किसान सभा के संस्मरण/मोपला आन्दोलन

किसान सभा के संस्मरण
स्वामी सहजानंद सरस्वती

इलाहाबाद: न्यू लिटरेचर, पृष्ठ ११ से – १४ तक

 

जैसा कि पहले कह चुके हैं, आज से, प्रायः सौ-सवासौ साल पहले वाले किसान-संघर्षों एवं आन्दोलनों का वर्णन मिलता है। अतः हम उन्हीं से शुरू करते हैं। इसमें सबसे पुराना मालाबार के मोपला किसानों का विद्रोह है, जो १८३६ में शुरू हुआ था। कहने वाले कहते हैं कि ये मोपले कट्टर मुसलमान होने के नाते अपना आन्दोलन धार्मिक कारणों से ही करते रहे हैं। असहयोग-युग के उनके विद्रोह के बारे में तो स्पष्ट ही यही बात कही गयी है। मगर ऐसा कहने-मानने वाले अधिकारियों एवं जमींदार-मालदारों के लेखों तथा बयानों से ही यह बात सिद्ध हो जाती है कि दरअसल बात यह न होकर आर्थिक एवं सामाजिक उत्पीड़न ही इस विद्रोह के असली कारण रहे हैं और धार्मिक रंग अगर उन पर चढ़ा है तो कार्य-कारणवश ही, प्रसंगवंश ही। १९२० और १९२१ वाले विद्रोह को तो सबों ने, यहाँ तक कि महात्मा गांधी ने भी, धार्मिक ही माना है। मगर उसी के सम्बन्ध में मालाबार के ब्राह्मणों के पत्र 'योगक्षेमम्' ने १९२२ की ६ जनवरी के अग्रलेख में लिखा था कि "केवल धनियों तथा जमींदारों को ही ये विद्रोही-सताते हैं, न कि गरीब किसानों को––"

"only the rich and the landlords are suffering in the hands of the rebels, not the poor peasants."

अगर धार्मिक बात होती तो यह धनी-गरीब का भेद क्यों होता? इसी तरह ता॰ ५|२|१९२१ में दक्षिण मालाबार के कलक्टर ने जो १४४ धारा की नोटिस जारी की थी उसके कारणों में लिखा गया था कि "भोले-भाले मोपलों को न सिर्फ सरकार के विरुद्ध, वरन् हिन्दू जन्मियों (जमींदारों––मालाबार में जमींदार को 'जन्मी' कहते हैं) के भी विरुद्ध उभाड़ा जायगा"––

"The feeling of the ignorant Moplahs will be inflamed against not only the Government but also against the Hindu Jepmies (landlords) of the district."

इससे भी स्पष्ट है कि विद्रोह का कारण आर्थिक था। नहीं तो सिर्फ जमींदारों तथा सरकार के विरुद्ध यह बात क्यों होती?

बात असल यह है कि मालाबार के जमींदार ब्राह्मण ही हैं। उत्तरी मालाबार में शायद ही दो एक मोपले भी जमींदार हैं। और ये मोपले-गरीब किसान हैं। इनमें खाते-पीते लोग शायद ही हैं। इन किसानों को जमीन पर पहले कोई हक था ही नहीं और झगड़े की असली बुनियाद यही थी, यही है। यह पुरानी चीज है और शोषक जमींदारों के हिन्दू (ब्राह्मण) होने के नाते ही इन संघर्षों पर धार्मिक रंग चढ़ता है। नहीं, नहीं, जान-बूझकर चढ़ाया जाता है। १८८० वाले विद्रोह में मोपलों ने दो जमींदारों पर धावा किया था। उनने तत्कालीन गवर्नर लार्ड बकिंघम को गुप्तनाम पत्र लिखकर जमींदारों के जुल्मों को बताया था और प्रार्थना की थी कि उन्हें रोका जाय, नहीं तो ज्वालामुखी फूटेगा। गवर्नर ने मालाबार के कलक्टर और जज की एक कमेटी द्वारा जब जाँच करवाई तो रिपोर्ट आई कि इन तूफानों के मूल में वही किसानों की समस्यायें हैं। पीछे यह भी बात ब्योरेवार मालूम हुई कि जमींदार किसानों को कैसे लूटते और जमीनों से बेदखल करते रहते हैं। इसीलिये तो १८८७ वाला काश्तकारी कानून बना।

१९२१ तथा उसके बाद मौलाना याकूब हसन मालाबार के कांग्रेसी एवं गांधीवादी नेता थे। मगर उनने भी जो पत्र गांधी जी को लिखा था उसमें कहते हैं कि "अधिकांश मोपले छोटे-छोटे जमीन्दारों की जमीनें लेकर जोतते हैं और जमीन्दार प्रायः सभी हिन्दू ही हैं। मोपलों की यह पुरानी शिकायत है कि ये मनचले जमीन्दार उन्हें लूटते-सताते हैं और यह शिकायत दूर नहीं की गई है"––

"Most of the Moplahs were cultivating lands under the petty landlords who are almost all Hindus. The oppression of the Jenmies (landlords) is a matter of notoriety and a long-standing grievance of the Moplahs that has never been redressed."

इससे तो जरा भी सन्देह नहीं रह जाता कि मोपला-विद्रोह सचमुच किसान-विद्रोह था।

१८३६ से १८५३ तक मोपलों ने २२ विद्रोह किये। वे सभी जमीन्दारों के विरुद्ध थे। कहीं-कहीं धर्म की बात प्रसंगतः आई थी जरूर। मगर असलियत वही थी। १८४१ वाला विद्रोह तो श्री तैरुम पहत्री नाम्बुद्री नामक जालिम जमीन्दार के खिलाफ था, जिसने किसानों को पट्टे पर दी गई जमीन बलात् छीनी थी। १८४३ में भी दो संघर्ष हुऐ––एक गाँव के मुखिया के विरुद्ध और दूसरा ब्राह्मण जमींदार के खिलाफ। १८५१ में उत्तर मालाबार में भी एक जमींदार का वंश ही खत्म कर दिया गया। १८८० की बात कही चुके हैं। १८९८ में भी उसी तरह एक जमींदार मारा गया। १९१९ में मनकट्टा पहत्री पुरम् में एक ब्राह्मण जमींदार और उसके आदमियों को चेकाजी नामक मोपला किसान के दल ने खत्म कर दिया और लूट-पाट की। क्योंकि उसने चेकाजी के विरुद्ध बाकी लगान की डिग्री से सन्तोष न करके उसके पुत्र की शादी भी न होने दी।

१९२० के अक्तूबर में कालीकट में जो काश्तकारी कानून के सुधार का आन्दोलन शुरू हुआ, १९२१ वाली बगावत इसी का परिणाम थी। जमींदार मनमाने ढंग से लगान बढ़ाते और बेतहाशा बेदखलियाँ किया करते थे। इसीलिये सैकड़ों सभाये हुईं। स्थान-स्थान पर किसान-सभायें बनीं, कालीकट के राजा की जमींदारी में एक "टेनेन्ट रिलीफ असोसियेशन" कायम हुआ और मंजेरी की बड़ी कांफ्रेंस में किसानों की माँगों का जोरदार समर्थन हुआ। इसी के साथ खिलाफत आन्दोलन भी आ मिला। मगर असलियत तो दूसरी ही थी। इस तरह देखते हैं कि आज से सैकड़ों साल पूर्व विशुद्ध किसान-आन्दोलन किसान हकों के लिये चला और १९२० में आकर उसने कहीं-कहीं संगठन का जामा पहनने की भी कोशिश की।