कवितावली
तुलसीदास, संपादक चंपाराम मिश्र

इलाहाबाद: के. मिश्र, द इंडियन प्रेस लिमिटेड, पृष्ठ ४२ से – ५७ तक

 

 

अयोध्याकाण्ड
सवैया
[२३]

कीर के कागर ज्यौं नृप चीर विभूषन, उप्पम अंगनि पाई।
औध[] तजी मगबास[] के रूख ज्यौं पंथ के साथी ज्यौं लोग लुगाई॥
संग सुबंधु, पुनीत प्रिया मानो धर्म क्रिया धरि देह सुहाई।
राजिवलोचन राम चले तजि बाप को राज बटाऊ की नाई॥

अर्थ—रामचन्द्रजी के अंगों ने राजसी वस्त्र और आभूषणों को त्यागकर (छोड़कर) ऐसी शोभा पाई जैसे पंख गिराकर सुआ—अथवा केंचुल छोड़कर साँप। अवध को मगध के वृक्ष अर्थात् अरण्ड की तरह अथवा मग (रास्ते) में बाँस की तरह अथवा रास्ते के वास (ठहरने की जगह) की भाँति रामचन्द्रजी ने छोड़ दिया और उन स्त्री-पुरुषों को भी, जो रास्ते में साथ हो लिये थे, छोड़ दिया अथवा राह के संगियों की भाँति अयोध्यावासियों को छोड़ दिया। प्यारे भाई और स्त्री को साथ लिया। तब उनकी ऐसी शोभा हुई मानो धर्म और क्रिया देह धरकर शोभायमान हुए हैं। कमल के से नेत्रवाले रामचन्द्रजी बाप के राज्य को पथिक की तरह छोड़कर चल दिये।

शब्दार्थ—कीर=सुआ, सांप। कागर= रङ्गीन पर, केंचुलि। उप्पम=उपमा। बटाऊ=बटोही, रास्तागीर।

[२४]

कागर-कीर ज्यों भूषन चीर सरीर लस्यो तजि नीर ज्यौं काई।
मातु पिता प्रिय लोग सबै सनमानि सुभाय सनेह सगाई॥
संग सुभामिनि भाइ भलो, दिन द्वै जनु औध हुते पहुनाई।
राजिवलोचन राम चले तजि बाप को राज बटाऊ की नाई॥

अर्थ—आभूषण और वस्त्रों को त्यागकर राम का शरीर ऐसा शोभायमान हुआ जैसे पंख छोड़कर सुवा अथवा केंचुल छोड़कर साँप, और काई छोड़कर जल। माता, पिता और प्यारे लोग, सबको सहज प्रोनि और सगाई ( रिश्तेदारी आपसदारी ) से आदर करके छोड़ दिया। स्त्री और अच्छे भाई को साथ लेकर अवध में दो दिन की सी मंहमानी खाकर श्रीरामचन्द्रजी, जिनक कमल के से नेत्र हैं, बाप के राज्य को पथिक की तरह छोड़कर चल दिये।

शब्दार्थ―लम्यो = शोभावमान हुआ। पहुनाई = महमानधारी। हुतं = थे।

घनाक्षरी

[ २५ ]

सिथिल सनेह कहै कौसिला सुमित्राजू सों,
मैं न लखी सौति; साखी! भगिनी ज्यौं सेई है।
कहैं मोहि मैया; कहौं "मैं न मैया, भरत की
बलैया लैहौं, भैया! तेरी मैया कैकेई है"॥
तुलसी सरल भाय रघुराय माय मानी,
काय मन वानी हूँ न जानी कै मतेई है।
बाम विधि मेरो सुग्ध सिरिससुमन सम,
ताको छल-छुरी कोह*-कुलिस लै टेई है॥

अर्थ―प्रीति से शिथिल हुई कौशल्याजी सुमित्राजी से कहती हैं कि मैंने कैकेयी को सौति की तरह नहीं माना, बल्कि हे सखी! बहिन की तरह उसकी सेवा की है। जब मुझसे रामजी मैया कहते थे तो मैं कहती थी कि मैं तुम्हारी माँ नहीं हूँ, भरत की माँ हूँ, तेरी बलैया लूँगी, भैया! तेरी मैया कैकेयी है। हे तुलसी, रामचन्द्र ने स्वाभाविक तौर पर उसे माँ समझा और तन मन वाणी किसी तरह से न जाना कि मता (सलाह) यह है अथवा यह न जाना कि कैकेयी विमाता है (दूसरी माँ) है। मेरा ब्रह्मा ही टेढ़ा है कि जिसने मेरे सिरस के फूल के से कोमल सुख के लिये छल की छुरी को वज्र (पत्थर) पर तेज़ किया अथवा छल छुरी को क्रोध के पत्थर पर तेज़ किया।

शब्दार्थ―कै मतगी = की+मतेथी = कि+मता+ई = कि मता यह है अथवा कि+मतेयी = कि+विमाता। टेई = तेज किया।


