कविता-कौमुदी
रामनरेश त्रिपाठी

प्रयाग: साहित्य भवन, पृष्ठ ५१ से – ५४ तक

 

रैदास

रैदासजी कबीर साहब के समय में हुए थे। ये जाति के चमार थे। इनके पिता का नाम रग्घू और माता का नाम घुरबिनिया था। इनका जन्म काशी में हुआ था। ये भी महात्मा रामानन्द के शिष्यों में थे।

रैदासजी और कबीर साहब में बहुत बाद विवाद हुआ करता था। रैदास जी जब कुछ सयाने हुये तब भक्तों और साधुओं की सेवा में अधिक रहने लगे। जो कुछ कमाते सब साधु सन्तों को खिला पिला दिया करते थे। यह बात इनके पिता रग्घू को अच्छी नहीं लगी। उसने स्त्री सहित रैदास जी को घर से अलग कर दिया। खर्च के लिये वह इनको एक कौड़ी भी नहीं देता था। रैदास जी जूता बनाकर किसो तरह अपना गुजर करते और रातदिन भगवत्-चर्चा में मग्न रहा करते थे। ये मांस मदिरा को छूते तक न थे।

इनके विषय में बहुत सी करामात की कहानियाँ लोगों में प्रसिद्ध हैं। गुजरात प्रांत में इनके मत के मानने वाले लाखों आदमी हैं ओ अपने को रविदासी कहते हैं। ये मीरा बाई के गुरु थे। इनकी कविता से इनकी बड़ी भक्ति प्रकट होती है। रैदास जी के बनाये हुये कुछ दोहे और पद हम यहाँ उद्धृत करते हैं—

हरि सा हीरा छाँड़ि के करै आन की आस।
ते नर जमपुर जाहिंगे सत भाषै रैदास॥

रैदास राति न सोइये दिवस न करिये स्वाद्।
अहनिसि हरिजी सुमिरिये छाड़ि सकल प्रतिवाद॥

भगती ऐसी सुनहु रे भाई।
आइ भगति तब गई बड़ाई॥

कहा भयो नाचे अरु गाये कहा भयो तप कीन्हें।
कहा भयो जे चरन पखारे जालौं तत्त्व न चीन्हे॥
कहा भयो जे मूँड़ मुड़ायो कहा तीर्थ व्रत कीन्हे।
खाली दास भगत अरु सेवक परम तत्त्व नहि चीन्हे॥

कह रैदास तेरी भगति दूर है भाग बड़े सों पाये।
तजि अभिमान मेटि आपा पर पिपलिक ह्वै चुनि खावै॥

पहले पहरे रैन दे बनजरिया तैं जनम लिया संसार वे।
सेवा चूकी राम की तेरी बालक बुद्धि गंवार वे॥
बालक बुद्धि न चेता तूँ भूला माया जाल वे।
कहा होय पीछे पछिताये जल पहिले न बाँधी पाल वे।
बीस बरस का भया अयाना थाँभि न सक्का भार वे।
जन रैदास कहै बनजरिया जनम लिया संसार वे॥

राम मैं पूजा कहा चढ़ाऊँ। फल अरु मूल अनूप न पाऊँ॥
धनहर दूध जो बछरू जुठारी। पुहुप भँवर जल मीन बिगारी॥
मलयागिर बेधियो भुअंगा। विष अमृत दोउ एकै संगा॥
मन ही पूजा मन ही धूप। मन ही सेऊँ सहज सरूप॥
पूजा अरचा न जानूँ तेरी। कह रैदास कवन गति मेरी॥

रे चित चेत अचेत काहे बालक को देख रे।
जाति तें कोइ पद नहि पहुँचा राम भगति विशेष रे॥
खट क्रम सहित जे विप्र होते हरि भगति चित दृढ़ नाहिं रे।
हरि की कथा सोहाय नाहीं स्वपच तूलै ताहि रे॥
मित्र शत्रु अजात सबतें अन्तर लावे हेत रे।
लाग वाकी कहाँ जानै तीन लोक पवेत रे।
अजामिल गज गनिका तारी काटी कुंजर की पास रे।
ऐसे दुरमत मुक्त कीये तो क्यों न तरें रैदास रे॥


जो तुम गोपालहि नहिं गैहौ।

तो तुमका सुख में दुःख उपजै सुखहि कहाँ ते पैहौ॥
माला नाय सकल जग डहको झूँठों भेख बनैहौं।
झूँठे ते साँचे तब होइ हो हरि की सरन जब ऐहौं॥
कनरस, बतरस और सबै रस झूँठहि मूड़ डुलैहौं।
जब लगि तेल दिया में बाती देखत ही बुझ जैहौं॥
जो जन राम नाम रंग राते और रंग न सोहैहौं।
कह रैदास सुनो रे कृपानिधि प्रान गये पछितैहौ॥

प्रभु जी संगति सरन तिहारी।
जग जीवन राम मुरारी॥

गली गली को जल बहि आयो सुरसरि जाय समायो।
संगत के परताप महातम नाम गंगोदक पायो॥
स्वाँति बूँद बरसै फनि ऊपर सीस विषै होइ जाई।
वही बूँद कै मोती निपजै संगत की अधिकाई॥
तुम चंदन हम रेंड बापुरे निकट तुम्हारे आसा।
संगत के परताप महातम आवै बास सुबासा॥
जाति भी ओछी करम भी ओछा ओछा कसब हमारा।
नीचे से प्रभु ऊँच किया है कह रैदास चमारा॥