किसान सभा के संस्मरण
किसान सभा
के
संस्मरण
लेखक
स्वामी सहजानन्द सरस्वती
मूल्य
तीन रुपये बारह आने
आगे के पृष्ठों में किसान सभा के संस्मरणों का जो संकलन मिलेगा वह तैयार किया था हजारीबाग जेल की चहार दीवारी के भीतर। १९४० की लम्बी जेल-यात्रा के पहले ही मित्रों एवं साथियों ने बारबार अनुरोध किया था कि इन संस्मरणों को अवश्य लिपि-बद्ध करूँ। किसान-सभा से मेरा सम्बन्ध गत बीस वर्षों की भारी मुद्दत में अविच्छिन्न रहने के कारण मैं इसके बारे में आधिकारिक रूप से लिखने वाला माना गया। इस सम्बन्ध में तरह-तरह के अनुभव सबसे ज्यादा मुझी को हुए हैं, यह भी बात है। यह अनुभव मजेदार भी रहे हैं और आगे की पंक्तियों से यह स्पष्ट है। फलतः इनके कलम बन्द करने में मजा भी मुझे काफी मिला है। जेल से बाहर समय न मिलने के कारण मित्रों की इच्छा वहीं पूरी करनी पड़ी।
जमींदारों के अखबारों ने कभी-कभी मुझे अक्ल देने की भी कोशिश की है और लम्बे उपदेश दिये हैं कि राजनीति संन्यासी का काम नहीं है। इसमें पड़ने से वह दुहरा पाप करता है। किसान-सभा के सिलसिले में होने वाले मेरे रोज-रोज के तूफानी दौरों पर व्यंग करके उनने उन्हें 'मनोविनोद के सैर' (Pleasure Trips) नाम दिये हैं और आश्चर्य से पूछा है कि इन सैर-सपाटों का लम्बा खर्च मुझे कौन देता है? उन्हें पता ही नहीं कि जिन्हें इन सैर-सपाटों की गर्ज है, जो इसके लिये बेचैन हैं, वही यह खर्च देते हैं––वही जो इन समाचार पत्रों के मालिकों के महल सजाते हैं। आगे की पंक्तियाँ यह भी बतायेंगी कि ये सैर-सपाटे हैं या कड़ी कसौटी। ये संस्मरण लिखे तो गये जेल के भीतर ही १९४१ में; मगर इनके प्रकाशन में परिस्थिति-वश काफी देर हो गई है। फिर भी इनका महत्व ज्यों का त्यों बना है। सोचा गया कि जिस किसान-सभा से सम्बन्ध रखने वाले ये संस्मरण हैं, उसका इतिहास यदि इन्हीं के साथ न रहे तो एक प्रकार से ये अधूरे रह जायँगे। पाठकों को इनके पढ़ने से पूरा संतोष भी न होगा और न वह मजा ही मिलेगा। इसीलिये भूमिका स्वरूप किसान-सभा का संक्षिप्त इतिहास और उसका कुछ विस्तृत विवेचन भी इन संस्मरणों के साथ जोड़ दिया गया है और इस प्रकार एक पूरी चीज तैयार हो गई।
"कहीं-कहीं किनारे पर जो अंक लिखे गये हैं वह इस बात के सूचक हैं कि किस दिन कितना भाग जेल के भीतर लिखा गया था।"
बिहटा, पटना १०.२.४७ |
––स्वामी सहजानन्द सरस्वती |
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