  • पाठान्तर―को।

[ २६ ]

"कीजै कहा, जीजीजू!" सुमित्रा परि पाँय कहै
"तुलसी सहावै बिधि सोई सहियतु है।
रावरो सुभाव राम-जन्म ही तें जानियत,
भरत की मातु को कि ऐसा चहियतु है?
जाई राजघर, ब्याहि आई राजधर माहँ,
राजपूत पाये हूँ न सुख लहियतु है।
देह सुधागेह ताहि मृगहू मलीन कियो,
ताहु पर बाहु बिनु राहु गहियतु है॥"

अर्थ―सुमित्रा ने पाँव पकड़कर कहा कि हे जीजी! क्या किया जावे, जो ब्रह्मा सहाता है वह सब सहना पड़ता है। आपके सुभाय को रामचन्द्रजी के जन्म ही से जानती हूँ परन्तु कैकेयी की करनी पर शोच आता है कि राजा के घर उत्पन्न हुई, राजा को व्याही आई और राजा का सा पुत्र पाकर भी उसे सुख नहीं मिला, चन्द्रमा अमृत का घर है उसे मृग ने मलिन किया और उस पर भी बिना वाहु वाला राहु उसे ग्रसता है अर्थात् वदन तो उसका चंद्रमा का सा सुंदर है परंतु हृदय चंद्रमा के मृग की भाँति काला है, उस पर भी अब ईर्षा रूपी राहु उसे ग्रसना चाहता है।

शब्दार्थ―सुधागेह = चंद्रमा।

सवैया

[ २७ ]

नाम अजामिल से खलकोटि अपार* नदी भव बूड़त काढ़े।
जो सुमिरे गिरि-मेरु सिलाकन, होत अजाखुर बारिधि बाड़े॥
तुलसी जेहि के पदपंकज तें प्रगटी तटिनी जो हरै अघ गाढ़े।
सो प्रभु स्वै सरिता तरिबे कहँ माँगत नाव करारे ह्वै ठाढ़े॥

अर्थ―जिसके नाम ने अजामिल ऐसे करोड़ों पापियों को संसार रूपी अपार नदी में से डूबते हुए निकाल लिया, जिसके सुमिरने से मेरु (पर्वत) कम हो जाता है


  • पाठान्सर―जासु के नाम अजामिल से खल कोटि।

अथवा कण मेरु सम हो जाता है और समुद्र बकरी के खुर के निशान सम हो जाता है अथवा अजाखुर बढ़कर समुद्र हो जाता है; है तुलसी! जिसके कमल रूपों पैरों से ऐसी नदी (गङ्गा) उत्पन्न हुई है जो गाढ़े पापों को हरती है, वे ही प्रमु स्वयं नदी के पार करने को कगर पर ग्बड़े नाव माँग रहे हैं।

शब्दार्थ―अजाखुर = अजा (बकरी)+खुर, खुर से जो छोटा सा निशान भट्टी पर बन जाता है। तटिनी = नदी। स्वै = स्वयं।

[ २८ ]

एहि घाट तेँ थोरिक दरि अहै कटिलौं जलथाह देखाइहौं जू।
परसे पगधूरि तरै* तरनी, घरनी घर क्यों समुभाइहौं जू?॥
तुलसी अवलंब न और कछू, लरिका केहि भाँति जिनाइहौं जू।
वरु मारिये मोहिं, विना पग धोये हैं। नाथ न नाव चढ़ाइहौं जू॥

अर्थ―केवट कहता है कि इस घाट से थोड़ी ही दूर पर कमर तक पानी है; वह स्थल मैं आपको बतला दूँगा। आपके पैरों की धूल छू जाने से नाव तर जायगी (अहिल्या की तरह), फिर मैं घर जाकर स्त्री को क्या समझाऊँगा! मुझे और कुछ आधार नहीं है, फिर लड़कों को किस तरह जिलाऊँगा? चाहे मुझे मार क्यों न डालिए, बिना पैर धोये नाव पर नहीं चढ़ाऊँगा।

शब्दार्थ―तरनी = नाव। घरनी = स्त्री। बरु = चाहे।

[ २९ ]

रावरे दोष न पायँन को, पगधूरि को भूरि प्रभाउ महा है।
पाहन तें बन-बाहन काठ को कोमल है, जल खाइ रहा है॥
पावन पायँ पखारि के नाव चढ़ाइहौं, आयसु होत कहा है?।
तुलसी सुनि केवट के वर बैन हँसे प्रभु जानकी ओर हहा है॥

अर्थ―न तो आपका दोष है और न आपके पैरों का। पैरों की धूल का ही बड़ा महत्त्व है। यह जल में चलनेवाली लकड़ी की नाव पत्थर की अपेक्षा कोमल है। तिस पर भी पानी उसे खा गया है अर्थात् जीर्ण हो गई है। पवित्र पैरों को धोकर नाव


