कविता-कौमुदी  (1918) 
रामनरेश त्रिपाठी

प्रयाग: साहित्य भवन, पृष्ठ - से – प्रस्तावना तक

 

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कविता-कौमुदी

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साहित्य-भवन—ग्रंथमाला—१

कविता–कौमुदी
(पहला भाग—हिन्दी)

लेखक
रामनरेश त्रिपाठी

जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः।
नास्ति येषां यशः काये जरामरणजं भयम्॥

प्रकाशक
साहित्य-भवन, प्रयाग।

 
परिवर्तित और परिवर्द्धित होली, सं॰ १९७५ मूल्य २)
द्वितीय संस्करण
१५००
 
 
प्रकाशक
रामनरेश त्रिपाठी
साहित्य-भवन, प्रयाग।
 

मुद्रक
पं॰ काशीनाथ वाजपेयी
ओंकार प्रेस, प्रयाग।

 
 

हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन
को
स म र्पि त

 

विषय-सूची

      पृष्ठांक
भूमिका    
प्रस्तावना     ११
हिन्दी भाषा का संक्षिप्त इतिहास     १९
कविता-कौमुदी    

कवि नामावली

१—चन्द बरदाई २१—बलभद्र मिश्र १४४
२-विद्यापति ठाकुर १६ २२—रहीम १५५
३—कबीर साहब २४ २३—केशवदास १७०
४—रैदास ५१ २४—रसखान १७७
५—धर्मदास ५४ २५—पृथ्वीराज और  
६—गुरु नानक ५७ चम्पादे १८०
७—सूरदास ६० २६—उसमान १८८
८—हितहरिवंश ८१ २७—मुबारक १९०
९—नरहरि ८३ २८—हरिनाथ १९२
१०—स्वामी हरिदास ८६ २९—प्रवीणराय १९५
११—नन्ददास ८७ ३०—मलूकदास १९६
१२—तुलसीदास ९२ ३१—सेनापति १९८
१३—मीराबाई १२१ ३२—सुन्दरदास २०४
१४—मलिक मुहम्मद   ३३—बिहारीलाल २१२
जायसी १२६ ३४—चिन्तामणि २२०
१५—टोडरमल १३० ३५—भूषण २२१
१६—बीरबल १३१ ३६—मतिराम २३२
१७—गंग १३४ ३७—कुलपति मिश्र २३६
१८—अकबर १३९ ३८—जसवन्त सिंह २३८
१९—दादू दयाल १४० ३९—बनवारी २३९
२०—नरोत्तमदास १४७ ४०—बेनी २४०
४१—सबलसिंह चौहान २४४ ६६—सुखदेव मिश्र ३०७
४२—कालिदास त्रिवेदी २४७ ६७—दुलह ३०९
४३—आलम और शेख २४८ ६८—सीतल ३१०
४४—लाल २५१ ६९—ब्रजवासीदास ३१२
४५—गुरुगोविन्दसिंह २५२ ७०—ठाकुर ३१४
४६—घन आनन्द २५४ ७१—बोधा ३१८
४७—देव २५६ ७२—पदमाकर ३२०
४८—बैताल २६२ ७३—लल्लू जी लाल ३२९
४९—उदयनाथ (कवीन्द्र) २६४ ७४—जयसिंह ३३०
५०—नेवाज २६६ ७५—रामसहायदास ३३२
५१—श्रीपति २६७ ७६—ग्वाल ३३४
५२—वृन्द २७० ७७—दीनदयाल गिरि ३३६
५३—रसलीन २७५ ७८—विश्वनाथ सिंह ३४४
५४—घाघ २७७ ७९—राय ईश्वरी प्रताप  
५५—नागरीदास और   नारायण राय ३४७
बनींठनींजी २७९ ८०—पजनेस ३४८
५६—दास २८२ ८१—रणधीर सिंह ३५१
५७—रसनिधि २८४ ८२—शिवसिंह सेंगर ३५५
५८—तोष २८६ ८३—रघुराज सिंह ३५७
५९—सूदन २८७ ८४—द्विजदेव ३६४
६०—रघुनाथ २८९ ८५—रामदयाल नेवरिया ३६७
६१—चरनदास २९१ ८६—लक्ष्मणसिंह ३७०
६२—सहजोबाई २९६ ८७—गिरिधर दाल ३७३
६३—दयाबाई २९८ ८८—लछिराम ३७७
६४—गुमान मिश्र २९९ ८९—गोविन्द गिल्लाभाई ३८०
६५—गिरिधर कविराय २०० कौमुदी-कुञ्ज ३८१
 

