कविता-कौमुदी
रामनरेश त्रिपाठी

प्रयाग: साहित्य भवन, पृष्ठ २४ से – ५१ तक

 

कबीर साहब

संयुक्त प्रांत में शायद ही कोई ऐसा हिन्दू हो जो कबीर साहब को न जानता होगा। कबीर साहब के भजन, मंदिरों में और सत्संग के अवसरों पर गाये जाते हैं। उनकी साखियाँ प्रायः कहावतों का काम दिया करती हैं।

कबीर साहब एक पंथ के प्रवर्त्तक थे, जिसे कबीर पंथ कहते हैं। कबीर पंथियों में निम्न श्रेणी के लोग अधिकांश पाए जाते हैं। उनमें से कुछ तो साधू हैं जो गाँवों में कुटी बना कर रहते हैं और कुछ गृहस्थ हैं। कबीरपंथी साधू सिर पर नोकदार पीले रंग की टोपी पहनते हैं।

कबीर साहब कौन थे? कहाँ और किस समय में व उत्पन्न हुये? उनका असली नाम क्या था? बचपन में वो कौन धर्मावलंबी थे? उनका विवाह हुआ था या नहीं? और वे कितने समय तक जीवित रहे? इन बातों में बड़ा मतभेद हैं। कबीर साहब की जीवनी लिखने वाले भिन्न भिन्न बातें बतलाते हैं। उनमें सत्य का अंश कितना है, इसका पता लगाना सहज नहीं है। "कबीर कसौटी" में कबीर साहब का जन्म संवत् १४५५ वि॰ में और मरण १५७५ वि॰ में होना लिखा है। कबीर पंथी लोग उनकी उम्र तीन सौ वर्ष की बतलाते हैं। उनके कथनानुसार कबीर साहब का जन्म १२०५ वि॰ में और मरण १५०५ वि॰ में हुआ है। इनमें से किसकी बात सत्य है? इसका निर्णय करना बड़ी खोज का काम है। कबीर पंथ के विद्वानों की राय में कबीर साहब का जन्म संवत् १४५५ ही सत्य कहा जाता है।

कबीर साहब ने अपने को जुलाहा लिखा है। एक जगह वे कहते हैं—

तू ब्राह्मण मैं काशी का जुलहा बहु मोर गियाना।

(आदि ग्रंथ)

इससे अब इस बात में तो कुछ संदेह रह ही नहीं जाता कि कबीर साहब जुलाहे थे। परन्तु वे जन्म के जुलाई नहीं थे, यह कहावतों से मालूम होता है।

कहा जाता है कि संवत् १४५५ की ज्येष्ठ शुक्ला पूर्णिमा को एक ब्राह्मण की विधवा कन्या के पेट से एक पुत्र पैदा हुआ। लोक लज्जावश उसने बालक को लहर तालाब (काशी) के किनारे फेंक दिया। संयोग से नीरू जुलाहा अपनी स्त्री नीमा के साथ उसी राह से आरहा था। उसने उस अनाथ बच्चे को घर लाकर पाला। पीछे वही कबीर नाम से विख्यात हुआ। कबीर साहब बालकपन से ही बड़े धर्मपरायण थे। जब उनको सुध बुध हो गई तब वे तिलक लगा कर राम राम करते थे। एक जुलाहे के घर में रहकर तिलक लगाना और राम राम जपना असंभव सा प्रतीत होता है? परन्तु संगति का प्रभाव बड़ा विचित्र होता है। वह असंभव को भी संभव कर देता है।

ऐसी कहावत है कि कबीर साहब स्वामी रामानंद के शिष्य थे। स्वामी रामानंद शेष रात्रि में गंगा स्नान के लिये मणिकर्णिका घाट पर नित्य जाया करते थे। एक दिन इसी समय कबीर साहब घाट की सीढ़ियों पर जाकर सो रहे। अँधेरे में स्वामी जी का पैर उनके ऊपर पड़ गया। तब वे कुलबुलाये। स्वामी जी ने कहा—"राम राम कह; राम राम कह"। कबीर साहब ने उसी को गुरुमंत्र मान लिया। उसी दिन से उन्होंने काशी में अपने को स्वामी रामानंद का शिष्य प्रसिद्ध किया। यवन के घर में पले होने पर भी कबीर साहब की प्रवृत्ति हिन्दू धर्म की तरफ अधिक थी।

कबीर साहब अपने जीवन का निर्वाह अपना पैतृक व्यवसाय करके ही करते थे। यह बात वे स्वयं स्वीकार करते हैं—"हम घर सूतत नहिं नित ताना"।

कबीर साहब ने विवाह किया था या नहीं, इस विषय में भी बड़ा मत भेद है। कबीर पंथ के विद्वान कहते हैं कि लोई नाम की स्त्री उनके साथ आजन्म रही, परन्तु उन्होंने उससे विवाह नहीं किया। इसी प्रकार कमाल उनका पुत्र और कमाली उनकी पुत्री थी, इस विषय में भी विचित्र बातें सुनी जाती हैं। "डूबे बंस कबीर के उपजे पूत कमाल" यह भी एक कहावत सा प्रसिद्ध हो रहा है। इससे पता चलता है कि कबीर ने विवाह अवश्य किया था और कमाल कबीर का पुत्र था, कमाल भी कविता करते थे। परन्तु उन्होंने कबीर साहब के सिद्धान्तों के खंडन करने ही में अपनी सारी उम्र बितादी। उसी से "डूबे बंस कबीर के उपजे पूत कमाल" कहा गया है।

कबीर साहब बड़े ही सुशील और बड़े सदाचारी थे। एक दिन की बात है कि उनके यहाँ बीस पच्चीस भूखे फकीर आये। कबीर साहब के पास उस दिन कुछ खाने को नहीं था इसलिये वे बहुत घबराये। लोई ने कहा—यदि आशा हो तो मैं एक साहूकार के बेटे से कुछ रुपया लाऊ वह मुझ पर मोहित हैं, मैं पहुँचीं नहीं कि उसने रुपये दिये नहीं। कबीर साहब कहा—जाओ ले आओ! लोई साहूकार के बेटे के पास गई और उसने उससे अपना अभि प्राय कह सुनाया। साहूकार के बेटे ने तत्काल धन दे दिये। जब अन्त में उसने अपना मनोरथ प्रगट किया, तब लोई ने रात में मिलने का वादा किया।