  • पाठान्तर―तवै। पर चढ़ाऊँगा। क्या आज्ञा होती है? हे तुलसी! केवट के सुन्दर वचन सुनकर रामचन्द्रजी सीताजी की और देखकर हँसे।

शब्दार्थ―रावरे = आपका। भूरि = बड़ा। पाहन = पत्थर। बन-बाहन = पानी की सवारी, नाव। हँसे हहा है = जोर से हँसे।

घनाक्षरी

[ ३० ]

पात भरी सहरी*, सकल सुत बारे बारे,
केवट की जाति कछु बेद ना† पढ़ाइहौं।
सब परिवार मेरो याही लागि, राजाजू!
हौं दीन बित्तहीन कैसे दूसरी गढ़ाइहौं?॥
गौतम की घरनी ज्यों तरनी तरैगी मेरी,
प्रभु सों निषाद ह्वैकै बाद न बढ़ाइहौं।
तुलसी के ईस राम रावरे सों‡ साँची कहौं,
बिना पग धोये नाथ नाव न चढ़ाइहौं॥

अर्थ― पत्ते में भरी मछली के से मेरे सब लड़के छोटे छोटे हैं, [रिघुनाथदासजी ने यह अर्थ भी किया है,―पाँति भारी सहित हूँ अर्थात् मेरा कुटुंब बड़ा है, अथवा पात (पाप) भारी है, बड़ा पापी हूँ और सब लड़के बारे-बारे बाल बुद्धिवाले, अज्ञानी हैं।] मैं जाति का केवट हूँ, उन्हें कुछ वेद तो न पढ़ा दूँगा (जिससे कुछ कमा खा लें)। हे राजाजी, इसी से सब कुटुम्ब लगा है और मैं दीन दरिद्री हूँ, दूसरी नाव कैसे बनवाऊँगा। गौतम की स्त्री अहिल्या की तरह मेरी नाव भी तर जायगी। आपसे निषाद होकर बात क्या बढ़ाऊँ (क्या हुज्जत करूँ), परन्तु हे तुलसीदास के प्रभु! आपसे मैं सच कहता हूँ अथवा 'सौ' पाठ से आपकी कसम खाता हूँ कि बिना पैर धोये नाव पर नहीं चढ़ाऊँगा।

शब्दार्थ―सहरी = मछली। निषाद = केवट।



*पाठान्तर―सहरि।
†पाठान्तर―न।


‡पाठातर―सौं।

[३१]


जिनको पुनीत बारि, धारे सिर पै पुरारि,
त्रिपथगामिनि-जसु बेद कहै गाइ कै।
जिनको जोगींद्र मुनिबृंद देव देह भरि
करत विराग जप जोग मन लाइ कै॥
तुलसी जिनकी धूरि परसि अहल्या तरी,
गौतम सिधारे गृह गौनो सो लिवाइ कै।
तेई पायँ पाइकै चढ़ाइ नाव धोये विनु
ख्वैहौं न पठावनी कै ह्वैहों न हँसाइ कै?॥

अर्थ—जिन (चरणों) का पवित्र जल (चरणोदक) ऐसी गंगा के रूप में महादेवजी शिर पर रखते हैं, कि जिनका तीनों लोकों को पवित्र करने के लिए बहने का यश वेद भी गाते हैं जिन चरणों के दर्शन के लिए बड़े बड़े योगी, मुनि और देवता जन्म भर वैराग्य, यज्ञ और योग मन लगाकर करते हैं, हे तुलसीदास, जिन चरणों की धूल छूकर अहिल्या तर गई और गौतम (उसके प्रति) गौना सा लिवा घर चले गये, उन चरणों को पाकर विना धोये नाव पर चढ़ाकर अपनी मज़दूरी न खोऊँगा और न अपनी हँसी कराऊँगा। शब्दार्थ—बारि= जल। त्रिपथगामिनी= तीनों लोकों में बहनेवाली, गंगा। देह भरि= जन्म भर। पठावनी= मज़दूरी, नाव।

[३२]


प्रभुरुख पाइकै बोलाइ बाल घरनिहिँ ,
बंदि कै चरन चहूँ दिसि बैठे घेरि घेरि।
छोटो सो कठौता भरि आनि पानी गंगाजू को,
धोइ पाँँय पीयत पुनीत बारि फेरि फेरि॥
तुलसी सराहैं ताको भाग सानुराग सुर,
बरषैं सुमन जय जय कहैं टेरि टेरि।