भूमिका

यह प्रकट करते हुवे हमको बड़ा हर्ष होता है कि हिन्दी-संसार ने इस पुस्तक का अच्छा आदर किया। इसका पहला संस्करण दीपावली सं॰ १९७४ को निकला था। वह एक वर्ष के भीतर ही हाथों हाथ निकल गया। इस दूसरे संस्करण में बहुत कुछ परिवर्तन और परिवर्द्धन किया गया है। पहले संस्करण में केवल ५२ कवियों का ही वर्णन था; किन्तु दूसरे संस्करण में उनकी संख्या बढ़ाकर ८९ तक कर दी गई है। अब हरिश्चन्द्र के पहले के प्रायः सब सुप्रसिद्ध कवि इसमें आ गये हैं। इस परिवर्द्धनका कारण यह है कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समय से हिन्दी का नवीन युग प्रारम्भ होता है। अतएव यह उचित समझा गया, कि हरिश्चन्द्र से पहले के सब कवि पहले भाग में हीं आ जायँ, जिससे दूसरा भाग हरिश्चन्द्र के समय से प्रारंभ हो। इस वृद्धि के सिवाय प्रारम्भ में हिन्दी-भाषा का संक्षिप्त इतिहास और अंत में "कौमुदी-कुञ्ज" नाम से कुछ फुटकर कविताओं का एक संग्रह और भी जोड़ दिया गया है। जहाँ इतनी वृद्धि की गई, वहाँ शब्दार्थ-कोश निकाल भी दिया गया। शब्दार्थ-कोश निकाल देने का यह कारण है कि यदि पुस्तक में आये हुये सब कठिन शब्दों का अर्थ और पदों का भावार्थ दिया जाता, तो मूल पुस्तक से शब्दार्थ कोश की पृष्ठ संख्या कम न होती और उसके अनुसार दाम भी बढ़ाना पड़ता। प्रथम संस्करण में जितना अर्थ दिया गया है उससे कुछ विशेष लाभ नहीं जान पड़ा। कितने हीं कठिन शब्दों के अर्थ लिखने से रह गये। अधूरा काम हम ठीक नहीं समझा। इसी से शब्दार्थ-कोश निकाल दिया।

पहले संस्करण से इस संस्करण में दो एक विशेषताएँ और हैं। इस बार महँगी के समय में भी कागज़ बढ़िया लगाया गया है; छपाई भी पहले से सुन्दर हुई है, जिल्द में कोई कमी नहीं की गई फिर भी दाम नही दो रुपया ही रक्खा गया।

जहाँ तक मिल सके, कवियों के ग्रंथों को हमने स्वयं पढ़ कर यह पुस्तक लिखी है। फिर भी मिश्र-बंधु-विनोद, सतबानी पुस्तक माला और हिन्दी साहित्य सम्मेलन की वार्षिक लेख माताओं से हमने बड़ी सहायता ली है। अतएव उनके लेखकों के हम बहुत कृतज्ञ हैं।

जो लोग हिन्दी-साहित्य का ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं, उनके लिये तो यह पुस्तक उपयोगी है ही, किन्तु जो लोग केवल कविता के रसिक हैं, वे भी इससे बड़ा आनन्द उठा सकते हैं। शृंगार रस की कुछ कवितायें ऐसी हैं जिनके विषय में लोग कह सकते हैं कि उनका इस संग्रह में न आना ही अच्छा था। इनके विषय में मेरा यह निवेदन है कि कविता का चमत्कार दिखाने के लिये ही हमने वैसा किया है, कुछ इस भाव से नहीं कि हमें वैसी कविताएँ अधिक प्रिय हैं।

हिन्दी–साहित्य–सम्मेलन ने इस पुस्तक को मध्यमा के कार्स में रक्खा है, इसलिये मैं सम्मेलन को सहर्ष धन्यवाद देता हूँ।

कविता-कौमुदी के दूसरे भाग का विज्ञापन इस पुस्तक के अंत में देखिये।

 
प्रयाग,
होली, सं॰ १९७५
निवेदक—
लेखक और प्रकाशक।
 
 

प्र स्ता व ना

 