दिन खाने खिलाने में बीत गया। रात हुई, चारों ओर अँधेरा छा गया, संयोग से उस दिन पानी बरस रहा था। लोई ने कबीर साहब से सब वृत्तान्त कह दिया था, इससे कबीर साहब को चैन नहीं थी, वे सोचते थे कि जिसकी बात गई, उसका सब गया। उन्होंने हवा पानी की कुछ भी परवा न की और कम्बल ओढ़ कर स्त्री को कंधे पर बिठा कर वे साहूकार के घर पहुँचे। आप तो बाहर खड़े रहे और लोई भीतर चली गई। न तो उसके कपड़े भींगे थे और न उसके पैर में कीचड़ ही लगी थी, यह देखकर साहूकार के लड़के ने इसका कारण पूछा। लोई ने सब सच सच कह दिया। यह सुन कर साहूकार के बेटे की कुवृत्ति बदल गई, वह लोई के पैर पर गिर पड़ा और कहा—तुम मेरी माँ हो! इतना कह कर वह बाहर आया और कबीर साहब के पैर से लिपट गया तथा उसी दिन से वह उनका सच्चा सेवक बन गया।

कबीर साहब के जीवन चरित्र में एसी बहुत सी कथाएँ हैं जिनसे उनकी सच्चरित्रता प्रकट होती है।

कबीर साहब पढ़े लिखे न थे। सतसंगी थे। सतसंग से ही उन्होंने हिन्दू धर्म को गूढ़ गूढ़ बातें जान ली थीं। उनके हृदय में हिन्दू मुसलमान किसी के लिये द्वेष न था; वे सत्य के बड़े पक्षपाती थे। जहाँ उन्हें सत्य के विरुद्ध कुछ दिखाई पड़ा, वहाँ उन्होंने उसका खंडन करने में जरा भी हिचकिचाहट नहीं दिखलाई।

कबीर साहब ने अपना अधिकार हिन्दू मुसलमान दोनों पर जमाया। आज कल भी हिन्दू मुसलमान दोनों प्रकार के कबीर पंथी मिलते हैं। परन्तु सर्व-साधारण हिन्दू और मुसलमान दोनों का कबीर मत से बैर हो गया। हिन्दू धर्म के नेता एक अहिन्दू के मुख से हिन्दू धर्म का प्रचार देखकर भड़के और मुसलमान, कबीर साहब के हिन्दू आचार्य का शिष्य होने तथा हिन्दू धर्म का प्रचार करने के कारण कट्टर विरोधी हो गये। इस विरोध के कारण उनको बड़ी बड़ी कठिनाइयाँ भोगनी पड़ीं। परन्तु उनके हृदय में जो सत्य का दीपक जल रहा था, वह किसी के बुझाये न बुझा।

कबीर साहब ने स्वयं कोई पुस्तक नहीं लिखी। वे साखी और भजन बना कर कहा करते थे, और उनके चेले उसे कंठस्थ कर लेते थे, पीछे से वह सब संग्रह कर लिया गया। कबीर पंथ के अधिकांश उत्तम उत्तम ग्रन्थ उनके शिष्यों के हुए कहे जाते हैं।

"ख़ास ग्रन्थ" में निम्नलिखित पुस्तकें हैं।

१—सुखनिधान, २—गोरख नाथ की गोष्ठी, ३—कबीर पाँजी, ४—बलख की रमैनी, ५—आनन्द राम सागर, ६—रामानन्द की गोटी, ७—शब्दावली, ८—मङ्गल, ९—बसन्त, १०—होली, ११—रेखता १२—झूलन, १३—कहरा, १४—हिन्दोल १५—बारहमासा, १६—चाँचर, १७—चौंतीसी, १८—अलिफ नामा, १९—रमैनी, २०—साखी, २१—बीजक।

कबीर पंथियों में बीजक का बड़ा आदर है। बीजक दो—एक तो बड़ा, जो स्वयं कबीर साहब का काशिराज से कहा हुआ बतलाया जाता है, और दसरे बीजक को कबीर के एक शिष्य भग्गूदास ने संग्रह किया है। दोनों में बहुत कम अंतर हैं।

कबीर साहब का उलटा प्रसिद्ध है। मेरी समझ में लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये ही कबीर साहब ऐसा कहा करते थे। यों तो अर्थ लगाने वाले कुछ न कुछ उलटा सीधा अर्थ लगाही लेते हैं परन्तु खींच तान कर लगाये गये ऐसे अर्थों में कुछ विशेषता नहीं रहती।

कबीर साहब मूर्तिपूजा के कट्टर विरोधी थे। यद्यपि ईश्वर का अवतार धारण करना भी वे नहीं मानने थे, परन्तु अपने को उन्होंने स्वयं सत्य लोक वासी प्रभु का दूत बतलायाक्षहै। वे कहते हैं:—

काशी में हम प्रगट भरे हैं रामानन्द चेताये।
समरथ का परवाना लाये हंस उबारन आये॥

(शब्दावली)

लोगों का ऐसा कथन है कि मगहर में प्राण त्याग करने से मुक्ति नहीं मिलती। भला सत्यान्वेषक कबीर इस बात को कैसे मान सकते थे, उन्होंने लोगों का यही भ्रम मिटाने के लिये ही मगहर में जाकर शरीर छोड़ा। इस विषय में उन्होंने कहा है:—

जो कबीर काशी मरे तो रामहिं कौन निहोरा।

जस काशी तस मगहा ऊसर हृदय राम जो होई।

कबीर साहब की कविता में बड़ी शिक्षा भरी है। एक एक पद से उनकी सत्य-निष्ठा प्रकट होती है। उन्होंने जो कहा है, प्रायः सभी एक से एक बढ़ कर है। हम ने उन्हीं में से कुछ साखी और भजन चुन लिये हैं। हमें कबीर साहब की साखी में बड़ा आनन्द मिलता है। बातें तो छोटी सी हैं, परन्तु उनमें अगाध ज्ञान भरा हुआ है।

