण सूदखोरी थी ही। इन्हें कौन रोकता तथा इनके विरुद्ध किसान-समाज चुप कैसे रह सकता था? भारतीय किसान संसार के अन्य किसानों के अपवाद नहीं हो सकते। फिर भी यदि उनके आन्दोलनों एवं विद्रोहों का कोई विधिवत् लिखित इतिहास नहीं मिलता, तो इसके मानी हर्गिज नहीं कि यह चीज हुई ही नहीं––हुई और जरूर हुई––हजारों वर्ष पहले से लगातार होती रही। नहीं तो एकाएक सौ डेढ़ सौ वर्ष पहिले, जिसके लेख मिलते हैं, क्यों हुई? और अगर इधर आकर वे संघर्ष करने लगे तो मानना ही होगा कि पहले भी जरूर करते थे।
यह भी बात है कि यदि लिखा-पढ़ी तथा सभा-सोसाइटियों के रूप में, प्रदर्शन और जुलूस के रूप में यह आन्दोलन न भी हो सकता था, तो भी अमली तौर पर तो होता ही था, हो सकता ही था और यही था असली आन्दोलन। क्योंकि "कह सुनाऊँ" की अपेक्षा "कर दिखाऊँ" हमेशा ही ठोस और कारगर माना जाता है और इधर १८३६ से १९४६ तक के दर्म्यान, प्रारम्भ के प्रायः सौ साल में, जबानी या लिखित आन्दोलन शायद ही हुए, किन्तु अमली तथा व्यावहारिक ही हुए। इसका संक्षिप्त विवरण आगे मिलेगा। इससे भी मानना ही होगा कि पहले भी इस तरह के अमली आन्दोलन और व्यावहारिक विरोध किसान-संसार की तरफ से सदा से होते आये हैं। किसान तो सदा ही मूक प्राणी रहा है। इसे वाणी देने का यत्न पहले कब, किसने किया। कर्म, भाग्य, भगवान, तकदीर और परलोक के नाम पर हमेशा ही से चुपचाप कष्ट सहन करने, संतोष करने तथा पशु-जीवन बिताने के ही उपदेश इसे दिये जाते रहे हैं। यह भी कहा जाता रहा है कि राजा और शासक तो भगवान के अंशावतार हैं। अतः चुपचाप उनकी आज्ञा शिरोधार्य करने में ही कल्याण है। इस 'कल्याण' की बूटी ने तो और भी जहर का काम किया और उन्हें गूंगा बना दिया। फलतः कभी-कभी ऊबकर उन्होंने अमली आन्दोलन ही किया और तत्काल वह सफलीभूत भी हुआ। उससे उनके कष्टों में कमी हुई।
इधर असहयोग युग के बाद जो भी किसान-आन्दोलन हुए हैं उन्हें संगठित रूप मिला है, यह बात सही है। संगठन का यह श्रीगणेश तभी से चला है। इसका श्रीगणेश तभी से होकर इसमें क्रमिक दृढ़ता आती गई है और आज तो यह काफी मजबूत है, हालांकि संगठन में अभी कमी बहुत है। मगर असंगठित रूप में यह चीज पहले, असहयोग युग से पूर्व भी चलती रही है। संगठित से हमारा आशय सदस्यता के आधार पर बनी किसान-सभा और किसानों की पंचायत से है, जिसका कार्यालय नियमित रूप से काम करता रहता है और समय पर सभी समितियाँ होती रहती हैं। कागजी घुड़दौड़ भी चालू रहती है। यह बात पहले न थी। इसी से पूर्ववर्ती आन्दोलन असंगठित था। यों तो विद्रोहों को तत्काल सफल होने के लिये उनका किसी न किसी रूप में संगठित होना अनिवार्य था। 'पतिया' जारी करने का रिवाज अत्यन्त प्राचीन है। मालूम होता है, पहले दो चार अक्षरों या संकेतों के द्वारा ही संगठन का महामंत्र फूँका जाता था। यद्यपि यातायात के साधनों के अभाव में उसे वर्तमान कालीन सफलता एवं विस्तार प्राप्त न होते थे। फिर भी हम देखते हैं कि जिन आन्दोलनों एवं संघर्षों का उल्लेख आगे है वे बात की बात में आग की तरह फैले और काफी दूर तक फैले। संथाल-विद्रोह में तो लाखों की सेना एकत्र होने की बात पाई जाती है और यह बात अँग्रेज अफसरों ने लिखी है। ऐसी दशा में इतना तो मानना ही होगा कि वह चीज भी काफी संगठित रूप में थी, यद्यपि आज वाली दृढ़ता, या आज वाली स्थापिता उसमें न थी। होती भी कैसे? उसके सामान होते तब न?