बिबुध-सनेह-सानी बानी असयानी सुनी,
हँसे राघौ* जानकी लषन तन हेरि हेरि॥

अर्थ―प्रभु की निगाह पाकर स्त्री और बालकों को (केवट ने) बुला लिया। वे लोग पैरों में पड़ने और बंदना करने के बाद चारों ओर घेरकर बैठ गये। छोटे से कठौता में गङ्गाजी का पानी भर लाये और पैर धोकर उस पवित्र जल (चरणोदक) को बार बार पीने लगे। तुलसीदास कहते हैं कि देवता लोग प्रसन्न होकर उनके भाग्य को सराहने लगे और फूलों की वर्षा करने लगे और टेरटेरकर 'जय, जय' पुकारने लगे। सनेह से भरी और असयानी (चालाकी से ख़ाली, सीधी) बात सुनकर देवता हँसे; [अथवा देवताओं की सनेहमरी सीधी बात सुनकर] रामचन्द्रजी भी, लक्ष्मण और सीताजी की ओर देखकर, हँसने लगे।

शब्दार्थ―घरवि = स्त्री।

सवैया

[ ३३ ]

पुर तें निकसी रघुवीर-बधू, धरि धीर दये मग में डग द्वै।
झलकीं भरि भाल कनी जल की, पुट सूखि गये मधुराभर वै॥
फिरि बूझति हैं "चलना अब केतिक, पर्ण-कुटी करिहौ कित ह्वै?।
तिय की लखि धातुरता पिय की अँखियाँ अति चारु चली जल च्वै॥

अर्थ―सीताजी ने गाँव से निकलकर ज्योंही दो पैर रक्खे कि माथे पर पसीना आ गया और मधुर ओठ कपड़े की भाँति सूख गये। फिर पूछने लगीं कि हे प्यारे! कितनी दूर चलना है, पर्णकुटी कहाँ पहुँचकर बनाओगे? स्त्री (श्री जानकीजी) की व्याकुलता को देखकर रामचन्द्रजी की बहुत सुंदर, आँखों से आँसू बहने लगे।

शब्दार्थ―च्वै = चूना, टपकना, बहना। डग = कदम। कनी = बूँदें। मधुराधर = मधुर ( मीठे, कोमल ) ओठ। वै = दोनों।

[ ३४ ]

"जल कों गये लक्खन, हैं लरिका, परिखौ, पिय! छाँह घरीक ह्वै ठाढ़े।
पाँछि पसेउ बयारि करौं, अरु पायँ पखारिहौं भूभुरि ढाढ़े॥"
तुलसी रघुबीर प्रिया-स्त्रम जानिकै बैठि बिलंब लौं कंटक काढ़े।
जानकी नाह को नेह लख्यो, पुलको तनु, बारि बिलोचन बाढ़े॥


*पाठांतर―राम। अर्थ―लक्ष्मणजी पानी लेने गये हैं, अभी लड़के हैं, हे प्यारे! छाँह में खड़े होकर घड़ी भर उनकी राह देख लो। आपका पसीना पोंछकर हवा कर दूँ और इस बालू में भुने पैरों को धो दूँ। हे तुलसी! सीताजी को थकी जानकर रामचन्द्र ने बड़ी देर तक बैठकर पैर के काँटे निकाले। सीताजी ने रामचन्द्रजी का प्रेम देखा, उनका शरीर पुलकित हो गया और आँखों में आँसू भर आये।

शब्दार्थ―पसेउ = पसीना। भूभुरि ढाढ़े = गरम मिट्टी से जले हुए।

[ ३५ ]

ठाढ़े हैं नौ* द्रुम डार गहैं, धनु काँधे धरे, कर शायक लै।
बिकटी भ्रकुटी बड़री अँखियाँ, अनमोल कपोलन की छवि है॥
तुलसी असि† मूरति आनि हिये जड़ डारिहौं‡ प्रान निछावर कै।
स्त्रम सीकर साँवरि देह लसै मनो रासि महातम तारक मै॥

अर्थ―(रामचन्द्र) नवीन वृक्ष की डार पकड़े और कन्धे पर धनुष धरे हाथ में बाण लिये खड़े हैं। टेढ़ो भौहें किये हैं। बड़ी बड़ी आँखें हैं और गालों की शोभा अनमोल है (जिसका कुछ मोल नहीं)। तुलसीदास कहते हैं कि ऐसी मूर्ति को हृदय में लाकर जड़ प्राणों को उन पर निछावर कर दूँगा, अथवा तुलसीदासजी (अपने आपसे) कहते हैं कि ऐसी मूर्ति को हृदय में ला, हे मूर्ख! इस पर प्राण निछावर कर डाल। परिश्रम से निकले पसीने के बिन्दुओं से भरी साँवली देह ऐसी शोभायमान है जैसे तारों भरी बड़ी अँधेरी रात।

शब्दार्थ―नौ = नव, नया। द्रुम = पेड़। विकटी = टेढ़ी। बड़री = बड़ी। स्रम सीकर = परिश्रम से निकले पसीने की बूदें। तारक = सारे। मै = मय = के साथ (उर्दू शब्द)।

घनाक्षरी

[ ३६ ]