हम यहाँ कबीर साहब की कुछ साखियाँ और भजन उद्धृत करते हैं:—

साखी

गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पाँय।
बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दिया बताय॥१॥
यह तन विष की बेलरी गुरु अमृत की खान।
सीस दिये जो गुरु मिलैं तौ भी सस्ता जान॥२॥
बहे बहाये जात थे लोक वेद के साथ।
पैड़ा में सत गुरु मिले दीपक दीन्हा हाथ॥३॥
ऐसा कोई ना मिला सत्त नाम का मीत।
तन मन सौंपे मिरग ज्यौं सुनै वधिक का गीत॥४॥
सतगुरु साचा सुरमा नख सिख मारा पूर।
बाहर घाव न दीसई भीतर चकनाचूर॥५॥
सुख के माथे सिलि परै (जो) नाम हृदय से जाय।
बलिहारी वा दुक्ख की पल पल नाम रटाय॥६॥
लेने को सतमान है देने को अन दान।
तरने को आधीनता बूड़न को अभिमान॥७॥
दुःख में सुमिरन सब करै सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करै तो दुःख काहे होय॥८॥

सुमिरन की सुधि यों करै ज्यों गागर पनिहार।
हालै डोलै सुरति में कहै कबीर विचार॥९॥
माला तो कर में फिरैं जीभ फिरै मुख माहि।
मनुवाँ तो दहुँ दिस फिरैं यह तो सुमिरन नाहि॥१०॥
गगन मंडल के बीच में जहाँ सोहंगम डोरि।
सबद अनाहद होता हैं सुरत लगी तहँ मोरि॥११॥
कबीर गर्ब न कीजिए काल गहे कर केस।
ना जानौं कित मारि है क्या घर या परदेस॥१२॥
हाड़ जरै ज्यों लाकड़ी केस जरै ज्यों घास।
सब जग जरता देखि कर भये कबीर उदास॥१३॥
झूठे सुख को सुख कहैं मानत है मन मोद
जगत चबेना काल का कुछ सुख में कुछ गोद॥१४॥
पानी केरा बुद बुदा अस मानुष की जात।
देखतही छिपि जायगी ज्यों तारा परभात॥१५॥
रात गँवाई सोय करि दिवस गंवायों खाय।
हीरा जन्म अमोल था कौड़ी बदले जाय॥१६॥
आज कहै कल्ह भजूँगा काल कहै फिर काल।
आज कालके करते ही औसर झांसी चाल॥१७॥
आछे दिन पाछे गये गुरु से किया न हेत।
अब पछतावा क्या करै चिड़ियाँ चुग गई खेत॥१८॥
काल करै सो आज कर आज करैं सो अब्ब।
पलमें परलै होयगी बहुरि करैगा कब्ब॥१९॥
कबीर नौबत आपनी दिन दस लेहु बजाय।
यह पुर पट्टन यह गली बहुरि न देखौं आय॥२०॥
पाँचों नौबत बाजती होत छत्तीसों राग।
सो मन्दिर खाली पड़ा बैठन लागे काग॥२१॥

कहा चुनावै मेड़ियाँ लम्बी भीति उसारि।
घर तो साढ़े तीन हथ घना तो पौने चारि॥२२॥
माटी कहै कुम्हार को तू क्या रूँदै मोहिं।
इक दिन ऐसा होइगा मैं रूँदूँगी तोहि॥२३॥
यह तन काँचा कुम्भ है लिये फिरै था साथ।
टपका लागा फूटिया कछु नहिँ आया हाथ॥२४॥
आये हैं सो जाँयगे राजा रंक फ़कीर॥
एक सिंघासन चढ़ि चले एक बंधे जंजीर॥२५॥
आसपास जोधा खड़े सभी बजावैं गाल॥
मंझ महल से लै चला ऐसा काल कराल॥२६॥
या दुनिया में आय के छाड़ि देइ तू ऐंठ।
लेना होय सो लेइ ले उठी जात है पैंठ॥२७॥
कबीर आप ठगाइये और न ठगिये कोय।
आप ठगे सुख ऊपजै और ठगे दुख होय॥२८॥
ऐसी गति संसार की ज्यों गाड़र की ठाट।
एक पड़ा जेहि गाड़ में सबै जाहिं तेहि बाट॥२९॥
तू मत जानै बावरे मेरा है सब कोय॥
पिंड प्रान से बैधि रहा सो अपना नहि होय॥३०॥
इक दिन ऐसा होयगा कोउ काहू का नाहिं।
घर की नारी को कहै तन की नारी जाहि॥३१॥
नाम भजो तो अब भजो बहुरि भजोगे कब्ब।
हरियर हरियर रुखड़े ईंधन हो गये सब्ब॥३२॥
माली आवत देखि कै कलियाँ करी पुकार।
फूली फूली चुनि लिये कालि हमारी बार॥३३॥
हम जानैं थे खाहिंगे बहुत जमी बहु माल।
ज्यों का त्यों ही रहि गया पकरि लै गया काल॥२४॥

भक्ति भाव भादों नदी सबै चली घहराय।
सरिता सोई सराहिये जो जेठ मास ठहराय॥३५॥
जब लगि भक्ति सकाम है तब लगि निष्फल सेव।
कह कबीर वह क्यों मिले निःकामी निज देव॥३६॥
लागी लागी क्या करे लागी बुरी बलाय।
लागी सोई जानिये जो वार पार ह्वै जाय॥३७॥
लागी लगन छुटै नहीं जीभ चोंच जरि जाय।
मीठा कहा अँगार में जाहि चकोर चबाय॥३८॥
सोओं तो सुपने मिलै जागौं तो मन माहिँ।
लोचन राता सुधि हरी बिछुरत कबहूँ नाहिँ॥३९॥
ज्यों तिरिया पीहर बसै सुरति रहै पिय माहिँ।
ऐसे जन जग में रहैं हरि को भूलैं नाहिँ॥४०॥
कबीर हँसना दूर करु रोने से करु चीत।
बिन रोये क्यों पाइये प्रेम पियारा मीत॥४१॥
हँसौं तो दुःख ना बीसरै रोवौं बल घटि जाय।
मनहीँ माहिँ बिसूरना ज्यौं घुन काठहिँ खाय॥४२॥
हँस हँस केतन पाइया जिन पाया तिन रोय।
हाँसी खेले पिउ मिलै तो कौन दुहागिनि होय॥४३॥
सुखिया सब संसार है खावै औ सोवै।
दुखिया दास कबीर है जागै औ रोवै॥४४॥
माँस गया पिञ्जर रहा ताकन लागे काग।
साहिब अजहुँ न आइया मंद हमारे भाग॥४५॥
हबस करैं पिय मिलन की औ सुख चाहै अंग।
पीर सहे बिनु पदमिनी पूत न लेत उछंग॥४६॥
बिरहिनि ओदी लाकड़ी सपचे औ धुँधुआय।
छूटि पड़ौं या बिरह से जो सिगरो जरि जाय॥४७॥

