कवितावली
तुलसीदास, संपादक चंपाराम मिश्र

इलाहाबाद: के. मिश्र, द इंडियन प्रेस लिमिटेड, पृष्ठ ५८

 
आरण्यकाण्ड
सवैया
[५१]

पंचवटी बर पर्नकुटी तर बैठे हैं राम सुभाय सुहाये।
सोहै प्रिया,प्रिय बंधु लसै,तुलसी सब अंग घने छबि छाये॥
देखि मृगा मृगनैनी कहै प्रिय बैन, ते प्रीतम के मन भाये।
हेम कुरंग के संग सरासन सायक लै रघुनायक धाये॥

अर्थ—सुन्दर पंचवटी में पत्तों की बनी कुटिया के भीतर स्वाभाविक तौर पर सुन्दर श्रीराम बैठे हैं। (वहीं पर) सीताजी व प्यारे भाई भी शोभायमान हैं। हे तुलसी! सबके शरीर में अथवा उनके सब अंगों में बड़ी छबि छाई हुई है। मृग को देखकर मृग के से नेत्रवाली (सीताजी) ने प्रीतम के मन को भानेवाले प्यारे वचन कहे और सोने के मृग के पीछे धनुष बाण लेकर श्रीरामचन्द्रजी चल दिये।

शब्दार्थ—हेम= सोना

कुरंग= मृग, हिरन।


इति आरण्यकाण्ड


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