जलजनयन, जलजानन, जटा हैं सिर,
जोबन उमंग अंग उदित उदार हैं।



*पाठांतर―नव।
†पाठांतर―अस।


‡पाठांतर―डारु धौं।


साँवरे गोरे के बीच भामिनी सुदामिनी सी,
मुनि पट धरे, उर फूलनि के हार हैं॥
करनि शरासन सिलीमुख, निषंग कटि,
अतिही अनूप काहू भूप के कुमार हैं।
तुलसी बिलोकि कै तिलोक के तिलक तीनि,
रहे नर-नारि ज्यों चितेरे चित्रसार हैं॥

अर्थ—कमल से नेत्र हैं, कमल अथवा चन्द्रमा सा मुख है, शिर पर जटा है, यौवन को उमङ्ग के सब अङ्ग शरीर पर उदय हुए हैं अर्थात् निकल रहे हैं, अथवा यौवन की उमङ्ग के उदय से सब अङ्ग उदार हैं अर्थात् चमक रहे हैं। साँवरे (राम) और गोरे (लक्ष्मण) के बीच में एक स्त्री बिजली सी है। मुनियों के से कपड़े और फूलों के हार पहने (शोभायमान) है। हाथों में धनुष बाण, कटि पर तरकस लिये बड़े सुन्दर किसी राजा के लड़के हैं। तुलसीदास तीनों लोकों के तिलक तीनों को देखकर नर और नारी चित्रसारी के चित्र के से देखते रह गये अर्थात् अचल हो रहे।

शब्दार्थ—उदार= बड़े। भामिनी= स्त्री। सुदामिनी= बिजली। शिलीमुख= बाण। चितेरे= तस्वीर में खिंचे। चित्रसार= चित्रशाला।

[३७]


आगे सोहै साँवरो कुँवर, गोरो पाछे पाछे,
आछे मुनि-वेष धरे लाजत अनंग हैं।
बान बिसिषासन, बसन बन ही के कटि
कसे हैं बनाइ, नीके राजत निषंग हैं॥
साथ निसि-नाथ-मुखी पाथनाथ-नन्दिनी सी,
तुलसी बिलोके चित्त लाइ लेत संग हैं।
आँनद उमंग मन, यौवन उमंग तन,
रूप की उमंग उमगत अंग अंग हैं॥

अर्थ―आगे आगे साँवले कुँवर शोभा पा रहे हैं और गोरे कुँवर पीछे हैं। दोनों मुनियों का-सा सुन्दर रूप धारण किये कामदेव को भी लजा रहे हैं। बाण, धनुष, और वस्त्र वन के ही बने धारण किये हैं और कटि पर अच्छे तरकस कसे हैं, जो अति शोभा पा रहे हैं। साथ में चन्द्र-बदनी सीता लक्ष्मी सी रास्ते में चली जाती हैं। हे तुलसी! देखते ही मन अपने सङ्ग में लगा लेते हैं। मन में आनन्द की उमङ्ग, शरीर में यौवन की उमङ्ग, और रूप की उमङ्ग अङ्ग-अङ्ग में उमड़ रही है।

शब्दार्थ―बिसिषासन = धनुष। निशिनाथ = चन्द्रमा। पाथनाथ-नंदिनी = पाथ (जल)। नाथ = पाधनाथ (समुद्र)+नंदिनी = कन्या, अर्थात् लक्ष्मी।

[ ३८ ]

सुंदर बदन, सरसीरुह सुहाये नैन,
मंजुल प्रसून माथे मुकुट जटनि* के।
अंसनि सरासन लसत, सुचि कर सर,
तून कटि, मुनिपट लूटक-पटनि† के॥
नारि सुकुमारि संग, जाके अंग उबटि कै
बिधि बिरचे बरूथ बिद्युत छटनि‡ के।
गोरे को बरन देखे सोनो न सलोनो लागै,
साँवरे बिलोके गर्व घटत घटनि§ के॥

अर्थ―सुन्दर मुख पर कमल से नयन शोभा पा रहे हैं और सिर की जटाओं के ऊपर सुन्दर फूलों के मुकुट हैं। कन्धे पर धनुष शोभायमान है और पवित्र हाथ में बाण और कमर पर तरकस है। मुनियों के से उनके कपड़े अन्य वस्त्रों की शोभा की लूट करनेवाले हैं। साथ में कोमल स्त्री है जिसके शरीर के उबटन से मानो ब्रह्मा ने बिजली की छटाओं के झुण्ड बनाये हैं। गोरे का रूप देखते सोना अच्छा नहीं लगता और साँवरे का रूप देखकर बादलों का घमण्ड भी दूर हो जाता है।

शब्दार्थ―अंसनि = कंधा। लूटक+पदनि = पटनि (वस्त्रों) की लूट+क (करनेवाले) अथवा लुट+कपट+वि कपटों की लूट करनेवाले अर्थात् खानेवाले। वरूथ = झुंड। विद्युत = बिजली। सलोना = नमकीन।