पावक रूपी नाम है सब घट रहा समाय।
चित चकमक चहुटै नहीं धूवाँ ह्वै ह्वै जाय॥४८॥
जो जन बिरही नाम के तिनकी गतिहै यह।
देही से उद्यम करैं सुमिरन करैं विदेह॥४९॥
बिरहा बिरहा मत कहो बिरहा है सुल्तान।
जा घट बिरह न संचरै सो घट जान महान॥५०॥
आगि लगी आकास में झरि झरि परै अँगार।
कबिरा जरि कंचन भया काँच भया संसार॥५१॥
कबिरा वेद बुलाइया पकरि के देखी बाहिँ।
वैद न वेदन जानई करक करेजे माँहि॥५२॥
जाहु वैद घर आपने तेरा किया न होय।
जिन या वेदन निर्मई भला करेगा सोय॥५३॥
सीस उतारै भुइँ धेरै तापर राखै पाँव।
दास कबीरा यों कहै ऐसा होय तो आव॥५४॥
प्रेम न बाडी ऊपजै प्रेम न हार बिकाय।
राजा परजा जेहि रुवै सीस देह ले जाय॥५५॥
छिनहि चढ़ैं छिन ऊतरै सो तो प्रेम न होय।
अघट प्रेम पिञ्जर बसै प्रेम कहावै सोय॥५६॥
प्रेम प्रेम सब कोइ कहैं प्रेम न चीन्है कोय‌।
आठ पहर भीना रहैं प्रेम कहावै सोय॥५७॥
जब मैं था तब गुरु अब गुरु हैं हम नाहिँ।
प्रेम गली अति साँकरी या में दो न समाहित॥५८॥
जा घट प्रेम न संचरै सो घट जान महान।
जैसे खाल लुहार की साँस लेत बिना प्रान॥५९॥
प्रेम तो ऐसा कीजियो जैसे चंद चकोर।
घींच टूटि भुइँ माँ गिरे चितवै वाही ओर॥६०॥

जहाँ प्रेम तहँ नेम नहि तहाँ न बुधि ब्यौहार।
प्रेम मगन जब मन भया कौन गिने तिथि वार॥६२॥
प्रेम छिपाया ना छिपै जा घट परघट होय।
जो पै मुख बोलै नहीं नैन। देत हैं रोय॥६२॥
पीया चाहे प्रेम रसक्ष राखा चाहै मान।
एक म्यान में दो खड़ग देखा सुना न कान॥६३॥
कबिरा प्याला प्रेम का अन्तर लिया लगाय।
रोम रोम में रमि रहा और अमल का खाय॥६४॥
नैनों की करि कोठरी पुतली पलँग बिछाय।
पलकों की चिक डारि के पिय को लिया रिझाय॥६५॥
जल में बसै कमोदिनी चन्दा बसै अकास।
जो है जाको भावता सो ताही के पास॥६६॥
प्रीतम को पतियाँ लिखूँ जो कहुँ होय विदेस।
तन में मन में नैन में ताको कहा संदेस॥६७॥
साई इतना दीजिये जा में कुटुंब समाय।
मैं भी भुखा ना रहूँ साधु न भूखा जाय॥६८॥
बिनवत हौं कर जारि कै सुनिये कृपा-निधान।
साधु सँगति सुख दीजिये दया गरीबी दान॥९९॥
क्या मुख लै विनती करौं लाज लाज आवत है मोहि॥
तुम देखत आंगुन करौं कैसे भावौं तोहि॥७०॥
अवगुन मेरे बाप जो बकसु गरीब निवाज।
जो मैं पूत कपूत हौं तऊ पिता को लाज॥७१॥
साहिब तुमहि दयाल हो तुम लगि मेरी दौर।
जैसे काग जहाज को सूझै और न ठौर॥७२॥
सिख तो ऐसा चाहिये गुरु को सब कछु देय।
गुरु तो ऐसा चाहिये सिख से कछु नहि लेय॥७३॥

सिंहों के लेहड़े नहीं हंसों की नहिं पांच।
लाखों की नहि बोरियाँ साधु न चलैं जमात॥७४॥
साधु कहावन कठिन हैं ज्यों खाँड़ै की धार।
डगमगाय तो गिरि परे निश्चल उतरे पार॥७५॥
गांठी दाम न बांधई, नहिं नारी सों नेह।
कह कबीर ता साध के, हम चरनन की खेह॥७६॥
संत हमारी आत्मा और मैं संतन की देह।
साधुन के रहौं ज्यों य म घीव॥७७॥
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥७८॥
कबिर संगत साधु की, हरै और की व्याधि।
संगत बुरी असाधु की, आठो पहर उपाधि॥७९॥
कबीर संगत साधु की जौ की भूसी खाय।
खीर खाँड़ भोजन मिले साकट सौंग न जाय॥८०॥
कबीर संगत साधु की ज्यों गंधी का बास।
जो कछु गंधी दे नहीं तो भी बास सुबास॥८१॥
कबीर संगति साधु की, निष्फल कभी न होय।
ऐसी चंदन वासना, नीम न कहसी कोय॥८२॥
बड़ा हुआ तो क्या हुआ , जैसे पेड़ खजूर।
पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर॥८३॥
हरियर जानै रुखड़ा जो पानी का नेह।
सूखा काठ न जानही केतहु बूड़ा मेह॥८४॥
मारी मरै कुलंग की ज्यों केले ढिंग जाती बेर।
वह हालै वह चीरई साकट संग निवेर॥८५॥
केला तबहिं न चेतिया जब ढिग जामी बेरि।
अब के चेते क्या भया काँटों लीन्हा घेरि॥८६॥