प्रस्तावना

कविता सृष्टि का सौन्दर्य है, कविता ही सृष्टि का सुख है, और कविता ही सृष्टि का जीवन प्राण है। परमाणु में कविता है, विराट् रूप में कविता है, बिन्दु में कविता है, सागर में कविता है, रेणु में कविता है, पर्वत में कविता है, वायु और अग्नि में कविता है, जल और थल में कविता है, आकाश में कविता है, प्रकाश में कविता है, अन्धकार में भी कविता है; सूर्य और चन्द्र और तारागण में कविता है, किरण और कौमुदी में कविता है, मनुष्य में कविता है, पशु कविता है, पक्षी में कविता है, वृक्ष में कविता है, जिधर देखो उधर कविता का साम्राज्य है। प्रकृति काव्यमय है, सारा ब्रह्माण्ड एक अद्भुत महाकाव्य है। जिस मनुष्य ने इस सारगर्भित रसमयी कविता के आनन्द का स्वाद चखा, वही भाग्यवान् है। जिसने इस सरस्वती मन्दिर में कुछ शिक्षा ग्रहण की और मनन किया वही पण्डित है, जिसने इस रस प्रवाह में अपने को बहा दिया वही विरक्त है, जिसने इस अमृत प्रवाह में डूब कर दो चार कलश भर कर प्यासे थके हुये रोगी वा मृतप्राय यात्रियों को कुछ बूँदें पिलाकर, उन्हें शक्ति दी और पुनर्जीवित किया, वही कवि हैं।

ईश्वरीय सौन्दर्य को–प्राकृतिक कविता को भाषा की छटा द्वारा संसार को दरसाना ही कवि का कर्त्तव्य है। जितना गहरा वह अपनी प्रतिभा द्वारा इस सौन्दर्य सागर में डूबता है, उतना ही अधिक वह अपने कर्त्तव्य में सफल होता है। संसार के पदार्थों और घटनाओं को सभी देखते हैं परन्तु जिन आँखों से उन्हें कवि देखता है वे निराली ही होती है। गँधार के लिये पहाड़ों के भीतर से आती हुई नदी एक नदी मात्र है, कवि के लिये उस श्वेतवस्त्रा शोभायुक्त लाजवती का नाचता हुआ शरीर शृंगार की रंगभूमि है। आँख वही, पर चितवन में भेद है। बिहारी ने यह तो सच कहा है—

अनियारे दीरध नयन किती न तरुनि समान।
वह चितवन कछु और है जिहि बस होत सुजान॥

केवल बाहरी आँखों किन्तु बिहारी ने इस रसीले दोहे में ही के रस का वर्णन किया—और वह भी अधूरा। वास्तव में वश करने वाली आँखों में इतना भेद नहीं होता, जितना वश होने वाली आँखों में। होरे की परख जौहरी की आखें करती हैं, कुब्जा के सौन्दर्य की पहिचान रस प्रवीण कृष्ण ही का होती है; पदार्थ रूपी चित्रों में चितेरे के हाथ की महिमा कवि की ही आँखें पहिचानती हैं, प्राकृतिक देवी सङ्गीत उसी के कान सुनते है। विज्ञानवेत्ता पदार्थो के बाहरी अंगों की छानबीन करता है, और उनके अवयवों का सम्बन्ध दूँढता है, नीति उनसे मनुष्य समाज के लिये परिणाम निकालता है, किन्तु उनके आंतरिक सौन्दर्य की ओर कवि ही का लक्ष्य रहता है। वैज्ञानिक और नीतिज्ञ भी जैसे जैसे अपने लक्ष्य की खोज में गहरे डूबते हैं, वैसे वैसे कवि के समीप पहुँचते जाते हैं। सभी विधाओं और शास्त्रों का अन्त और उनकी सफलता कविता में लीन होने ही में है। कवि के सम्बन्ध में कहा है:—

जानते यत्न चन्द्राकोँ जानन्ते यन्न योगिनः।
जानीते यन्न भर्गोपि तज्जानाति कविः स्वयम्॥

यह कवि और कविता का आदर्श है, इसी आदर्श की ओर सच्चा कवि जाता है। जितना ही वह उसके समीप पहुँचता है उतना ही वह प्रभावशाली और उसकी कविता स्थायी होती है। भाषा तो केवल एक पहनावा मात्र है। उसकी कविता वास्तव में संसार के लाभ के लिये होती है; क्योंकि कवि की सृष्टि में सम्पूर्ण प्रजातंत्र है, समष्टिवाद का शुद्ध व्यवहार है। यहाँ स्वतंत्रता है, स्वच्छन्दता है, अपरिमित सम्पति है। कोई रोकने वाला नहीं, जितना चाहो उसमें से लेते जाओ वह घटती नहीं, तुममें केवल इच्छा और शक्ति की आवश्यकता है।