*पाठांतर―जटानि।
†पाठांतर―पटानि।
‡पाठांतर―छटानि।


§पाठांतर―घटानि।


बल्कल बसन, धनु बान पानि, तून कटि,
रूप के निधान, घन-दामिनी बरन हैं।
तुलसी सुतीय संग सहज सुहाये अंग,
नवल साँवल हू ते कोमल चरन हैं॥
औरै सो बसंत, औरै रति, औरै रतिपति,
मूरति बिलोके तन मन के हरन हैं।
तापस बेषै बनाइ, पथिक पथै सुहाइ,
चले लोक-लोचननि सुफल करन हैं॥

अर्थ—छाल के कपड़े पहने, धनुष-बाण हाथ में लिये, तरकस कमर पर रक्खे, रूप के घर, बादल और बिजली के से रूपवन्त हैं अर्थात् एक साँवले दूसरे गोरे हैं। हे तुलसी! सुन्दर स्त्री सङ्ग में है जिनका शरीर स्वाभाविक तौर पर शोभा पानेवाला है और चरण नये कमल से भी कोमल हैं। दूसरे वसन्त, दूसरे रति और कामदेव मालूम पड़ते हैं। सूरत देखते ही तन मन के हरनेवाले हैं। तपस्वियों का सा रूप बनाये पथिक बनकर मार्ग में शोभायमान हैं, मानो संसार के नेत्रों को सुफल करने चले हैं।

शब्दार्थ—तून= तरकस। दामिनी= बिजली। बरन= रंग।

सवैया
[४०]

बनिता बनी श्यामल गौर के बीच,बिलोकहु,री सखी!मोहिँ सी ह्वै।
मग जोग न, कोमल क्यों चलिहैं, सकुचात मही पद पंकज छवै॥
तुलसी सुनि ग्रामबधू बिथकी पुलकी तन औ चले लोचन च्चै।
सब भाँति मनोहर मोहन रूप, अनूप हैं भूप के बालक द्वै॥

अर्थ—साँवले और गोरे कुमारों के बीच में स्त्री (सीता) बनी (शोभायमान) हैं। हे सखी! मुझसी विह्वल होकर देखो (अथवा मोही मोहित सी होकर देखो अर्थात् देखते ही माहित हो)। मार्ग के योग्य ये नहीं हैं, अति कोमल हैं, ये क्योकर मार्ग चलेंगे? इनके कमल से पैरों को छूकर पृथ्वी शरमाई जाती है। तुलसीदास कहते हैं कि गाँवों की स्त्रियाँ सुनकर आश्चर्ययुक्त हुई, उनके शरीर पुलकायमान हो गये और आँखों से पानी बह निकला। दोनों राजकुमार सब तरह सुन्दर, मन को हरनेवाले और उपमा-रहित हैं।

शब्दार्थ―बिथकों = थकित, आश्चर्ययुक्त।

[ ४१ ]

साँवरे गोरे सलोने सुभाय, मनोहरता जित मैन लियो है।
बान* कमान निषंग कसे, सिर सोहैं जटा, मुनि बेष किया है॥
संग लिये बिधु-बैनी† वधू, रति को जेहि रंचक रूप दिया है।
पाँयन तो पनहां न, पयादेहि क्यों चलिहैं? सकुचात हियो है॥

अर्थ―साँवले और गोरे कुँवर स्वाभाविक ही सलोने (सुन्दर) हैं मानों मनोहरता (खूबसूरती) कामदेव से छीन ली (जीत ली) है, अथवा मनोहरता में कामदेव को जीत लिया है। धनुष बाण और तरकस लिये हैं। (अथवा बाल पाठ से) बालक हैं और कमान और तरकस लिये हैं। शिर पर जटा शोभायमान हैं और मुनियों का सा भेष बनाये हुए हैं। साथ में चन्द्रमा के से मुँहवाली स्त्री है जिसने अपने रूप में से रत्तो भर रति को भी दे दिया है। पैरों में तो पनहीं भी नहीं है, ये पैदल क्योंकर चलेंगे? यही सङ्कोच मेरे जी में है।

[ ४२ ]

रानो मैं जानी अजानी महा, पवि पाहन हूँ ते कठोर हियो है।
राजहु काज अकाजन जान्यो, कह्यो तिय को जिन कान किया है॥
ऐसी मनोहर मूरति ये, बिछुरे कैसे प्रीतम लोग जियो है?
आँखिन में सखि! राखिबे जोग, इन्हैं किमि के बनबास दियो है?

अर्थ―मेरी समझ में रानी (कैकेयी) महा बेवकूफ़ तथा वज्र और पत्थर से भी कठोर हृदयवाली है। राजा ने भी अपना नफ़ा नुक़सान नहीं जाना जिन्होंने स्त्री का कहना मान लिया। ऐसी सुन्दर मूरत के चले आने पर इनके



*पाठांतर―बाल।
†बैनी = बदनी, मुँहवाली, अथवा अमृत के से बोलवाली।
प्यारे कैसे जीते होंगे? हे सखी! ये तो आँखों में रखने लायक़ हैं, इनको वनवास क्योंकर दिया गया?