समदृष्टी सतगुरू किया मेटा भरम बिकार।
जहें दखों तह एकही साहिय सहज का दीदार ॥८७॥
सहज मिलै सो दूध सम माँगा मिलै सो पानी।
कह कबीर वह रक्त सम जा में ऐँचातानि॥८८॥
साधू ऐसा चाहिये जैसा सूप सुभाय।
सार सार को गहि रहै थोथा दइ उड़ाय॥८९॥
आटा नजि भूसी गहै चलना देखु निहार।
कबीर सारहि छाँड़ि कै करें असार अहार॥९०॥
उततें कोई न बाहुरा जातें बुझूँ धार।
इततें सब ही जात हैं भार लदाय लदाय॥९१॥
उततें सत गुरु आइया जा की बुधि है धीर।
भवसागर के जीव को खेइ लगावै तीर॥९२॥
जो आवै तो जाय नहि जाय तो आवै नाहिँ।
अरुथ कहानी प्रेम की समझ लेहु मन माहिँ॥९३॥
सूली ऊपर घर करै विष का कर अहार।
ताको काल कहा करै जो आठ पहर हुसियार॥९४॥
नाँव न जानौँ गाँव का बिन जाने कित जाँव।
चलता चलता जुग भया पाव कोस पर गाँव॥९५॥
सतगुरु दीनदयाल हैं दया करी मोहि आय।
कोटि जनम का पंथ था पल में पहुँचा जाय॥९६॥
चलन चलन सब कोई कहै मोहि अँदेसा और।
साहिब से परिचय नहीं पहुंचेंगे केहि ठौर॥९७॥
कबीर का घर सिखर पर जहाँ पंडित छूटि।
पाँव न टिकै पिपीलिका पंडित लादे बैल॥९८॥
मरियै तो मरि जाइये छूटा परै जंजीर।
ऐसा मरना को मरै दिन में सौ सौ बार॥९९॥

कस्तूरी कुडल बसे मृग ढूँढ़ बन माहिं।
ऐसे घट में पीव है दुनियाँ जानै नाहिं॥१००॥
द्वार धनी के पड़ि रहे धका धनीका खाय।
कबहुँ क धनी निवाजई जो दर छाड़िन जाय॥१०१॥
जरा मीच व्यापै नहीं मुआ न सुनिये कोय।
चलु कबीर वा देस को जहँ बैद साइयाँ होय॥१०२॥
साथ सती औ सूरमा ज्ञानी औ गज-दंत।
एते निकसि न बहुरैं जो जुग जाहि अनन्त॥१०३॥
सिर राखे सिर जात है सिर काटे सिर सोय।
जैसे बाती दीप की कटि उजियारा होय॥१०४॥
जूझैंगे तब कहेंगे अब कछु कहा न जाय।
भीड़ पड़े मन मसखरा लड़े किधौं भगि जाय॥१०५॥
अगिनि आँच सहना सुगम सुगम खड़ग की धार।
नेह निभावन एकरस महा कठिन ब्यौहार॥१०६॥
सूरा नाम धराइ के अब का डरपै बार।
मँडि रहना मैदान में सन्मुख सहना तीर॥१०७॥
पतिबरता को सुख धना जाके पति हैं एक।
मन मैली विभिचारनी ताके खसम अनेक॥१०८॥
पतिबरता पति को भजै और न आन सुहाय।
सिंह बचा जो लंघना तौ भी घास न खाय॥१०९॥
नैनों अंतर आव तू नैन झाँपि तोहि लेवं।
ना में देखों और को ना तोहि देखन देवें॥११०॥
मैं सेवक समरत्थ का कबहुँ न होय अकाज।
पतिबरता नाँगो रहै तो वाही पति को लाज॥१११॥
सब आये उस एक में डार पात फल फूल।
अब कहो पाछे क्या रहा गहि पकड़ा जब मूल॥११२॥

चन्ड्न गया बिदेसड़े सब कोइ कहै पलास।
ज्यों ज्यों चूल्हे झांकिया त्यों त्यों अधिकी बास॥११३॥
लाली मेरे लाल की जित देखों तित लाल।
लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल॥११४॥
हम बासी वा देस जहँ बारह मास बिलास।
प्रेम झिरे विगसै कँवल तेज पुंज परकास॥११५॥
कबीर जब हम गावते तथ जाना गुरु नाहिँ।
अब गुरु दिल में देखिया गावन को कछु नाहिँ॥११६॥
ज्ञानी से कहिये कहा कहत कबीर लजाय।
अंधे आगे नाचते कला अकारथ जाय॥११७॥
जो तोको काँटा बुवै ताहि दोष तू फूल।
तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसूल॥११८॥
दुर्बल को न सताइये जाकी मोटी हाय।
बिना जीवकी स्वास से लोह भसम होजाय॥११९॥
ऐसी बानी बोलिये मन का आपा खोय।
औरन को सीतल करै आपहुँ सीतल होय॥१२०॥
हस्ती चढ़िये ज्ञान की सहज दुलीचा डारि।
स्वान रूप संसार है भूसन दे झक मारि॥१२१॥
आवत गारी एक है उलटत होय अनेक।
कह कबार नहिं उलटिये वहीं एक ही एक॥१२२॥
कथा कीरतन रात दिन जाके उद्यम येह।
कह कबीर ता साधु की हम चरनन की केस॥१२३॥
बन्दे तू कर बन्दगी तौ पावे दीदार।
औसर मानुष जनम का बहुरि न बारम्बार॥१२४॥
साधु भया तो क्या भया बोलै नाहिं विचार।
होते पराई आत्मा जीभ बाँधि तरवार॥१२५॥

बचन है औषधि कटुक बचन है तीर।
श्रवम द्वार ह्वै संचरै सालै सकल सरीर॥१२६॥
बोलत ही पहिचानिये साहु खोर को घाट।
अन्तर की करनी सबै निकसै मुख की बाट॥१२७॥
जिन ढूँढ़ा तिन पाइयाँ गहिरे पानी पैठि।
जो बौरा डूबन डरा रहा किनारे बैठि॥१२८॥
पढ़ना गुनना चातुरी यह तो बात सहल।
काम दहन मन बसि करन गगन चढ़न मुस्कल॥१२९॥
भय बिनु भाब न ऊपजै भय बिनु होय न प्रीति।
जब हिरदे से भय गया मिट्टी सकल रस रीति॥१३०॥
कथनी मीठी खाँड़ सी करनी विष की लोय।
कथनी तजि करनी करै तौ विष से अमृत होय॥१३१॥
लाया साखि बनाय करि इत उन अच्छर काट।
कह कबीर कब लग जिये जूठी पत्तल चाट॥१३२॥
पानी मिलै न आपको औरन बकसत छीर।
आपन मन निस्चल नहीं और बँधावत धीर॥१३३॥
मारग चलते जो गिरै ताको नाहिं दोस।
कह कबीर बैठा रहे ता सिर करड़े कोस॥१३४॥
रोड़ा होइ रहु बाटका तजि आपा अभिमान।
लोभ मोह तृस्ना तजे ताहि मिलै निज नाम॥१३५॥
रोड़ा भया तो क्या भया पंथी को दुख देह।
साधू ऐसा चाहिये ज्यों पैड़े की खेह॥१३६॥
खेह भई तो क्या भया उड़ि उड़ि लागै अंग।
साधू ऐसा चाहिये जैसे नीर निपंग॥१३७‍॥
नीर भया तो क्या भय तासा सीरा जोय।
साधू ऐसा चाहिये जो हरि ही जैसा होय॥१३८॥