हिन्दी बोलने वालों का यह सौभाग्य है कि कविता के ऊँचे आदर्श के समीप तक पहुँचने वाले कई कवि ऐसे हुए है जिन्होंने हिन्दी भाषा द्वारा अपनी अमूल्य वाणी से संसार का उपकार किया है। मनुष्य जाति सदा उनका ऋणी रहेगी। कबीर और सूर और तुलसी—अहा! इनके नामों का स्मरण करते ही किस दीप्यमान सौन्दर्य और पवित्र आनन्द की सृष्टि के द्वार खुल जाते हैं। इनके भावों को जिसने समझा वह सच्चा पंडित, इनके मर्म को जिसने पाया, वह स्वयं महात्मा है। संसार साहित्य की चर्चा करता है; काँच को हीरा जानकर उसके पीछे दौड़ता है, खेल के गुड्डे को बालक समझ कर उसका व्याह करता है, और अपनी करतूत पर अभिमानी बनता है। अनेक भाषाएँ अपने अपने काँच के टुकड़ों को सामने रख हीरे का दम भरती हैं, किन्तु जैसा कबीर जी ने कहा है—

सिंहन के लँहड़े नहीं, हंसन की नहिँ पाँत।
लालन की नहि बोरियाँ, साधु न चलें जमात॥

कवियों के भी लँहड़े नहीं होते। वह काल, वह देश भाग्य वान् है जहाँ एक भी कवि उत्पन्न हो जाय। कबीर और सूर और तुलसी यह हिन्दी भाषा ही के नहीं, संसार साहित्य लाल हैं, परखने वाले की आवश्यकता है। कबीर के दोहों और शब्दों की परख कौन करता है? सूर के पदों और तुलसी की चौपाइयों को कौन तोलता है? मात्रा और अक्षरों के गिनने वाले समालोचक? छिः! परखने के लिए कुछ हृदय की सामग्री चाहिये, पुस्तकों के आडम्बर की आवश्यकता नहीं। इन कवियों के हँसने और रोने का अर्थ कौन समझता है? इनके वाक्यों के मर्म तक कौन पहुँचता है? स्वयं कोई मस्त प्रेमी, कोई कविता का मतवाला, जो शुद्ध हृदय से अभिमान छोड़ इस सृष्टि के भीतर नम्रता पूर्वक शिष्य बनकर आता है।

"ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंण्डित होय।"

कुछ काँच पहिचानने वाले समालोचक हिन्दी भाषा में साहित्य की कमी देखते हैं। गाँव का रहने वाला, जिसने अपनी गाँव की दूकान में रंग बिरंग के काँच के टुकड़े देखे हैं, नगर में आकर जब एक बड़े जौहरी की दूकान में जाता है तो अपने गाँव की दुकान के समान रँगीले काँचों को न देखकर बहुमूल्य मणियों का तिरस्कार करता है, और कहता है—हमारे गाँव की दुकान के समान यहाँ मणियाँ तो हैं ही नहीं। ठीक यही दशा इन समालोचकों की है। "यह गाहक करबीन के तुम लीनी कर बीन"। यदि मणि की परख न हो तो मणि का दोष नहीं, परखने वाले का दोष है। किन्तु काँच का भी संसार में काम है, वे भी चमकीले होते हैं, देखने में अच्छे लगते हैं। काँच के टुकड़े भी धन्य हैं, उनमें भी सौन्दर्य है, आनन्द बढ़ाते हैं—किन्तु हीरों और लालों की बात कुछ और ही है।

इस "कविता-कौमुदी" की छटा, संग्रह होने के कारण बादलों से छनकर आती है तौ भी अंधकार दूर करने के लिए पर्याप्त है। इसमें अमूल्य मणियों की लड़ियाँ हैं, साथ साथ रँगीले काँच के टुकड़ों की बन्दनवारें भी हैं, बहुत से काँच के टुकड़े बहुमूल्य हैं इनका भी शृंगार शोभायमान है; और अपने अपने स्थान पर सभी आदरणीय है।

 
प्रयाग,
मार्गशीर्ष शुक्ल ३, संवत् १९७४
पुरुषोत्तमदास टण्डन
 

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