[ ४३ ]

सीस जटा, उर बाहु बिसाल, बिलोचन लाल, तिरीछीसी भौंहैं।
तून, सरासन, बान धरे, तुलसी बन-मारग में सुठि सोहैं॥
सादर बारहिं बार सुभाय चितै तुम त्यों* हमरो मन मोहैं।
पुँछति ग्रामवधू सिय सों "कही साँवरे से, सखि! रावरे को हैं"?॥

अर्थसिर पर जटा हैं, वक्षस्थल और बाहें बड़ी हैं, लाल नेत्र हैं, तिरछी सी भौहें हैं। धनुष बाण और तरकस धारण किये हुए हैं। हे तुलसी! वन के रास्ते में बहुत ही शोभा पा रहे हैं। आदरसहित बारम्बार स्वाभाविक तौर पर देखकर हमारा तुम्हारा सबका मन मोहते हैं अथवा तुम्हारी तरह हमारा भी मन मोह लेते हैं। गाँव की स्त्रियाँ सीताजी से पूछती हैं कि कहो यह साँवले से आपके कौन हैं।

[ ४४ ]

सुनि सुंदर बैन सुधारस-साने,† सयानी हैँ जानकी जानी भली।
तिरछे करि नैन दै सैन तिन्हैं समुझाइ कछु मुसुकाइ चली॥
तुलसी तेहि औसर सोहैं सबै अवलोकति लोचन-लाहु अली।
अनुराग-तड़ाग में भानु उदै बिगसीं मानो मंजुल कंज कली॥

अर्थअमृत के रस से पगी सुन्दर वाणी को सुनकर जानकी ने समझ लिया कि यह ग्रामवधु बड़ी सयानी (होशियार) है अथवा (जानकीजी जो बड़ी सयानी हैं) खूब समझ गई। आँखें तिरछी करके उन्हें संकेत देकर समझा दिया और कुछ हँसकर चल दी अथवा हँस सी दीं (अर्थात् आँखों में यह बता दिया कि यह हमारे पति हैं)। हे तुलसी! उस समय पर सब स्त्रियाँ उनको देखकर लोचनों का लाभ उठाने लगीं और ऐसी शोभा को प्राप्त हुई मानो प्रेम के तालाब में सूरज को उदय हुआ देखकर सुन्दर कमल की कलियाँ खिल गईं हों।



*पाठान्तर―तुम्हरी।
†पाठान्तर―सानि।

[४५]

धरि धीर कहैं "चलु देखिय जाइ जहाँ सजनी रजनी रहि हैं।
कहि है जग पोच, न सोच कछु, फल लोचन आपन तौ लहि हैं॥
सुख पाइ हैं कान सुने बतियाँ, कल आपस में कछु पै कहि हैं"।
तुलसी अति प्रेम लगी पलकैं, पुलकीं लखि राम हिये महि हैं॥

अर्थ―(सब) धीर धरकर कहती थीं कि चलो देखें कि ये रात को कहाँ रहेंगे। यदि संसार बुरा कहेगा तो कुछ शोच नहीं है। हम अपनी आँखों का लाभ तो पा लेंगी। इनकी बातों को सुनकर कानों को सुख होगा। आपस में तो कल कुछ कहेंगे अर्थात् यदि यह हमसे नहीं बोलते तो आपस में जो बातचीत करेंगे उसे ही सुनकर कानों को सुख होगा अथवा कानों को इनकी बात सुनकर सुख होगा और कल यानी भविष्य में कुछ कहने को (वर्णन करने को) तो होगा, ऐसी अद्भुत बातचीत का फिर ज़िकर करते रहेंगे अथवा बातें सुनकर कान कल और सुख पावेंगे अथवा कल (= शांति) भरी बातें सुनकर कान सुख पावेंगे। हे तुलसी! पलकें प्रेम से लग गईं (अर्थात् हिलती न थीं अथवा बंद हो गई) और सब रामचन्द्र को हृदय में देखकर पुलकायमान हुईं।

[ ४६ ]

पद कोमल, स्यामल गौर कलेवर, राजत कोटि मनोज लजाये।
कर बान सरासन, सीस जटा, सरसीसह लोचन सोन सुहाये॥
जिन देखे सखी! सत भायहु तें, तुलसी तिन तौ मन फेरिन*पाये।
यहि मारग आजु किसोर बधू विधुबैनी समेत सुभाय सिधाये॥

अर्थ―पैर कोमल हैं, साँवला गोरा शरीर करोड़ों कामदेवों को लजाकर शोभा पा रहा है। हाथ में धनुष बाण और सिर पर जटा हैं। कमलनयन सोना के से हैं अथवा लाल हैं। हे सखी! जिन्होंने सीधे-सीधे भी देखे हैं उन्होंने मन का ऋण चुका लिया अर्थात् जो कुछ पाना था पा लिया अथवा वे मन फेर न सकीं। इस रास्ते आज कुँवर विधुवैनी स्त्रीसमेत पधारे हैं।