हरी भया तो क्या भया जो करता हरता होय।
साधू ऐसा चाहिये जो हरि भज निरमल होय॥१३९॥
बिरमल भया तो क्या भया निरमल माँगे ठौर।
मल निरमल तें रहित है ते साधू कोइ और॥१४०॥
साँच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदे साँच है ताके हिरदे आप॥१४१॥
साँचे स्त्राव न लागई साँचे काल न खाय।
साँचा को साँचा मिलै साँचे माहिं समाय॥१४२॥
साँचे कोइ न पतीजई झूँठे जग पतियाय।
गली गली गोरस फिरै मदिरा बैठि बिकाय॥१४३॥
साँचे को साँचा मिलै आधिक बढ़े स्नेह।
झूठे को साँचा मिलै तड़रे टूटै नेह॥१४४॥
जहाँ दया तह धर्म है जहाँ लोभ तह पाप।
जहाँ क्रोध तह काल है जहाँ छिमा तहाँ आप॥१४५॥
बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजौं आपना मुझसा बुरा न कोय॥१४६॥
दाया दिल में रखिये तू क्यों निरदइ होय।
साईं के सब जीव हैं कीड़ी कु़ंजर सोय॥१४७॥
कोटि करम लागे रहैं एक क्रोध की लार।
किया कराया सब गया जब आया हंकार॥१४८॥
दसो दिसा से क्रोध की उठी अपरबल आगि।
सीतल संगति साधु की तहाँ उबरिये भागि॥१४९॥
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर॥१५०॥
जहँ आपा तहँ आपदा जहँ संसय तहँ सोग।
कहँ कबीर कैसे मिटैं चारो दीरघ रोग॥१५१॥

कबीर जोगी जगत गुरु तजै जगत की आस।
जो जग की आसा करे तो जगत गुरू वह दास॥१५२॥
तन तुरंग असवार मन कर्म पियादा साथ।
त्रिस्ता चली सिकार को विषे बाज लिये हाथ॥१५३॥
चलौ चलौ सब कोई कहै पहुँचै बिरला कोय।
एक कनक अरु कमिनी दुरगम घाटी दोय॥१५४॥
पर नारी पैनी छुरी मत कोइ लाबो अंग।
रावन के दस सिर गये पर नारी के संग॥१५५॥
सब सोने की सुन्दरी आवै बास सुबास।
जो जननी ह्वै आपनी तऊ न बैठे पास॥१५६॥
छोरी मोटी कामनी सब ही बिष की बेल।
बैरी मारै दाँव दै यह मारै हँसि खेल॥१५७॥
जागत में सोवन करै सोवन में लौ लाय।
सुरति डोर लागो रहै तार टूटि नहिं जाय॥१५८॥
निन्दक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना निर्मल करै सुभाय॥१५९॥
तिनका कबहुँ न निन्द्रिये जो पाँवन तर होय।
कबहूँ उड़ि आँखिन परै पीर घनेरी होय॥१६०॥
दोष पराये देख करि चले हसंत हसंत।
अपने याद न आबई जिनका आदि न अंत॥१६१॥
माखी गुड़ में गड़ि रही पंख रह्यो लिपटाय॥
हाथ मलै औ सिरधुनै लालच बुरी बलाय॥१६२॥
औगुन कहौं सराब का ज्ञानवंत सुनि लेय॥
मानुष से पसुआ करै द्रव्य गाँठि को देय॥१६३॥
रूखा सूखा लाइ कै ठंढ़ा पानी पीव।
देखि बिरानी चूपड़ी मत ललचावै जीव॥१६४॥

कबीर साई मुज्झको रूखी रोटी देय।
चुपड़ी माँगत मैं डरु रूखी छीनि नदेय॥१६५॥
सत्त नाम को छाँडि कै करै और को जाप।
बेस्या केरै पूत ज्यों कहै कौन को बाप॥१६६॥
एके साधै सब सधै सब साधै सब जाय।
जो गहि सेवै मूल को फूलै फलै अघात॥१६७॥
पाहन पूजे हरि मिलै तो मैं पुंजों पहार।
तातैं ये चाकी भली पीसि खाय संसार॥१६८॥
काँकर पाथर ओरि कै मसजिद लई चुनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे क्या बहिरा हुआ खुदाय॥१६९॥
पोथी पदि पढ़ि जग मुआ पंडित हुआ न कोय।
ढाई अच्छर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय॥१७०॥
सपने में साईं मिले सांवत लिया जगाय।
आँखि न खोलू डरपता मति सुपना हूँ जाय॥१७१॥
साँझ पड़े दिन बीतवै चकवी दीन्हा राय।
चल चकवा वा देस को जहाँ रैन ना होय॥१७२॥
चात्रिक सुतहिं पढ़ावही आन नीर मति लेय।
मम कुल यही स्वभाव है स्वाँति बूँद चित देय॥१७३॥
जूआ चोरी मुखबिरी व्याज घूस पर नार।
जो चाहे दीदार को एती वस्तु निवार॥१७४॥

शब्दावली

मन फूला फूला फिरैजक्त में कैसा नाता रे॥टेक॥
माता कहै यह पुत्र हमारा बहिन कहैं बिर मेरा
भाई कहै यह भुजा हमारी नारि कहैं नर मेरा।

पेट पकरि के भाता रोवै बाँह पकरि के भाई।
लपटि झपटि के तिरिया रोवै हंस अकेला जाई॥
अब लगि माता जीवै रोबै बहिन रोवै दस भाषा।
तेरह दिन तक तिरिया रोवै फेर करै घर बासा॥
चार गजी चरगजी मँगाया चढ़ा काठ की घोड़ी।
चारों कोने आग लगाया फूँक दियो जस होरी।
हाड़ जरै जस लाह कड़ी को केस जरै जस घासा।
सोना ऐसी काया जरि गई कोई न आयो पासा॥
घर की तिरिया ढूँढ़न लागी ढूँढ़ि फिरी चहुँ देसा।
कहै कबीर सुनो भई साधो छाड़ौ जग की आसा॥१७५॥
काया बौरी चलत प्रान काहे रोई॥टेक॥
काया पाय बहुत सुख कीन्हो नित उठि मलि मलि धोई।
सो तन छिया छार ह्वै जैहे नाम न लैहे कोई॥
कहत प्रान सुनु काया धौरी मोर तोर संग न होई।
तोहिँ अस मित्र बहुत हम त्यागा संग न लीन्हा कोई॥
ऊसर खेत कै कुसा मँगावै चाँचर चवर कै पानी।
जीवत ब्रह्म को कोई न पूंजै मुरदा के मिहमानी॥
सब सनकादि आदि ब्रह्मादिक सेस सहस मुख होई।
जो जा जन्म लियो बसुधा में थिर न रह्यो है कोई॥
पाप पुन्य है जन्म सँघाती समुझि देख नर लोई।
कहत कबीरा अंतर की गति जानत बिरला कोई॥१७६॥

होली

आई गवनवाँ की सारी उमिरि अबहीं मोरी बारी॥टेक॥
साज समाज पिया लै आये और कहरिया चारी।
बम्हना बेदरदी अचरा पकरि कै जोरत गँडिया हमारी।
सखी सब गावत गारी॥

विधिगति बाम कछु समझ परत ना बैरी भई महतारी।
रोय पेय अँखियाँ मोर पोंछत घरवाँ से देत निकारी।
भई सब को हम भारी॥
गवन कराय पिया लै चाले इत उत बाट निहारी।
छूटत गाँव नगर से नाता छूटै महल अटारी॥
करम गति टरै न दारी॥
नदिया किनारे बलम मोर रसिया दीन्ह घूँघट पट टारी।
थर थराय तन काँपन लागे काहू न देख हमारी।
पिया लै आये गोहारी॥
कहै कबीर सुनो भाई साधो यह पद लेडु विचारी।
अब के गौना बहुरि र्नाह औना करिले भेंट अकवारी।
एक बेर मिलि ले प्यारी॥१७७॥
हमन हैं इस्क मस्ताना हमनको होसियारी क्या।
रहें आजाद या जग में हमन दुनिया से यारी क्या॥
जो बिछुड़े है पियारे से भटकते दर बदर फिरते।
हमारा यार है हम में हमन को इन्तिजारी क्या॥
खलक सब नाम अपने को बहुत कर सिर पटकता है।
हमन गुरु नाम साँचा है हमन दुनिया से यारी क्या॥
न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछुड़ें पियारे से।
उन्हीं से नेह लागी है हमन को बेकरारी क्या॥
कबीरा इस्क का माता दुई को दूर कर दिल से।
जो चलना राह नाजुक है हमन सिर बोझ भारी क्या॥१७८॥
भज ले सिरजन हार सुघर तनके पायके॥टेक॥
काहे रहौ अचेत कहाँ यह औसर पैहो।
फिर नहिं ऐसी देह बहुरि पाछै पछि तैहो॥

लख चौरासी जोनि में मानुष जन्म अनूप।
ताहि पाय नर चेतत नाहीं कहा रंक कहा भूप॥सुघर॥
गर्भ वास में रह्यो कह्यौ मैं भजिहौं तोहीं।
निस दिन सुमिरौं नाम कष्ट से काढ़ौ मोहीं॥
चरनन ध्यान लगाइ के रहौं नाम लौ लाय।
तनिक न तोहि बिसारिहौं यह तन रहै कि जाय॥सुघर॥
इतना कियो करार काढ़ि गुरु बाहर कीना।
भूलि गयौ यह बात भयौ की आन माया आधीना॥
भूली बातैं उद्र की आन पड़ी सुधि एत।
बारह बरस बीतिगे या बिधि खेलत फिरत अचेत॥सुघर॥
विषया बान समान देंह जोबन मदमाती।
चलत निहारत छाँह तमकके बोलत बाती।
चोबा चन्दन लाइ के पहिरे वसन रंगाय।
गलियाँ गलियाँ झाँकी मारे परतिरियालखमुसकाय॥सुघर॥
तरुनापन गइ बीत बुढ़ापा आनि तुलाने।
काँपन लागे सीस चलत दोउ चरन पिराने॥
नैन नासिका चूबन लागे मुख तें आवत बास।
कफ पित कंठै घेर लियो है छुटि गइ घर की आस॥सुघर॥
मातु पिता सुत नारि कहौ काके सङ्ग जाई।
तन धन घर औ काम धाम सब ही छुटि जाई॥
आखिर काल घसीटि है पड़ि हौ जम के फन्द।
बिन सतगुरु नहि बाँचिहौ समुझ देख मतिमन्द॥सुघर॥
सुफल होत यह देह नेह सतगुरु से कीजै।
मुक्ती मारग जानि चरन सतगुरु चित्त दीजे॥
नाम गहौ निरभय रहौ तनिक न व्यापै पीर।
यह लीला है मुक्ति की गावत दास कबीर॥सुघर १७९॥

जाग पियारी अब का सोवै।
रैन गई दिन काहे को खोवै॥
जिन जागा तिन मानिक पाया।
तैं बौरी सब सोय गँवाया॥
पिय तेरे चतुर तू मूरख नारी।
कबहुँ न पिय की सेज सँवारी॥
हौं बौरी बौरापन कीन्हो।
भर जोबन अपना नहिं चीन्हों॥
जाग देख पिय सेज न तेरे।
तोहि छाड़ि उठि गये सबेरे॥
कहै कबीर सोई धन जागै।
सबद बान उर अन्तर लागै॥१८०॥
या जग अंधा में केहि समुझावों॥टेक॥:
इक दुइ होयँ उन्हैं समझावों
सबहि भुलाना पेट के धन्धा॥मैं के हि॰॥
पानी कै घोड़ा पवन असवरवा
ढरकि परे जस ओस कै बुन्दा॥मैं के हि॰॥
गहिरी नदिया अगम बहै धरवा
खेवन हाराके पड़िगा फन्दा॥मैं के हि॰॥
घर की बस्तु निकट नहिं आवत
दियना बारिके ढूँढत अंधा॥मैं के हि॰॥
लागी आग सकल बन जरिगा
बिन गुरु ज्ञान भटकिगा बन्दा॥मैं के हि॰॥
कहै कबीर सुनो भाई साधो
इक दिन जाय लँगोटी झार बन्दा॥मैं के हि॰॥१८१॥