  • पाठान्तर = के रिन।

[ ४७ ]

मुख पंकज, कंज बिलोचन मंजु, मनोज सरासन सी बनी भौंहैं।
कमनीय कलेवर, कोमल स्यामल गौर किसोर, जटा सिर सोहैं॥
तुलसी कटि तून, धरे धनु बान, अचानक दीठि परी तिरछोहैं।
केहि भाँति कहीं सजनी! तोहिं सों, मृदु मूरति द्वै निबसीं* मनमोहैं॥

अर्थ―कमल सा मुख, कमल से सुंदर नेत्र, सुन्दर भौहें मानो कामदेव के धनुष हैं। सुंदर शरीर है। साँवले गोरे बालक कोमल हैं; किशोर अवस्था है, सिर पर जटा शोभायमान हैं। हे तुलसी! कटि पर तरकस और धनुष बाण लिये हैं। इनकी तिरछी सी दृष्टि अचानक मुझ पर जा पड़ी। हे प्यारी! तुझसे क्या कहूँ, दोनों कोमल मूरतें मन को मोहती हुई बस गईं अथवा मेरे मन में बस गई हैं।

[ ४८ ]

प्रेम सों पीछे तिरीछे प्रियाहि चितै, चितु दै, चले लै चित चोरे।
स्याम सरीर पसेऊ लसै, हुलसै तुलसी छबि सो मन मोरे॥
लोचन लोल, चलैं भृकुटी कल काम-कमानहुँ सों तृन तोरे।
राजत राम कुरंग के संग निषंग कसे, धनु सों सर जोर॥

अर्थ―प्रेम से पीछे की ओर तिरछे नेत्रों से सीताजी को देखकर चित्त (अपना) देकर और सीता का चित्त लेकर चोरे (धीरे से) चले कि मृग भाग न जावे, अथवा चित्त को चुरानेवाले रामचन्द्रजी चले अथवा चित्त देकर चितचोर (मृग) को ले (सन्मुख करके) चले। साँवले शरीर पर पसीना चमकता था। हे तुलसी! मेरा मन वह छवि देखकर प्रसन्न हो गया। चञ्चल नयन हैं और चलायमान सुंदर भौंहैं मानो कामदेव की कमान से तिनका तोड़ती हैं अर्थात् उनको चुनौती देती हैं। रामचन्द्रजी मृग के साथ तरकस लिये और धनुष पर बाण चढ़ाये शोभायमान हैं।

[ ४९ ]

सर चारिक चारु बनाइ कसे कटि, पानि सरासन सायक लै।
बन खेलत राम फिरै मृगया, तुलसी छबि सो बरनै किमि के?॥


*पाठान्तर―निकसीं।


अवलोकि अलौकिक रूप मृगी मृग चौंकि चकैं चितवैं चित दै।
न डगैं, न भगैं, जिय जानि सिलीमुख पंच धरे रतिनायक है॥

अर्थ—चार सुन्दर बाण बनाकर कटि पर कसे हैं और हाथ में धनुष-बाण लेकर रामचन्द्र शिकार खेलते फिरते हैं। तुलसीदास उस रूप को क्योंकर वर्णन करै अलौकिक (संसार में न मिलनेवाले) रूप को देखकर मृगी और मृग चौंक उठते हैं और आश्चर्य से चित्त देकर (मोहित होकर) देखने लगते हैं, न हिलते हैं न भागते हैं, मन में यह समझकर कि पाँच बाण धरे कामदेव हैं।

[५०]

बिंध्य के बासी उदासी तपोब्रत-धारी महा बिनु नारि दुखारे।
गौतमतीय तरी, तुलसी, सो कथा सुनि भे मुनिबंद सुखारे॥
ह्वै हैं सिला सब चंद्रमुखी परसे पद-मंजुल-कंज तिहारे।
कीन्हीं भली रघुनायकजू करुना करि कानन को पगु धारे॥

अर्थ—विन्ध्याचल में रहनेवाले, परम उदासीन, बड़े तप और व्रत को धारण करनेवाले बिना स्त्री के दुखी थे। “गौतम की स्त्री तर गई”, हे तुलसी! यह कथा सुनकर, मुनियों के समूह सुखी हुए। तुम्हारे कमल के से पैर के छूने से सब पत्थर चन्द्रमुखी (स्त्री) हो जायेंगी और सबको बिना परिश्रम स्त्रियाँ मिल जायेंगी। हे रामचन्द्रजी! आपने भला किया जो कृपा करके वन में पैर रक्खा।


इति अयोध्याकाण्ड


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  1. पाठांतर—अवध।
  2. पाठांतर—बाँस।