सूर संग्राम को देखि भागै नहीं,
देखि भागै सोई सूर नाहीं।
काम औ क्रोध मद लोभ से जूझना,
मँडा घमसान तहँ खेत माहीं॥
सील औ साच संतोष साही भये,
नाम समसेर तहँ खूब बाजै।
कहै कब्बीर कोइ जूझि है सूरमा,
कायराँ भीड़ तहँ तुरंत भाजै॥१८२॥
ज्ञान का गेंद कर सुरति का दंड
कर खेल चौगान मैदान माहीं।
जगत का भरमना छोड़दे बालके
आयजा भेख भगवंत पाहीं॥
भेष भगवंत की सेस महिमा करै
सेस के सीस पर चरन डारै।
कामदल जीतिके कँवल दल सोधिके
ब्रह्म को बेधि कै क्रोध मारे॥
पदम आसन करै पवन परिचै करै
गगन के महल पर मदन जारै।
कहत कब्बीर कोई संत जन जौहरी
करम की रेख पर मेख मारै॥१८३॥

माया महा ठगिनि हम जानी।

तिरगुन फाँस लिये कर डोलै बोलै मधुरी बानी॥
केशव के कमला ह्वै बैठी शिव के भवन भवानी।
पंडा के मूरत ह्वै बैठी तीरथ में भई पानी॥

योगी के योगिन ह्वै बैठी राजा के घर रानी।
काहू के हीरा ह्वै बैठी काहू के कौड़ी कानी॥
भक्तन के भक्तिनि ह्वै बैठी ब्रह्मा के ब्रह्मानी।
कहै कबीर सुनों है। सन्तों यह सब अकथ कहानी॥१८४॥

पायो सत नाम गरे कै हरवा।

साँकर खटोलना रहनि हमारी दुबरे दुबरे पाँच कहरवा।
ताला कुंजी हमैं गुरु दीन्ही जब चाहों तब खोलों किवरवा॥
प्रेम प्रीति की चुनरी हमारी जब चाहीँ तब नाचौं सहरवा।
कहै कबीर सुनो भाई साधो बहुर न ऐबै एही नगरवा॥१८५॥

कैसे दिन कटिहै जतन बताये जइयो॥
एहि पार गंगा वोहि पार यमुना
बिचवा मड्ड्या हम को छवाये जइयो॥
अँचरा फारि के कागद बनाइन
अपनी सुरतिया हियरे लिखाये जइयो॥
कहत कबीर सुनो भाई साधो
बहियाँ पकरि के रहिया बताये जइयो॥१८६॥

करम गति टारे नाहि टरी।

मुनि बसिष्ट से पण्डित ज्ञानी सोध के लगन घरी।
सीता हरन मरन दसरथ को बन में विपति परी॥
कहँ वह फंद कहाँ वह पारधि कहँ वह मिरग चरी।
सीता को हरि लैगो रावन सुबरन लंक जरी॥
नीच हाथ हरिचन्द्र बिकाने बलि पाताल धरी।
कोटि गाय नित पुन्न करत नूग गिरिगिट जानि परी॥
पांडव जिनके आपु सारथी तिन पर विपति परी।
दुरजोधन को गरब पटायो जदुकुल नास करी।

राहु केतु औ भानु चन्द्रमा विधि संजोग परी।
कहत कबीर सुनो भाई साधो होनी होके रही॥१८७॥

संतो राह दोऊ हम डीठा।

हिन्दू तुरुक हटा नहिं मानै स्वाद सबन को मीठा॥
हिन्दू वरत एकाद‌सि साधै दूध सिघाड़ा सेती।
अन को त्यागै मन नहि हटकै पारन करै सगोती॥
रोजा तुरुक नमाज गुजारै बिसमिल बाँग पुकारै।
उनकी भिस्त कहाँ ते होई है साँझे मुरगी मारै॥
हिन्दू दया मेहर को सुरकन दोनों घट सों त्यागी।
वै हलाल वै झटका मारैं आगि दुनों घर लागी॥
हिन्दू तुरुक की एक राह है सदगुरु इहै बताई।
कहैं कबीर सुनो हो सन्तो राम न कहेउ खोदाई॥१८८॥

अरे इन दोउन राह न पाई।

हिन्दू अपनी करै बड़ाई गागर छुवन न देई
वेस्या के पायन तर सोवैं यह देखो हिँदुआई॥
मुसलमान के पीर औलिया मुरगी मुरगा खाई।
खाला केरी बेटी व्याहै घरहि में करैं सगाई॥
बाहर से एक मुरदा लाये धोय धाय चढ़वाई।
सब सखियाँ मिल जेवन बैठीं घरभर करै बड़ाई॥
हिन्दुन की हिन्दुआई देखी तुरकन की तुरकाई।
कहूँ कबीर सुनों भाई साधो कौन राह ह्वै जाई॥१८९॥

मन न रंगाये रंगाये जोगी कपरा।

आसन मारि मँदिर में बैठे
नाम छाड़ि पूजन लागे पथरा॥
कनधा फड़ाय जोगी जटवा बढ़ौलैं
दाढ़ी बढ़ाय जागी होइ गैलें बकरा॥

जङ्गल जाय जोगी धुनिया रमौलैं
काम जराय जोगी बनि गैलें हिजरा॥
मथवा मुड़ाय जोगी कपड़ा रंगौलें
गीता बाँचि कै होइ गैलैं लवरा॥
कहत कबीर सुनो भाई साधो
जम दरवजवाँ बाँधल जैवे पकरा॥१९०॥
रमैया की दुलहिन लूटा बजार।
सुरपुर लूट नागपुर लूटा तीन लोक मच हाहाकार।
ब्रह्मा लूटे महादेव लूटे नारद मुनि के परी पिछारे॥
स्त्रिंगी की मिंगी करि डारी पारासर कै उदर बिदार।
कनफूँका का चिरकासी लूटे लूटे जोगेसर करत विचार॥
हम तो बचिगे साहब दया से शब्द डोर गहि उतरे पार।
कहत कबीर सुनो भाई साधो इस ठगनी से रहो हुसियार॥१९१॥